वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 327
From जैनकोष
तम्हा ण मेत्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं।परदव्वे जाणंतो जाणिज्जो दिट्ठिरहिदाणं।।327।।
लौकिक पुरूष और लोकश्रमणों के विपाक की समानता―इस कारण ज्ञानी जीव परद्रव्य मेरे हैं, ऐसा न जानकर अथवा परद्रव्य मेरे नहीं हैं ऐसा जानकर परस्पर में दोनों पुरूषों के लौकिक और एक श्रमण दोनों में देखो कैसा कर्तृत्व व्यवसाय चल रहा है, ऐसा जानते हुए वह जानता है कि ये दोनों सम्यग्दर्शन से रहित हैं। दो पुरूषों की बातें चल रही हैं―एक लौकिक जन और श्रमणजन। जो गृह त्याग कर अध्यात्मयोग के साधने के भाव से निर्ग्रंथ और निरारंभ हुए हैं, किंतु सिद्धांत के संबंध में यह आशय बना लिया है कि सुख दु:ख का पुण्य पाप सबका करने वाला यह मैं आत्मा ही हूँ। इन दोनों पुरूषों से जो अपराध हो रहा है उसे ये दोनों नहीं जान रहे हैं। उसे तीसरा ही समझ सकता है जो कि परमार्थवित् है। त्रुटिकर्ता के त्रुटि की असूझ―दो पुरूष आपस में लड़े तो वे दोनों यथार्थ गलती नहीं समझ सकते कि वास्तव में गलती किसकी है, किंतु तीसरा पुरूष जो पास से ही सब कुछ देख रहा है, वह समझता है कि इसमें गलती किसकी है। इसी तरह ये समस्त श्रमण और लौकिक जन भी होते हैं, फिर भी जिन्हें वस्तु का स्वच्छ स्वरूप नहीं दिखरहा है। यह मैं आत्मा स्वरसत: ज्ञायकस्वभावी हूँ। इस मुझ आत्मतत्त्व में किसी परभाव को कर्तृत्व का स्वभाव नहीं पड़ा है। शुद्ध जाननमात्र हूँ यह दृष्टि तो लौकिक पुरूषों में नहीं रही, क्योंकि उन्होंने तो अपना अस्तित्व ही खो दिया है। मेरे सब भावों का करने वाला प्रभु है, विष्णु है परमात्मा है, व्यापक कोई एक आत्मतत्त्व है। सो उस ओर ही दृष्टि हो गयी। और ये श्रमणजन भी स्वरसत: अपना घात कर लेते हैं। वे तो यह विश्वास लिए बैठे हैं कि मैं राग करने के स्वभाव वाला हूँ, राग करता हूँ। यों रागस्वभाव में तन्मय अपने को मानने वाला श्रमण भी दृष्टि रहित है।
अन्यथा कल्पना के क्लेश―भैया ! आनंद का उपाय जैसा कुछ तत्त्व है वैसा जान लेना इतना भर है। लोग दु:खी क्यों हैं ? है विनाशीक समागम और मानते हैं अविनाशी। सो विनाश होते समय उन्हें बड़ा क्लेश होता है। हैं वियोग होने वाली चीजें और मान रखा है कि इनका मुझसे वियोग न होगा, तो वियोग होते समय क्लेश होते हैं। गुरु जी सुनाते थे कि एक गणित के प्रोफेसर थे, सो उन्हें स्त्री से बड़ा अनुराग था। जगत में केवल उसे एक वही इष्टतम थी। सो स्त्रीबहुत समझायें कि तुम्हें इतना अनुराग न करना चाहिए, यदि हम मर जायेंगी तो तुम पागल हो जावोगे। न माना। स्त्री मर गयी और गणित के प्रोफेसर की क्या हालत हुई कि स्त्री की बहुत अच्छी फोटो बनवा ली थी। यह बनारस का जिकर है। बाईजी भी वहीं ठहरी हुई थीं और महाराज भी ठहरे थे। तो वह अपने कमरे में बैठा हुआ गणित का प्रोफेसर उसी फोटो से कहता है कि अब हमें भूख लग गयी है, अभी रोटी न बनावोगी। अरे अब बहुत दिन चढ़ आया है, नहा धोकर मंदिर जावो, कब रोटी बनावोगी ? ऐसी ही कई बातें उस प्रोफेसर ने उस फोटो से कहीं। तो बाईजी ने उसे बुलाया और कहा कि भाई तुम किससे यह सब कुछ कह रहे हो ? तुम तो अकेले ही इस कमरे में ठहरे हो। वह प्रोफेसर बोला कि हम अपनी स्त्री से कह रहे हैं। कहां है स्त्री ? फोटो दिखा दिया। यह है स्त्री। कहा कि यह तो फोटो है। इसमें कागज और स्याही है। तो प्रोफेसर कहता है कि माँ इतनी बात तो हम भी जानते हैं कि यह कागज और स्याही है, मगर वियोगजन्य वेदना इतनी तीव्र है कि बात किए बिना रहा नहीं जाता।
