ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 17
From जैनकोष
अथानन्तर किसी एक दिन सैकड़ों राजाओं से घिरे, हुए भगवान् वृषभदेव विशाल सभामण्डप के मध्यभाग में सिंहासन पर ऐसे विराजमान थे, जैसे निषध पर्वत के तटभाग पर सूर्य विराजमान होता है ॥१॥
उस प्रकार सिंहासन पर विराजमान भगवान् की सेवा करने के लिए इन्द्र, अप्सराओं और देवों के साथ, पूजा की सामग्री लेकर वहाँ आया ॥२॥
और अपने तेज से उदयाचल के मस्तक पर स्थित सूर्य को जीतता हुआ अपने योग्य सिंहासन पर जा बैठा ॥३॥
भक्ति विभोर इन्द्र ने भगवान् की आराधना करने की इच्छा से उस समय अप्सराओं और गन्धर्वों का नृत्य कराना प्रारम्भ किया ॥४॥
उस नृत्य ने भगवान् वृषभदेव के मन को भी अनुरक्त बना दिया था सो ठीक ही है, अत्यन्त शुद्ध स्फटिकमणि भी अन्य पदार्थों के संसर्ग से राग अर्थात् लालिमा धारण करता है ॥५॥
भगवान् राज्य और भोगों से किस प्रकार विरक्त होंगे यह विचारकर इन्द्र ने उस समय नृत्य करने के लिए एक ऐसे पात्र को नियुक्त किया जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो गयी थी ॥६॥
तदनन्तर वह अत्यन्त सुन्दरी नीलांजना नाम की देवनर्तकी रस, भाव और लयसहित फिरकी लगाती हुई नृत्य कर रही थी कि इतने में ही आयुरूपी दीपक के क्षय होने से वह क्षण-भर में अदृश्य हो गयी । जिस प्रकार बिजलीरूपी लता देखते-देखते क्षण-भर में नष्ट हो जाती है उसी प्रकार प्रभा से चंचल और बिजली के समान उज्ज्वल मूर्ति को धारण करने वाली वह देवी देखते-देखते ही क्षण-भर में नष्ट हो गयी थी । उसके नष्ट होते ही इन्द्र ने रसभंग के भय से उस स्थान पर उसी के समान शरीर वाली दूसरी देवी खड़ी कर दी जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा । यद्यपि दूसरी देवी खड़ी कर देने के बाद भी वही मनोहर स्थान था, वही मनोहर भूमि थी और वही नृत्य का परिक्रम था तथापि भगवान वृषभदेव ने उसी समय उसके स्वरूप का अन्तर जान लिया था ॥७-१०॥
तदनन्तर भोगों से विरक्त और अत्यन्त संवेग तथा वैराग्य भावना को प्राप्त हुए भगवान् के चित्त में इस प्रकार चिन्ता उत्पन्न हुई कि ॥११॥
बड़े आश्चर्य की बात है कि यह जगत् विनश्वर है, लक्ष्मी बिजलीरूपी लता के समान चंचल है, यौवन, शरीर, आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी चलाचल हैं ॥१२॥
रूप, यौवन और सौभाग्य के मद से उन्मत्त हुआ अज्ञ पुरुष इन सबमें स्थिर बुद्धि करता है परन्तु उनमें कौन-सी वस्तु विनश्वर नहीं है ? अर्थात् सभी वस्तुएँ विनश्वर हैं ॥१३॥
यह रूप की शोभा संध्या काल की लाली के समान क्षणभर में नष्ट हो जाती है और उज्ज्वल तारुण्य अवस्था पल्लव की कान्ति के समान शीघ्र ही म्लान हो जाती है ॥१४॥
वन में पैदा हुई लताओं के पुष्पों के समान यह यौवन शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है, भोग सम्पदाएं विषवेल के समान हैं और जीवन विनश्वर है ॥१५॥
यह आयु की स्थिति घटीयन्त्र के जल की धारा के समान शीघ्रता के साथ गलती जा रही है-कम होती जा रही है और यह शरीर अत्यन्त दुर्गन्धित तथा घृणा उत्पन्न करने वाला है ॥१६॥
यह निश्चय है कि इस असार संसार में सुख का लेश मात्र भी दुर्लभ है और दुःख बड़ा भारी है फिर भी आश्चर्य है कि मन्दबुद्धि पुरुष उसमें सुख की इच्छा करते हैं ॥१७॥
इस जीव ने नरकों में जो महान् दुःख भोगे हैं यदि उनका स्मरण भी हो जाये तो फिर ऐसा कौन है, जो उन भोगों की इच्छा करे ॥१८॥
निरन्तर आर्तध्यान करने वाले जीव जितने कुछ भोगों का अनुभव करते हैं वे सब उन्हें अत्यन्त असाता के उदय से भरे हुए नरकों में दुःखरूप होकर उदय होते हैं ॥१९॥
दुःखों से भरे हुए नरकों में कभी स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता क्योंकि वहाँ रात-दिन दुःख ही दुःख रहता है और ऐसा दुःख जो कि दुःख के कारणभूत असाता कर्म का बन्ध करने वाला होता है ॥२०॥
उन नरकों से किसी तरह निकलकर यह मूर्ख जीव अनेक योनियों में परिभ्रमण करता हुआ तिर्यंच गति के बड़े भारी दुःख भोगता है ॥२१॥
बड़े दुःख की बात है कि यह अज्ञानी जीव पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में भारी दुःख भोगता हुआ निरन्तर भ्रमण करता रहता है ॥२२॥
यह जीव उन पृथ्वीकायिक आदि पर्यायों में खोदा जाना, जलती हुई अग्नि में तपाया जाना, बुझाया जाना, अनेक कठोर वस्तुओं से टकरा जाना, तथा छेदा-भेदा जाना आदि के कारण भारी दुःख पाता है ॥२३॥
यह जीव घटीयन्त्र की स्थिति को धारण करता हुआ सूक्ष्म बादर पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक अवस्था में अनेक बार परिभ्रमण करता रहता है ॥२४॥
त्रस पर्याय में भी यह प्राणी मारा जाना, बाँधा जाना और रोका जाना आदि के द्वारा जीवनपर्यन्त अनेक दुःख प्राप्त करता रहता है ॥२५॥
सबसे प्रथम इसे जन्म अर्थात् पैदा होने का दुःख उठाना पड़ता है, उसके अनन्तर बुढ़ापा का दुःख और फिर उससे भी अधिक मृत्यु का दुःख भोगना पड़ता है, इस प्रकार सैकड़ों दुःखरूपी भँवर से भरे हुए संसाररूपी समुद्र में यह जीव सदा डूबा रहता है ॥२६॥
यह जीव क्षण-भर में नष्ट हो जाता है, क्षण-भर में जीर्ण (वृद्ध) हो जाता है और क्षण-भर में फिर जन्म धारण कर लेता है इस प्रकार जन्म-मरण, बुढ़ापा और रोगरूपी कीचड़ में गाय की तरह सदा फंसा रहता है ॥२७॥
इस प्रकार यह अज्ञानी जीव तिर्यंच योनि में अनन्त काल तक दुःख भोगता रहता है सो ठीक ही है क्योंकि जिनेन्द्रदेव भी यही मानते हैं कि तिर्यंच योनि दुःखों का सबसे बड़ा स्थान है ॥२८॥
तदनन्तर अशुभ कर्मों के कुछ-कुछ मन्द होने पर यह जीव उस तिर्यंच योनि से बड़ी कठिनता से बाहर निकलता है और कर्मरूपी सारथी से प्रेरित होकर मनुष्य पर्याय को प्राप्त होता है ॥२९॥
वहाँ पर भी यह जीव यद्यपि दुःखों की इच्छा नहीं करता है तथापि इसे कर्मरूपी शत्रुओं से निरुद्ध होकर अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख भोगने पड़ते हैं ॥३०॥
दूसरों की सेवा करना, दरिद्रता, चिन्ता और शोक आदि से मनुष्यों को जो बड़े भारी दुःख प्राप्त होते हैं वे प्रत्यक्ष नरक के समान जान पड़ते हैं ॥३१॥
यथार्थ में मनुष्यों का यह शरीर एक गाड़ी के समान है जो कि दुःखरूपी खोटे बरतनों से भरी है इसमें कुछ भी संशय नहीं है कि यह शरीररूपी गाड़ी तीन चार दिन में ही उलट जायेगी-नष्ट हो जायेगी ॥३२॥
यद्यपि देवपर्याय में जीवों को कुछ सुख प्राप्त होता है तथापि जब स्वर्ग से इसका पतन होता है तब इसे सबसे अधिक दुःख होता है ॥३३॥
उस देवपर्याय में भी इष्ट का वियोग होता है और कितने ही देव अल्प विभूति के धारक होते हैं जो कि अपने से अधिक विभूति वाले को देखकर दुःखी होते रहते हैं इसलिए उनका मानसिक दुःख भी बड़े दुःख से व्यतीत होता है ॥३४॥
इस प्रकार यह बेचारा दीन प्राणी इस संसाररूपी चक्र में अपने खोटे कर्मों के उदय से अनेक परिवर्तन करता हुआ दुःख पाता रहता है ॥३५॥
