GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 86 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
जादो उत्पन्न हैं । कर्ता रूप कौन उत्पन्न हैं ? अलोगलोगो लोकालोक दोनों उत्पन्न हैं । वे किससे उत्पन्न हैं ? जेसिं सब्भावदो य जिन धर्म-अधर्म से और स्वभाव से उत्पन्न हैं । मात्र लोकालोक दोनों ही उत्पन्न नहीं है; अपितु गमणठिदी गति और स्थिति ये दोनों भी हैं । ये दोनों कैसे हैं ? दोवि मया उन दोनों धर्म और अधर्म की सम्मति से, स्वीकृति से हैं । अथवा अभया पाठान्तर भी है, जिसका अर्थ है ये दोनों किसी ने भी बनाए नहीं हैं, अकृत हैं । विभत्ता विभक्त / भिन्न हैं; अविभत्ता अविभक्त / अभिन्न हैं, लोयमेत्ता य और लोकमात्र हैं ।
वह इसप्रकार -- लोक-अलोक का सद्भाव होने से धर्म-अधर्म हैं; षट्द्रव्यों के समूहात्मक लोक है, उससे बहिर्भूत शुद्ध / मात्र आकाश अलोक है । वहाँ लोक में गति और उस पूर्वक स्थिति को प्राप्त हुए, स्वीकार किए जीव-पुद्गलों के यदि बहिरंग हेतु-भूत धर्म-अधर्म न हों तो लोक से बहिर्भूत बाह्य भाग में भी गति किसके द्वारा रोकी जा सकती है ? किसी के द्वारा भी रोकी नहीं जा सकती है; इस लोक-अलोक के विभाग से ही धर्म-अधर्म की विद्यमानता ज्ञात होती है । वे दोनों किस विशेषता-वाले हैं ? भिन्न अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण निश्चय-नय से पृथक् भूत हैं, एक-क्षेत्रावगाही होने से असद्भूत व्यवहार-नय की अपेक्षा सिद्ध-समूह के समान अभिन्न हैं; सर्वदा ही नि:क्रिय होने से, लोक व्यापक होने से लोक-मात्र हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥९४॥