त्रस
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरने की शक्तिवाले जीव त्रस कहलाते हैं। दो इंद्रिय से लेकर संज्ञी पंचेंद्रिय तक अर्थात् लट्, चींटी आदि से लेकर मनुष्य देव आदि सब त्रस हैं। ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने संभव हैं पर सूक्ष्म कभी नहीं होते। लोक के मध्य में 1 राजू विस्तृत और 14 राजू लंबी जो त्रस नाली कल्पित की गयी है, उससे बाहर में ये नहीं रहते, न ही जा सकते हैं।
- त्रस जीव निर्देश
- त्रस जीव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/12/171/3 त्रसनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा:। =जिनके त्रस नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं।
राजवार्तिक/2/12/1/126 जीवनामकर्मणो जीवविपाकिन उदयापादित वृत्तिविशेषा: त्रसा इति व्यपदिश्यंते। =जीवविपाकी त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्ति विशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं। ( धवला 1/1,1,39/265/8 )
- त्रस जीवों के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/14 द्वींद्रियादयस्त्रसा:।14। =दो इंद्रिय आदिक जीव त्रस हैं।14।
मू.आ./218 दुविधा तसा य उत्ता विगला सगलेंदिया मुणेयव्वा। वितिचउरिंदिय विगला सेसा सगलिंदिया जीवा।218। =त्रसकाय दो प्रकार कहे हैं–विकलेंद्रिय और सकलेंद्रिय। दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रिय इन तीनों को विकलेंद्रिय जानना और शेष पंचेंद्रिय जीवों को सकलेंद्रिय जानना।218। ( तिलोयपण्णत्ति/5/280 ); ( राजवार्तिक/3/39/4/209 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/128 )
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/86 विहिं तिहिं चऊहिं पंचहिं सहिया जे इंदिएहिं लोयम्हि। ते तस काया जीवा णेया वीरोवदेसेण।86। =लोक में जो दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पाँच इंद्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान् के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए।86। ( धवला 1/1,1,46/ गा.154/274) (पं.सं./सं./1/160); ( गोम्मटसार जीवकांड/198 ); ( द्रव्यसंग्रह/11 )
न.च./123...।...चदु तसा तह य।123। =त्रस जीव चार प्रकार के हैं–दो, तीन व चार तथा पाँच इंद्रिय।
- सकलेंद्रिय व विकलेंद्रिय के लक्षण
मू.आ./219 संखो गोभी भमरादिआ दु विकलिंदिया मुणेदव्वा। सकलिंदिया य जलथलखचरा सुरणारयणरा य।219। =शंख आदि, गोपालिका चींटी आदि, भौंरा आदि, जीव दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय विकलेंद्रिय जानना। तथा सिंह आदि स्थलचर, मच्छ आदि जलचर, हंस आदि आकाशचर तिर्यंच और देव, नारकी, मनुष्य–ये सब पंचेंद्रिय हैं।219।
- त्रस दो प्रकार हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त
षट्खंडागम/11/ सू.42/272 तसकाइया दुविहा, पज्जता अपज्जता।42। =त्रस कायिक जीव दो प्रकार होते हैं पर्याप्त अपर्याप्त।
- त्रस जीव बादर ही होते हैं
धवला 1/1,1,42/272 किं त्रसा: सूक्ष्मा उत बादरा इति। बादरा एव न सूक्ष्मा:। कुत:। तत्सौक्ष्म्यविधायकार्षाभावात् । =प्रश्न–त्रस जीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर? उत्तर–त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। प्रश्न–यह कैसे जाना जाये ? उत्तर–क्योंकि, त्रस जीव सूक्ष्म होते हैं, इस प्रकार कथन करने वाला आगम प्रमाण नहीं पाया जाता है। ( धवला/9/4,1,71/343/9 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/125 ) - त्रस जीवों में कथंचित् सूक्ष्मत्व
धवला 10/4,2,4,14/47/8 सुहुमणामकम्मोदयजणिदसुहुमत्तेण विणा विग्गहगदीए वट्टमाणतसाणं सुहुमत्तब्भुवगमादो। कधं ते सुहुमा। अणंताणंतविस्ससोवचएहि उवचियओरालियणोकम्मक्खंधादो विणिग्गयदेहत्तादो। =यहाँ पर सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है, उसके बिना विग्रहगति में वर्तमान त्रसों की सूक्ष्मता स्वीकार की गयी है। प्रश्न–वे सूक्ष्म कैसे हैं ? उत्तर–क्योंकि उनका शरीर अनंतानंत विस्रसोपचयों से उपचित औदारिक नोकर्मस्कंधों से रहित है, अत: वे सूक्ष्म हैं। - त्रसों में गुणस्थान का स्वामित्व
षट्खंडागम/1/1,1/ सू.36-44 एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया असण्णिपंचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्ठिट्ठाणे।36। पंचिंदिया असण्णि पंचिंदिय-मिच्छत्तप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।37। तसकाइयाबीइंदिया-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।44। =एकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रीइंद्रिय और चतुरिंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानो में ही होते हैं।36। असंज्ञी पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवलि गुणस्थान तक पंचेंद्रिय जीव होते हैं।37। द्वींद्रियादि से लेकर अयोगिकेवली तक त्रसजीव होते हैं।44।