देखो, यह अत्यन्त मनोहर स्त्रीरूपी यन्त्र (नृत्य करने वाली नीलांजना का शरीर) हमारे साक्षात् देखते ही देखते किस प्रकार नाश को प्राप्त हो गया ॥३६॥
बाहर से उज्ज्वल दिखने वाले स्त्री के रूप को अत्यन्त मनोहर मानकर कामीजन उस पर पड़ते हैं और पड़ते ही पतंगों के समान नष्ट हो जाते हैं-अशुभ कर्मों का बन्धकर हमेशा के लिए दुःखी हो जाते हैं ॥३७॥
इन्द्र ने जो यह कपट नाटक किया है अर्थात् नीलांजना का नृत्य कराया है सो अवश्य ही उस बुद्धिमान् ने सोच-विचारकर केवल हमारे बोध कराने के लिए ही ऐसा किया है ॥३८॥
जिस प्रकार यह नीलांजना का शरीर भंगुर था-विनाशशील था इसी प्रकार जीवों के अन्य भोगोपभोगों के पदार्थ भी भंगुर हैं, अवश्य नष्ट हो जाने वाले हैं और केवल धोखा देने वाले हैं ॥३९॥
इसलिए भाररूप आभरणों से क्या प्रयोजन है, मैल के समान सुगन्धित चन्दनादि के लेपन से क्या लाभ है, पागल पुरुष की चेष्टाओं के समान यह नृत्य भी व्यर्थ है और शोक के समान ये गीत भी प्रयोजनरहित हैं ॥४०॥
यदि शरीर की निज की शोभा अच्छी है तो फिर अलंकारों से क्या करना है और यदि शरीर में निज की शोभा नहीं है तो फिर भार स्वरूप इन अलंकारों से क्या हो सकता है ? ॥४१॥
इसलिए इस रूप को धिक्कार है, इस असार संसार को धिक्कार है, इस राज्य-भोग को धिक्कार है और बिजली के समान चंचल इस लक्ष्मी को धिक्कार है ॥४२॥
इस प्रकार जिनकी आत्मा विरक्त हो गयी है ऐसे भगवान् वृषभदेव भोगों से विरक्त हुए और काललब्धि को पाकर शीघ्र ही मुक्ति के लिए उद्योग करने लगे ॥४३॥
उस समय भगवान् के हृदय में विशुद्धियों ने अपना स्थान जमा लिया था और वे ऐसी मालूम होती थीं मानो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के द्वारा प्रेरित हुई उसकी सखियाँ ही सामने आकर उपस्थित हुई हों ॥४४॥
उस समय भगवान् मुक्तिरूपी अंगना के समागम के लिए अत्यन्त चिन्ता को प्राप्त हो रहे थे इसलिए उन्हें यह सारा जगत् शून्य प्रतिभासित हो रहा था ॥४५॥
भगवान वृषभदेव को बोध उत्पन्न हो गया है अर्थात् वे अब संसार से विरक्त हो गए हैं ये जगद्गुरु भगवान् के अन्तःकरण की समस्त चेष्टाएं इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से उसी समय जान ली थी ॥४६॥
उसी समय भगवान को प्रबोध कराने के लिए और उनके तप कल्याणक की पूजा करने के लिए लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक से उतरे ॥४७॥
वे लौकान्तिक देव सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, वृत्ति, अव्याबाध और अरिष्ट इस तरह आठ प्रकार के हैं । वे सभी देवों में उत्तम होते हैं । वे पूर्वभव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का अध्यास करते हैं । उनकी भावनाएँ शुभ रहती हैं । वे ब्रह्मलोक अर्थात् पाँचवें स्वर्ग में रहते हैं, सदा शान्त रहते हैं उनकी लेश्याएँ शुभ होती हैं, वे बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले होते हैं और ब्रह्मलोक के अन्त में निवास करने के कारण लौकान्तिक इस नाम को प्राप्त हुए हैं ॥४८-५०॥
वे लौकान्तिक स्वर्ग के हंसों के समान जान पड़ते थे, क्योंकि वे मुक्तिरूपी नदी के तट पर निवास करने के लिए उत्कण्ठित हो रहे थे और भगवान के दीक्षाकल्याणकरूपी शरद् ऋतु के आगमन की सूचना कर रहे थे ॥५१॥
उन लौकान्तिक देवों ने आकर जो पुष्पांजलि छोड़ी थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो उन्होंने भगवान के चरणों की उपासना करने के लिए अपने चित्त के अंश ही समर्पित किए हों ॥५२॥
उन देवों ने प्रथम ही कल्पवृक्ष के फूलों से भगवान् के चरणों की पूजा की और फिर अर्थ से भरे हुए स्तोत्रों से भगवान की स्तुति करना प्रारम्भ की ॥५३॥
हे भगवन्, इस समय जो आपने मोहरूपी शत्रु को जीतने के उद्योग की इच्छा की है उससे स्पष्ट सिद्ध है कि आपने भव्यजीवों के साथ भाईपने का कार्य करने का विचार किया है अर्थात् भाई की तरह भव्य जीवों की सहायता करने का विचार किया है ॥५४॥
हे देव, आप परम ज्योति स्वरूप हैं, सब लोग आपको समस्त कार्यों का उत्तम कारण कहते हैं और हे देव, आप ही अज्ञानरूपी प्रपात से संसार का उद्धार करेंगे ॥५५॥
हे देव, आज आपके द्वारा दिखलाये हुए धर्मरूपी तीर्थ को पाकर भव्यजीव इस दुस्तर और भयानक संसाररूपी समुद्र से लीला मात्र में पार हो जायेंगे ॥५६॥
हे देव, जिस प्रकार सूर्य की देदीप्यमान किरणें समस्त जगत् को प्रकाशित करती हुई कमलों को प्रफुलित करती हैं उसी प्रकार आपके वचनरूपी देदीप्यमान किरणें भी समस्त संसार को प्रकाशित करती हुई भव्यजीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करेंगी ॥५७॥
हे देव, लोग आपको जगत् का पालन करने वाले ब्रह्मा मानते हैं, कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले विजेता मानते हैं, धर्मरूपी तीर्थ के नेता मानते हैं और सबकी रक्षा करने वाले जगद्गुरु मानते हैं ॥५८॥
हे देव, यह समस्त जगत् मोहरूपी बड़ी भारी कीचड़ में फँसा हुआ है इसका आप धर्मरूपी हाथ का सहारा देकर शीघ्र ही उद्धार करेंगे ॥५९॥
हे देव, आप स्वयम्भू हैं, आपने मोक्षमार्ग को स्वयं जान लिया है और आप हम सबको मुक्ति के मार्ग का उपदेश देंगे इससे सिद्ध होता है कि आपका हृदय बिना कारण ही करुणा से आर्द्र है ॥६०॥
हे भगवन् आप स्वयंभू हैं, आप मति श्रुत और अवधिज्ञानरूपी तीन निर्मल नेत्रों को धारण करने वाले हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता रूपी मोक्षमार्ग को आपने आप ही जान लिया है इसलिए आप बुद्ध हैं ॥६१॥
हे देव, आपने सन्मार्ग का स्वरूप स्वयं जान लिया है इसलिए हमारे-जैसे देवों के द्वारा आप प्रबोध कराने के योग्य नहीं हैं तथापि हम लोगों का यह नियोग ही आज हम लोगों को वाचालित कर रहा है ॥६२॥
हे नाथ, समस्त जगत् को प्रबोध कराने का उद्योग करने के लिए आपको कोई अन्य प्रेरणा नहीं कर सकता सों ठीक ही है क्योंकि समस्त जगत् को प्रकाशित करने के लिए क्या सूर्य को कोई अन्य उकसाता है? अर्थात् नही । भावार्थ-जिस प्रकार सूर्य समस्त जगत् को प्रकाशित करने के लिए स्वयं तत्पर रहता है उसी प्रकार समस्त जगत् को प्रबुद्ध करने के लिए आप स्वयं तत्पर रहते हैं ॥६३॥
अथवा हे जन्म-मरणरहित जिनेन्द्र, आप हमारे द्वारा प्रबोधित होकर भी हम लोगों को उसी प्रकार प्रबोधित करेंगे जिस प्रकार जलाया हुआ दीपक संसार का उपकारक होता है अर्थात् सबको प्रकाशित करता है ॥६४॥
हे भगवन्, आप प्रथम गर्भकल्याणक में सद्योजात अर्थात् शीघ्र ही अवतार लेने वाले कहलाये, द्वितीय-जन्मकल्याणक में वामता अर्थात् सुन्दरता को प्राप्त हुए और अब उसके अनन्तर तृतीय-तपकल्याणक में अघोरता अर्थात् सौम्यता को धारण कर रहे हैं ॥६५॥
हे स्वामिन्, आप संसार के उपकार के लिए उद्योग कीजिए, ये भव्यजीव रूपी चातक नवीन मेघ के समान आपकी सेवा कर सन्तुष्ट हों ॥६६॥
