वैयावृत्य
From जैनकोष
(1) आभ्यंतर तप का तीसरा भेद ।
- 1. आचार्य- इनकी बीमारी के समय मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व की ओर उनकी प्रवृत्ति होने पर, मिष्यादृष्टि जीवों के द्वारा कोई उपद्रव-उपसर्ग किया जाने पर और परीषहों के समय में सद्भाव पूर्वक यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप है । महापुराण 20. 194, पद्मपुराण 14.116-117, हरिवंशपुराण 64.29, 45-55, 18.137, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-44
- 2. उपाध्याय
- 3. तपस्वी
- 4. शिक्षा ग्रहण करने वाले शैक्ष्य,
- 5. रोग आदि से ग्रस्त ग्लान
- 6. वृद्ध मुनियों का समुदाय
- 7. दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्यों का समूह रूप कुल
- 8. गृहस्थ, क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनियों का समुदाय रूप संघ
- 9. चिरकाल के दीक्षित गुणी मुनि, साधु
- 10. और मनोज्ञ लोकाप्रिय मुनि
(2) षोडशकारण भावनाओं में नौवीं भावना । गुणवान् साधुजनों के क्षुधा, तृषा, व्याधि आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने की भावना करना वैयावृत्य-भावना कहलाती है । महापुराण 63. 326, हरिवंशपुराण 34.140