यथार्थज्ञान से क्लेश का अभाव―सो ये परद्रव्य वियुक्त होने वाले हैं। हम अभी से ऐसा मान लें कि इनका वियोग अवश्य होगा, इनमें हर्ष न करना चाहिए और न मानेंगे तो फिर दुर्दशा भोगों। एक सेठ थे, वह किसी अपराध में जेलखाने में चले गए। उन्हें वहां सी क्लास मिली, चक्की पीसने का काम मिला। घर में कभी चक्की पीसी हो तो संक्लेश न हो ज्यादा। मगर कभी चक्की न पीसी थी सो उसे चक्की पीसने में बड़ा क्लेश हुआ। न पीसे तो कोड़े लगें। बड़ा रईस आदमी था वह, सो उसके दु:ख को देखकर एक गरीब कैदी को दया आ गयी। तो सेठजी से वह गरीब कैदी पूछता है, क्यों रोते हो भाई ! तो वह बोलता है कि कहाँ तो हम गद्दी पर बैठते थे, तमाम नौकर चाकर लगे हुए थे, अब हमें ऐसा करना पड़ रहा है, तो वह कैदी समझाता है कि यह तो जेलखाना है, ससुराल नहीं है जो पकवान मिले और बढि़या पलंग मिले। सो अपना दिमाग ठिकाने ले आवो, घर की बातें दिमाग में न रखो। तुम यह जानो कि हम कैद में पड़े हुए हैं। सो ऐसा क्लेश करने का काम ही नहीं है। उसकी समझ में आ गया, लो दु:ख कम हो गया।
सीधा मार्ग―भैया ! यह सारा जगत् अपने सेअत्यंत भिन्न है। परपदार्थों का ध्यान करके कभी सुखशांति मिल ही नहीं सकती। किसी को बता दें। यदि श्रद्धान है तो शांति का मार्ग मिलेगा और वस्तुतत्त्व का श्रद्धान नहीं हैं तो भाई कितना ही कुछ वैभव बढ़ालो, जितना ही वैभव बढ़ेगा उतना ही अधिक समय आने पर क्लेश बढ़ेगा। यह मोही जीवों की बात कही जा रही है। इसलिए जैसा यथार्थ वस्तुस्वरूप है वैसा ही विश्वास करो। एक बात के विश्वास पर तो डट जावो। किसी क्षण तो अपने ज्ञानानंद ज्योतिस्वरूप के दर्शन करो। यदि ऐसा कर सके तो यह मार्ग आपको शांति प्रदान करेगा और बाहर में तृष्णा करना और उसमें ही लुब्ध रहना, यह तो लाभ न देगा। अपने आत्मतत्त्व का विश्वास कीजिए।
विश्वास का फल―दो भाई थे तो नौकरी करने चले। तो निकल गए 50, 60 कोस। जंगल में एक सांड मिला। छोटा भाई बोला कि भाई हम तो इस सांड की नौकरी करेंगे। वह साँड़ बड़ा सुंदर था। हष्ट पुष्ट था जिसका कंधा बड़ा ऊँचा था और सींगे बड़ी सुहावनी बनी हुई थीं। बोला कि हम तो इस सांड की ही नौकरी करेंगे। मेरा मालिक तो यह सांड ही है। बड़ा भाई बोला कि यह कितना मूर्ख बन रहा है? बहुत मनाया पर वह न माना। वह बोला कि अब तो यह साँड़ ही हमारा सब कुछ है। बड़ा भाई आगे चला गया। उसे समझो कि कोई 25) रू महीने की नौकरी मिल गयी, सो वह तो करे वहां नौकरी सेठ की । तो कभी यह छोड़ा, कभी वह छोड़ा, इस तरह से 11, 11।। महीने तक नौकरी की। छोटा भाई सांड की नौकरी करे। अच्छा तो हम तुम्हारी क्या सेवा करें ? हरी घास ले आवो, खूबसेवा करो। शरीर में खूब हाथ फेरों। इस तरह स्वयं ही बोल कर वह अपने सांड मालिक की नौकरी करे। सांड से वह कहता था कि क्या हमारी नौकरी मिलेगी ? तो वह सांड बेचारा क्या बोले, स्वयं ही बोले कि हाँ हाँ मिलेगी इस तरह उसने भी 11, 11।। महीने उसकी नौकरी की बाद में बड़ा भैया अपनी सब नौकरी लेकर लौटकर आया तो छोटे भैया से कहता है कि अब चलो तुम्हें कुछ नहीं मिला तो न सही, हमको जो मिला है उसमें से आधा दे देंगे। छोटा भाई बोला कि अभी नहीं चलेंगे, अभी साल भर में 15 दिन बाकी है। अभी 15 दिन और मालिक की सेवा करेंगे। सो 14 दिन और व्यतीत हो गए।
