ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 1
From जैनकोष
प्रथमं पर्व
जो अनंतचतुष्टयरूप अंतरंग और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मी से सहित है जिन्होंने समस्त पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञानरूपी साम्राज्य का पद प्राप्त कर लिया है, जो धर्मचक्र के धारक हैं, लोकत्रय के अधिपति हैं और पंच परावर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं, ऐसे श्री अर्हंतदेव को हमारा नमस्कार है ।
विशेष―इस लोक में सब विशेषण ही विशेषण हैं विशेष्य नहीं है । इससे यह बात सिद्ध होती है कि उक्त विशेषण जिसमें पाये जायें वही वंदनीय है । उक्त विशेषण अर्हंत देव में पाये जाते हैं अत: यहाँ उन्हीं को नमस्कार किया गया है । अथवा ‘श्रीमते’ पद विशेष्य―वाचक है । श्री ऋषभदेव के एक हजार आठ नामों में एक श्रीमत् नाम भी है जैसा कि आगे इसी ग्रंथ में कहा जावेगा―‘श्रीमान स्वयंभूर्वृषभः’ आदि । अत: यहाँ कथानायक श्री भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार किया गया है ।
टिप्पणीकार ने इस श्लोक का व्याख्यान विविध प्रकार से किया है जिसमें उन्होंने अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, भरत चक्रवर्ती, बाहुबली, वृषभसेन गणधर तथा पार्श्वनाथ तीर्थकर आदि को भी नमस्कार किया गया प्रकट किया है । अत: उनके अभिप्राय के अनुसार कुछ विशेष व्याख्यान यहाँ भी किया जाता है । भगवान् वृषभदेव के पक्ष का व्याख्यान ऊपर किया जा चुका है ।
अरहंत परमेष्ठी के पक्ष में ‘श्रीमते’ शब्द का अर्थ अरहंत परमेष्ठी लिया जाता है; क्योंकि वह अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से सहित होते हैं । सिद्ध परमेष्ठी के पक्ष में ‘सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे’ पद का अर्थ सिद्ध परमेष्ठी किया जाता है; क्योंकि वह संपूर्ण ज्ञानियों के साम्राज्य के पद को-लोकाग्रनिवास को प्राप्त हो चुके हैं । आचार्य परमेष्ठी के पक्ष में ‘धर्मचक्रभृते’ पद का अर्थ आचार्य लिया जाता है; क्योंकि वह उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के चक्र अर्थात् समूह को धारण करते हैं । उपाध्याय परमेष्ठी के पक्ष में भत्रें पद का अर्थ उपाध्याय किया जाता है; क्योंकि वह अज्ञानांधकार से दूर हटाकर सम्यग्ज्ञानरूपी सुधा के द्वारा सब जीवों का भरण-पोषण करते हैं और साधु परमेष्ठी के पक्ष में ‘संसारभीमुषे’ शब्द का अर्थ साधु लिया जाता है क्योंकि वह अपनी सिंहवृत्ति से संसार-संबंधी भय को नष्ट करने वाले है ।
इस श्लोक में जो ‘श्रीमते’ आदि पद हैं उनमें जातिवाचक होने से एकवचन का प्रत्यय लगाया गया है अत: भूत भविष्यत् वर्तमान कालसंबंधी समस्त तीर्थंकरों को भी इसी श्लोक से नमस्कार सिद्ध हो जाता है । भरत चक्रवर्ती के पक्ष में इस प्रकार व्याख्यान है―जो नवनिधि और चौदह रत्नरूप लक्ष्मी का अधिपति है, जो सकलज्ञानवान् जीवों के संरक्षणरूप साम्राज्य-पद को प्राप्त है, (सकलाश्च ये ज्ञाश्च सकलज्ञाः, सकलज्ञानाम् असं जीवनं यस्मिस्तत् तथाभूतं यत्साम्राज्यपदं तत᳭ ईयुषे) जो पूर्व जन्म में किये हुए धर्म के फलस्वरूप चक्ररत्न को धारण करता है, (धर्मेण-पुराकृतसुकृतेन प्राप्तं यच्चक्रं तद् विभर्तीति तस्मै) जो, षट्खंड भरतक्षेत्र की रक्षा करने वाला है और जिसने संसार के जीवों का भय नष्ट किया है अथवा षट्खंड भरत-क्षेत्र में सब ओर भ्रमण करने में जिसे किसी प्रकार का भय नहीं हुआ है (समंतात् सरणं भ्रमणं संसारस्तस्मिन् भियं मुष्णातीति तस्मै) अथवा जो समीचीन चक्र के द्वारा सबका भय नष्ट करने वाला है (अरै: सहितं सारं चक्ररत्नमित्यर्थ:, सम्यक् च तत् सारंच संसारं तेन भियं मुष्णातीति तस्मै) ऐसे तद्भवमोक्षगामी चक्रधर भरत को नमस्कार है ।
बाहुबली के पक्ष में निम्न प्रकार व्याख्यान है―जो भरत चक्रधर को त्रिविध युद्ध में परास्त कर अद्भुत शौर्यलक्ष्मी से युक्त हुए हैं जो धर्म के द्वारा अथवा धर्म के लिए चक्ररत्न को धारण करने वाले भरत के स्तवन आदि से केवलज्ञानरूप साम्राज्य के पद को प्राप्त हुए हैं । एक वर्ष के कठिन कायोत्सर्ग के बाद भरत-द्वारा स्तवन आदि किये जाने पर ही बाहुबली स्वामी ने निःशल्य हो शुक्लध्यान धारण कर केवलज्ञान प्राप्त किया था । जो इभर्त्रे―(इश्चासौ भर्ता च तस्मै) कामदेव और राजा दोनों हैं अथवा इभर्त्रे (या भर्ता तस्मै)―लक्ष्मी के अधिपति हैं और कर्मबंधन को नष्ट कर संसार का भय अपहरण करने वाले हैं ऐसे श्री बाहुबली स्वामी को नमस्कार हो ।
इस पक्ष में श्लोक का अन्वय इस प्रकार करना चाहिए―श्रीमते, धर्मचक्रभृता, सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे, संसारभीमुषे, इभर्त्रे, नमः ।
वृषभसेन गणधर के पक्ष में व्याख्यान इस प्रकार है । श्रीमते यह पद चतुर्थ्यंत न होकर सप्तम्यंत है―(श्रिया-स्याद्वादलक्ष्म्या उपलक्षितं मतं जिनशासनं तस्मिन्) अतएव जो स्याद्वादलक्ष्मी से उपलक्षित जिनशासन―अर्थात् श्रुतज्ञान के विषय में परोक्ष रूप से समस्त पदार्थों को जानने वाले ज्ञान के साम्राज्य को प्राप्त हैं, जो धर्मचक्र अर्थात् धर्मों के समूह को धारण करने वाले हैं―पदार्थों के अनंत स्वभावों को जानने वाले हैं, मुनिसंघ के अधिपति हैं और अपने सदुपदेशों के द्वारा संसार का भय नष्ट करने वाले हैं ऐसे वृषभसेन गणधर को नमस्कार हो ।
‘‘भुवं धरतीति धर्मो धरणींद्रस्तं चक्राकारेण बलयाकारेण समीपे बिभर्तीति धर्म-चक्रभृत् पार्श्वतीर्थंकर: तस्मै’’ । उक्त व्युत्पत्ति के अनुसार ‘धर्मचक्रभृते’ शब्द का अर्थ पार्श्वनाथ भी होता है अत: इस श्लोक में भगवान् पार्श्वनाथ को भी नमस्कार किया गया है । इसी प्रकार जयकुमार, नारायण, बलभद्र आदि अन्य कथानायकों को भी नमस्कार किया गया है । विशेष व्याख्यान संस्कृत टिप्पण से जानना चाहिए । इस श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों से इस ग्रंथ का प्रयोजन भी ग्रंथकर्ता ने व्यक्त किया है―‘श्रीसाधन’ अर्थात् कैवल्यलक्ष्मी को प्राप्त करना ही इस ग्रंथ के निर्माण का प्रयोजन है ।।1।।
जो अज्ञानांधकाररूप वस्त्र से आच्छादित जगत् को प्रकाशित करने वाले हैं तथा सब ओर फैलने वाली ज्ञानरूपी प्रभा के भार से अत्यंत उद्भासित-शोभायमान हैं ऐसे श्रीजिनेंद्ररूपी सूर्य को हमारा नमस्कार है ।।2।। जिसकी महिमा अजेय है, जो मिथ्यादृष्टियों के शासन का खंडन करने वाला है, जो नय प्रमाण के प्रकाश से सदा प्रकाशित रहता है और मोक्षलक्ष्मी का प्रधान कारण है ऐसा जिनशासन निरंतर जयवंत हो ।।3।। श्री अरहंत भगवान् ने जिसके द्वारा पापरूपी शत्रुओं की सेना को सहज ही जीत लिया था ऐसा जयनशील जिनेंद्रप्रणीत रत्नत्रयरूपी अस्त्र हमेशा जयवंत रहे ।।4।।