हे देव, अनादि प्रवाह से चला आया यह काल अब आपके धर्मरूपी अमृत उत्पन्न करने के योग्य हुआ है इसलिए हे विधाता, धर्म की सृष्टि कीजिए-अपने सदुपदेश से समीचीन धर्म का प्रचार कीजिए ॥६७॥
हे ईश, आप अपने तपोबल से कर्मरूपी शत्रुओं को जीतिए, मोहरूपी महाअसुर को जीतिए और परीषहरूपी अहंकारी योद्धाओं को भी जीतिए ॥६८॥
हे देव, अब आप मोक्ष के लिए उठिए-उद्योग कीजिए, अनेक बार भोगे हुए इन भोगों को रहने दीजिए-छोड़िए क्योंकि जीवों के बार-बार भोगने पर भी इन भोगों के स्वाद में कुछ भी अन्तर नहीं आता-नूतनता नहीं आती ॥६९॥
इस प्रकार स्तुति करते हुए लौकान्तिक देवों ने तपश्चरण करने के लिए जिनसे प्रार्थना की है ऐसे ब्रह्मा-भगवान् वृषभदेव ने तपश्चरण करने में दीक्षा धारण करने में अपनी दृढ़ बुद्धि लगायी ॥७०॥
वे लौकान्तिक देव अपने इतने ही नियोग से कृतार्थ होकर हंस की तरह शरीर की कान्ति से आकाशमार्ग को प्रकाशित करते हुए स्वर्ग को चले गये ॥७१॥
इतने में ही आसनों के कम्पायमान होने से भगवान् के तप-कल्याणक का निश्चय कर देव लोग अपने-अपने इन्द्रों के साथ अनेक विक्रियाओं को धारण कर प्रकट होने लगे ॥७२॥
अथानन्तर समस्त इन्द्र अपने वाहनों और अपने-अपने निकाय देवों के साथ आकाशरूपी आंगन को व्याप्त करते हुए आये और अयोध्यापुरी के चारों ओर आकाश को घेरकर अपने-अपने निकाय के अनुसार ठहर गये ॥७३॥
तदनन्तर इन्द्रादिक देवों ने भगवान् के निष्क्रमण अर्थात् तपःकल्याणक करने के लिए उस क्षीरसागर के जल से महाभिषेक किया ॥७४॥
अभिषेक कर चुकने के बाद देवों ने बड़े आदर के साथ दिव्य आभूषण, वस्त्र, मालाएँ और मलयागिरि चन्दन से भगवान् का अलंकार किया ॥७५॥
तदनन्तर भगवान वृषभदेव ने साम्राज्य पद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को उनसे सनाथ किया ॥७६॥
और युवराज पद पर बाहुबली को स्थापित किया । इस प्रकार उस समय यह पृथिवी उक्त दोनों भाइयों से अधिष्ठित होने के कारण राजन्वती अर्थात् सुयोग्य राजा से सहित हुई थी ॥७७॥
उस समय भगवान् वृषभदेव का निष्क्रमणकल्याणक और भरत का राज्याभिषेक हो रहा था इन दोनों प्रकार के उत्सवों के समय स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक दोनों ही हर्षविभोर हो रहे थे ॥७८॥
उस समय एक ओर तो बड़े वैभव के साथ भगवान के निष्क्रमणकल्याणक का उत्सव हो रहा था और दूसरी ओर भरत तथा बाहुबली इन दोनों राजकुमारों के लिए पृथ्वी का राज्य समर्पण करने का उत्सव किया जा रहा था ॥७९॥
एक ओर तो राजर्षि-भगवान् वृषभदेव तपरूपी राज्य के लिए कमर बाँधकर तैयार हुए थे और दूसरी ओर दोनों तरुण कुमार राज्यलक्ष्मी के साथ विवाह करने के लिए उद्यम कर रहे थे ॥८०॥
एक ओर तो देवों के शिल्पी भगवान को वन में ले जाने के लिए पालकी का निर्माण कर रहे थे और दूसरी ओर वास्तुविद्या अर्थात् महल मण्डप आदि बनाने की विधि जानने वाले शिल्पी राजकुमारों के अभिषेक के लिए बहुमूल्य मण्डप बना रहे थे ॥८१॥
एक ओर तो इन्द्राणी देवी ने रंगावली आदि की रचना की थी-रंगीन चौक पूरे थे और दूसरी ओर यशस्वती तथा सुनन्दा देवी ने बड़े हर्ष के साथ रंगावली आदि की रचना की थी-तरह-तरह के सुन्दर चौक पूरे थे ॥८२॥
एक ओर तो दिक्कुमारी देवियाँ मंगल द्रव्य धारण किए हुई थी और दूसरी और वस्त्राभूषण पहने हुई उत्तम वारांगनाएँ मंगल द्रव्य लेकर खड़ी हुई थीं ॥८३॥
एक ओर भगवान वृषभदेव अत्यन्त सन्तुष्ट हुए श्रेष्ठ देवों से घिरे हुए थे और दूसरी ओर दोनों राजकुमार हजारों क्षत्रिय-राजाओं से घिरे हुए थे ॥८४॥
एक ओर स्वामी वृषभदेव के सामने स्तुति करते हुए देव लोग पुष्पांजलि छोड़ रहे थे और दूसरी ओर पुरवासीजन दोनों राजकुमारों के सामने आशीर्वाद के शेषाक्षत फेंक रहे थे ॥८५॥
एक ओर पृथ्वीतल को बिना छुए ही-अधर आकाश में अप्सराओं का नृत्य हो रहा था और दूसरी ओर वारांगनाएँ लीलापूर्वक पद-विन्यास करती हुई नृत्य कर रही थीं ॥८६॥
एक ओर समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाले देवों के बाजों के महान् शब्द हो रहे थे और दूसरी और नान्दी पटह आदि मांगलिक बाजों के घोर शब्द सब ओर फैल रहे थे ॥८७॥
एक ओर किन्नर जाति के देवों के द्वारा प्रारम्भ किये हुए मनोहर मंगल गीतों के शब्द हो रहे थे और दूसरी ओर अन्तःपुर की स्त्रियों के मंगल गानों की मधुर ध्वनि हो रही थी ॥८८॥
एक ओर करोड़ों देवों का जय-जय ध्वनि का कोलाहल हो रहा था और दूसरी ओर पुण्यपाठ करने वाले करोड़ों मनुष्यों के पुण्यपाठ का शब्द हो रहा था ॥८९॥
इस प्रकार दोनों ही बड़े-बड़े उत्सवों में जहाँ देव और मनुष्य व्यग्र हो रहे हैं ऐसा वह राज-मन्दिर परम आनन्द से व्याप्त हो रहा था-उसमें सब ओर हर्ष ही हर्ष दिखाई देता था ॥९०॥
भगवान ने अपने राज्य का भार दोनों ही युवराजों को समर्पित कर दिया था इसलिए उस समय उनका दीक्षा लेने का उद्योग बिलकुल ही निराकुल हो गया था-उन्हें राज्य सम्बन्धी किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रही थी ॥९१॥
मोक्ष की इच्छा करने वाले भगवान् ने सम्भ्रम-आकुलता से रहित होकर अपने शेष पुत्रों के लिए भी यह पृथिवी विभक्त कर बाँट दी थी ॥९२॥
तदनन्तर अक्षर-अविनाशी भगवान महाराज नाभिराज आदि परिवार के लोगों से पूछकर इन्द्र के द्वारा बनायी हुई सुन्दर सुदर्शन नाम की पालकी पर बैठे ॥९३॥
बड़े आदर के साथ इन्द्र ने जिन्हें अपने हाथ का सहारा दिया था ऐसे भगवान वृषभदेव दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा के समान पालकी पर आरूढ़ हुए थे ॥९४॥
दीक्षारूपी अंगना के आलिंगन करने का जिनका कौतुक बढ़ रहा है ऐसे भगवान वृषभदेव उस पालकी पर आरूढ़ होते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो पालकी के छल से दीक्षारूपी अंगना की श्रेष्ठ शय्या पर ही आरूढ़ हो रहे है ॥९५॥
जो मालाएँ पहने हुए है, जिनका देदीप्यमान शरीर चन्दन के लेप से लिप्त हो रहा है और जो अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो रहे हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव पालकी पर आरूढ़ हुए सुशोभित हो रहे थे मानो तपरूपी लक्ष्मी के उत्तम वर ही हों ॥९६॥
भगवान वृषभदेव पहले तो परम विशुद्धता पर आरूढ़ हुए थे अर्थात् परिणामों की विशुद्धता को प्राप्त हुए थे और बाद में पालकी पर आरूढ़ हुए थे इसलिए वे उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो गुणस्थानों की श्रेणी चढ़ने का अभ्यास ही कर रहे हों ॥९७॥
भगवान् की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पैड तक ले चले और फिर विद्याधर लोग आकाश में सात पैड तक ले चले ॥९८॥
तदनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवों ने अत्यन्त हर्षित होकर वह पालकी अपने कन्धों पर रखी और शीघ्र ही उसे आकाश में ले गये ॥९९॥
भगवान् वृषभदेव के माहात्म्य की प्रशंसा करना इतना ही पर्याप्त है कि उस समय देवों के अधिपति इन्द्र भी उनकी पालकी ले जाने वाले हुए थे अर्थात् इन्द्र स्वयं उनकी पालकी ढो रहे थे ॥१००॥