अब वह कहता है सांड से कि कल एक साल पूरा हो जायगा, अब हमारी नौकरी दोगे कि नहीं ? तो वह स्वयं कहता है कि हां कल मिलेगी। अब कैसा सुयोग हुआ, अंतिम दिन कि, बहुत से बंजारे बैलों पर कुछ लादे हुए लिए जारहे थे । नदी का किनारा था। बैल प्यासे थे। सोचा कि इन सब बैलों को पानी पीने भेज दें। बैलों पर लदी थी अशर्फियाँ। तो यह समझो कि वे बंजारे सड़क पर बैठ गए और बैलों को इशारा कर दिया कि जावो पी आवो पानी। सब क्रम-क्रम से आए। सांड उन बैलों की कोख में सींग गोंच दे। सींग के गोंच देने से लाद में छेद हो जाय और जैसा छेद हो जाय उसके अनुसार ही अशर्फियाँ गिर जाए। दूसरा बैल आये तो उसके भी लाद में सींग गोंच दे, छेद हो जाय तो 10-5 अशर्फियाँ गिर जायें। जो छोटा छेद हो उसमें दो चार अशर्फियाँ गिर जायें और किसी में से 10-20 गिर जायें। अब बैलों को लेकर बंजारे चले गए। छोटे छेद होने से उन्हें कुछ पता न पड़ा। अपने सांड मालिक से बोला कि अब हमें एक साल की नौकरी मिलेगी कि नहीं ? तो स्वयं ही बोला कि अरे यह नौकरी पड़ी तो है, यही तो है साल भर की नौकरी। इस तरह से 1 साल की नौकरी लेकर वह अपने घर आया। बड़े भाई ने देखा कि यह तो मालामाल हो गया है, हमें तो कुछ नहीं मिला।
मोहांधमग्नता का कारण―भैया ! अपन को ऐसा विश्वास हो कि मिलना होगा तो कहीं भी मिलेगा, न मिलना होगा तो कहीं भी न मिलेगा। ऐसे ही विश्वास कर लो कि मिलेगा आनंद तो आपको अपने आत्मा में ही मिलेगा और न मिलना होगा तो कहीं न मिलेगा। खूब पटक लो जान। जिस चाहे को अपना स्वामी बना लो, मालिक बनालो, सिर पर बैठा लो, जो चाहे कर लो, पर मिलेगा कुछ तो आपको अपने आत्मा में से ही मिलेगा। अन्य जगह से न मिलेगा। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में बसता है। ऐसा पदार्थ का स्वभाव नियत है। इसे जो नहीं मानते हैं वे मोह अज्ञान में डूब गए हैं, और इसलिए कायर होते हुए नाना प्रकार की अपनी चेष्टाएँ करते हैं।
यथार्थ ज्ञान के अभाव में यथार्थ सिद्धि का अभाव―भैया ! स्वभावविरूद्ध कर्मों को करने से वे भाव ही कर्म हैं ना, बनते हैं, और भाव कर्म का निमित्त पाकर द्रव्य कर्म बनते हैं, उनके उदय का निमित्त पाकर ये भाव कर्म होते हैं और इस लपेट में यह जीव जन्ममरण के दु:ख भोगता है। तो जीव यह स्वयं कर्ता बना है, दूसरा नहीं बना है, किंतु ऐसा कर्तापन अपने आपका स्वभाव मान लिया जाय तो यही अज्ञानी जीव हुआ। जो अपने भवितव्य का रागद्वेष सुख-दु:ख का कर्ता किसी परजीव या ईश्वर को मानता है वह भी अपने ज्ञानानंदनिधान ब्रह्मतेज में मग्न नहीं हो सकता और जो अपने आपको ही रागादिक करने का स्वभाव मानता है, मायने आत्मा कर्ता ही है, ऐसे आशय वाला भी अपने ब्रह्मतेज में मग्न नहीं हो सकता।
मोह का उपादान―भैया ! जिसका मोह का उपादान है, उसे परपदार्थों में भी आत्मीय बुद्धि लगी है। ऐसा व्यक्ति धर्म की भी जगह बैठा हो तो, किसी भी जगह पहुंच जाय तो, याद आयेगी वही कनक कामिनी की। एक गडरिये की लड़की थी। गड़रिये, जो बकरी पालते हैं। सो उस लड़की की शादी किसी तरह बादशाह से हो गयी। बादशाह ने पसंद किया, सो हो गयी। बादशाह के यहां लड़की पहुंची। उसे खूब गहनों से सज़ा दिया, अच्छे गहने अच्छे कपड़े पहिनाए और निवास के लिए एक बड़ा महल दे दिया। तो उसका जो बड़ा हाल था उसमें अनेक चित्र लगे थे, वीरों के, महाराजावों के, संतों के, भगवान के तो उनको देखने में वह लग गयी। तो देखती जाये। एक चित्र उसमें ऐसा था जिसमें दो बकरियां बड़ी सुंदर बनी थीं। उन्हें देखकर वह बोली टिक-टिक-टिक। बकरियों में रहने वाली मोड़ी बादशाह के घर पहुंच गई, पर वह अपना उपादान कहां फैंक दे? भले ही कपड़ों से सज़ा दिया, खूब गहने से सज़ा दिया पर वह करे क्या? तो स्वरूप के अज्ञानी परपदार्थों के मोही भले ही इनको दुपट्टा व मुकुटों से सजा दें, मुकुट पहिना दें, भले ही खूब अभिषेक करें, मगर उपादान मोह का है तो स्त्री की खबर कहां से भूला दें?