जिन अग्रपुरुष-पुरुषोत्तम ने इंद्र के वैभव को तिरस्कृत करने वाले अपने साम्राज्य को तृण के समान तुच्छ समझते हुए मुनिदीक्षा धारण की थी, जिनके साथ ही केवल स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर इक्ष्वाकु और भोजवंश के बड़े-बड़े हजारों राजाओं ने दीक्षा ली थी, जिनके निर्दोष चरित्र को धारण करने के लिए असमर्थ हुए कच्छ महाकच्छ आदि अनेक राजाओं ने वृक्षों के पत्ते तथा छाल को पहिनना और वन में पैदा हुए कंद-मूल आदि का भक्षण करना प्रारंभ कर दिया था, जिन्होंने आहार पानी का त्यागकर सर्वसहा पृथिवी की तरह सब प्रकार के उपसर्गों के सहन करने का दृढ़ विचार कर अनेक परीषह सहे थे तथा कर्मनिर्जरा के मुख्य कारण तप को चिरकाल तक तपा था, चिरकाल तक तपस्या करने वाले जिन जिनेंद्र के मस्तक पर बड़ी हुई जटाएँ ध्यानरूपी अग्नि से जलाये गये कर्मरूप ईधन से निकलती हुई धूम की शिखाओं के समान शोभायमान होती थी, मर्यादा प्रकट करने के अभिप्राय से स्वेच्छापूर्वक चलते हुए जिन भगवान् को देखकर सुर और असुर ऐसा समझते थे मानो सुवर्णमय मेरु पर्वत ही चल रहा है, जिन भगवान् को हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस के दान देने पर देवरूप मेघों ने पाँच प्रकार के रत्नों की वर्षा की थी, कुछ समय बाद घातियाकर्मरूपी शत्रुओं को पराजित कर देने पर जिन्हें लोकालोक को प्रकाशित करने वाली केवलज्ञानरूपी उत्कृष्ट ज्योति प्राप्त हुई थी, जो सभारूपी सरोवर में बैठे हुए भव्य जीवों के मुखरूपी कमलों को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के समान थे, जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाले समीचीन धर्म का उपदेश दिया था, और जिनसे अपने वंश का माहात्म्य सुनकर वल्कलों को पहिने हुए भरतपुत्र मरीचि ने लीलापूर्वक नृत्य किया था । ऐसे उन नाभिराजा के पुत्र वृषमचिह्न से सहित आदिदेव (प्रथम तीर्थकर) भगवान् वृषभदेव को मैं नमस्कार कर एकाग्र चित्त से बार-बार उनकी स्तुति करता हूँ ।।5-15।।
इनके पश्चात् जो धर्मसाम्राज्य के अधिपति हैं ऐसे अजितनाथ को आदि लेकर महावीर पर्यंत तेईस तीर्थकरों को भी नमस्कार करता हूँ ।।16।। इसके बाद, केवलज्ञानरूपी साम्राज्य के युवराज पद में स्थित रहने वाले तथा सम्यग्ज्ञानरूपी कंठाभरण को प्राप्त हुए गणधरों की मैं बार-बार स्तुति करता हूँ ।।17।। हे भव्य पुरुषो ! जो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आदि और अंत से रहित है, उन्नत है, अनेक फलों का देने वाला है, और विस्तृत तथा सघन छाया से युक्त है ऐसे श्रुतस्कंधरूपी वृक्ष की उपासना करो ।।18।।
इस प्रकार देव गुरु शास्त्र के स्तवनों द्वारा मंगलरूप सत्क्रिया को करके मैं त्रेसठ शलाका (चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण और नव बलभद्र) पुरुषों से आश्रित पुराण का संग्रह करूँगा ।।19।। तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलभद्रों, नारायणों और उनके शत्रुओं―प्रतिनारायणों का भी पुराण कहूंगा ।।20।। यह ग्रंथ अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित है इसलिए पुराण कहलाता है । इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थकर आदि महापुरुषों ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान् कल्याण की प्राप्ति होती है इसलिए इसे महापुराण कहते हैं ।।21।। ‘प्राचीन कवियों के आश्रय से इसका प्रसार हुआ है इसलिए इसकी पुराणता―प्राचीनता प्रसिद्ध ही है तथा इसकी महत्ता इसके माहात्म्य से ही प्रसिद्ध है इसलिए इसे महापुराण कहते हैं’ ऐसा भी कितने ही विद्वान् महापुराण की निरुक्ति―अर्थ करते हैं ।।22।। यह पुराण महापुरुषों से संबंध रखने वाला है तथा महान् अभ्युदय-स्वर्ग मोक्षादि कल्याणों का कारण है इसलिए महर्षि लोग इसे महापुराण मानते हैं ।।23।।
यह ग्रंथ ऋषिप्रणीत होने के कारण आर्षं, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र माना जाता है । ‘इति इह आसीत्’ यहाँ ऐसा हुआ―ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषि गण इसे ‘इतिहास’, ‘इतिवृत्त’ और ‘ऐतिह्य’ भी मानते हैं ।।24-25।।
जिस इतिहास नामक महापुराण का कथन स्वयं गणधरदेव ने किया है उसे मैं मात्र भक्ति से प्रेरित होकर कहूँगा क्योंकि मैं अल्पज्ञानी हूँ ।।26।। बड़े-बड़े बैलों द्वारा उठाने योग्य भार को उठाने की इच्छा करने वाले बछड़े को जैसे बड़ी कठिनता पड़ती है वैसे ही गणधरदेव के द्वारा कहे हुए महापुराण को कहने की इच्छा रखने वाले मुझ अल्पज्ञ को पड़ रही है ।।27।। कहाँ तो यह अत्यंत गंभीर पुराणरूपी समुद्र और कहाँ मुझ जैसा अल्पज्ञ ! मैं अपनी भुजाओं से यहाँ समुद्र को तैरना चाहता हूँ इसलिए अवश्य ही हँसी को प्राप्त होऊँगा ।।28।। अथवा ऐसा समझिए कि मैं अल्पज्ञानी होकर भी अपनी शक्ति के अनुसार इस पुराण को कहने के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ जैसे कि कटी पूँछ वाला भी बैल क्या अपनी कटी पूँछ को नहीं उठाता ? अर्थात् अवश्य उठाता है ।।29।।
यद्यपि यह पुराण गणधरदेव के द्वारा कहा गया है तथापि मैं भी यथाशक्ति इसके कहने का प्रयत्न करता हूँ । जिस रास्ते से सिंह चले हैं उस रास्ते से हिरण भी अपनी शक्त्यनुसार यदि गमन करना चाहता है तो उसे कौन रोक सकता है ।।30।। प्राचीन कवियों द्वारा क्षुण्ण किये गये―निरूपण कर सुगम बनाये गये कथामार्ग में मेरी भी गति है क्योंकि आगे चलने वाले पुरुषों के द्वारा जो मार्ग साफ कर दिया जाता है फिर उस मार्ग में कौन पुरुष सरलतापूर्वक नहीं जा सकता है ? अर्थात् सभी जा सकते हैं ।।31।। अथवा बड़े-बडे हाथियों के मर्दन करने से जहाँ वृक्ष बहुत ही विरले कर दिये गये हैं ऐसे वन में जंगली हस्तियों के बच्चे सुलभता से जहाँ-तहाँ घूमते ही हैं ।।32।। अथवा जिस समुद्र में बड़े-बड़े मच्छों ने अपने विशाल मुखों के आघात से मार्ग साफ कर दिया है उसमें उन मच्छों के छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी इच्छा से घूमते हैं ।।33।। अथवा जिस रणभूमि में बड़े―बड़े शूरवीर योद्धाओं ने अपने शस्त्र-प्रहारों से शत्रुओं को रोक दिया है उसमें कायर पुरुष भी अपने को योद्धा मानकर निःशंक हो उछलता है ।।34।। इसलिए मैं प्राचीन कवियों को ही हाथ का सहारा मानकर इस पुराणरूपी समुद्र को तैरने के लिए तत्पर हुआ हूँ ।।35।।
सैकड़ों शाखारूप तरंगों से व्याप्त इस पुराणरूपी महासमुद्र में यदि मैं कदाचित् प्रमाद से स्खलित हो जाऊँ―अज्ञान से कोई भूल कर बैठूँ तो विद्वज्जन मुझे क्षमा ही करेंगे ।।36।। सज्जन पुरुष कवि के प्रमाद से उत्पन्न हुए दोषों को छोड़कर इस कथारूपी अमृत से मात्र गुणों के ही ग्रहण करने की इच्छा करें क्योंकि सज्जन पुरुष गुण ही ग्रहण करते हैं ।।37।। उत्तम-उत्तम उपदेशरूपी रत्नों से भरे हुए इस कथारूप समुद्र में, मगरमच्छों को छोड़कर सार वस्तुओं के ग्रहण करने में ही प्रयत्न करना चाहिए ।।38।।