उस समय यक्ष जाति के देव सुगन्धित फूलों की वर्षा कर रहे थे और गंगानदी के जलकणों को धारण करने वाला शीतल वायु बह रहा था ॥१०१॥
उस समय देवों के बन्दीजन उच्च स्वर से प्रस्थान समय के मंगलपाठ पढ़ रहे थे और देव लोग चारों ओर प्रस्थान सूचक भेरियाँ बजा रहे थे ॥१०२॥
उस समय इन्द्र की आज्ञा पाकर समस्त देव जोर-जोर से यही घोषणा कर रहे थे कि जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का मोहरूपी शत्रु को जीतने के उद्योग करने का यही समय है ॥१०३॥
उस समय हर्षित हुए सुर असुर जाति के सभी देव आनन्द की प्राप्ति से समस्त आकाश को घेरकर भगवान् के आगे जय-जय ऐसा कोलाहल कर रहे थे ॥१०४॥
मंगलगीतों, बार-बार की गयी जय-घोषणाओं और बड़े-बड़े नगाड़ों के शब्दों से सब ओर व्याप्त हुआ आकाश उस समय शब्दों के अधीन हो रहा था अर्थात् चारों ओर शब्द ही शब्द सुनाई पड़ते थे ॥१०५॥
उस समय इन्द्रों के शरीर की प्रभा समस्त आकाश को प्रकाशित कर रही थी और दुन्दुभियों का विपुल तथा मनोहर शब्द समस्त संसार को शब्दायमान कर रहा था ॥१०६॥
उस समय इन्द्रों के हाथों से ढुलाये जाने के कारण इधर-उधर फिरते हुए चमरों के समूह आकाश में ठीक हंसों के समान जान पड़ते थे ॥१०७॥
जिस समय भगवान् पालकी पर आरूढ़ हुए थे उस समय करोड़ों देवकिंकरों के हाथों में स्थित दण्डों की ताड़ना से इन्द्रों के करोड़ों दुन्दुभि बाजे आकाश में व्याप्त होकर बज रहे थे ॥१०८॥
आकाशरूपी आँगन में अनेक देवांगनाएँ विलाससहित नृत्य कर रही थीं उनका नृत्य छत्रबन्ध आदि की चतुराई तथा आश्चर्यकारी अनेक करणों-नृत्यभेदों से सहित था ॥१०९॥
मनोहर कण्ठ वाली किन्नर जाति की देवियाँ अपने मधुर स्वर से कानों को सुख देने वाले मनोहर और मधुर तपःकल्याणोत्सव का गान कर रही थीं-उस समय के गीत गा रही थीं ॥११०॥
देवों के बन्दीजन उच्च स्वर से किन्तु उत्तम शब्दों से मंगल पाठ पढ़ रहे थे तथा उस समय के योग्य और सबके मन को अनुरक्त करने वाले अन्य पाठों को भी पढ़ रहे थे ॥१११॥
जिन्हें अत्यन्त हर्ष उत्पन्न हुआ है और जो चित्र-विचित्र-अनेक प्रकार की पताकाएँ लिये हुए हैं ऐसे भूत जाति के व्यन्तर देव भीड़ में धक्का देते तथा अनेक प्रकार के नृत्य करते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे ॥११२॥
देव लोग बड़े अनुराग से अपने गालों को फुलाकर और शरीर को पिण्ड के समान संकुचित कर तुरही तथा शंख बजा रहे थे ॥११३॥
हाथों में कमल धारण किये हुई लक्ष्मी आदि देवियाँ आगे-आगे जा रही थीं और बड़े आदर से मंगल द्रव्य तथा अर्घ लेकर दिक्कुमारी देवियाँ उनके साथ-साथ जा रही थीं ॥११४॥
इस प्रकार जिस समय यथायोग्य रूप से अनेक विशेषताएँ हो रही थीं उस समय अद्भुत वैभव से शोभायमान भगवान वृषभदेव समस्त संसार को आनन्दित करते हुए अमूल्य रत्नों से बनी हुई दिव्य पालकी पर आरूढ़ होकर अयोध्यापुरी से बाहर निकले । उस समय वे रत्नमयी पृथ्वी पर स्थित मेरु पर्वत की शोभा को तिरस्कृत कर रहे थे । गले में पड़े हुए आभूषणों की कान्ति के समूह से उनके मुख पर जो परिधि के आकार का लाल-लाल प्रभामण्डल पड़ रहा था उससे उनका मुख सूर्य के समान मालूम होता था, उस मुखरूपी सूर्य की प्रभा से वे उस समय ज्योतिषी देवों के इन्द्र अर्थात् चन्द्रमा की ज्योति को भी तिरस्कृत कर रहे थे । जिससे मणियों की कान्ति निकल रही है ऐसे मस्तक पर धारण किये हुए ऊँचे मुकुट से वे, जिनसे ज्वाला प्रकट हो रही है ऐसे अग्निकुमार देवों के इन्द्रों के मुकुटों की कान्ति को भी तिरस्कृत कर रहे थे । उनके मुकुट के मध्य में जो फूलों का सेहरा पड़ा हुआ था उसकी मालाओं के द्वारा मानो वे भगवान् अपने मन की प्रसन्नता को ही मस्तक पर धारण कर लोगों को दिखला रहे थे । उनके नेत्रों की जो स्वच्छ कान्ति चारों ओर फैल रही थी उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो इन्द्र के लिए संन्यास धारण करने के समय होने वाला नेत्रों का विलास ही अर्पित कर रहे हों अर्थात् इन्द्र को सिखला रहे हों कि संन्यास धारण करने के समय नेत्रों की चेष्टाएँ इतनी प्रशान्त हो जाती हैं । कुछ-कुछ प्रकट होती हुई मुसकान की किरणों से उनके ओठों की लाल-लाल कान्ति भी छिप जाती थी जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी विशुद्धि के द्वारा बाकी बचे हुए सम्पूर्ण राग को ही धो रहे हों । उनके सुन्दर वक्षःस्थल पर जो मनोहर हार पड़ा हुआ था उससे वे भगवान् जिसके किनारे पर निर्झरना पड़ रहा है ऐसे सुमेरु पर्वत की भी विडम्बना कर रहे थे । जिनमें कड़े बाजूबन्द आदि आभूषण चमक रहे हैं ऐसी अपनी भुजाओं की शोभा से वे नागेन्द्र के फण में लगे हुए रत्नों की कान्ति के समूह की भर्त्सना कर रहे थे । करधनी से घिरे हुए जघनस्थल की शोभा से भगवान् ऐसे मालूम होते थे मानो वेदिका से घिरे हुए जम्बूद्वीप की शोभा ही स्वीकृत कर रहे हों । ऊपर की दोनों गाँठों तक देदीप्यमान होती हुई पैरों की किरणों से वे भगवान् ऐसे मालूम होते थे मानो नमस्कार करते हुए सम्पूर्ण लोगों को अपनी प्रसन्नता के अंशों से पवित्र ही कर रहे हो । उस समय सूर्य की कान्ति को भी तिरस्कृत करने वाली अपने शरीर की दीप्ति से जिन्होंने सब दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव अपने ओज से समस्त इन्द्रिय को नीचा दिखा रहे थे । इस प्रकार प्रत्येक अंग-उपांगों से सम्बन्ध रखने वाली वैराग्य के योग्य शोभा से वे ऐसे जान पड़ते मानो चिरकाल से पालन-पोषण की हुई परिग्रह की आसक्ति को ही बाहर निकाल रहे हों । ऊपर लगे हुए निर्मल कान्ति वाले सफेद छत्र के मण्डल से वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो क्लेशों को दूर करने वाला चन्द्रमा ही ऊपर आकर उनकी सेवा कर रहा हो । इन्द्रों के द्वारा ढुलाये हुए चमरों के समूह से भगवान् ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो जन्मकल्याणक के क्षण-भर के प्रेम से क्षीरसागर ही आकर उनकी सेवा कर रहा हो । इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा है और अनेक इन्द्र जिन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं ऐसे वे भगवान वृषभदेव अयोध्यापुरी से बाहर निकले । उस समय नगरनिवासी लोग उनकी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे ॥११५-१३०॥
हे जगन्नाथ, आप कार्य की सिद्धि के लिए जाइए, आपका मार्ग कल्याणमय हो और हे देव, आप अपना कार्य पूरा कर फिर भी शीघ्र ही हम लोगों के दृष्टिगोचर होइए ॥१३१॥
हे नाथ, अनाथ पुरुषों की रक्षा करने लिए आपके समान और कोई भी समर्थ नहीं है इसलिए हम लोगों की रक्षा करने में आप अपना मन फिर भी लगाइए ॥१३२॥
हे प्रभो, आपकी समस्त चेष्टाएँ पुरुषों का उपकार करने वाली होती हैं, आप बिना कारण ही हम लोगों को छोड़कर अब और किसका उपकार करेंगे ॥१३३॥