मोहियों के मन में उनके इष्ट का फोटो―जैसे कोई लोग एक भगवान की फोटो लिए रहते हैं, छाती पर बाँधे रहते हैं, कभी-कभी ऐसा करते हैं। तो उनका मतलब यह है कि मेरे ह्रदय में भगवान ही बसे रहें। इसीलिए वे भगवान की फोटो लगाए रहते हैं। वे ऊपर से तो लिए रहते हैं और यह अज्ञानी भीतर से लिए रहता है स्त्री को, पुत्र को, मकान को। सो जब तक मूल में सुधार नहीं होता, परवस्तुवों से भिन्न अपने आपका श्रद्धान नहीं होता तब तक इसे शांति नहीं प्राप्त हो सकती। कर्ता कौन है ? यह मैं चेतन ही गड़बड़ कर नाना रूप विकल्प और चेष्टाएँ किया करता हूँ। उनके करने वाला और कोई दूसरा नहीं है। ऐसा कोई तीसरा तटस्थ पुरूष जानता है कि यह इतनी कमायी का जो परिश्रम हो रहा है, सो यह निश्चय दृष्टि से रहित है और विकल्पों के फंदे में पड़ करके ऐसी चेष्टा करता है।
आत्मविकासों का आत्मा में निरखना―भैया ! जितने प्रभु के नाम लें और जितने जो प्रभु हुए हैं, ब्रह्मा, महेश्वर, विष्णु, तीर्थंकर जितने भी ये महान् आत्मा हुए हैं वे सब आत्मा ही हैं, आत्मरूप ही हैं। कुछ अपने स्वरूप जाति से भिन्न अलग से कोई नहीं हैं। सो उन सब रूपों को अपने आपमें निहारों, इस आत्मा का ही वह सब कुछ रूप है। जैसे पंचपरमेष्ठी की भक्ति करें तो उन पंचपरमपदों को अपने आपके विकास के रूप में देखें तो उससे एक स्फूर्ति मिलती है, क्रांति मिलती है, मोह को हटाने का उत्साह जगता है। पर दीन होकर प्रभु की भक्ति में लगे तो अंतर में उत्साह नहीं जगता। यहां दीनता जगती है कि हे प्रभु! तुम ही हो मेरे सब कुछ, तुम हमें राखो या मारो। ब्रह्मतेज में मग्न होने का उन्हें उपाय नहीं मिल सकता।
परिणमनकी कृति का निर्णय―इससे भैया ! एक निर्णय करो, अपनी परिणतियों के संबंध में ये रागद्वेष सुख दु:ख आदिक मेरे स्वभाव से भी उत्पन्न नहीं होते, और इनका करने वाला भी कोई दूसरा नहीं है, किंतु किसी भी अनुकूल अन्य उपाधि का निमित्त पाकर मुझ आत्मभूमि मेंये रागद्वेषादिक भाव उत्पन्न होते हैं। इनका होना मेरा स्वभाव नहीं है। इनका करने वाला मैं ही अज्ञान के कारण हूँ, अर्थात् मैं ही परिणमता हूँ,मगर ऐसी कोई चीज स्वभाव में लगी नहीं है। कोई एक दूसरे का कुछ नहीं कर सकता। जैसे यह एक सीधी अंगुलि है, अब टेढ़ी हो गयी तो हम यह कहें कि देखो इस मेरी अंगुलि को इस अंगुलि ने टेढ़ी कर दिया। तो इसका अर्थ क्या है कि एक का एक में करना क्या ? एक दूसरे में कुछ कर सकता नहीं है। फिर करने का नाम जो चल पड़ा है यह व्यवहार की भाषा है।
ज्ञातृत्व के आदर से शांति की संभवता―भैया ! निरखते यों जावो। यह पदार्थ है, ऐसा सिद्ध है और ऐसा निमित्त योग पाने पर यह अपने आपमें इस प्रकार से परिणम जाता है। सो जरा पुण्य का उदय आया। थोड़ा कुछ वैभव पास में हो गया तो यह आशय बढ़ाये चले जा रहे हैं कि मैं बड़ा हूँ, महान् हूँ, समझदार हूँ और मैं जो चाहूं सो कर सकता हूँ, मैं जैसा चाहूं भोग सकता हूँ, ऐसा अपने आप में आशय बढ़ाये चले जा रहे हैं, पर हे आत्मन् ! तू अपने स्वभाव को तो देख। तू तो केवल ज्ञानज्योति मात्र है। तू असत् परिणमन से हटकर निज के सत् में पहुंच। बाहर में घूमने से तुझे आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।
सर्वविशुद्ध स्वरूप के परिज्ञान का महत्व―इस सर्वविशुद्ध अधिकार में यह बात बतायी गयी है कि प्रत्येक द्रव्य अन्य सर्वद्रव्यों से अत्यंत पृथक् है, सबसे विशुद्ध है। शुद्ध का अर्थ होता है शून्य। जो लेप है, मैल वह न रहे इसे कहते है शुद्ध। प्रत्येक पदार्थ शुद्ध है अर्थात् स्वयं के स्वरूप मात्र है। एक शुद्ध होता है पर्याय से शुद्ध और एक शुद्ध रहता है स्वरूप मात्र। स्वरूपमात्र रूप शुद्ध के परिज्ञान की बड़ी महिमा है। जीवने आज तक अपने को नानारूप माना अर्थात् शुद्ध माना, अशुद्ध कोभी अपना सर्वस्वरूप माना, उसके फल में यह संसारभ्रमण चल रहा है। बात साफ इतनी है, जिससे करते बने सो करे और न करते बने अर्थात् न जानते बने तो जो हो रहा है सो हो ही रहा है। पर आनंद वही पायेगा जो अपना ज्ञान सही रखेगा। वह किसी भी परिस्थिति में दुःखी न होगा।
यथार्थज्ञान से ही वास्तविक महत्ता―भैया ! अपना ज्ञान सही नहीं रख सकते उससे दु:ख होता है और उससे ही विडंबनाएँ होती हैं। बाकी के लेखा जोखा सब लगते रहते हैं। मेरे पास इतनी आय होती है इसलिए कष्ट से हैं, मेरे पास इतना धन नहीं है सो दु:ख से हैं अथवा मेरे घर के लोग आज्ञाकारी नहीं हैं सो क्लेश है। ये सारी बातें बकवाद हैं। क्लेश किसी को रंच भी नहीं है। क्लेश तो यह है कि अपना ज्ञान नहीं सही रख पा रहा है। धन से बड़ा माना तो जिसने धन का त्याग कर दिया वह तो अब छोटा हो गया समझें क्या ? क्योंकि धन तो रहा नहीं। लोक में नगर में रहकर इज्जत पाई, इसका ही यदि बड़प्पन माना जाय तो जब त्याग कर दिया और लोकमत के न रहे यहां की वोटों के बीच के न रहे तो हल्के बन गये क्या ?