पूर्वकाल में सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और मैं भी कवि हूँ सो दोनों में कवि नाम की तो समानता है परंतु अर्थ में उतना ही अंतर है जितना कि पद्यराग मणि और कांच में होता है ।।39।। इसलिए जिनके वचनरूपी दर्पण में समस्त शास्त्र प्रतिबिंबित थे मैं उन कवियों को बहुत मानता हूँ―उनका आदर करता हूँ । मुझे उन अन्य कवियों से क्या प्रयोजन है जो व्यर्थ ही अपने को कवि माने हुए हैं ।।40।। मैं उन पुराण के रचने वाले कवियों को नमस्कार करता हूँ जिनके मुखकमल में सरस्वती साक्षात् निवास करती है तथा जिनके वचन अन्य कवियों की कविता में सूत्रपात का कार्य करते हैं―मूलभूत होते हैं ।।41।।
वे सिद्धसेन कवि जयवंत हों जो कि प्रवादीरूप हाथियों के झुंड के लिए सिंह के समान हैं, नैगमादि नय ही जिनकी केसर (अयाल―गरदन पर के बाल) तथा अस्ति नास्ति आदि विकल्प ही जिनके पैने नाखून थे ।।42।। मैं उन महाकवि समंतभद्र को नमस्कार करता हूँ जो कि कवियों में ब्रह्मा के समान हैं और जिनके वचनरूप वज्र के पात से मिथ्यामतरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते थे ।।43।। स्वतंत्र कविता करने वाले कवि, शिष्यों को ग्रंथ के मर्म तक पहुँचाने वाले गमक-टीकाकार, शास्त्रार्थ करने वाले वादी और मनोहर व्याख्यान देने वाले वाग्मी इन सभी के मस्तक पर समंतभद्र स्वामी का यश चूड़ामणि के समान आचरण करने वाला है, अर्थात् वे सबमें श्रेष्ठ थे ।।44।। मैं उन श्रीदत्त के लिए नमस्कार करता हूँ जिनका शरीर तपोलक्ष्मी से अत्यंत सुंदर है और जो प्रवादीरूपी हस्तियों के भेदन में सिंह के समान थे ।।45।। विद्वानों की सभा में जिनका नाम कह देने मात्र से सब का गर्व दूर हो जाता है वे यशोभद्र स्वामी हमारी रक्षा करें ।।46।।
मैं उन प्रभाचंद्र कवि की स्तुति करता हूँ जिनका यश चंद्रमा की किरणों के समान अत्यंत शुक्ल है और जिन्होंने चंद्रोदय की रचना करके जगत को हमेशा के लिए आह्लादित किया है ।।47।। वास्तव में चंद्रोदय की (न्यायकुमुदचंद्रोदय की) रचना करने वाले उन प्रभाचंद्र आचार्य के कल्पांत काल तक स्थिर रहने वाले तथा सज्जनों के मुकुटभूत यश की प्रशंसा कौन नहीं करता? अर्थात् सभी करते हैं ।।48।। जिनके वचनों से प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्षमार्ग (भगवती आराधना) की आराधना कर जगत् के जीव सुखी होते हैं वे शिवकोटि मुनीश्वर भी हमारी रक्षा करें ।।49।। जिनकी जटारूप प्रबलयुक्ति पूर्ण वृत्तियाँ-टीकाएँ काव्यों के अनुचिंतन में ऐसी शोभायमान होती थीं मानो हमें उन काव्यों का अर्थ ही बतला रही हों, ऐसे वे जटासिंहनंदि आचार्य (वरांगचरित के कर्ता) हम लोगों की रक्षा करें ।।50।। वे काणभिक्षु जयवान् हों जिनके धर्मरूप सूत्र में पिरोये हुए मनोहर वचनरूप निर्मल मणि कथाशास्त्र के अलंकारपने को प्राप्त हुए थे अर्थात् जिनके द्वारा रचे गये कथाग्रंथ सब ग्रंथों में अत्यंत श्रेष्ठ हैं ।।51।। जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे अथवा जिन्होंने कवियों को पथप्रदर्शन करने के लिए किसी लक्षणग्रंथ की रचना की थी और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानों के शब्दसंबंधी दोषों को नष्ट करने वाला है ऐसे उन देवाचार्य-देवनंदी का कौन वर्णन कर सकता है ।।52।।
भट्टाकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्यों के अत्यंत निर्मल गुण विद्वानों के हृदय में मणिमाला के समान सुशोभित होते हैं ।।53।। वे वादिसिंह कवि किसके द्वारा पूज्य नहीं हैं जो कि कवि, प्रशस्त व्याख्यान देने वाले और गमकों-टीकाकारों में सबसे उत्तम थे ।।54।। वे अत्यंत प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार तथा काव्यस्वरूप के महान् ज्ञाता है तथा जिनकी वाणी के सामने औरों की तो बात ही क्या, स्वयं सुरगुरु बृहस्पति की वाणी भी सीमित-अल्प जान पड़ती है ।।55-56।। धवलादि सिद्धांतों के ऊपर अनेक उपनिबंध-प्रकरणों के रचने वाले हमारे गुरु श्रीवीरसेन भट्टारक के कोमल चरणकमल हमेशा हमारे मनरूप सरोवर में विद्यमान रहे ।।57।। श्रीवीरसेन गुरु की धवल, चंद्रमा के समान निर्मल और समस्त लोक को धवल करने वाली वाणी (धवलाटीका) तथा कीर्ति को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।58।। वे जयसेन गुरु हमारी रक्षा करें जो कि तपोलक्ष्मी के जन्मदाता थे, शास्त्र और शांति के भंडार थे, विद्वानों के समूह के अग्रणी-प्रधान थे, वे कवि परमेश्वर लोक में कवियों द्वारा पूज्य थे जिन्होंने शब्द और अर्थ के संग्रहरूप समस्त पुराण का संग्रह किया था ।।55-60।।
इन ऊपर कहे हुए कवियों के सिवाय और भी अनेक कवि हैं उनका गुणगान तो दूर रहा नाम मात्र भी कहने में कौन समर्थ हो सकता है अर्थात् कोई नहीं । मंगल प्राप्ति की अभिलाषा से मैं उन जगत् पूज्य सभी कवियों का सत्कार करता हूँ ।।61।। संसार में वे ही पुरुष कवि हैं और वे ही चतुर हैं जिनकी कि वाणी धर्मकथा के अंगपने को प्राप्त होती है अर्थात् जो अपनी वाणी-द्वारा धर्मकथा की रचना करते हैं ।।62।।
कविता भी वही प्रशंसनीय समझी जाती है जो धर्मशास्त्र से संबंध रखती है । धर्मशास्त्र के संबंध से रहित कविता मनोहर होने पर भी मात्र पापास्रव के लिए होती है ।।63।। कितने ही मिथ्यादृष्टि कानों को प्रिय लगने वाले मनोहर काव्यग्रंथों की रचना करते हैं परंतु उनके वे काव्य अधर्मानुबंधी होने से धर्मशास्त्र के निरूपक न होने से सज्जनों को संतुष्ट नहीं कर सकते ।।64।। लोक में कितने ही कवि ऐसे भी हैं जो काव्यनिर्माण के लिए उद्यम करते हैं परंतु वे बोलने की इच्छा रखने वाले गूँगे पुरुष की तरह केवल हँसी को ही प्राप्त होते हैं ।।65।।
योग्यता न होने पर भी अपने को कवि मानने वाले कितने ही लोग दूसरे कवियों के कुछ वचनों को लेकर उसकी छाया मात्र कर देते हैं अर्थात् अन्य कवियों की रचना में थोड़ा-सा परिवर्तन कर उसे अपनी मान लेते हैं जैसे कि नकली व्यापारी दूसरों के थोड़े से कपड़े लेकर उनमें कुछ परिवर्तन कर व्यापारी बन जाते हैं ।।66।। शृंगारादि रसों से भरी हुई रसीली कवितारूपी कामिनी के भोगने में उसकी रचना करने में असमर्थ हुए कितने ही कवि उस प्रकार सहायकों की वांछा करते हैं जिस प्रकार कि स्त्रीसंभोग में असमर्थ कामीजन ओषधादि सहायकों की वांछा करते हैं ।।67।।
कितने ही कवि अन्य कवियों द्वारा रचे गये शब्द तथा अर्थ में कुछ परिवर्तन कर उनसे अपने काव्यग्रंथों का प्रसार करते हैं जैसे कि व्यापारी अन्य पुरुषों द्वारा बनाये हुए माल में कुछ परिवर्तन कर अपनी छाप लगा कर उसे बेचा करते हैं ।।68।। कितने ही कवि ऐसी कविता करते हैं जो शब्दों से तो सुंदर होती है परंतु अर्थ से शून्य होती है । उनकी यह कविता लाख की बनी हुई कंठी के समान उत्कृष्ट शोभा को प्राप्त नहीं होती ।।69।। कितने ही कवि सुंदर अर्थ को पाकर भी उसके योग्य सुंदर पदयोजना के बिना सज्जन पुरुषों को आनंदित करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते जैसे कि भाग्य से प्राप्त हुई कृपण मनुष्य की लक्ष्मी योग्य पद-स्थान योजना के बिना सत्पुरुषों को आनंदित नहीं कर पाती ।।70।।