इस प्रकार कितने ही नगर निवासियों ने दूर से ही मस्तक झुकाकर प्रशंसनीय, स्पष्ट अर्थ को कहने वाले और कामनासहित प्रार्थना के वचन कहे थे ॥१३४॥
उस समय कितने ही नगरवासी परस्पर में ऐसा कह रहे थे कि देव लोग भगवान् को पालकी पर सवार कर कहीं दूर ले जा रहे हैं परन्तु हम लोग इसका कारण नहीं जानते अथवा भगवान की यह कोई ऐसी ही क्रीड़ा होगी अथवा यह भी हो सकता है कि पहले इन्द्र लोग जन्मोत्सव करने की इच्छा से भगवान् को सुमेरु पर्वत पर ले गये थे और फिर वापस ले आये थे । कदाचित् हम लोगों के भाग्य से आज फिर भी वही वृत्तान्त हो इसलिए हम लोगों को कोई दु:ख की बात नहीं है ॥१३५-१३७॥
कितने ही लोग आश्चर्य के साथ कह रहे थे कि पालकी पर सवार हुए ये भगवान क्या साक्षात् सूर्य है क्योंकि ये सूर्य की तरह ही अपनी प्रभा के द्वारा हमारे नेत्रों को चकाचौंध करते हुए आकाश में देदीप्यमान हो रहे हैं ॥१३८॥
जिस प्रकार कुलाचलों के बीच चूलिकासहित सुवर्णमय सुमेरु पर्वत शोभित होता है उसी प्रकार इन्द्रों के बीच मुकुट धारण किये और तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति को धारण किये हुए भगवान बहुत ही सुशोभित हो रहे हैं ॥१३९॥
जो भगवान के मुख के सामने अपनी दृष्टि लगाये हुए है और जिसकी विक्रियाएँ अनेक आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है ऐसा यह कौन है ? हाँ, मालूम हो गया कि यह भगवान का आज्ञाकारी सेवक इन्द्र है ॥१४०॥
इधर देखो, यह पालकी ले जाने वाले महातेजस्वी देवों के शरीर की प्रभा चारों ओर फैल रही है और ऐसी मालूम होती है मानो बिजलियों का समूह ही हो ॥१४१॥
अहा, भगवान का पुण्य बहुत ही बड़ा है वह न तो वचन से ही कहा जा सकता है और न मन से ही उसका विचार किया जा सकता है । इधर-उधर भक्ति के भार से झुके हुए-प्रणाम करते हुए इन देवों को देखो ॥१४२॥
इधर ये देवों के नगाड़े मधुर और गम्भीर शब्दों से बज रहे हैं और इधर यह मृदंगों का गम्भीर तथा जोर का शब्द हो रहा है ॥१४३॥
इधर नृत्य हो रहा है, इधर गीत गाये जा रहे हैं, इधर संगीत मंगल हो रहा है, इधर चमर ढुलाये जा रहे हैं और इधर देवों का आगर समूह विद्यमान है ॥१४४॥
क्या यह चलता हुआ स्वर्ग है जो अप्सराओं और विमानों से सहित है अथवा आकाश में यह किसी ने अपूर्व चित्र लिखा है ॥१४५॥
क्या यह इन्द्रजाल है-जादूगर का खेल है अथवा हमारी बुद्धि का भ्रम है । यह आश्चर्य बिलकुल ही अदृष्टपूर्व है-ऐसा आश्चर्य हम लोगों ने पहले कभी नहीं देखा था ॥१४६॥
इस प्रकार अनेक विकल्प करने वाले तथा बहुत बोलने वाले नगर-निवासी लोग भगवान के उस आश्चर्य (अतिशय) को देखकर विस्मय के साथ यथेच्छ बातें कर रहे थे ॥१४७॥
अनेक पुरुष कह रहे थे कि जब से इन भगवान ने पृथ्वी तल पर अवतार लिया है तब से यहाँ देवों के आने-जाने में अन्तर नहीं पड़ता-बराबर देवों का आना-जाना बना रहता है ॥१४८॥
नीलांजना नाम की देवांगना का नृत्य देखते-देखते ही भगवान को बिना किसी अन्य कारण के भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया है ॥१४९॥
उसी समय आये हुए माननीय लौकान्तिक देवों ने भगवान को सम्बोधित किया जिससे उनका मन वैराग्य में और भी अधिक दृढ़ हो गया है ॥१५०॥
काम और भोगों से विरक्त हुए भगवान् अपने शरीर में भी निःस्पृह हो गये हैं अब वे महल सवारी तथा राज्य आदि को तृण के समान मान रहे हैं ॥१५१॥
जिस प्रकार अपनी इच्छानुसार विहार करने रूप सुख की इच्छा से मत्त हाथी वन में प्रवेश करता है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव भी स्वातन्त्र्य सुख प्राप्त करने की इच्छा से वन में प्रवेश करना चाहते हैं और देव लोग प्रोत्साहित कर उन्हें ले जा रहे हैं ॥१५२॥
यदि भगवान् वन में भी रहेंगे तो भी सुख उनके अधीन ही है और प्रजा के सुख के लिए उन्होंने अपने पुत्रों को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया है ॥१५३॥
इसलिए भगवान् की प्रारम्भ की हुई यह यात्रा उन्हें सुख देने वाली हो तथा ये लोग भी अपने भाग्य से वृद्धि को प्राप्त हो, कोई विषाद मत करो ॥१५४॥
अक्षतात्मा अर्थात् जिनका आत्मा कभी भी नष्ट होने वाला नहीं है ऐसे भगवान् वृषभदेव चिरकाल तक जीवित रहें, विजय को प्राप्त हों, समृद्धिमान् हों और फिर लौटकर हम लोगों की रक्षा करें ॥१५५॥
महात्मा भरत आज विभु की आज्ञा लेकर जगत् की आशाएँ पूर्ण करने वाला महादान दे रहे हैं ॥१५६॥
इधर भरत ने जो यह स्वर्ण का दान दिया है उससे तुम सबको सन्तोष हो, इधर पलानोंसहित घोड़े दिये जा रहे हैं और इधर ये हाथी वितरण किये जा रहे हैं ॥१५७॥
इस प्रकार अजान और ज्ञानवान् सब ही अलग-अलग प्रकार के वचनों द्वारा जिनकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे भगवान वृषभदेव ने धीरे-धीरे नगर के बाहर समीपवर्ती प्रदेश को पार किया ॥१५८॥
अथानन्तर भगवान् के प्रस्थान करने पर यशस्वती आदि रानियाँ मन्त्रियों सहित भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगीं, उस समय शोक से उनके नेत्रों में आँसू भर रहे थे ॥१५९॥
लताओं के समान उनके शरीर की शोभा म्लान हो गयी थी, उन्होंने आभूषण भी उतारकर अलग कर दिये थे और कितनी ही डगमगाते पैर रखती हुई भगवान् के पीछे-पीछे जा रही थी ॥१६०॥
कितनी ही स्त्रियाँ शोकरूपी अग्नि से जर्जरित हो रही थीं, उनकी शरीरयष्टि कम्पित हो रही थी और नेत्र मूर्च्छा से निमीलित हो रहे थे इन सब कारणों से वे जमीन पर गिर पड़ी थीं ॥१६१॥
कितनी ही देवियाँ बार-बार यह कहती हुई मूर्च्छित हो रही थीं कि हा नाथ, आप कहाँ जा रहे हैं ? कहाँ जाकर हम लोगों की प्रतीक्षा करेंगे और अब आपको कितनी दूर जाना है ॥१६२॥
वे देवियाँ शोक से हृदय में धड़कन को, स्तनों में उत्कम्प को, शरीर में म्लानता को, वचनों में गद्गदता को और नेत्रों में आँसूओं को धारण कर रही थीं ॥१६३॥
हे बाले, रोकर अमंगल मत कर इस प्रकार निवारण किये जाने पर किसी स्त्री ने रोना तो बन्द कर दिया था परन्तु उसके आँसू नेत्रों के भीतर ही रुक गये थे इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो शोक से फूट रही हो ॥१६४॥
कोई स्त्री प्रस्थानकाल के मंगल को भंग करने के लिए असमर्थ थी इसलिए उसने आँसुओं को नीचे गिरने से रोक लिया परन्तु ऐसा करने से उसके नेत्र आँसुओं से भर गए थे जिससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रों की पुत्तलिका के छल से शोक के भीतर ही प्रविष्ट हो गयी हो ॥१६५॥
वेग से चलने के कारण कितनी ही स्त्रियों के हार टूट गये थे और उनके मोती बिखर गये थे, उन बिखरे हुए मोतियों से वे ऐसी मालूम होती थीं मानो मोतियों के छल से आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें ही छोड़ रही हो ॥१६६॥
कितनी ही स्त्रियों के केशपाश खुलकर नीचे की ओर लटकने लगे थे उनमें लगी हुई फूलों की मालाएँ नीचे गिरती जा रही थीं, उनके स्तनों पर के वस्त्र भी शिथिल हो गये थे और आँखों से आँसू बह रहे थे इस प्रकार वे शोचनीय अवस्था को धारण कर रही था ॥१६७॥
