ऋद्धि
From जैनकोष
तपश्चरणके प्रभावसे कदाचित् किन्हीं योगीजनोंको कुछ चामत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। उन्हें ऋद्धि कहते हैं। इसके अनेकों भेद-प्रभेद हैं। उन सबका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
- ऋद्धिके भेद-निर्देश
- बुद्धि ऋद्धि निर्देश
- केवल, अवधि व मनःपर्ययज्ञान ऋद्धियाँ
- बुद्धि ऋद्धि सामान्यका लक्षण
- बीजबुद्धि निर्देश :
- बीजबुद्धि का लक्षण
- बीजबुद्धिके लक्षण सम्बन्धी दृष्टिभेद
- बीजबुद्धिकी अचिन्त्य शक्ति व शंका
- कोष्ठ बुद्धिका लक्षण व शक्ति निर्देश
- पादानुसारी ऋद्धि सामान्य व विशेष
(अनुसारिणी, प्रतिसारिणी व उभयसारिणी) - संभिन्न श्रोतृत्व ऋद्धि निर्देश
- दूरास्वादन आदि, पाँच ऋद्धि निर्देश
- चतुर्दश पूर्वी व दश पूर्वी - दे. श
- अष्टांग निमित्तज्ञान - दे. निमित्त २
- प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि निर्देश
- प्रज्ञाश्रमणत्व सामान्य व विशेषके लक्षण (औत्पत्तिकी, परिणामिकी, वैनयिकी, कर्मजा)
- पारिणामिकी व औत्पत्तिकीमें अन्तर
- प्रज्ञाश्रमण बुद्धि व ज्ञानसामान्यमें अन्तर
- प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि - दे. बुद्ध
- वादित्व बुद्धि ऋद्धि
- विक्रिया ऋद्धि निर्देश
- विक्रिया ऋद्धि की विविधता
- अणिमा विक्रिया
- महिमा, गरिमा व लघिमा विक्रिया
- प्राप्ति व प्राकाम्य विक्रियाके लक्षण
- ईशित्व व वशित्व विक्रिया निर्देश
- ईशित्व व वशित्व के लक्षण
- ईशित्व व वशित्वमें अन्तर
- ईशित्व व वशित्वमें विक्रियापना कैसे है?
- अप्रतिघात, अंतर्धान व काम रूपित्व
- चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश
- चारण ऋद्धि सामान्य निर्देश
- चारण ऋद्धिकी विविधता
- आकाशचारण व आकाशगामित्व
- आकाशगामित्व ऋद्धिका लक्षण
- आकाशचारण ऋद्धिका लक्षण
- आकाशचारण व आकाशगामित्वमें अन्तर
- जलचारण निर्देश
- जलचारणका लक्षण
- जलचारण व प्राकाम्य ऋद्धिमें अन्तर
- जंघा चारण निर्देश
- अग्नि, धूम, मेघ, तंतु, वायु व श्रेणी चारण ऋद्धियों का निर्देश
- धारा व ज्योतिष चारण निर्देश
- फल, पुष्प, बीज व पत्रचारण निर्देश
- तपऋद्धि निर्देश
- उग्रतप ऋद्धि निर्देश
- उग्रोग्र तप व अवस्थित उग्रतपके लक्षण
- उग्रतप ऋद्धिमें अधिकसे अधिक उपवास करनेकी सीमा व तत्सम्बन्धी शंका - दे. प्रोषधोपवास २
- घोरतप ऋद्धि निर्देश
- घोर पराक्रमतप ऋद्धि निर्देश
- घोर ब्रह्मचर्यतप ऋद्धि निर्देश
- घोर व अघोर गुण ब्रह्मचारीके लक्षण
- घोर गुण व घोर पराक्रम तपमें अन्तर
- दीप्ततप व महातप ऋद्धि निर्देश
- उग्रतप ऋद्धि निर्देश
- बल ऋद्धि निर्देश
- औषध ऋद्धि निर्देश
- औषध ऋद्धि सामान्य
- आमर्ष, क्ष्वेल, जल्ल, मल व विट औषध
- उपरोक्त चारोंके लक्षण
- आमर्शौषधि व अघोरगुण ब्रह्मचर्यमें अन्तर।
- सर्वौषध ऋद्धि निर्देश
- आस्यनिर्विष व दृष्टिनिर्विष औषध ऋद्धि निर्देश
- रस ऋद्धि निर्देश
- आशीर्विष रस ऋद्धि
(शुभ व अशुभ आशीर्विशके लक्षण) - दृष्टि विष व दृष्टि अमृत रस ऋद्धि निर्देश
- दृष्टिविष रस ऋद्धिका लक्षण
- दृष्टि अमृत रस ऋद्धिका लक्षण
- दृष्टि अमृत रस ऋद्धि व अघोर ब्रह्मचर्य तप में अन्तर
- क्षीर, मधु, सर्पि व अमृतस्रावी रस ऋद्धियोंके लक्षण
- रस ऋद्धि द्वारा पदार्थोंका क्षीरादि रूप परिणमन कैसे सम्भव है?