असंतोष में दरिद्रता―यहां कौन दरिद्र है और कौन धनवान है? जिसका मन संतुष्ट है वह तो धनिक है और जिसका मन असंतुष्ट है वह दरिद्र है। एक बार एक साधु को रास्ते में एक पैसा मिला, पुराने समय का पैसा क्या आप लोगों ने देखा है ? एक छटांक में चार चढ़ते हैं। कुछ तो बूढ़ों को ख्याल होगा। अगर एक पैसा पीठ में जड़ दें तो टें बोल जाए। इतना मोटा वह पैसा होता है। तो साधु ने सोचा कि यह पैसा किसे दूं ? सोचा कि दुनिया में जो अधिक से अधिक गरीब हो उसको देंगे। अब गरीब की खोज में वह निकला, पर अधिक गरीब कोई न मिला। बहुत दिन बाद उस नगर का बादशाह सेना सजाकर एक शत्रु पर चढ़ाई करने जा रहा था। जैसे किसी समय ग्वालियर के राजा ने अटेर पर चढ़ाई की थी। अटेर मायने क्या ? जहां टेर न सुनाई दे। होगा जंगल हमने तो देखा नहीं। अगर कोई टेर लगाए तो दूसरों को न सुनाए। तो वही तो अटेर है। सो ग्वालियर के राजा ने जैसे अटेर पर चढ़ाई की थी इसी प्रकार वह बादशाह किसी छोटे राजा पर चढ़ाई करने चला। सो साधु न पूछा कि बादशाह कहां जा रहे हैं ? पता लगा कि बादशाह दूसरे राजा पर चढ़ाई करने जा रहा है। तो जब सामने से बादशाह निकला हाथी पर चढ़ा हुआ तो उसने वही पैसा बादशाह की नाक में मारा इसलिए कि यह पैसा इसे ही देना चाहिए। सो वह पैसा उसकी गोद में गिरा। वह देखता है कि इस साधु ने मुझे पैसा मारा। पूछा कि यह पैसा क्यों फेंक कर मारा ? साधु बोला कि महाराज हमें यह पैसा मिल गया था सो मैंने सोचा था कि दुनिया में हमें जो सबसे अधिक गरीब दिखेगा उसे ही यह पैसा मैं दूंगा। इसलिए मैंने तुम्हें यह पैसा फेंककर दिया। तो क्या मैं गरीब हूँ। ‘‘हां हां।’’कैसे ? ऐसे कि यदि आप गरीब न होते तो दूसरे राजा का राज्य हड़पने क्यों जाते ? उसकी समझ में आ गया। ओह ठीक तो कह रहा है। समझ में आ गया और हुक्म दिया सेना को कि अब लौट चलो, लड़ाई नहीं करना है। जो अपने पास है वही बहुत है। तो उस पैसे ने उस बादशाह की गरीबी मिटा दिया। तो लौकिक परिस्थिति से सुख दु:ख के फैसला करने की जो आदत पड़ी है यह रात दिन परेशान करती है।
संतोष में समृद्धि―राम लक्ष्मण सीता जंगल में रहे, मिट्टी के बरतन बनाकर उनमें भोजन बनाया खाया , और कितने सुख में वे थे। उन्हें क्लेश था क्या कुछ ? उनके पास धन तोनहीं था। तो जहां संतोष है वहां सुख है, जहां संतोष नहीं है वहां सुख नहीं है। तो बाह्य परिस्थिति से हम सुख दु:ख का फैसला न किया करें किंतु हम पागल हैं तो दु:खी हैं। और सावधान हैं तो सुखी हैं। इतनी ही रहस्य है। पागलपन―पागलपन किसे कहते हैं ? वैसे तो पागल होना अच्छी बात है। बुरी बात नहीं है। जो पापों को गलाये सो पागल। पा मायने पाप गल मायने गलाने वाला। सो पागल मायने पापों को नष्ट करने वाला। लेकिन लोग पागल का अर्थ लगा बैठे हैं कि जिसका ज्ञान व्यवस्थित न हो, पर की दृष्टि करके जो गले, बरबाद हो, पर से जो आशा करे, हित माने उसे पागल कहते हैं। जो बात जैसी नहीं है वैसी बात बोलकर निश्चय करना उसको पागल कहते हैं। यह आत्मा सर्वविशुद्ध है, इसका कहीं कुछ नहीं है, अकिंचन है। इस अकिंचन की आराधना में तो आनंद है और अपने को सकिंचन माने तो उसमें क्लेश ही है।