कितने ही कवि अपने इच्छानुसार काव्य बनाने का प्रारंभ तो कर देते हैं परंतु शक्ति न होने से उसकी पूर्ति नहीं कर सकते अत: वे टैक्स के भार से दबे हुए बहुकुटुंबी व्यक्ति के समान दु:खी होते हैं ।।71।। कितने ही कवि अपनी कविता-द्वारा कपिल आदि आप्ताभासों के उपदिष्ट मन का पोषण करते हैं―मिथ्यामार्ग का प्रचार करते हैं । ऐसे कवियों का कविता करना व्यर्थ है क्योंकि कुकवि कहलाने की अपेक्षा अकवि कहलाना ही अच्छा है ।।72।। कितने ही कवि ऐसे भी हैं जिन्होंने न्याय, व्याकरण आदि महाविद्याओं का अभ्यास नहीं किया है तथा जो संगीत आदि कलाशास्त्रों के ज्ञान से दूर है फिर भी वे काव्य करने की चेष्टा करते हैं, अहो इनके साहस को देखो ।।73।। इसलिए बुद्धिमानों को शास्त्र और अर्थ का अच्छी तरह अभ्यास कर तथा महाकवियों की उपासना करके ऐसे काव्य की रचना करनी चाहिए जो धर्मोपदेश से सहित हो, प्रशंसनीय हो और यश को बढ़ाने वाला हो ।।74।।
उत्तम कवि दूसरों के द्वारा निकाले हुए दोषों से कभी नहीं डरता । क्या अंधकार को नष्ट करने वाला सूर्य उलूक के भय से उदित नहीं होता ? ।।75।। अन्यजन संतुष्ट हों अथवा नहीं कवि को अपना प्रयोजन पूर्ण करने के प्रति ही उद्यम करना चाहिए । क्योंकि कल्याण की प्राप्ति अन्य पुरुषों की आराधना से नहीं होती किंतु श्रेष्ठ मार्ग के उपदेश से होती है ।।76।। कितने ही कवि प्राचीन हैं और कितने ही नवीन है तथा उन सबके मत जुदे-जुदे है अत: उन सबको प्रसन्न करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ? ।।77।। क्योंकि कोई शब्दों की सुंदरता को पसंद करते हैं, कोई मनोहर अर्थसंपत्ति को चाहते हैं, कोई समास की अधिकता को अच्छा मानते हैं और कोई पृथक्-पृथक् रहने वाली अलमस्त पदावली को ही चाहते हैं ।।78।। कोई मृदुल-सरल रचना को चाहते हैं, कोई कठिन रचना को चाहते हैं, कोई मध्यम श्रेणी की रचना पसंद करते हैं और कोई ऐसे भी है जिनकी रुचि सबसे विलक्षण-अनोखी है ।।79।।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न विचार होने के कारण बुद्धिमान् पुरुषों को प्रसन्न करना कठिन कार्य है । तथा सुभाषितों से सर्वथा अपरिचित रहने वाले मूर्ख मनुष्य को वश में करना उनकी अपेक्षा भी कठिन कार्य है ।।80।। दुष्ट पुरुष निर्दोष और मनोहर कथा को भी दूषित कर देते हैं, जैसे चंदनवृक्ष की मनोहर कांति से युक्त नयी कोपलों को सर्प दूषित कर देते हैं ।।81।। परंतु सज्जन पुरुष सदोष रचना को भी निर्दोष बना देते हैं जैसे कि शरद् ऋतु पंक सहित सरोवरों को पंकरहित-निर्मल बना देती है ।।82।। दुर्जन पुरुष दोषों को चाहते हैं और सज्जन पुरुष गुणों को । उनका यह सहज स्वभाव है जिसकी चिकित्सा बहुत समय में भी नहीं हो सकती अर्थात् उनका यह स्वभाव किसी प्रकार भी नहीं छूट सकता ।।83।। जब कि सज्जनों का धन गुण है और दुर्जनों का धन दोष, तब उन्हें अपना-अपना धन ग्रहण कर लेने में भला कौन बुद्धिमान् पुरुष बाधक होगा ? ।।84।। अथवा दुर्जन पुरुष हमारे काव्य से दोषों को ग्रहण कर लेवें जिससे गुण-ही-गुण रह जायें यह बात हमको अत्यंत इष्ट है क्योंकि जिस काव्य से समस्त दोष निकाल लिये गये हों वह काव्य निर्दोष होकर उत्तम हो जायेगा ।।85।। जिस प्रकार मंत्रविद्या को सुनकर भूत, पिशाचादि महाग्रहों से पीड़ित मनुष्यों का मन दुःखी होता है उसी प्रकार निर्दोष धर्मकथा को सुनकर दुर्जनों का मन दुःखी होता है ।।86।। जिन पुरुषों की बुद्धि मिथ्यात्व से दूषित होती है उन्हें धर्मरूपी ओषधि तो अरुचिकर मालूम होती ही है साथ में उत्तमोत्तम अन्य पदार्थ भी बुरे मालूम होते हैं जैसे कि पित्तज्वर वाले को ओषधि या अन्य दुग्ध आदि उत्तम पदार्थ भी बुरे-कड़वे मालूम होते हैं ।।87।। कविरूप मंत्रवादियों के द्वारा प्रयोग में लाये हुए सुभाषित रूप मंत्रों को सुनकर दुर्जन पुरुष भूतादि ग्रहों के समान प्रकोप को प्राप्त होते हैं ।।88।। जिस प्रकार बहुत दिन से जमे हुए बाँस की गाँठदार जड़ स्वभाव से टेढ़ी होती है उसे कोई सीधा नहीं कर सकता उसी प्रकार चिरसंचित मायाचार से पूर्ण दुर्जन मनुष्य भी स्वभाव से टेढ़ा होता है उसे कोई सीधा-सरल परिणामी नही कर सकता अथवा जिस तरह कोई कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर सकता उसी तरह दुर्जन को भी सीधा नहीं कर सकता ।।89।। यह एक आश्चर्य की बात है कि सज्जन पुरुष चिरकाल के सतत प्रयत्न से भी जगत् को अपने समान सज्जन बनाने के लिए समर्थ नहीं हो पाते परंतु दुर्जन पुरुष उसे शीघ्र ही दुष्ट बना लेते हैं ।।90।। ईर्ष्या नहीं करना, दया करना तथा गुणी जीवों से प्रेम करना यह सज्जनता की अंतिम अवधि है और इसके विपरीत अर्थात् ईर्ष्या करना, निर्दयी होना तथा गुणी जीवों से प्रेम नहीं करना यह दुर्जनता की अंतिम अवधि है । यह सज्जन और दुर्जनों का स्वभाव ही है ऐसा निश्चय कर सज्जनों में न तो विशेष राग ही करना चाहिए और न दुर्जनों का अनादर ही करना चाहिए ।।91-92।। कवियों के अपने कर्तव्य की पूर्ति में सज्जन पुरुष ही अवलंबन होते हैं ऐसा मानकर मैं अलंकार, गुण, रीति आदि लहरों से भरे हुए कवितारूपी समुद्र को लाँघना चाहता हूँ अर्थात् सत्पुरुषों के आश्रय से ही मैं इस महान् काव्य ग्रंथ को पूर्ण करना चाहता हूँ ।।93।। काव्यस्वरूप के जानने वाले विद्वान, कवि के भाव अथवा कार्य को काव्य कहते हैं । कवि का वह काव्य सर्वसंमत अर्थ से सहित, ग्राम्यदोष से रहित, अलंकार से युक्त और प्रसाद आदि गुणों से शोभित होना चाहिए ।।94।। कितने ही विद्वान् अर्थ की सुंदरता को वाणी का अलंकार कहते हैं और कितने ही पदों की सुंदरता को, किंतु हमारा मत है कि अर्थ और पद दोनों की सुंदरता ही वाणी का अलंकार है ।।95।। सज्जन पुरुषों का बनाया हुआ जो काव्य अलंकारसहित, शृंगारादि रसों से युक्त, सौंदर्य से ओतप्रोत और उच्छिष्टता रहित अर्थात् मौलिक होता है वह काव्य सरस्वतीदेवी के मुख के समान शोभायमान होता है अर्थात् जिस प्रकार शरीर में मुख सबसे प्रधान अंग है उसके बिना शरीर की शोभा और स्थिरता नहीं होती उसी प्रकार सर्व लक्षणपूर्ण काव्य ही सब शास्त्रों में प्रधान है तथा उसके बिना अन्य शास्त्रों की शोभा और स्थिरता नहीं हो पाती ।।96।। जिस काव्य में न तो रीति की रमणीयता है, न पदों का लालित्य है और न रस का ही प्रवाह है उसे काव्य नहीं कहना चाहिए वह तो केवल कानों को दुःख देने वाली ग्रामीण भाषा ही हैं ।।97।। जो अनेक अर्थों को सूचित करने वाले पदविन्यास से सहित, मनोहर रीतियों से युक्त एवं स्पष्ट अर्थ से उद्भासित प्रबंधों-काव्यों की रचना करते हैं वे महाकवि कहलाते हैं ।।98।। जो प्राचीनकाल के इतिहास से संबंध रखने वाला हो, जिसमें तीर्थकर चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के चरित्र का चित्रण किया गया हो तथा जो धर्म, अर्थ और काम के फल को दिखाने वाला हो उसे महाकाव्य कहते हैं ।।99।। किसी एक प्रकीर्णक विषय को लेकर कुछ श्लोकों की रचना तो सभी कवि कर सकते हैं परंतु पूर्वापर का संबंध मिलाते हुए किसी प्रबंध की रचना करना कठिन कार्य है ।।