आखेट
From जैनकोष
1. आखेटका निषेध
लांटी संहिता अधिकार 2/139 अंतर्भावोऽस्ति तस्यापि गुणव्रतसंज्ञिके। अनर्थदंडत्यागाख्ये बाह्यानर्थ क्रियादिवत् ॥139॥
= शिकार खेलना बाह्य अनर्थ क्रियाओंके समान है, इसलिए उसका त्याग अनर्थदंड त्याग नामके गुणव्रतमें अंतर्भूत हो जाता है।
2. सुखप्रदायी आखेटका निषेध क्यों?
लांटी संहिता अधिकार 2/141-148 ननु चानर्थदंडोऽस्ति भोगादन्यत्र याः क्रियाः। आत्मानंदाय यत्कर्म तत्कथं स्यात्तथाविधं ॥141॥ यथा सृक्चंदनं योषिद्वस्त्राभरणभोजनम्। सूखार्थं सर्वमेवैतत्तथाखेट क्रियापि च ॥142॥ मैवं तीव्रानुभावस्य बंधः प्रमादगौरवात्। प्रमादस्य निवृत्त्यर्थं स्मृतं व्रतकदंबकं ॥143॥ सृक्चंदनवनितादौ क्रियायां वा सुखाप्तये। भोगभावो सुखं तत्र हिंसा स्यादानुषंगिकी ॥144॥ आखेटके तु हिंसायाः भावः स्याद्भूरिजन्मिनः। पश्चाद्दैवानुयोगेन भोगः स्याद्वा न वा क्वचित् ॥145॥ हिंसानंदेन तेनोच्चै रौद्रध्यानेन प्राणिनाम्। नारकस्यायुषो बंधः स्यान्निर्दिष्टो जिनागमे ॥146॥ ततोऽवश्यं हि हिंसायां भावश्चानर्थदंडकः। त्याज्यः प्रागेव सर्वेभ्यः संवलेशेभ्यः प्रयत्नतः ॥147॥ तत्रावांतररूपस्य मृगयाभ्यासकर्मणः। त्यागः श्वेयानवश्यं स्यादंयथाऽसातबंधनम् ॥148॥
= प्रश्न - भोगोपभोगके सिवाय जो क्रियाएँ की जाती हैं उन्हें अनर्थदंड कहते हैं। परंतु शिकार खेलनेसे आत्माको आनंद प्राप्त होता है इसलिए शिकार खेलना अनर्थदंड नहीं है ॥141॥ परंतु जिस प्रकार पुष्पमाला, चंदन, स्त्रियाँ, वस्त्राभरण भोजनादि समस्त पदार्थ आत्माको सुख देनेवाले हैं उसी प्रकार शिकार खेलनेसे भी आत्माको सुख प्राप्त होता है? ॥142॥ उत्तर - ऐसा कहना युक्त नहीं। क्योंकि प्रमादकी अधिकताके कारण अनुभाग बंधकी अधिक तीव्रता हो जाती है और प्रमादको दूर करनेके लिए ही सर्व व्रत पाले जाते हैं। इसलिए शिकार खेलना भोगापभोगकी सामग्री नहीं है। बल्कि प्रमादका रूप है ॥143॥ माला, चंदन, स्त्री आदिका सेवन करनेमें सुखकी प्राप्तिके लिए ही केवल भोगोपभोग करनेके भाव किये जाते हैं तथा उनका सेवन करनेसे सुख मिलता भी है और उसमें जो हिंसा होती है वह केवल प्रसंगानुसार होता है संकल्पपूर्वक नहीं ॥144॥ परंतु शिकार खेलने में अनेक प्राणियोंकी हिंसा करनेके ही परिणाम होते हैं, तदनंतर उसके कर्मोंके अनुसार भोगापभोगकी प्राप्ति होती भी है और नहीं भी होती है ॥145॥ शिकार खेलनेका अभ्यास करना, शिकार खेलने की मनोकामना रखकर निशाना मारनेका अभ्यास करना तथा और भी ऐसी ही शिकार खेलनेके साधन रूप क्रियाओंका करना शिकार खेलनेमें ही अंतर्भूत हैं। इसलिए ऐसे सर्व प्रयोंगोंका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए क्योंकि ऐसा त्याग कल्याणकारी है। इसका त्याग न करनेसे असाता वेदनीयका पाप कर्म बंध ही होता है जो भावी दुःखोंका कारण है ॥146-148॥
3. आखेट त्यागके अतिचार
सागार धर्मामृत अधिकार 2/22 वस्त्रनाणकपुस्तादि-न्यस्तजीवच्छिदादिकम्। न कुर्यात्यक्तपापर्द्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ॥22॥
= शिकार व्यसनका त्यागी वस्त्र, सिक्का, काष्ठ और पाषाणदि शिल्पमें बनाये गये जीवोंके छेदनादिकको नहीं करे क्योंकि वह वस्त्रादिकमें बनाये गये जीवोंका छेदन-भेदन लोकमें निंदित है।
लांटी संहिता अधिकार 2/150-153 कार्यं विनापि क्रीडार्थम् कौतुकार्थमथापि च। कर्तव्यमटनं नैव वापीकूपादिवर्त्मसु ॥150॥ पुष्पादिवाटिकासूच्चैर्वनेषुपवनेषु च। सरित्तडागक्रीडादिसरःशून्यगृहादिषु ॥151॥ शस्याधिष्ठानक्षेत्रेषु गोष्ठीनेष्वन्यवेश्मसु। कारागारगृहेषूच्चैर्मठेषु नृपवेश्मसु ॥152॥ एवमित्यादि स्थानेषु विना कार्यं न जातुचित्। कौतुकादि विनोदार्थं न गच्छेन्मृगयोज्झितः ॥153॥
= बिना किसी अन्य प्रयोजनके केवल क्रीड़ा करनेके लिए अथवा केवल तमाशा देखनेके लिए इधर उधर नही घूमना चाहिए। किसी बावड़ी या कूआँके मार्गमें या और भी ऐसे ही स्थानोंमें बिना प्रयोजनके कभी नहीं घूमना चाहिए ॥150॥ जिसने शिकार खेलनेका त्याग कर दिया है उसको बिना किसी अन्य कार्यके केवल तमाशा देखनेके लिए या केवल मन बहलानेके लिए पौधे-फूल, वृक्ष आदिके बगीचोंमें, बड़े-बड़े वनोंमें, उपवनोंमें, नदियोंमें, सरोवरोंमें, क्रीड़ा करनेके छोटे-छोटे पर्वतों पर, क्रीड़ा करनेके लिए बनाये हुए तालाबोंमें, सूने मकानोंमें गेहुँ, जौ, मटर आदि अन्न उत्पन्न होने वाले खेतोंमें, पशुओंके बांधनेके स्थानोंमें दूसरेके घरोमें, जेलखानोंमें, बड़े-बड़े मठोंमें, राजमहलोंमें या और भी ऐसे ही स्थानोंमें कभी नहीं जाना चाहिए ॥151-153॥