निरपेक्ष भगवद्भक्ति―धनंजयसेठ भगवान की भक्ति में क्या कहते हैं―‘‘इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि। छायातरूं संश्रयत: स्वत: स्यात्किं छायया याचितयात्मलाभ:।’’ हे भगवान् ! तुम्हारी स्तुति करके मैं दीनता से आपसे कोई वर नहीं माँगता हूँ। बड़े के बड़े ही मित्र होते हैं। भगवान के भक्त भी शूरवीर उदार गौरवशाली होते हैं। वे भगवान से कुछ नहीं माँगते हैं। इस प्रकार स्तुति करते हैं कि हे देव ! मैं दीनता से आपसे कोई वर नहीं माँगता। अरे सेठ क्यों नहीं माँगते हो ऐसा अगर भगवान का कोई वकील बोल दे तो भक्त कहता है कि क्या माँगें, तुम तो उपेक्षक हो। तुम न देते हो, न लेते हो, न किसी की सुनते हो, न तुम किसी की ओर झुकते हो तुम तो अपने आनंद में मस्त हो, लीन हो। तुमसे क्या माँगें और फिर एक बात और है कि तुम दे ही क्या सकते हो, तुम्हारे पास धन नहीं, पैसा नहीं, ईटें नहीं, परमिट के पत्रा नहीं, तुम दे ही क्या सकते हो ? केवल चिन्मात्रस्वरूप हो, तुमसे हम क्या माँगें ?
परमार्थप्रभुभक्त के स्वत: समृद्धि―और फिर प्रभु एक बात और है। कोई मनुष्य छाया वाले पेड़ के नीचे बैठ जाय, जैसे कि आजकल गर्मी के दिन हैं और सड़क के किनारे कोई पेड़ मिल जाय और पेड़ के नीचे बैठ जाय और नीचे बैठे-बैठे एक मंत्र जपे, हाथ जोड़कर विनती करे कि हे पेड़ तू मुझे छाया दे दे, तू मुझे छाया दे दे―ऐसा कोई मुसाफिर करे तो उसे लोग पागल कहेंगे, बेवकूफ कहेंगे। वैसे बेवकूफ होना अच्छा है। बे मायने दो और वकूफ बाकेफियत बुद्धि याने डबल बुद्धि वाले। जैसे बे इंदी बोलते हैं ना, सो उसके मायने हैं दो इंद्रिय। पर यहां बेवकूफ मायने पागल के हैं, मूर्ख के हैं। अरे छाया वाले पेड़ के नीचे तो बैठा है और पेड़ से छाया माँगें, यह कहां ठीक है? अरे स्वत: ही छाया हो रही है। अब भौंकनेसे लाभ क्या है ? इसी तरह नाथ ! आपके जो शुद्धस्वरूप की भक्ति की छाया में बसता है उसको अनाकुलता है, आनंद है, समृद्धि है। सब कुछ अपने में हो रहा है और फिर कुछ प्रभु से माँगें तो उसे मूढ़ कहना चाहिए। बड़ों का संबंध बड़ी पद्धति में―भैया ! किसी बड़े पुरूष से कुछ मांगो तो छोटी बात मिलेगी, भगवान से यदि कुछ चाहा कि धन बढ़े, पुत्र आज्ञाकारी हों तो फिर कुछ न मिलेगा। अगर उदय है अधिक तो इष्ट समागम थोड़ा हो जायेगा, बस काम खत्म हो गया। तो ऐसा उदारचित्त होना चाहिए कल्याणार्थी को किसी से कुछ न माँगें। जब भगवान आदिनाथ स्वामी विरक्त हो गए थे तो नमि और विनमि इनको कुछ न दे पाये थे औरों को तो सब बांट दिया था। अब नमि और विनमि आए तो आदिनाथ भगवान से कहते हैं जो कि तपस्या में मौन खड़े थे। कहते हैं कि हे प्रभु !हमें कुछ नहीं दिया, सबको सब कुछ दिया। अरे हमारी तरफ तो देखते भी नहीं हैं, कुछ देते भी नहीं हैं, कुछ सुनते भी नहीं हैं। तो एक देव आया, बोला कि तुम उनसे क्या कहते हो, तुम्हें जो कुछ चाहिए हमसे कहो, हम देंगे तो नमि विनमि कहते हैं कि तुम कौन बीच में दलाल आए ? हमें तुमसे न चाहिए। हमें तो यही देंगे तो लेंगे।
महंत संतों का सत्संग―अरे बड़े की गुस्सा, बड़े का अनुराग, बड़े की डाट, बड़े का संग से सब लाभ ही लाभ हैं। कोई बड़ा कभी नाराज हो जाय तो भी समझो कि मेरे भले के लिए है। बड़ा प्रसन्न हो जाय तो भी समझो कि मेरे भले के लिए है। तो ऐसे बड़े से संबंध बनावो कि जिससे बड़ा और कुछ न हो। बड़ा व्यवहार में तो प्रभु है और परमार्थ में स्वकीय सर्व विशुद्ध ज्ञानस्वरूप है। इसही सर्वविशुद्ध ज्ञान को इस समयसार के अंतिम अधिकार में रखा है। अध्यात्म परिज्ञान का यह मर्मभूत अधिकार है। दो अधिकार तो बड़े खासियत रखने वाले अधिकार हैं समयसार में। एक तो कर्ताकर्म अधिकार जो अज्ञान को लपेटकर चटनी बना देता है और एक है सर्वविशुद्ध अधिकार। जब इसका वर्णन आयेगा तब इसका जौहर देखना। किस-किस प्रकार से यह सर्वविशुद्ध स्वरूप को खोलकर रखता है ?