100।। जब कि इस संसार में शब्दों का समूह अनंत है, वर्णनीय विषय अपनी इच्छा के आधीन है, रस स्पष्ट हैं और उत्तमोत्तम छंद सुलभ हैं तब कविता करने में दरिद्रता क्या है ? अर्थात् इच्छानुसार सामग्री के मिलने पर उत्तम कविता ही करना चाहिए ।।101।। विशाल शब्दमार्ग में भ्रमण करता हुआ जो कवि अर्थरूपी सघन वनों में घूमने से खेद-खिन्नता को प्राप्त हआ है उसे विश्राम के लिए महाकविरूप वृक्षों की छाया का आश्रय लेना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार महावृक्षों की छाया से मार्ग की थकावट दूर हो जाती है और चित्त हलका हो जाता है उसी प्रकार महाकवियों के काव्यग्रंथों के परिशीलन से अर्थाभाव से होने वाली सब खिन्नता दूर हो जाती है और चित्त प्रसन्न हो जाता है ।।102।। प्रतिभा जिसकी जड़ है, माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि गुण जिसकी उन्नत शाखाएँ है, और उत्तम शब्द ही जिसके उज्जवल पत्ते हैं ऐसा यह महाकविरूपी वृक्ष यशरूपी पुष्पमंजरी को धारण करता है ।।103।। अथवा बुद्धि ही जिसके किनारे है, प्रसाद आदि गुण ही जिसमें लहरे हैं, जो गुणरूपी रत्नों से भरा हुआ है, उच्च और मनोहर शब्दों से युक्त है, तथा जिसमें गुरुशिष्य परंपरा रूप विशाल प्रवाह चला आ रहा है ऐसा यह महाकवि समुद्र के समान आचरण करता है ।।104।।
हे विद्वान् पुरुषो ! तुम लोग ऊपर कहे हुए काव्यरूपी रसायन का भरपूर उपयोग करो जिससे कि तुम्हारा यशरूपी शरीर कल्पांत काल तक स्थिर रह सके । भावार्थ―जिस प्रकार रसायन सेवन करने से शरीर पुष्ट हो जाता है उसी प्रकार ऊपर कहे हुए काव्य, महाकवि आदि के स्वरूप को समझकर कविता करनेवाले का यश चिरस्थायी हो जाता है ।।105।। जो पुरुष यशरूपी धन का संचय और पुण्यरूपी पण्य का व्यवहार-लेनदेन करना चाहते हैं उनके लिए धर्मकथा को निरूपण करने वाला यह काव्य मूलधन (पूँजी) के समान माना गया है ।।106।। यह निश्चय कर मैं ऐसी कथा को आरंभ करता हूँ जौ धर्मशास्त्र से संबंध रखने वाली है, जिसका प्रारंभ अनेक सज्जन पुरुषों के द्वारा किया गया है तथा जिसमें ऋषभनाथ आदि महापुरुषों के जीवनचरित्र का वर्णन किया गया है ।।107।। जो धर्मकथा कल्पलता के समान, फैली हुई अनेक शाखाओं (डालियों, कथा-उपकथाओं) से सहित है, छाया (अनातप, कांति नामक गुण) से युक्त है, फलों (मधुर फल, स्वर्ग मोक्षादि की प्राप्ति) से शोभायमान है, आर्यों भोगभूमिज मनुष्य, श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सेवित है, मनोहर है, और उत्तम है । अथवा जो धर्मकथा बड़े सरोवर के समान प्रसन्न (स्वच्छ, प्रसादगुण से सहित) है, अत्यंत गंभीर (अगाध, गूढ़ अर्थ से युक्त) है, निर्मल (कीचड़ आदि से रहित, दुःश्रवत्व आदि रोगों से रहित) है, सुखकारी है, शीतल है, और जगत्त्रय के संताप को दूर करने वाली है । अथवा जो धर्मकथा आकाशगंगा के समान गुरुप्रवाह (बड़े भारी प्रवाह, गुरुपरंपरा से युक्त है, पंक (कीचड़, दोष) से रहित है, ताप (गरमी, संसारभ्रमणजन्य खेद) को नष्ट करने वाली है, कुशल पुरुषों (देवों, गणधरादि चतुर पुरुषों द्वारा किये गये अवतार (प्रवेश, अवगाहन) से सहित है और पुण्य (पवित्र, पुण्यवर्धक) रूप है । अथवा जो धर्मकथा चित्त को प्रसन्न करने, सब प्रकार के मंगलों का संग्रह करने तथा अपने आप में जगत्त्रय के प्रतिबिंबित करने के कारण दर्पण की शोभा को हँसती हुई-सी जान पड़ती है । अथवा जो धर्मकथा अत्यंत उन्नत और अभीष्ट फल को देने वाले श्रुतस्कंधरूपी कल्पवृक्ष से प्राप्त हुई श्रेष्ठ बड़ी शाखा के समान शोभायमान हो रही है । अथवा जो धर्मकथा प्रथमानुयोगरूपी गहरे समुद्र की बेला (किनारे) के समान महागंभीर शब्दों से सहित है और फैले हुए महान् अर्थ रूप जल से युक्त है । जो धर्मकथा स्वर्ग मोक्षादि के साधक समस्त तंत्रों का निरूपण करने वाली है, मिथ्यामत को नष्ट करने वाली है, सज्जनों के संवेग को पैदा करने वाली और वैराग्य रस को बढ़ाने वाली है । जो धर्मकथा आश्चर्यकारी अर्थों से भरी हुई है, अत्यंत मनोहर है, सत्य अथवा परम प्रयोजन को सिद्ध करने वाली है, अनेक बड़ी-बड़ी कथाओं से युक्त है, गुणवान् पूर्वाचायों द्वारा जिसकी रचना की गयी है जो यश तथा कल्याण को करने वाली है, पुण्यरूप है और स्वर्गमोक्षादि फलों को देने वाली है ऐसी उस धर्मकथा को मैं पूर्व आचार्यों की आम्नाय के अनुसार कहूँगा । हे सज्जन पुरुषों, उसे तुम सब ध्यान से सुनो ।।108-116।। बुद्धिमानों को इस कथारंभ के पहले ही कथा, वक्ता और श्रोताओं के लक्षण अवश्य ही कहना चाहिए ।।117।। मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म, अर्थ तथा काम का कथन करना कथा कहलाती है । जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान पुरुष सत्कथा कहते हैं ।।118।। धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं अत: धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा कहलाती है । यदि यह अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो विकथा ही कहलायेगी और मात्र पापास्रव का ही कारण होगी ।।119।। जिससे जीवों को स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है वास्तव में वही धर्म कहलाता है उससे संबंध रखने वाली जो कथा है उसे सद्धर्मकथा कहते हैं ।।120।। सप्त ऋद्धियों से शोभायमान गणधरादि देवों ने इस सद्धर्मकथा के सात अंग कहे हैं । इन सात अंगों से भूषित कथा अलंकारों से सजी हुई नटी के समान अत्यंत सरस हो जाती है ।।121।। द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं । ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होता चाहिए ।।122।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊर्ध्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेंद्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है, और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं ।।123-124।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें उसे सत्कथा कहते हैं । इस ग्रंथ में भी अवसर के अनुसार इन अंगों का विस्तार दिखाया जायेगा ।।125।।
वक्ता का लक्षण
