उपधि
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
1. परिग्रहके अर्थमें उपधिका लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 9/26/2/624 योऽर्थोऽन्यस्य बलाधानार्थमुपधीयते स उपधिरित्युच्यते।
= जो पदार्थ अन्यके बलाधानके लिए अर्थात् अन्यके निमित्त ग्रहण किये जाते हों वे उपधि हैं।
धवला पुस्तक 12/4,2,8,10/285/6 उपेत्य क्रोधादयो धीयंते अस्मिन्निति उपधिः। क्रोधाद्युत्पत्तिनिबंधनो बाह्यार्थ उपधिः।
= आकरके क्रोधादि जहाँ पर पुष्ट होते हैं उसका नाम उपधि है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार क्रोधादि परिणामोंकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत बाह्यपदार्थको उपधि कहा गया है।
2. परिग्रह रूप उपधिके भेद व लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/26/443/10/स द्विविधः - बाह्योपधित्यागोऽभ्यंतरोपधित्यागश्चेति। अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः। क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यंतरोपधिः। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यंतरोपधित्याग इत्युच्यते।
= वह (व्युत्सर्ग या त्याग) दो प्रकारका है-बाह्योपधि त्याग और अभ्यंतर उपधि त्याग। आत्मासे एकत्वको नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन, धान्य आदि बाह्य उपधि हैं और क्रोधादिरूप आत्मभाव अभ्यंतर उपधि हैं तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक कायका त्याग करना भी अभ्यंतर उपधि त्याग कहा है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/26/3-5/624); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/29); ( चारित्रसार पृष्ठ 154/1); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/98/722); ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/225/16)
3. अन्य संबंधित विषय
• मायाका एक भेद है - देखें माया - 2।
• परिग्रह संबंधी विषय - देखें परिग्रह ।
• साधु योग्य उपधि - देखें परिग्रह 1।
• योग्यायोग्य उपधिका विधि निषेध - देखें अपवाद - 4।
पुराणकोष से
बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह । महापुराण 34.189