शास्त्रों के उपदेशों का प्रयोजन―भैया ! इस प्रकरण में अभी तक यह बताया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने ही पर्याय से तन्मय होता है। बस इसी सेही समझ जावो सब कुछ कि कोई पदार्थ किसी का नहीं है। कोई पदार्थ किसी का कर्ता नहीं है। कोई पदार्थ किसी का भोक्ता नहीं है। मंत्र बताया है एक कि सर्व पदार्थ अपनी-अपनी परिणति से तन्मय होते हैं। अर्थ निकला कितना विशाल ? कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष सर्वप्रकार के विकल्पों से शून्य केवल ज्ञायकस्वरूप यह मैं आत्मा हूँ। इसका परिज्ञान करने के लिए शास्त्रों की रचना हुई है। सर्वशास्त्रों का प्रयोजन इतना ही है कि सर्व विशुद्ध जो निज का स्वरूप है, विध्यात्मक समझ लो अवक्तव्य जो अनुभव में आ सकने वाला आत्मस्वरूप है उसे जान जावो। इतना ही सर्वशास्त्रों का प्रयोजन है―ऐसा जानकर फिर इसमें स्थिर हो जावो। इसके लिए फिर चरणानुयोग की व्यवहार प्रक्रिया है और ऐसा करने वाला उसमें किस-किस अंतरंग और बहिरंग वातावरण में युक्त होता है इन सबका सूक्ष्म वर्णन करणानुयोग में किया है। आत्मभाव―आत्मा में भाव एक है चैतन्यभाव। वह चैतन्यभाव निरंतर परिणमनशील है। अब इसमें दो बातें आई―परम पारिणामिक भाव और परिणमनभाव। परिणमनभाव चार प्रकार के हैं―औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक। किंतु, स्वरूप तो एक है चैतन्य स्वरूप। वैसे पारिणामिक भाव तीन बतायें गए हैं―जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। इनमें भव्यत्व और अभव्यत्व ये दो अशुद्ध पारिणामिक हैं और जीवत्त्वभाव शुद्ध पारिणामिक है। इस जीवत्व भाव के परिणमन रूप ये चार भाव हैं। औपशमिक आदि भावों का विवरण―औपशमिक कर्मों के उपशम का निमित्त पाकर होने वाला जो परिणमन है वह औपशमिक है। कर्मों के क्षय से होने वाला जो परिणाम है वह क्षायिक है और कर्म प्रकृतियों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला जो भाव है वह क्षायोपशमिक है और कर्मोंदय का निमित्त पाकर होने वाला आत्मा का भाव औदयिक है। इन 5 भावों में से श्रेयोमार्ग में बढ़ते हुए को श्रेय किस भाव का है? औदयिक भाव को तो आप बतायेंगे नहीं, वह तो विभाव रूप है। जो परिणामिक भाव है वह ध्रुव है, टस से मस नहीं होता, उससे कल्याण की क्या आशा करें और औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक परिणाम यद्यपि निर्मल भाव को उत्पन्न करके होता है, किंतु किस भाव का आश्रय करके निर्मल भाव होता है ? तो आश्रय करने योग्य भाव तो है पारिणामिक जीवत्वस्वरूप ज्ञायक स्वभाव और उसका आश्रय करने का जो परिणमन है वह परिणमन या तो औपशमिकरूप पड़ेगा या क्षायिकरूप होगा या क्षायोपशमिक रूप होगा।
प्रयोजक का प्रयोजन―जैसे कोई व्यापारी आपसे बात करने आए और उसके प्रयोजन की कोई बात ऐसी है कि जो आपके लिए इष्ट बनी है तो आप यहां वहां की गप्पें उससे छेड़ेंगे। मौका ऐसा न आने देंगे कि वह अपनी बात रख सके। मगर वह किसी भी गप्पों में नहीं उलझता है, थोड़ा उलझकर किसी भी समय अपने आत्मा के प्रयोजन की बात कहता है। आपसे वह कुछ चाहता होगा सो रकम मांगने आया, आप यहाँ वहां की बातें करेंगे पर उसे नहीं सुहाती। वह हेर फेर कर अपने ही प्रयोजन में आता है। इसी प्रकार तत्त्व ज्ञानी जीव उससे कुछ भी करा लें, चाहे वह रोटी बनाने बैठे, चाहे मंदिर में बैठे, चाहे स्वाध्याय में आयें, परिस्थितिवश कहीं कुछ करना पड़े, किंतु वह हेरफेर करके आता है अपने तत्त्व दृष्टि की ही ओर। किंतु जिनके कोई उद्देश्य नहीं है, जो यत्र तत्र विचरण ही करते हैं, उन्हें पता ही नहीं है।