ऊपर कही हुई कथा का कहने वाला आचार्य वही पुरुष हो सकता है जो सदाचारी हो, स्थिरबुद्धि हो, इंद्रियों को वश में करने वाला हो, जिसकी सब इंद्रियाँ समर्थ हों, जिसके अंगोंपांग सुंदर हों, जिसके वचन स्पष्ट परिमार्जित और सबको प्रिय लगने वाले हों, जिसका आशय जिनेंद्रमतरूपी समुद्र के जल से धुला हुआ और निर्मल हो, जिसकी वाणी समस्त दोषों के अभाव से अत्यंत उज्जवल हो, श्रीमान् हो, सभाओं को वश में करने वाला हो, प्रशस्त वचन बोलने वाला हो, गंभीर हो, प्रतिभा से युक्त हो, जिसके व्याख्यान को सत्पुरुष पसंद करते हों, अनेक प्रश्न तथा कुतर्कों को सहने वाला हो, दयालु हो, प्रेमी हो, दूसरे के अभिप्राय को समझने में निपुण हो, जिसने समस्त विद्याओं का अध्ययन किया हो और धीर, वीर हो ऐसे पुरुष को ही कथा कहनी चाहिए ।।126-129।। जो अनेक उदाहरणों के द्वारा वस्तुस्वरूप कहने में कुशल है, संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओं में निपुण है, अनेक शास्त्र और कलाओं का जानकार है वही उत्तम वक्ता कहा जाता है ।।130।। वक्ता को चाहिए कि वह कथा कहते समय अंगुलियाँ नहीं चटकावे, न भौंह ही चलावें, न किसी पर आक्षेप करे, न हँसे, न जोर से बोले और न धीरे ही बोले ।।131।। यदि कदाचित् सभा के बीच में जोर से बोलना पड़े तो उद्धतपना छोड़कर सत्य प्रमाणित वचन इस प्रकार बोले जिससे किसी को क्षोभ न हो ।।132।। वक्ता को हमेशा वही वचन बोलना चाहिए जो हितकारी हो, परिमित हो, धर्मोपदेश से सहित हो और यश को करने वाला हो । अवसर आने पर भी अधर्मयुक्त तथा अकीर्ति को फैलाने वाले वचन नहीं कहना चाहिए ।।133।। इस प्रकार अयुक्तियों का परिहार करने वाली कथा की युक्तियों का सम्यक् प्रकार से विचार कर जो वर्णनीय कथावस्तु का प्रारंभ करता है वह प्रशंसनीय श्रेष्ठ वक्ता समझा जाता है ।।134।। बुद्धिमान वक्ता को चाहिए कि वह अपने मत की स्थापना करते समय आक्षेपिणी कथा कहे, मिथ्या मत का खंडन करते समय विक्षेपिणी कथा कहे, पुण्य के फलस्वरूप विभूति आदि का वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादन के समय निर्वेदिनी कथा कहे ।।135-136।। इस प्रकार धर्मकथा के अंगभूत आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी रूप चारों कथाओं का विचार कर श्रोताओं की योग्यतानुसार वक्ता को कथन करना चाहिए ।।137।। अब आचार्य श्रोताओं का लक्षण कहते हैं―
श्रोता का लक्षण
जो हमेशा धर्मश्रवण करने में लगे रहते हैं विद्वानों ने उन्हें श्रोता माना है । अच्छे और बुरे के भेद से श्रोता अनेक प्रकार के हैं, उनके अच्छे और बुरे भावों के जानने के लिए नीचे लिखे अनुसार दृष्टांतों की कल्पना की जाती है ।।138।। मिट्टी, चलनी, बकरा, बिलाव, तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, गाय, हंस, भैंसा, फूटा घड़ा, डाँस और जोंक इसी प्रकार चौदह प्रकार के श्रोताओं के दृष्टांत समझना चाहिए । भावार्थ―(1) जैसे मिट्टी पानी का संसर्ग रहते हुए कोमल रहती है, बाद में कठोर हो जाती है । इसी प्रकार जो श्रोता शास्त्र सुनते समय कोमल परिणामी हों परंतु बाद में कठोर परिणामी हो जायें वे मिट्टी के समान श्रोता हैं । (2) जिस प्रकार चलनी सारभूत आटे को नीचे गिरा देती है और छोक को बचा रखती है उसी प्रकार जो श्रोता वक्ता के उपदेश में से सारभूत तत्त्व को छोड़कर निःसार तत्त्व को ग्रहण करते हैं वे चलनी के समान श्रोता हैं । (3) जो अत्यंत कामी हैं अर्थात् शास्त्रोपदेश के समय श्रृंगार का वर्णन सुनकर जिनके परिणाम श्रृंगार रूप हो जावें वे अज के समान श्रोता हैं । (4) जैसे अनेक उपदेश मिलने पर भी बिलाव अपनी हिंसक प्रवृत्ति नहीं छोड़ता, सामने आते ही चूहे पर आक्रमण कर देता है उसी प्रकार जो श्रोता बहुत प्रकार से समझाने पर भी क्रूरता को नहीं छोड़ें, अवसर आने पर क्रूर प्रवृत्ति करने लगें वे मार्जार के समान श्रोता हैं । (5) जैसे तोता स्वयं अज्ञानी है दूसरों के द्वारा कहलाने पर ही कुछ सीख पाता है वैसे ही जो श्रोता स्वयं ज्ञान से रहित है दूसरों के बतलाने पर ही कुछ शब्द मात्र ग्रहण कर पाते हैं वे शुक के समान श्रोता हैं । (6) जो बगुले के समान बाहर से भद्रपरिणामी मालूम होते हों परंतु जिनका अंतरंग अत्यंत दुष्ट हो वे बगुला के समान श्रोता हैं । (7) जिनके परिणाम हमेशा कठोर रहते हैं तथा जिनके हृदय में समझाये जाने पर जिनवाणी रुप जल का प्रवेश नहीं हो पाता वे पाषाण के समान श्रोता हैं । (8) जैसे साँप को पिलाया हुआ दूध भी विषरूप हो जाता है वैसे ही जिनके सामने उत्तम-से-उत्तम उपदेश भी खराब असर करता है वे सर्प के समान श्रोता हैं । (9) जैसे गाय तृण खाकर दूध देती है वैसे ही जो थोड़ा-सा उपदेश सुनकर बहुत लाभ लिया करते हैं वे गाय के समान श्रोता हैं । (10) जो केवल सार वस्तु को ग्रहण करते हैं वे हंस के समान श्रोता हैं । (11) जैसे भैंसा पानी तो थोड़ा पीता है पर समस्त पानी को गँदला कर देता है । इसी प्रकार जो श्रोता उपदेश तो अल्प ग्रहण करते हैं परंतु अपने कुतर्कों से समस्त सभा में क्षोभ पैदा कर देते हैं वे भैंसा के समान श्रोता हैं । (12) जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं ठहरे वे छिद्र घट के समान श्रोता हैं । (13) जो उपदेश तो बिल्कुल ही ग्रहण न करें परंतु सारी सभा को व्याकुल कर दें वे डांस के समान श्रोता हैं । (14) जो गुण छोड़कर सिर्फ अवगुणों को ही ग्रहण करें वे जोंक के समान श्रोता हैं । इन ऊपर कहे हुए श्रोताओं के उत्तम, मध्यम और अधम के भेद से तीन-तीन भेद होते हैं । इनके सिवाय और भी अन्य प्रकार के श्रोता हैं परंतु उन सबकी गणना से क्या लाभ है ।।139-140।। इन श्रोताओं में जो श्रोता गाय और हंस के समान हैं वे उत्तम कहलाते हैं, जो मिट्टी और तोता के समान हैं उन्हें मध्यम जानना चाहिए और बाकी के समान अन्य सब श्रोता अधम माने गये हैं ।।141।। जो श्रोता नेत्र, दर्पण, तराजू और कसौटी के समान गुण-दोषों के बतलाने वाले हैं वे सत्कथारूप रत्न के परीक्षक माने गये हैं ।।142।।। श्रोताओं को शास्त्र सुनने के बदले किसी सांसारिक फल की चाह नहीं करनी चाहिए । इसी प्रकार वक्ता को भी श्रोताओं से सत्कार, धन, ओषधि और आश्रय―घर आदि की इच्छा नहीं करनी चाहिए ।।143।। स्वर्ग, मोक्ष आदि कल्याणों की अपेक्षा रखकर ही वक्ता को सन्मार्ग का उपदेश देना चाहिए तथा श्रोता को सुनना चाहिए क्योंकि सत्पुरुषों की चेष्टाएं वास्तविक कल्याण की प्राप्ति के लिए ही होती है अन्य लौकिक कार्यों के लिए नहीं ।।144।। जो श्रोता शुश्रूषा आदि गुणों से युक्त होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है । इसी प्रकार जो वक्ता वात्सल्य आदि गुणों से भूषित होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है ।।145।। शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीति ये श्रोताओं के आठ गुण जानना चाहिए ।। भावार्थ―सत्कथा को सुनने की इच्छा होना शुश्रूषा गुण है, सुनना श्रवण है, समझकर ग्रहण करना ग्रहण है, बहुत समय तक उसकी धारणा रखना धारण है, पिछले समये ग्रहण किये हुए उपदेश आदि का स्मरण करना स्मरण है, तर्क-द्वारा पदार्थ स्वरूप के विचार करने की शक्ति होना ऊह है, हेय वस्तुओं को छोड़ना अपोह है और युक्ति द्वारा पदार्थ का निर्णय करना निर्णीति गुण है । श्रोताओं में इनका होना अत्यंत आवश्यक है ।।146।। सत्कथा के सुनने से श्रोताओं को जो पुण्य का संचय होता है उससे उन्हें पहले तो स्वर्ग आदि अभ्युदयों की प्राप्ति होती है और फिर क्रम से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।147।। इस प्रकार मैंने शास्त्रों के अनुसार आप लोगों को कथामुख (कथा के प्रारंभ) का वर्णन किया है अब इस कथा के अवतार का संबंध कहता हूँ सो सुनो ।।148।।
कथावतार का वर्णन