कितनी ही स्त्रियाँ शोक से अत्यन्त विह्वल हो गयी थीं इसलिए लोगों ने उठाकर उन्हें पालकी में रखा था तथा अनेक प्रकार से सान्त्वना दी थी, समझाया था । इसीलिए वे जिस किसी तरह प्राणों से वियुक्त नहीं हुई थीं-जीवित बची थीं ॥१६८॥
धीर-वीर किन्तु चंचल नेत्रों वाली कितनी ही राजपत्नियाँ अपने स्वामी के विभव से ही (देवों द्वारा किये हुए सम्मान से ही) सन्तुष्ट हो गयी थी इसलिए वे पतिव्रताएं बिना किसी आकुलता के भगवान के पीछे-पीछे जा रही थी ॥१६९॥
हे माता, यह भगवान् का प्रस्थान मंगल हो रहा है इसलिए अधिक रोना अच्छा नहीं धीरे-धीरे स्वामी के पीछे-पीछे चलना चाहिए । शोक मत करो ॥१७०॥
हे देवि, शीघ्रता करो, शीघ्रता करो, शोक के वेग को रोको, यह देखो देव लोग भगवान् को लिये जा रहे हैं अभी हमारे पुण्योदय से भगवान् हमारे दृष्टिगोचर हो रहे हैं-हम लोगों को दिखाई दे रहे हैं ॥१७१॥
इस प्रकार अन्तःपुर की वृद्ध स्त्रियों के द्वारा समझायी गयी यशस्वती और सुनन्दा देवी पैदल ही चल रही थी ॥१७२॥
इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है उन देवियों ने ज्यों ही भगवान के जाने के समाचार सुने त्यों ही उन्होंने अपने छत्र चमर आदि सब परिकर छोड़ दिये थे और भगवान के पीछे-पीछे चलने लगी थीं ॥१७३॥
भगवान् को किसी प्रकार की व्याकुलता न हो यह विचारकर उनके साथ जाने वाले वृद्ध पुरुषों ने यह भगवान की आज्ञा है, ऐसा कहकर किसी स्थान पर अन्तःपुर की समस्त स्त्रियों के समूह को रोक दिया और जिस प्रकार नदियों का बढ़ा हुआ प्रवाह समुद्र से रुक जाता है उसी प्रकार वह रानियों का समूह भी वृद्ध पुरुषों (प्रतीहारों) से रुक गया था ॥१७४-१७५॥
इस प्रकार रानियों का समूह लम्बी और गरम साँस लेकर आगे जाने से बिल्कुल निराश होकर अपने सौभाग्य की निन्दा करता हुआ घर को वापस लौट गया ॥१७६॥
किन्तु स्वामी की इच्छानुसार चलने वाली यशस्वती और सुनन्दा ये दोनों ही महादेवियां अन्तःपुर की मुख्य-मुख्य स्त्रियों से परिवृत होकर पूजा की सामग्री लेकर भगवान के पीछे-पीछे जा रही थी ॥१७७॥
उस समय महाराज नाभिराज भी मरुदेवी तथा सैकड़ों राजाओं से परिवृत होकर भगवान् के तपकल्याण का उत्सव देखने के लिए उनके पीछे-पीछे जा रहे थे ॥१७८॥
सम्राट् भरत भी नगरनिवासी, मन्त्री, उच्च वंश में उत्पन्न हुए राजा और अपने छोटे भाइयों के साथ-साथ बड़ी भारी विभूति लेकर भगवान के पीछे-पीछे चल रहे थे ॥१७९॥
भगवान् ने आकाश में इतनी थोड़ी दूर जाकर कि जहाँ से लोग उन्हें अच्छी तरह से देख सकते थे, ऊपर कहे हुए मंगलारम्भ के साथ प्रस्थान किया ॥१८०॥
इस प्रकार जगद्गुरु भगवान वृषभदेव अत्यन्त विस्तृत सिद्धार्थक नाम के वन में जा पहुंचे । वह वन उस अयोध्यापुरी से न तो बहुत दूर था और न बहुत निकट ही था ॥१८१॥
तदनन्तर इन्द्रों की सेना भी आकाश और पृथिवी को व्याप्त करती हुई उस सिद्धार्थक वन में जा पहुंची । उस वन में अनेक पक्षी शब्द कर रहे थे इसलिए वह उनसे ऐसा मालूम होता था मानो इन्द्र की सेना को बुला ही रहा हो ॥१८२॥
उस वन में देवों ने एक शिला पहले से ही स्थापित कर रखी थी । वह शिला बहुत ही विस्तृत थी, पवित्र थी और भगवान् के परिणामों के समान उन्नत थी ॥१८३॥
वह चन्द्रकान्त मणियों की बनी हुई थी और चन्द्रमा की सुन्दर शोभा की हँसी कर रही थी इसलिए ऐसी मालूम होती थी मानो एक जगह इकट्ठा हुआ भगवान् का निर्मल यश ही हो ॥१८४॥
वह स्वभाव से ही देदीप्यमान थी, रमणीय थी और उसका घेरा अतिशय गोल था इसलिए वह ऐसी मालूम होती थी मानो भगवान् के तपकल्याणक की विभूति देखने के लिए सिद्धक्षेत्र ही पृथ्वी पर उतर आया हो ॥१८५॥
वृक्षों की शीतल छाया से उस पर सूर्य का आतप रुक गया था और चारों ओर लगे हुए वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग से उस पर फूलों के समूह गिर रहे थे ॥१८६॥
वह शिला घिसे हुए चन्दन-द्वारा दिये गए मांगलिक छींटों से युक्त थी तथा उस पर इन्द्राणी ने अपने हाथ से रत्नों के चूर्ण के उपहार खींचे थे-चौक वगैरह बनाये थे ॥१८७॥
उस शिला पर बड़े-बड़े वस्त्रों द्वारा आश्चर्यकारी मण्डप बनाया गया था तथा मन्द-मन्द वायु से हिलती हुई अनेक रंग की पताकाओं से उस पर का आकाश व्याप्त हो रहा था ॥१८८॥
उस शिला के चारों ओर उठते हुए धूप के धुओं से दिशाएँ सुगन्धित हो गयी थी तथा उस शिला के समीप ही अनेक मंगलद्रव्यरूपी सम्पदा रखी हुई थी ॥१८९॥
इस प्रकार जिसमें अनेक गुण विद्यमान है तथा जो उत्तम घर के लक्षणों से सहित है ऐसी उस शिला पर, देवों द्वारा पृथ्वी पर रखी गयी पालकी से भगवान् वृषभदेव उतरे ॥१९०॥
उस शिलापट्ट को देखते ही भगवान् को जन्माभिषेक की विभूति धारण करने वाली पाण्डुकशिला का स्मरण हो आया ॥१९१॥
तदनन्तर भगवान् ने क्षण-भर उस शिला पर आसीन होकर मनुष्य, देव तथा धरणेन्द्रों से भरी हुई उस सभा को यथायोग्य उपदेशों के द्वारा सम्मानित किया ॥१९२॥
वे भगवान जगत् के बन्धु थे और स्नेहरूपी बन्धन से रहित थे । यद्यपि वे दीक्षा धारण करने के लिए अपने बन्धुवर्गों से एक बार पूछ चुके थे तथापि उस समय उन्होंने फिर भी ऊँची और गम्भीर वाणी द्वारा उनसे पूछा-दीक्षा लेने की आज्ञा प्राप्त की ॥१९३॥
तदनन्तर जब लोगों का कोलाहल शान्त हो गया था, सब लोग दूर वापस चल गए थे, प्रातःकाल के गम्भीर मंगलों का प्रारम्भ हो रहा था और इन्द्र स्वयं भगवान की परिचर्या कर रहा था तब जिन्होंने अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह छोड़ दिया है और परिग्रहरहित रहने की प्रतिज्ञा की है, जो संसार की सब वस्तुओं में समताभाव का विचार कर रहे हैं और जो शुभ भावनाओं से सहित हैं ऐसे उन भगवान् वृषभदेव यवनिका के भीतर मोह को नष्ट करने के लिए वस्त्र, आभूषण तथा माला वगैरह का त्याग किया ॥१९४-१९६॥
जो आभूषण पहले भगवान् के शरीर पर बहुत ही देदीप्यमान हो रहे थे वे ही आभूषण उस समय भगवान के शरीर से पृथक् हो जाने के कारण कान्तिरहित अवस्था को प्राप्त हो गए थे सो ठीक ही है क्योंकि स्थानभ्रष्ट हो जाने पर कौन-सी कान्ति रह सकती है ? अर्थात् कोई भी नहीं ॥१९७॥
जिसमें निष्परिग्रहता की ही मुख्यता है ऐसी व्रतों की भावना धारण कर, भगवान वृषभदेव ने दासी, दास, गौ, बैल आदि जितना कुछ चेतन परिग्रह था और मणि, मुक्ता, मूंगा आदि जो कुछ अचेतन द्रव्य था उस सबका अपेक्षारहित होकर अपनी, देवों की और सिद्धों की साक्षीपूर्वक परित्याग कर दिया था ॥१९८-१९९॥
तदनन्तर भगवान् पूर्व दिशा की ओर मुँह कर पद्मासन से विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर उन्होंने पंचमुष्टियों में केशलोंच किया ॥२००॥
धीर वीर भगवान् वृषभदेव ने मोहनीय कर्म की मुख्यलताओं के समान बहुत-सी केशरूपी लताओं का लोंच कर दिगम्बर रूप के धारक होते हुए जिनदीक्षा धारण की ॥२०१॥