- आशीर्विष रस ऋद्धि
- क्षेत्र ऋद्धि निर्देश
- ऋद्धि सामान्य निर्देश
- शुभ ऋद्धिकी प्रवृत्ति स्वतः भी होती है पर अशुभ ऋद्धियोंकी प्रयत्न पूर्वक ही
- एक व्यक्तिमें युगपत् अनेक ऋद्धियोंकी सम्भावना
- परन्तु विरोधी ऋद्धियाँ युगपत् सम्भव नहीं
- परिहार विशुद्धि, आहारक व मनःपर्ययका परस्पर विरोध - दे. परिहारविशुद्धि
- आहारक व वैक्रियकमें विरोध - दे. ऊपरवाला शीर्षक
- तैजस व आहारक ऋद्धि निर्देश - दे. वह वह नाम
- गणधरदेवमें युगपत् सर्वऋद्धियाँ - दे. गणधर
- साधुजन ऋद्धिका भोग नहीं करते - दे. श्रुतकेवली १/२
- दे. वह वह नाम
- ऋद्धिके भेद निर्देश
- ऋद्धियोंके वर्गीकरणका चित्र
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<img src="C:\Users\DELL\Downloads" alt="chart"> - उपरोक्त भेद-प्रभेदोंके प्रमाण
- ऋद्धि सामान्य –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९६८); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७/१८/५८); (सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ३/३६/२३०/२); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/२१); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २११); (वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा संख्या ५१२); (नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ११२)।
- बुद्धि ऋद्धि सामान्य –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९६९-९७१); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/२२); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २११/२) (पदानुसारी-तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९८०); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/३०); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,८/६०/५); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१२/५) दशपूर्वित्व - (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,८/६९/५) अष्टांग महानिमित्तज्ञान - (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१००२); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/१०); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१४/१९/७२); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१४/३) प्रज्ञाश्रमणत्व- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०१९); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१८/८१/१); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१७/१)।
- विक्रिया सामान्य –:
- (दे. ऊपर क्रिया व विक्रिया दोनोंके भेद) क्रिया-(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३३); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२७); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/१)। विक्रिया-(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०२४-१०२५); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/३३); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/५/४); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/१); (वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा संख्या ५१३)। चारण-(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३५,१०४८); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/२१/७९); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२७); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/८०,८८)।
- तप सामान्य –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०४९-१०५०); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/७); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२०/१)। उग्रतप-(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५०); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२२/८७/५)। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२०/१)। घोरब्रह्मचर्य-(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ९/४,१/२८-२९/९३-९४); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२०/१)।