गुरुपरंपरा से ऐसा सुना जाता है कि पहले तृतीय काल के अंत में नाभिराज के पुत्र भगवान् ऋषभदेव विहार करते हुए अपनी इच्छा से पृथिवी के मुकुटभूत कैलास पर्वत पर आकर विराजमान हुए ।।149।। कैलास पर विराजमान हुए उन भगवान् वृषभदेव की देवों ने भक्तिपूर्वक पूजा की तथा जुड़े हुए हाथों को मुकुट से लगाकर स्तुति की ।।150।। उसी पर्वत पर त्रिजगद्गुरु भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, उससे हर्षित होकर इंद्र ने वहाँ समवसरण की रचना करायी ।।151।। देवाधिदेव भगवान् आश्चर्यकारी विभूति के साथ जब समवसरण सभा में विराजमान थे तब भक्ति से भरे हुए महाराज भरत ने हर्ष के साथ आकर उन्हें नमस्कार किया ।।152।। महाराज भरत ने मनुष्य और देवों से पूजित उन जिनेंद्र-देव की अर्थ से भरे हुए अनेक स्तोत्रों द्वारा पूजा की और फिर वे विनय से नत होकर अपने योग्य स्थान पर बैठ गये ।।153।। दैदीप्यमान देवों से भरी हुई वह सभा भगवान से धर्मरूपी अमृत का पान कर उस तरह संतुष्ट हुई थी जिस तरह कि सूर्य के तेज किरणों का पान कर कुमलिनी संतुष्ट होती है ।।154।। इसके अनंतर मूर्तिमान् विनय की तरह महाराज भरत हाथ जोड़ सभा के बीच खड़े होकर यह वचन कहने लगे ।।155।। प्रार्थना करते समय महाराज भरत के दाँतों की किरणरूपी केशर से शोभायमान मुख से जो मनोहर वाणी निकल रही थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो उनके मुख से प्रसन्न हुई उज्ज्वल वर्णधारिणी सरस्वती ही निकल रही हो ।।156।। हे देव, देव और धरणेंद्रों से भरी हुई यह सभा आपके निमित्त से प्रबोध-प्रकृष्ट ज्ञान को (पक्ष में विकास को) पाकर कमलिनी के समान शोभायमान हो रही है क्योंकि सबके मुख, कमल के समान अत्यंत प्रफुल्लित हो रहे हैं ।।157।। हे भगवन् आपके यह दिव्य वचन अज्ञानांधकाररूप प्रलय में नष्ट हुए जगत् की पुनरुत्पत्ति के लिए सींचे गये अमृत के समान मालूम होते हैं ।।158।। हे देव, यदि अज्ञानांधकार को नष्ट करने वाले आपके वचनरूप किरण प्रकट नहीं होते तो निश्चय से यह समस्त जगत् अज्ञानरूपी सघन अंधकार में पड़ा रहता ।।159।। हे देव, आपके दर्शन मात्र से ही मैं कृतार्थ हो गया हूँ, यह ठीक ही है महानिधि को पाकर कौन कृतार्थ नहीं होता ? ।।160।। आपके वचन सुनकर तो मैं और भी अधिक कृतार्थ हो गया क्योंकि जब लोग अमृत को देखकर ही कृतार्थ हो जाते हैं तब उसका स्वाद लेने वाला क्या कृतार्थ नहीं होगा अर्थात् अवश्य ही होगा ।।161।। हे नाथ, वन में मेघ का बरसना सबको इष्ट है यह कहावत जो सुनी जाती थी सो आज यहाँ आपके द्वारा धर्मरूपी जल की वर्षा देखकर मुझे प्रत्यक्ष हो गयी । भावार्थ―जिस प्रकार वन में पानी की वर्षा सबको अच्छी लगती है उसी प्रकार इस कैलास के कानन में आपके द्वारा होने वाली धर्मरूपी जल की वर्षा सबको अच्छी लग रही है ।।162।। हे भगवन्, उपदेश देते हुए आपने किस पदार्थ को छोड़ा है ? अर्थात् किसी को भी नहीं । क्या सघन अंधकार को नष्ट करने वाला सूर्य किसी पदार्थ को प्रकाशित करने से बाकी छोड़ देता है ? अर्थात् नहीं ।।163।। हे भगवत् आपके द्वारा दिखलाये हुए तत्त्वों में सत्पुरुषों की बुद्धि कभी भी मोह को प्राप्त नहीं होती । क्या महापुरुषों के द्वारा दिखाये हुए विशाल मार्ग में नेत्र वाला पुरुष कभी गिरता है अर्थात् नहीं गिरता ।।164।। हे स्वामिन्, तीनों लोकों की लक्ष्मी के मुख देखने के लिए मंगल दर्पण के समान आचरण करने वाले आपके इन वचनों के विस्तार में प्रतिबिंबित हुई संसार की समस्त वस्तुओं को यद्यपि मैं देख रहा हूँ तथापि मेरे हृदय में कुछ पूछने की इच्छा उठ रही है और उस इच्छा का कारण आपके वचनरूपी अमृत के निरंतर पान करते रहने की लालसा ही समझनी चाहिए ।।165-166।। हे देव, यद्यपि लोग कह सकते हैं कि गणधर को छोड़कर साक्षात् आपसे पूछने वाला यह कौन है ? तथापि मैं इस बात को कुछ नहीं समझता, आपकी सातिशय भक्ति ही मुझे आपसे पूछने के लिए प्रेरित कर रही है ।।167।। हे भगवन् पदार्थ का विशेष स्वरूप जानने की इच्छा, अधिक लाभ की भावना, श्रद्धा की अधिकता अथवा कुछ करने की इच्छा ही मुझे आपके सामने वाचाल कर रही है ।।168।। हे भगवन् मैं तीर्थकर आदि महापुरुषों के उस पुण्य को सुनना चाहता हूँ जिसमें सर्वज्ञप्रणीत समस्त धर्मों का संग्रह किया गया हो । हे देव, मुझ पर प्रसन्न होइए, दया कीजिए और कहिए कि आपके समान कितने सर्वज्ञ-तीर्थकर होंगे ? मेरे समान कितने चक्रवर्ती होंगे ? कितने नारायण, कितने बलभद्र और कितने उनके शत्रु-प्रतिनारायण होंगे ? उनका अतीत चरित्र कैसा था ? वर्तमान में और भविष्यत् में कैसा होगा ? हे वक्तृश्रेष्ठ, यह सब मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ।।169-171।। हे सबका हित करने वाले जिनेंद्र, यह भी कहिए कि वे सब किन-किन नामों के धारक होंगे ? किस-किस गोत्र में उत्पन्न होंगे ? उनके सहोदर कौन-कौन होंगे ? उनके क्या-क्या लक्षण होंगे ? वे किस आकार के धारक होंगे ? उनके क्या–क्या आभूषण होंगे ? उनके क्या-क्या अस्त्र होंगे ? उनकी आयु और शरीर का प्रमाण क्या होगा ? एक-दूसरे में कितना अंतर होगा ? किस युग में कितने युगों के अंश होते हैं ? एक युग से दूसरे युग में कितना अंतर होगा ? युगों का परिवर्तन कितनी बार होता है ? युग के कौनसे भाग में मनु-कुलकर उत्पन्न होते हैं ? वे क्या जानते हैं ? एक मनु से दूसरे मनु के उत्पन्न होने तक कितना अंतराल होता है ? हे देव, यह सब जानने का मुझे कौतूहल उत्पन्न हुआ है सो यथार्थ रीति से मुझे इन सब तत्वों का स्वरूप कहिए ।।172-175।। इसके सिवाय लोक का स्वरूप, काल का अवतरण, वंशों की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति, क्षत्रिय आदि वर्णों की उत्पत्ति भी मैं आपके श्रीमुख से जानना चाहता हूँ ।।176।। हे जिनेंद्रसूर्य, अनादिकाल की वासना से उत्पन्न हुए मिथ्याज्ञान से सातिशय बड़े हुए मेरे इस संशयरूपी अंधकार को आप अपने वचनरूप किरणों के द्वारा शीघ्र ही नष्ट कीजिए ।।177।। इस प्रकार प्रश्न कर महाराज भरत जब चुप हो गये और कथा सुनने में उत्सुक होते हुए अपने योग्य आसन पर बैठ गये तब समस्त सभा ने भरत महाराज के इस प्रश्न की सातिशय प्रशंसा की जो कि समय के अनुसार किया गया था, प्रकाशमान अर्थों से भरा हुआ था, पूर्वापर संबंध से सहित था तथा उद्धतपने से रहित था ।।178-175।। उस समय उनके इस प्रश्न को सुनकर सब देवता लोग महाराज भरत की ओर आँख उठाकर देखने लगे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वे उन पर पुष्पवृष्टि ही कर रहे हैं ।।180।। हे भरतेश्वर, आप धन्य हैं, आज आप हमारे भी पूज्य हुए हैं । इस प्रकार इंद्रों ने उनकी प्रशंसा की थी सो ठीक ही है, विनय से किसकी प्रशंसा नहीं होती ? अर्थात् सभी की होती है ।।181।। संसार के सब पदार्थों को एक साथ जानने वाले भगवान् वृषभनाथ-यद्यपि प्रश्न के बिना ही भरत महाराज के अभिप्राय को जान गये थे तथापि वे श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते रहे ।।182।।