अनुभवरहितों की विडंबना―चार पंडित थे। एक ज्योतिषी, एक वैद्य, एक नैयायिक और एक वैयाकरण। चले घोड़ा लेकर। जंगल में टिक गए। ज्योतिषी से पूछा कि घोड़ा किस दिशा में छोड़ा जाय ? उसने मीन मेष तुला वृश्चिक करके दिशा बता दी। उसी दिशा में घोड़ा छोड़ दिया गया। वह भाग गया। अब रसोई बने, कौन बनाए ? जो कलाविहीन हो। तो मिले वैयाकरण साहब। ये किसी काम के नहीं,इन्हें रसोई सौंपो। दी गयी रसोई। वैद्यजी निर्दोष भाजी लाए और नैयायिक जी के तर्क शक्ति ज्यादा है तो कीमती मुख्य चीज क्या है घी। सो नैयायिक घी लेने गया। तो नैयायिक साहब घी लिए आ रहे थे तो रास्ते में तर्कणा हो गयी, एक शंका हो गयी कि―‘घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतम्।’ घी पात्र के आश्रित है या पात्र घी के आश्रित है। ऐसी शंका हो गयी। अब उसने गिलास से सारा घी उलट कर जांच करली। अब वैद्यजी निर्दोष भाजी लेने गए तो सोचा कि कौनसी भाजी निर्दोष हैं, सोचा कि पालक की भाजी सर्दी करती है, भिन्डी बादी होती है, सो उन्हें नीम की पत्ती निर्दोष जंची। सो ले आये नीम की पत्ती। वैयाकरण साहब को दे दी। वैयाकरण साहब ने भाजी को हसिया से काटकर पतेली में डाल दिया। अब जब पतेली में नीम की पत्ती की भाजी चुरती है सो उससे भलभल भलभल की आवाज निकल रही थी। वैयाकरण साहब ने सोचा कि यह भल-भल शब्द तो आज तक कभी न सुना, न पढ़ा, सो यह पतेली झूठ बोलती है। तो झूठ बोलने वाले के मुँह में धूल उठाकर झोंक देना चाहिये, तो उसने भी झोंक दिया धूल उठाकर। अब सब क्या खायेंगे बतावो ? साग में नीम की पत्ती, उसमें भी झूठ बोलने से मिट्टी झोंक दी गयी। तो ऐसी ही प्रवृत्तियां हैं मोही जीवों की, अज्ञानी जीवों की। सर्वसमृद्धि की मूल ज्ञानकला―एक कला यदि है तो सभ्यता भी आ जाती है। वह कला है ज्ञानकला। दूसरों को क्षमा करने का माद्दा आता है तो सभ्यता ही तो बढ़ी। नम्रता का व्यवहार आ जाता है तो सभ्यता ही बढ़ी। जिसको सर्वविशुद्ध ज्ञानके अनुभव की कला जगी है उसके व्यवहार में भी सभ्यता आ जाती है। छल कपट काहे को करते हैं, लोभ काहे को करते हैं। है समागम तो करो उपयोग। जब न रहेगा तो देखा जायेगा। सर्वविशुद्ध ज्ञान की कला वाला पुरूष लोक में भी निराकुल रहता और अपने अंतर में भी निराकुल रहता है। उसी सर्वविशुद्ध ज्ञान का यह स्वरूप कहा गया है।
परमार्थ शरण गहने का कर्तव्य―हे मुमुक्षु जनों ! जरा अपने आप पर दया करके विचारों तो सही कि हमें परमार्थ शरण क्या है ? आखिर हमें चाहिये तो शांति ही या अशांति चाहिये बतावो ? शांति ही चाहिये। तो क्या किसी परपदार्थ का आश्रय करके हम शांति पा सकते हैं ? अरे पर तो पर ही है और यह सब पर विनाशीक है अथवा इसका वियोग नियम से होगा तथा पर के आश्रय करके जो परिणाम बनता है वह उठा उठा, लिया दिया, अलल टप्प आकुलतारूप बनना है। कुछ तो भोगकर जान भी चुके होंगे और बचीखुची असारता की बात युक्ति से समझ लीजिये। बाहर कहीं कुछ आश्रय करने योग्य नहीं है। अब अपने अंतर में आवो और अनादि अनंत नित्य अंत:प्रकाशमान् अहेतु सहज निज ज्ञानानंदस्वरूप कारणसमयसार का दर्शन ज्ञान आचरणरूप अभेद शरण ग्रहण करो।
।।समयसार प्रवचन त्रयोदशम भाग समाप्त।।