- बल –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०६१); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१८); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२४/१)
- औषध –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०६७) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/२४); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२५/१)
- रस सामान्य –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०७७); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३३); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/४)। आशार्विष-(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२०/८६/४) दृष्टिविष-(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८७/२)।
- क्षेत्र –:
- (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०८८); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०४/९); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२८/१)
- ऋद्धियोंके वर्गीकरणका चित्र
- . बुद्धि ऋद्धि निर्देश
- बुद्धि ऋद्धि सामान्यका लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/२२ बुद्धिरवगमो ज्ञान तद्विषया अष्टादशविधा ऋद्धयः। = बुद्धि नाम अवगम या ज्ञानका है। उसको विषय करनेवाली १८ ऋद्धियाँ हैं। - बीजबुद्धि निर्देश
- बीजबुद्धिका लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९७५-९७७ णोइंदियसुदणाणावरणाणं वोरअंतरायाए। तिविहाणं पगदीणं उक्कस्सखउवसमविमुद्धस्स ।९७५। संखेज्जसरूवाणं सद्दाणं तत्थ लिंगसंजुत्तं। एक्कं चिय बीजपदं लद्धूण परोपदेसेण ।९७६। तम्मि पदे आधारे सयलमुदं चिंतिऊण गेण्हेदि। कस्स वि महेसिणो जा बुद्धि सा बीजबुद्धि त्ति ।९७७। = नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण, और वीर्यान्तराय, इन तीन प्रकारकी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे विशुद्ध हुए किसी भी महर्षिकी जो बुद्धि, संख्यातस्वरूप शब्दोंके बीचमें-से लिंग सहित एक ही बीजभूत पदको परके उपदेशसे प्राप्त करके उस पदके आश्रयसे सम्पूर्ण श्रुतको विचारकर ग्रहण करती है, वह बीजबुद्धि है। ९७५-९७७। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/२६)। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१२/२)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७/५६-१; ५९-९ बीजमिव बीजं। जहाबीजं मूलंकुर-पत्त-पोर-क्खंद-पसव-तुस-कुसुम-खीरतं दुलाणमाहारं तहा दुवालसगत्थाहारं जं पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीजं। बीजपदविसयमदिणाणं पि बीजं, कज्जे कारणोवचारादो। एसा कुदो होदि। विसिट्ठोग्गहावरणीयक्खओवसमादो। (५९-९) = बीजके समान बीज कहा जाता है। जिस प्रकार बीज, मूल, अंकुर, पत्र, पोर, स्कन्ध, प्रसव, तुष, कुसुम, क्षीर और तंदुल आदिकोंका आधार है; उसी प्रकार बारह अंगोंके अर्थका आधारभूत जो पद है वह बीज तुल्य होनेसे बीज है। बीजपद विषयक मतिज्ञान भी कार्यमें कारणके उपचारसे बीज है ।५६।.....यह बीज बुद्धि कहाँसे होती है। वह विशिष्ट अवग्रहावरणीयके क्षयोपशमसे होती है। - बीज बुद्धिके लक्षण सम्बन्धी दृष्टिभेद