इस प्रकार महाराज भरत के द्वारा प्रार्थना किये गये आदिनाथ भगवान् सातिशय गंभीर वाणी से पुराण का अर्थ कहने लगे ।।183।। उस समय भगवान् के मुख से जो वाणी निकल रही थी वह बड़ा ही आश्चर्य करने वाली थी क्योंकि उसके निकलते समय न तो तालू, कंठ, ओठ, आदि अवयव ही हिलते थे और न दाँतों की किरण ही प्रकट हो रही थी ।।184।। अथवा सचमुच में भगवान् का मुखकमल ही इस सरस्वती का उत्पत्तिस्थान था उसने वहाँ उत्पन्न होकर ही जगत् को दश में किया ।।185।। भगवान् के मुख से जो दिव्य ध्वनि प्रकट हो रही थी वह बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी सो ठीक है क्योंकि जगत् का उद्धार चाहने वाले महापुरुषों की चेष्टाएँ आश्चर्य करने वाली ही होती हैं ।।186।। जिस प्रकार नहरों के जल का प्रवाह एकरूप होने पर भी अनेक प्रकार के वृक्षों को पाकर अनेकरूप हो जाता है उसी प्रकार जिनेंद्रदेव की वाणी एकरूप होने पर भी पृथक्-पृथक् श्रोताओं को प्राप्त कर अनेकरूप हो जाती है । भावार्थ-―भगवान की दिव्य ध्वनि उद्गम स्थान से एकरूप ही प्रकट होती है परंतु उसमें सर्वभाषारूप परिणमन होने का अतिशय होता है जिससे सब श्रोता लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं ।।187।। वे जगद्गुरु भगवान् स्वयं कृतकृत्य होकर भी धमोंपदेश के द्वारा दूसरों की भलाई के लिए उद्योग करते थे । इससे निश्चय होता है कि महापुरुषों की चेष्टाएँ स्वभाव से ही परोपकार के लिए होती है ।।188।। उनके मुख से प्रकट हुई दिव्यवाणी ने उस विशाल सभा को अमृत की धारा के समान संतुष्ट किया था क्योंकि अमृतधारा के समान ही उनकी वाणी भव्य जीवों का संताप दूर करने वाली थी, जन्म-मरण के दुःख से छुड़ाने वाली थी ।।189।। महाराज भरत ने पहले जो कुछ पूछा था उस सबको भगवान् वृषभदेव बिना किसी कहे के क्रमपूर्वक कहने लगे ।।190।। जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले उत्सर्पिणीकाल संबंधी तिरेसठ शलाकापुरुषों का चरित्र निरूपण करने वाले अत्यंत गंभीर पुराण का निरूपण किया, फिर अवसर्पिणीकाल का आश्रय कर तत्संबंधी तिरेसठ शलाकापुरुषों की कथा कहने की इच्छा से पीठिकासहित उनके पुराण का वर्णन किया ।।191-192।। भगवान् वृषभनाथ ने तृतीय काल के अंत में जो पूर्वकालीन इतिहास कहा था, वृषभसेन गणधर ने उसे अर्थरूप से अध्ययन किया ।।193।। तदनंतर गणधरों में प्रधान वृषभसेन गणधर ने भगवान की वाणी को अर्थरूप से हृदय में धारण कर जगत् के हित के लिए उसकी पुराणरूप से रचना की ।।194।। वही पुराण अजितनाथ आदि शेष तीर्थंकरों, गणधरों तथा बड़े-बड़े ऋषियों-द्वारा प्रकाशित किया गया ।।195।।
तदनंतर चतुर्थ काल के अंत में एक समय सिद्धार्थ राजा के पुत्र सर्वज्ञ महावीर स्वामी विहार करते हुए राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर आकर विराजमान हुए ।।196।। इसके बाद पता चलने पर राजगृही के अधिपति विनयवान् श्रेणिक महाराज ने जाकर उन अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर से उस पुराण को पूछा ।।197।। महाराज श्रेणिक के प्रति महावीर स्वामी के अनुग्रह का विचार कर गौतम गणधर ने उस समस्त पुराण का वर्णन किया ।।198।। गौतम स्वामी चिरकाल तक उसका स्मरण-चिंतवन करते रहे, बाद में उन्होंने उसे सुधर्माचार्य से कहा और सुधर्माचार्य ने जंबूस्वामी से कहा ।।199।। उसी समय से लेकर आज तक यह पुराण बीच में नष्ट नहीं होने वाली गुरुपरंपरा के क्रम से चला आ रहा है । इसी पुराण का मैं भी इस समय शक्ति के अनुसार प्रकाश करूँगा ।।200।। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि इस पुराण के मूलकर्ता अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं और निकट क्रम की अपेक्षा उत्तर ग्रंथकर्ता गौतम गणधर हैं ।।201।। महाराज श्रेणिक के प्रश्न को उद्देश्य करके गौतम स्वामी ने जो उत्तर दिया था उसी का अनुसंधान-विचार कर मैं इस पुराण ग्रंथ की रचना करता हूँ ।।202।। यह प्रतिमुख नाम का प्रकरण कथा के संबंध को सूचित करने वाला है तथा कथा की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए उपयोगी है अत: मैने यहाँ उसका वर्णन किया है ।।203।। यह पुराण ऋषियों के द्वारा कहा गया है इसलिए नियम से प्रमाणभूत है । अतएव आत्मकल्याण चाहने वालों को इसका श्रद्धान, अध्ययन और ध्यान करना चाहिए ।।204।। यह पुराण पुण्य बढ़ाने वाला है, पवित्र है, उत्तम मबलरूप है, आयु बढ़ाने वाला है, श्रेष्ठ है, यश बढ़ाने वाला है और स्वर्ग प्रदान करने वाला है ।।205।। जो मनुष्य इस पुराण की पूजा करते हैं उन्हें शांति की प्राप्ति होती है, उनके सब विघ्न नष्ट हो जाते है; जो इसके विषय में जो कुछ पूछते हैं उन्हें संतोष और पुष्टि की प्राप्ति होती है; जो इसे पढ़ते हैं उन्हें आरोग्य तथा अनेक मंगलों की प्राप्ति होती है और जो सुनते हैं उनके कर्मों की निर्जरा हो जाती है ।।206।। इस पुराण के अध्ययन से दुःख देने वाले खोटे स्वप्न नष्ट हो जाते है, तथा सुख देनेवाले अच्छे स्वप्नों की प्राप्ति होती है, इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है तथा विचार करने वालों को शुभ अशुभ आदि निमित्तों-शकुनों की उपलब्धि भी होती है ।।207।। पूर्वकाल में वृषभसेन आदि गणधर जिस मार्ग से गये थे इस समय मैं भी उसी मार्ग से जाना चाहता हूँ अर्थात् उन्होंने जिस पुराण का निरूपण किया था उसी का निरूपण मैं भी करना चाहता हूँ सो इससे मेरी हँसी ही होगी, इसके सिवाय हो ही क्या सकता है ? अथवा यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि जिस आकाश में गरुड़ आदि बडे-बड़े पक्षी उड़ते हैं उसमें क्या छोटे-छोटे पक्षी नहीं उड़ते अर्थात् अवश्य उड़ते है ।।208।। इस पुराणरूपी मार्ग को वृषभसेन आदि गणधरों ने जिस प्रकार प्रकाशित किया है उसी प्रकार मैं भी इसे अपनी शक्ति के अनुसार प्रकाशित करता हूँ । क्योंकि लोक में जो आकाश सूर्य की किरणों के समूह से प्रकाशित होता है उसी आकाश को क्या तारागण प्रकाशित नहीं करते ? अर्थात् अवश्य करते हैं । भावार्थ―मैं इस पुराण को कहता अवश्य हूँ परंतु उसका जैसा विशद निरूपण वृषभसेन आदि गणधरों ने किया था वैसा मैं नहीं कर सकता । जैसे तारागण आकाश को प्रकाशित करते अवश्य है परंतु सूर्य की भाँति प्रकाशित नहीं कर पाते ।।209।। बोध-सम्यग्ज्ञान (पक्ष में विकास) की प्राप्ति कराकर सातिशय शोभित भव्य जीवों के हृदयरूपी कमलों के संकोच को गद्य करने वाला, वचनरूपी किरणों के विस्तार से मिथ्यामतरूपी अंधकार को नष्ट करने वाला सद्वृत्त-सदाचार का निरूपण करने वाला अथवा उत्तम छंदों से अर्पित (पक्ष में गोलाकार) शुद्ध मार्ग-रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग (पक्ष में कंटकादिरहित उत्तम भाग) को प्रकाशित करने वाला और इद्धर्द्धि-प्रकाशमान शब्द तथा अर्थरूप संपत्ति से (पक्ष में उज्जवल किरणों से युक्त) सूर्यबिंब के साथ स्पर्धा करने वाला यह जिनेंद्रदेव संबंधी पवित्र-पुण्यवर्धक पुराण जगत् में सदा जयशील रहे ।।210।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराण के
संग्रह में ‘कथामुखवर्णन’ नामक प्रथम पर्व समाप्त हुआ ।।1।।