राजवार्तिक/9/7/11/605/24 एकद्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियेषु एकमेव गुणस्थानमाद्यम् । पंचेंद्रियेषु संज्ञिषु चतुर्दशापि संति। =एकेंद्रिय, द्विंद्रिय, त्रिइंद्रिय, चतुरिंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय में एक ही पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। पंचेंद्रिय संज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिंद्रियसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त। =सासादन विषै बादर एकेंद्रिय, बेंद्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रिय व संज्ञी और असंज्ञी पर्याप्त ए सात पाइए। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/14 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/7 ) (विशेष देखें जन्म - 4) - त्रस के लक्षण संबंधी शंका समाधान
राजवार्तिक/2/12/2/126/27 स्यान्मतम्-त्रसेरुद्वेजनक्रियस्य त्रस्यंतीति त्रसा इति। तन्न; किं कारणम् । गर्भादिषु तदभावात् । अत्र सत्वप्रसंगात् । गर्भांडजमूर्च्छितसुषुप्तादीनां त्रसानां बाह्यभयनिमित्तोपनिपाते सति चलनाभावादत्र सत्त्वं स्यात् । कथं तर्ह्यस्य निष्पत्ति: ‘त्रस्यंतीति त्रसा:’ इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थ: प्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत् । =प्रश्न–भयभीत होकर गति करे सो त्रस ऐसा लक्षण क्यों नहीं करते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि ऐसा लक्षण करने से गर्भस्थ, अंडस्थ, मूर्च्छित, सुषुप्त आदि में अत्रसत्व का प्रसंग आ जायेगा। अर्थात् त्रस जीवों में बाह्यभय के निमित्त मिलने पर भी हलन-चलन नहीं होता अत: इनमें अत्रसत्व प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न–तो फिर भयभीत होकर गति करे सो त्रस, ऐसी निष्पत्ति क्यों की गयी ? उत्तर–यह केवल रूढिवश ग्रहण की गयी है। ‘जो चले सो गऊ’ ऐसी व्युत्पत्ति मात्र है। इसलिए चलन और अचलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नहीं किया जा सकता। कर्मोदय की अपेक्षा से ही किया गया है। यह बात सिद्ध है। ( सर्वार्थसिद्धि/2/12/171/4 ); ( धवला 1/1,1,40/266/2 )। - अन्य संबंधित विषय
- त्रसजीव के भेद-प्रभेदों का लोक में अवस्थान।–देखें इंद्रिय , काय, मनुष्यादि।
- वायु व अग्निकायिकों में कथंचित् त्रसपना।–देखें स्थावर - 6।
- त्रसजीवों में कर्मों का बंध, उदय व सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- मार्गणा प्रकरण में भावमार्गणा की इष्टता और वहाँ के आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- त्रसजीवों के स्वामित्व संबंधी गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- त्रसजीवों में प्राणों का स्वामित्व।–देखें प्राण - 1।
- त्रसजीवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प–बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- त्रस जीव का लक्षण
- त्रस नामकर्म व त्रसलोक
- त्रस नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/391/10 यदुदयाद् द्वींद्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम। =जिसके उदय से द्वींद्रियादिक में जन्म होता है वह त्रस नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/12/21/578/27 ) ( धवला 6/1,9-1,28/61/4 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/33 ) धवला 13/5,5,101/365/3 जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणामं। =जिस कर्म के उदय से जीव के गमनागमनभाव होता है वह त्रस नामकर्म है। - त्रसलोक निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/6 मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खजोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।6। =मंदरपर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लंबे-चौड़े क्षेत्र में तिर्यक् त्रसलोक स्थित है। - त्रसनाली निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/2/6 लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किंचूणा होदि तसणाली।6। =जिस प्रकार ठीक मध्यभाग में सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोक के बहु मध्यभाग अर्थात् बीच में एक राजु लंबी चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊँची त्रसनाली (त्रस जीवों का निवासक्षेत्र) है। - त्रसजीव त्रसनाली से बाहर नहीं रहते
धवला 4/1,4,4/149/9 तसजीवलोगणालीए अब्भंतरे चेव होंति, णो बहिद्धा। =त्रसजीव त्रसनाली के भीतर होते हैं बाहर नहीं। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/122 )
गोम्मटसार जीवकांड/199 उववादमारणंतियपरिणदतसमुज्झिऊण सेसतसा। तसणालिबाहिरम्मि य णत्थित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।199। =उपपाद और मारणांतिक समुद्घात के सिवाय शेष त्रसजीव त्रसनाली से बाहर नहीं हैं, ऐसा जिनेंद्र भगवान् ने कहा है। - कथंचित् सारा लोक त्रसनाली है
तिलोयपण्णत्ति/2/8 उववादमारणंतियपरिणदतसलोयपूरणेण गदो। केवलिणो अवलंबिय सव्वजगो होदि तसनाली।8। =उपपाद और मारणांतिक समुद्घात में परिणत त्रस तथा लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली का आश्रय करके सारा लोक ही त्रसनाली है।8।
- त्रस नामकर्म का लक्षण
पुराणकोष से
स्थावर जीवों को छोड़कर दो इंद्रिय से पंचेंद्रिय तक के जीव । ये वध, बंधन, अवरोध तथा जन्म, जरा और मरण आदि के दुःख भोगते हैं । महापुराण 17.25-26, 34.194, 74.81, पद्मपुराण 105. 149