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७/५७/६ बीजपदट्ठिदरपदेसादो हेट्ठिमसुदणाणुप्पत्तीए कारणं होदूण पच्छा उवरिमसुदणाणुप्पत्तिणिमित्ता बीजबुद्धि त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे, कोट्ठबुद्धियादिचदुण्हं णाणाणमक्कमेणेक्कम्हि जीवे सव्वदा अणुप्पत्तिप्पसंगादो।.....ण च एक्कम्हि जीवे सव्वदा चदुण्हं बुद्धीण अक्कमेण अणुप्पत्ती चेव।....त्ति सुत्तगाहाए वक्खाणम्मि गणहरदेवाणं चदुरमलबुद्धीणं दंसणादो। किंच अत्थि गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धीओ अण्णहा दुवासंगाणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। = बीजपदसे अधिष्ठित प्रदेशसे अधस्तनश्रुतके ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होकर पीछे उपरिम श्रुतके ज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित होनेवाली बीज बुद्धि है। (अर्थात् पहले बीजपदके अल्पमात्र अर्थको जानकर, पीछे उसके आश्रय पर विषयका विस्तार करनेवाली बुद्धि बीजबुद्धि है, न कि केवल शब्द-विस्तार ग्रहण करनेवाली) ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता। क्योंकि, ऐसा माननेपर कोष्ठबुद्धि आदि चार ज्ञानोंकी (कोष्ठबुद्धि तथा अनुसारी, प्रतिसारी व तदुभयसारी ये तीन पदानुसारीके भेद)। युगपत् एक जीवमें सर्वदा उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। और एक जीवमें सर्वदा चार बुद्धियोंकी एक साथ उत्पत्ति हो ही नहीं, ऐसा है नहीं क्योंकि - (सात ऋद्धियोंका निर्देश करनेवाली) सूत्रगाथाके व्याख्यानमें (कही गयीं) गणधर देवोंके चार निर्मल बुद्धियाँ देखी जाती हैं। तथा गणधर देवोंके चार बुद्धियाँ होती हैं, क्योंकि उनके बिना (उनके द्वारा) बारह अंगोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। - बीज बुद्धिकी अचिन्त्य शक्ति व शंका
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७/५६/३ "संखेज्जसद्दअणंतलिंगेहिं सह बीजपदं जाणंती, बीजबुद्धि त्ति भणिदं होदि। णा बीजबुद्धि अणंतत्थ पडिबद्धअणंतलिंगबीजपदमवगच्छदि, खओसमियत्तादो त्ति। ण खओवसमिएण परोक्खेण सुदणाणेण इत्यादि (देखो केवल भाषार्थ) = संख्यात शब्दोंके अनन्त अर्थोंमें सम्बद्ध अनन्त लिंगोंके साथ बीजपदको जाननेवाली बीज बुद्धि है, यह तात्पर्य है। प्रश्न-बीज बुद्धि अनन्त अर्थोंसे सम्बद्ध अनन्त लिंगरूप बीजपदको नहीं जानती, क्योंकि वह क्षायोपशमिक है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार क्षयोपशमजन्य परोक्ष श्रुतज्ञानके द्वारा केवलज्ञानसे विषय किये गये अनन्त अर्थोंका परोक्ष रूपसे ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मतिज्ञानके द्वारा भी सामान्य रूपसे अनन्त अर्थोंको ग्रहण किया जाता है, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-यदि श्रुतज्ञानका विषय अनन्त संख्या है, तो `चौदह पूर्वीका विषय उत्कृष्ट संख्यात है' ऐसा जो परिकर्ममें कहा है, वह कैसे घटित होगा? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट, उत्कृष्ट-संख्यातको ही जानता है, ऐसा यहाँ नियम नहीं है। प्रश्न-श्रुतज्ञान समस्त पदार्थोंको नहीं जानता है, क्योंकि, (पदार्थोंके अनन्तवें भाग प्रज्ञापनीय हैं और उसके भी अनन्तवें भाग द्वादशांग श्रुत के विषय हैं) इस प्रकारका वचन है? उत्तर-समस्त पदार्थों का अनन्तवाँ भाग द्रव्यश्रुतज्ञानका विषय भले ही हो, किन्तु भाव श्रुतज्ञानका विषय समस्त पदार्थ हैं; क्योंकि, ऐसा माने बिना तीर्थंकरोंके वचनातिशयके अभावका प्रसंग होगा।
- बीजबुद्धिका लक्षण
- कोष्ठबुद्धिका लक्षण व शक्तिनिर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९७८-९७९ "उक्कस्सिधारणाए जुत्तो पुरिसो गुरुवएसेणं। णाणाविहगंथेसु वित्थारे लिंगसद्दबीजाणि ।९७८। गहिऊण णियमदीए मिस्सेण विणा धरेदि मदिकोट्ठे। जो कोई तस्स बुद्धी णिद्दिट्ठा कोट्ठबुद्धी त्ति ।९७९। = उत्कृष्ट धारणासे युक्त जो कोई पुरुष गुरुके उपदेशसे नाना प्रकारके ग्रन्थोंमें से विस्तारपूर्वक लिंग सहित शब्दरूप बीजोंको अपनी बुद्धिमें ग्रहण करके उन्हें मिश्रणके बिना बुद्धिरूपी कोठेमें धारण करता है, उसकी बुद्धि कोष्ठबुद्धि कही गयी है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/२८); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २९२/४)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,६/५३/७ कोष्ठ्यः शालि-व्रीहि-यव-गोधूमादिनामाधारभूतः कुस्थली पल्यादिः। सा चासेसदव्वपज्जायधारणगुणेण कोट्ठसमाणा बुद्धी कोट्ठो, कोट्ठा च सा बुद्धी च