वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 58
From जैनकोष
निशायितस्तैः परशु: परघ्न:,
स्वमूघ्नि निर्भेदभयानीभिज्ञै: ।
वैतंडिकैर्यै: कुसृति: प्रणीता,
मुने ! भवच्छाशनदृक᳭प्रमूढै: ।।58।।
(198) वैतंडिकों द्वारा स्वघातक मिथ्यावाद का प्रणयन―हे वीर जिनेंद्र ! जिन वितंडावादकारियों ने मिथ्या जानकारी का प्रणयन किया है वह आपके स्याद्वादशासन से अनभिज्ञ हैं और इस भय से कि कहीं स्वपक्ष का घात न हो जाये उन्होंने बढ़-बढ़कर प्रयास किया है, सो उनका यह प्रयास स्वयं ऐसा ही बैठा है कि जैसे कोई पुरुष परघात के आशय से कुल्हाड़े को तो चलाये, किंतु ऐसा चला दे कि अपने ही मस्तक पर मार ले । यहाँ संवेदनाद्वैतवादियों ने अपना यह रवैया बनाया कि परपक्ष का दूषण देते जावो, उससे हमारा संवेदनाद्वैत सिद्ध हो जायेगा और इस तरह अवस्तुव्यावृत्ति के नाम से अनेक कल्पनायें की, मगर उनसे द्वैततत्त्व ही सिद्ध हुआ है । सो यह प्रयास उन क्षणिकवादियों का अपने ही सिद्धांत के घात के लिए है । जैसे कोई पुरुष दूसरे को मारने के लिए कुल्हाड़ी उठाये और अपने ही मस्तक पर पड़ जाये तो खुद का ही तो मस्तक कटा । तो मालूम होता कि ऐसा कुल्हाड़ा उठाकर चलाने वाले को अपने घात का भय न मालूम था, इसी तरह इन संवेदनाद्वैतवादियों ने या सत्ताद्वैतवादियों ने कुछ युक्तियों का शासन चलाया तो है, मगर वह शस्त्र खुद के ही पक्ष का घात करने वाला बन गया । उन्हें यह पता न था कि इसमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं । तो यहाँ परपक्ष का निराकरण करने वाले इन अनभिज्ञ पुरुषों ने जिस न्याय का प्रणयन किया है उससे उनके ही पक्ष का निराकरण होता है । तो अपने ही स्वरूप का घात हो जायेगा, यह भय उनको विदित न था । सो ऐसे दर्शनविमूढ़ एकांतवादियों ने अपने ही पक्ष का घात करने के लिए अटपट शासन रचा है ।