भगवान ने समस्त पापारम्भ से विरक्त होकर सामायिक-चारित्र धारण किया तथा व्रत गुप्ति समिति आदि चारित्र के भेद ग्रहण किए ॥२०२॥
भगवान वृषभदेव ने चैत्र मास के कृष्ण पक्ष को नवमी के दिन सायंकाल के समय दीक्षा धारण की थी । उस दिन शुभ मुहूर्त था, शुभ लग्न थी और उत्तराषाढ़ नक्षत्र था ॥२०३॥
भगवान् के मस्तक पर चिरकाल तक निवास करने से पवित्र हुए केशों को इन्द्र ने प्रसन्नचित्त होकर रत्नों के पिटारे में रख लिया था ॥२०४॥
सफेद वस्त्र से परिवृत उस बड़े भारी रत्नों के पिटारे में रखे हुए भगवान् के काले केश ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो चन्द्रमा के काले चिह्न के अंश ही हों ॥२०५॥
'ये केश भगवान् के मस्तक के स्पर्श से अत्यन्त श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त हुए हैं इसलिए इन्हें उपद्रवरहित किसी योग्य स्थान में स्थापित करना चाहिए । पांचवाँ क्षीरसमुद्र स्वभाव से ही पवित्र है इसलिए उसकी भेंट कर उसी के पवित्र जल में इन्हें स्थापित करना चाहिए । ये केश धन्य हैं जो कि जगत् के स्वामी भगवान् वृषभदेव के मस्तक पर अधिष्ठित हुए थे तथा यह क्षीरसमुद्र भी धन्य है जो इन केशों को भेंट स्वरूप प्राप्त करेगा ।' ऐसा विचारकर इन्द्रों ने उन केशों को आदरसहित उठाया और बड़ी विभूति के साथ ले जाकर उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल दिया ॥२०६-२०९॥
महापुरुषों का आश्रय करने से मलिन (नीच) पुरुष भी पूज्यता को प्राप्त हो जाते हैं यह बात बिलकुल ठीक है क्योंकि भगवान् का आश्रय करने से मलिन (काले) केश भी पूजा को प्राप्त हुए थे ॥२१०॥
भगवान् ने जिन वस्त्र आभूषण तथा माला वगैरह का त्याग किया था देवों ने उन सबकी भी असाधारण पूजा की थी ॥२११॥
उसी समय चार हजार अन्य राजाओं ने भी दीक्षा धारण की थी । वे राजा भगवान् का मत (अभिप्राय) नहीं जानते थे, केवल स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर ही दीक्षित हुए थे ॥२१२॥
'जो हमारे स्वामी के लिए अच्छा लगता है वही हम लोगों को भी विशेष रूप से अच्छा लगना चाहिए' बस, यही सोचकर वे राजा दीक्षित होकर द्रव्यलिंगी साधु हो गये थे ॥२१३॥
स्वामी के अभिप्रायानुसार चलना ही सेवकों का काम है यह सोचकर ही वे मूढ़ता के साथ मात्र द्रव्य की अपेक्षा निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त हुए थे-नग्न हुए थे, भावों की अपेक्षा नहीं ॥२१४॥
बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए वे राजा, भगवान् में अपनी उत्कृष्ट भक्ति प्रकट करना चाहते थे इसलिए उन्होंने भगवान् जैसी निर्ग्रन्थ वृत्ति को धारण किया था ॥११५॥
इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी कार्यों में हमें हमारे गुरु-भगवान् वृषभदेव ही प्रमाणभूत हैं यही विचार कर कच्छ आदि उत्तम राजाओं ने दीक्षा धारण की थी ॥२१६॥
उन राजाओं में से कितने ही स्नेह से, कितने ही मोह से और कितने ही भय से भगवान् वृषभदेव को आगे कर अर्थात् उन्हें दीक्षित हुआ देखकर दीक्षित हुए थे ॥२१७॥
जिनका संयम प्रकट नहीं हुआ है ऐसे उन द्रव्यलिंगी मुनियों से घिरे हुए भगवान् वृषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे मानो छोटे-छोटे कल्पवृक्षों से घिरा हुआ कोई उन्नत विशाल कल्पवृक्ष ही हो ॥२१८॥
यद्यपि भगवान का तेज स्वभाव से ही देदीप्यमान था तथापि उस समय तप की दीप्ति से वह और भी अधिक देदीप्यमान हो गया था ऐसे तेज को धारण करने वाले भगवान उस सूर्य के समान अतिशय देदीप्यमान होने लगे थे जिसका कि स्वभाव भास्वर तेज शरद् ऋतु के कारण अतिशय प्रदीप्त हो उठा है ॥२१९॥
जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला से तपा हुआ सुवर्ण अतिशय शोभायमान होता है उसी प्रकार उत्कृष्ट कान्ति से अत्यन्त सुन्दर भगवान् का नग्न रूप अतिशय शोभायमान हो रहा था ॥२२०॥
तदनन्तर देवों ने जिनकी पूजा की है ऐसे भगवान् आदिनाथ दीक्षारूपी लता से आलिंगित होकर कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे ॥२२१॥
उस समय भगवान् का अनुपम रूप अतिशय देदीप्यमान हो रहा था । उस रूप को इन्द्र हजार नेत्रों से देखता हुआ भी तृप्त नहीं होता था ॥२२२॥
तत्पश्चात् स्वर्ग के इन्द्रों ने अतिशय सन्तुष्ट होकर तीनों लोकों के स्वामी-उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप और वाचस्पति अर्थात् समस्त विद्याओं के अधिपति भगवान् वृषभदेव की इस प्रकार जोर-जोर से स्तुति की ॥२२३॥
हे स्वामिन्, आप जगत् के स्रष्टा हैं (कर्मभूमिरूप जगत् की व्यवस्था करने वाले हैं) स्वामी हैं-और अभीष्ट फल के देने वाले हैं इसलिए हम लोग अपने अनिष्टों को नष्ट करने के लिए आपकी अच्छी तरह से स्तुति करते हैं ॥२२४॥
हे भगवन्, हम-जैसे जीव आपके असंख्यात गुणों की स्तुति किस प्रकार कर सकते हैं तथापि हम लोग भक्ति के वश स्तुति के छल से मात्र अपनी आत्मा की उन्नति को विस्तृत कर रहे हैं ॥२२५॥
हे ईश, जिस प्रकार मेघों का आवरण हट जाने से सूर्य की किरणें स्फुरित हो जाती हैं, उसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी बहिरंग तथा अन्तरंग मल के हट जाने से आपके गुण स्फुरित हो रहे हैं ॥२२६॥
हे भगवन्, आप जिनवाणी के समान मनुष्यलोक को पवित्र करने वाली पुण्यरूप निर्मल जिनदीक्षा को धारण कर रहे हैं इसके सिवाय आप सबका हित करने वाले हैं और सुख देने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२२७॥
हे भगवन् आपको यह पारमेश्वरी दीक्षा गंगा नदी के समान जगत्त्रय का सन्ताप दूर करने वाली है और तीनों जगत् को मुख्य रूप से पवित्र करने वाली है, ऐसी यह आपकी दीक्षा हम लोगों को सदा पवित्र करे ॥२२८॥
हे भगवन्, आपकी यह दीक्षा धन की धारा के समान हम लोगों को सन्तुष्ट कर रही है क्योंकि जिस प्रकार धन की धारा सुवर्ण अर्थात् सुवर्णमय होती है उसी प्रकार यह दीक्षा भी सुवर्णा अर्थात् उत्तम यश से सहित है । धन की धारा जिस प्रकार रुचिरा अर्थात् कान्तियुक्त-मनोहर होती है उसी प्रकार यह दीक्षा भी रुचिरा अर्थात् सम्यक्त्वभाव को देने वाली है (रुचिं श्रद्धां राति ददातीति रुचिरा) धन की धारा जिस प्रकार हृद्या अर्थात् हृदय को प्रिय लगती है, उसी प्रकार यह दीक्षा भी हृद्या अर्थात् संयमीजनों के हृदय को प्रिय लगती है और धन की धारा जिस प्रकार देदीप्यमान रत्नों से अलंकृत होती है उसी प्रकार यह दीक्षा भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी देदीप्यमान रत्नों से अलंकृत है ॥२२९॥
हे भगवन् मुक्ति के लिए उद्योग करने वाले आप तत्कालीन अपने निर्मल परिणामों के द्वारा पहले ही प्रबुद्ध हो चुके थे, लौकान्तिक देवों ने तो नियोगवश पीछे आकर प्रतिबोधित किया था ॥२३०॥
हे मुनिनाथ, जगत् की सृष्टि करने वाले आपका, दीक्षा धारण करने के विषय में जो यह अभिप्राय हुआ है वह आपको स्वयं ही प्राप्त हुआ है इसलिए आप स्वयम्बुद्ध हैं ॥२३१॥