कोट्ठबुद्धी। एदिस्से अल्पधारणकालो जहण्णेण संखेज्जाणि उक्कस्सेण असंखेज्जाणि वसाणि कुदो। `कालमसंखं संखं च धारणा' त्ति सुत्तुवलंभादो। कुदो एदं होदि। धारणावरणीयस्स तिव्वखओवसमेण। = शालि, व्रीहि, जौ और गेहूँ आदिके आधारभूत कोथली, पल्ली आदिका नाम कोष्ठ है। समस्त द्रव्य व पर्यायोंको धारण करनेरूप गुणसे कोष्ठके समान होनेसे उस बुद्धिको भी कोष्ठ कहा जाता है। कोष्ठ रूप जो बुद्धि वह कोष्ठबुद्धि है। (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,४०/२४३/११) इसका अर्थ धारणकाल जघन्यसे संख्यात वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात वर्ष है, क्योंकि, `असंख्यात और संख्यात काल तक धारणा रहती है' ऐसा सूत्र पाया जाता है। प्रश्न-यह कहाँसे होती है? उत्तर-धारणावरणीय कर्मके तीव्र क्षयोपशमसे होता है। - पदानुसारी ऋद्धि सामान्य व विशेषके लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९८०-९८३ बुद्धीविपक्खणाणं पदाणुसारी हवेदि तिविहप्पा। अणुसारी पडिसारी जहत्थणामा उभयसारी ।९८०। आदि अवसाणमज्झे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं। गेण्हिय उवरिमगंथं जा गिण्हदि सा मदी हु अणुसारी ।९८१। आदिअवसाणमज्झे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं। गेण्हिय हेट्ठिमगंथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी ।९८२। णियमेण अणियमेण य जुगवं एगस्स बीजसद्दस्स। उवरिमहेट्ठिमगंथं जा बुज्झइ उभयसारी सा ।९८३।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,८/६०/२ पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी बुद्धिः। बीजबुद्धीए बीजपदमवगंतूण एत्थ इदं एदेसिमक्खराणं लिंगं होदि ण होदि त्ति इहिदूणसयलसुदक्खर-पदाइमवगच्छंती पदाणुसारी। तेहि पदेहिंतो समुप्पज्जमाणं णाणं सुदणाणं ण अक्खरपदविसयं, तेसिमक्खरपदाणं बीजपदंताभावादो। सा च पदाणुसारी अणु-पदितदुभयसारिभेदेण तिविहो।....कुदो एदं होदि। ईहावायावरणीयाणं तिव्वक्खओवसमेण। = (धवला पुस्तक संख्या ९/६०) - पदका जो अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि है। बीज बुद्धिसे बीजपदको जानकर, `यहाँ यह इन अक्षरोंका लिंग होता है और इनका नहीं', इस प्रकार विचारकर समस्त श्रुतके अक्षर पदोंको जाननेवाली पदानुसारी बुद्धि है (उन पदोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है, वह अक्षरपदविषयक नहीं है; क्योंकि, उन अक्षरपदोंका बीजपदमें अन्तर्भाव है। प्रश्न-यह कैसे होती है? उत्तर-ईहावरणीय कर्मके तीव्र क्षयोपशमसे होती है।
तिलोयपण्णत्ति - विचक्षण पुरुषोंकी पदानुसारिणी बुद्धि अनुसारिणी, प्रतिसारिणी और उभयसारिणीके भेदसे तीन प्रकार है, इस बुद्धिके ये यथार्थ नाम हैं ।९८०। जो बुद्धि आदि मध्य अथवा अन्तमें गुरुके उपदेशसे एक बीजपदको ग्रहण करके उपरिम (अर्थात् उससे आगेके) ग्रन्थको ग्रहण करती है वह `अनुसारिणी' बुद्धि कहलाती है ।९८१। गुरुके उपदेशसे आदि मध्य अथवा अन्तमें एक बीजपदको ग्रहण करके जो बुद्धि अधस्तन (पीछे वाले) ग्रन्थको जानती है, वह `प्रतिसारिणी' बुद्धि है ।९८२। जो बुद्धि नियम अथवा अनियमसे एक बीजशब्दके (ग्रहण करनेपर) उपरिम और अधस्तन (अर्थात् उस पदके आगे व पीछेके सर्व) ग्रन्थको एक साथ जानती है वह `उभयसारिणी' बुद्धि है ।९८३। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/३०); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,८/६०/५); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१२/५)