हे नाथ, आप इस राज्यलक्ष्मी को भोग के अयोग्य तथा चंचल समझकर ही क्लेश नष्ट करने के लिए निर्वाणदीक्षा को प्राप्त हुए हैं ॥२३२॥
हे भगवन्, मत्त हस्ती की तरह स्नेहरूपी खूंटा उखाड़कर वन में प्रवेश करते हुए आपको आज कोई भी नहीं रोक सकता है ॥२३३॥
हे देव, ये भोग स्वप्न में भोगे हुए भोगों के समान हैं, यह सम्पदा नष्ट हो जाने वाली है और यह जीवन भी चंचल है यही विचार कर आपने अविनाशी मोक्षमार्ग में अपना मन लगाया है ॥२३४॥
हे भगवन्, आप चंचल लक्ष्मी को दूर कर स्नेहरूपी बन्धन को तोड़कर और धन को धूलि की तरह उड़ाकर मुक्ति के साथ जा मिलेंगे ॥२३५॥
हे भगवन्, आप रति के बिना ही अर्थात् वीतराग होने पर भी राजलक्ष्मी में उदासीनता को और मुक्तिलक्ष्मी में परम हर्ष को प्रकट करते हुए तपरूपी लक्ष्मी में आसक्त हो गये हैं, यह एक आश्चर्य की बात है ॥२३६॥
हे स्वामिन्, आप राजलक्ष्मी में विरक्त हैं, तपरूपी लक्ष्मी में अनुरक्त हैं और मुक्तिरूपी लक्ष्मी में उत्कण्ठा से सहित हैं इससे मालूम होता है कि आपकी विरागता नष्ट हो गयी है । भावार्थ-यह व्याजोक्ति अलंकार है-इसमें ऊपर से निन्दा मालूम होती है परन्तु यथार्थ में भगवान की स्तुति प्रकट की गयी है ॥२३७॥
हे भगवन् आपने हेय और उपादेय वस्तुओं को जानकर छोड़ने योग्य समस्त वस्तुओं को छोड़ दिया है और उपादेय को आप ग्रहण करना चाहते हैं ऐसी दशा में आप समदर्शी कैसे हो सकते हैं (यह भी व्याजस्तुति अलंकार है) ॥२३८॥
आप पराधीन सुख को छोड़कर स्वाधीन सुख प्राप्त करना चाहते हैं तथा अल्प विभूति को छोड़कर बड़ी भारी विभूति को प्राप्त करना चाहते हैं ऐसी हालत में आपका विरति-पूर्ण त्याग कहाँ रहा ? (यह भी व्याजस्तुति है) ॥२३९॥
हे नाथ ! योगियों का आत्मज्ञान मात्र उनके हृदय को जानता है परन्तु आप अपने समान परपदार्थों को भी जानते हैं इसलिए आपका आत्मज्ञान कैसा है ? ॥२४०॥
हे नाथ, समस्त सुर और असुर पहले के समान अब भी आपकी परिचर्या कर रहें हैं और यह लक्ष्मी भी गुप्तरीति से आपकी सेवा कर रही है तब आपके तप का भाव कहाँ से आया अर्थात् आप तपस्वी कैसे कहलाये? ॥२४१॥
हे भगवन् यद्यपि आपने निर्ग्रन्थ वृत्ति धारण कर सुख प्राप्त करने का अभिप्राय भी नष्ट कर दिया है तथापि कुशल पुरुष आपको ही सुखी कहते हैं ॥२४२॥
हे प्रभो, आप मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानरूपी तीनों शक्तियों को धारण कर कर्मरूपी शत्रुओं की सेना को खण्डित करना चाहते हैं इसलिए इस तपश्चरणरूपी राज्य में आज भी आपका विजिगीषुभाव अर्थात् शत्रुओं को जीतने की इच्छा विद्यमान है ॥२४३॥
हे ईश, आप मोहरूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने के लिए प्रकाशमान ज्ञानरूपी दीपक को लेकर चलते हैं इसलिए आप क्लेश-रूपी गड᳭ढे में पढ़कर कभी भी दुःखी नहीं होते ॥२४४॥
हे भट्टारक, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की जो यह बड़ी भारी भट्टी घनी हुई है उसमें यह आपकी ध्यानरूपी अग्नि की ऊँची शिखा खूब जल रही है ॥२४५॥
हे समस्त पदार्थ को जानने वाले सर्वज्ञ देव, जो यह हरा-भरा आठों कर्मों का वन है उसे नष्ट करने के लिए आपने यह रत्नत्रयरूपी कुल्हाड़ी उठायी है ॥२४६॥
हे भगवन्, किसी दूसरी जगह नहीं पायी जाने वाली आपकी यह ज्ञान और वैराग्यरूपी सम्पत्ति ही आपको मोक्ष प्राप्त कराने के लिए तथा शरण में आयें हुए भक्त पुरुषों का संसार नष्ट करने के लिए समर्थ साधन है ॥२४७॥
हे प्रभो, इस प्रकार आप निज पर का हित करने वाली उत्कृष्ट ज्ञानरूपी सम्पत्ति को धारण करने वाले हैं, तो भी परमवीतराग हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२४८॥
इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र लोग भगवान के गुणों की पवित्र स्मृति अपने हृदय में धारण कर अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥२४९॥
तदनन्तर लक्ष्मीवान महाराज भरत ने भी भक्ति के भार से अतिशय नम्र होकर अनेक प्रकार के वचनरूपी मालाओं के द्वारा अपने-पिता की पूजा की अर्थात् सुन्दर शब्दों द्वारा उनकी स्तुति की ॥२५०॥
तत्पश्चात् उन्हीं भरत महाराज ने बड़ी भारी भक्ति से सुगन्धित जल की धारा, गन्ध, पुष्प, अक्षत, दीप, धूप और अर्घ्य से समाधि को प्राप्त हुए (आत्मध्यान में लीन) और मोक्षप्राप्तिरूप अपने कार्य में सदा सावधान रहने वाले, मोहनीय कर्म के विजेता मुनिराज भगवान वृषभदेव की पूजा की ॥२५१॥
तथा जिनकी लक्ष्मी बहुत ही विस्तृत है ऐसे राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैंथा, कटहल, बड़हल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियों के सुन्दर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरणों की पूजा की थी ॥२५२। इस प्रकार जो भगवान के चरणों की पूजा कर चुके हैं, जिनके दोनों घुटने पृथिवी पर लगे हुए हैं और जिनके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकल रहे हैं ऐसे राजा भरत ने अपने उत्कृष्ट मुकुट में लगे हुए मणियों की किरणेंरूप स्वच्छ जल के समूह से भगवान के चरणकमलों का प्रक्षालन करते हुए भक्ति से नम्र हुए अपने मस्तक से उन्हीं भगवान के चरणों को नमस्कार किया ॥२५३॥
जिन्होंने उत्तम-उत्तम अर्थ तथा अलंकारों से प्रशंसा करने योग्य और पापों को नष्ट करने वाली अनेक स्तुतियों से गुरुभक्ति प्रकट की है और जो बड़ी भारी विभूति से सहित हैं ऐसे राजा भरत अनेक राजपुत्रों और अपने छोटे भाइयों के साथ-साथ अयोध्या के सम्मुख हुए ॥२५४॥
अथानन्तर जब सूर्य अपनी मन्द-मन्द किरणों के अग्रभाग से पश्चिम दिशारूपी स्त्री के मुख का स्पर्श कर रहा था और वायु शोभायमान पताकाओं के समूह को धीरे-धीरे हिला रहा था तब अपनी आज्ञा के समान उल्लंघन करने के अयोग्य अयोध्यापुरी में महाराज भरत ने प्रवेश किया ॥२५५॥
जो बड़े भारी अभ्युदय के धारक हैं और जो भावी चक्रवर्ती हैं ऐसे राजा भरत उसी अयोध्यापुरी में रहकर दूर से ही आदरपूर्वक भगवान् वृषभदेव की परिचर्या करते थे, उन्होंने अपने राज्य में सब मनुष्यों का उपकार करने वाली वृत्ति (आजीविका) का विस्तार किया था, वे अपने भाइयों को सदा हर्षित रखते थे और गुरुजनों का आदरसहित सम्मान करते थे । इस प्रकार वे केवल एक छत्र से चिह्नित पृथिवी का चिरकाल तक पालन करते रहे ॥२५६॥
इस प्रकार राजाधिराज भरत तपकल्याणक के समय भगवान वृषभदेव की यथोचित पूजा कर छोटे भाइयों के साथ-साथ अपनी अयोध्यापुरी में लौटे और वहाँ जिस प्रकार पहले जिनेन्द्रदेव भगवान् वृषभनाथ दिशा का पालन करते थे उसी प्रकार वे भी प्रतिदिन प्रातःकाल राजाओं के समूह के साथ उठकर भक्तिपूर्वक गुरुदेव का स्मरण करते हुए शत्रुमण्डल को नष्ट कर समस्त दिशाओं का पालन करने लगे ॥२५७॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में भगवान् के तप-कल्याणक का वर्णन करने वाला सत्रहवां पर्व समाप्त हुआ ॥१७॥