- संभिन्नश्रोतृत्वका लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९८४-९८६ सोदिंदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदं गोवंगाणामकम्मम्मि ।९८४। सोदुक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेज्जजोयणपएसे। संठियणरतिरियाणं बहुविहसद्दे समुट्ठंते ।९८५। अक्खरअणक्खरमए सोदूणं दसदिसासु पत्तेक्कं। जं दिज्जदि पडिवयणं तं चिय संभिण्णसोदित्तं ।९८६। = श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण, और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर श्रोत्रेन्द्रियके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहर दशों दिशाओंमें संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्रमें स्थित मनुष्य एवं तिर्यंचोंके अक्षरानक्षरात्मक बहुत प्रकारके उठनेवाले शब्दोंको सुनकर जिससे (युगपत्) प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह संभिन्नश्रोतृत्व नामक बुद्धि ऋद्धि कहलाती है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/१); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,९/६१/४); (सा.चा. २१३/१) धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,९/६२/६ कुदो एदं होदि। बहुबहुविहक्खिप्पावरणीयाणं खओवसमेण। = यह कहाँसे होता है? बहु, बहुविध और क्षिप्र (मति) ज्ञानावरणीयके क्षयोपशमसे होता है।
- दूरादास्वादन आदि ऋद्धियोंके लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९८७-९९७/१-जिब्भिंदिय सुदणाणावरणाणं वीयंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ।९८७। जिब्भुक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेज्जजोयणठियाणं। विविहरसाणं सादं जाणइ दूरसादित्तं ।९८८। २-पासिंदिय सुदणाणावरणाणं वारियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ।९८९। पासुक्कस्सखिदोदो बाहिं संखेज्जजोयणठियाणिं। अट्ठविहप्पासाणिं जं जाणइ दूरपासत्तं ।९९०। ३-घाणिंदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ।९९१। घाणुक्कस्सखिदोदो बाहिरसंखेज्जजोयणपएसे। जं बहुविधगंधाणिं तं घायदि दूरघाणत्तं ।९९२। ४-सोदिंदियसुदणाणावरणाणं बीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउ वसमे उदिदं गोबंगणामकम्मम्मि ।९९३। सोदुक्कस्सखिदोदो बाहिरसंखेज्जजोयणपएसे। चेट्ठंताणं माणुसतिरियाणं बहुवियप्पाणं ।९९४। अक्खरअणक्खरमए बहुविहसद्दे विसेससंजुत्ते। उप्पण्णे आयण्णइ जं भणिअं दूरसवणत्त ।९९५। ५-रूविंदियसुदणाणावरणाणं वीरिअंतराआए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ।९९६। रूउक्कस्सखिदीदो बाहिरं संखेज्जजोयणठिदाइं। जं बहुविहदव्वाइं देक्खइ तं दूरदरिसिणं णाम ।९९७। = वह वह इन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर उस उस इन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनोंमें स्थित उस उस सम्बन्धी विषयको जान लेना उस उस नामकी ऋद्धि है। यथा-जिह्वा इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे `दूरास्वादित्व', स्पर्शन इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे `दूरस्पर्शत्व', घ्राणेन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे `दूरघ्राणत्व', श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे `दूरश्रवणत्व' और चक्षु रन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे `दूरदर्शित्व' ऋद्धि होती है। - प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि निर्देश
- प्रज्ञाश्रमणत्व सामान्य व विशेषके लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०१७-१०२१ पयडीए सुदणाणावरणाए वीरयंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ।१०१७। पण्णासवणर्द्धिजुदो चोद्दस्सपुव्वीसु विसयसुहुमत्तं। सव्वं हि सुदं जाणदि अकअज्झअणो वि णियमेण ।१०१८। भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणद्धी सा च चउभेदा। अउपत्तिअ-परिणामिय-वइणइकी-कम्मजा णेया ।१०१९। भवंतर सुदविणएणं समुल्लसिदभावा। णियणियजादिविसेसे उप्पण्णा पारिणामिकी णामा ।१०२०। वइणइकी विणएणं उप्पज्जदि बारसंगसुदजोग्गं। उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा ।१०२१। = श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर `प्रज्ञाश्रमण' ऋद्धि उत्पन्न होती है। प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिसे युक्त जो महर्षि अध्ययनके बिना किये ही चौदहपूर्वोंमें विषयकी सूक्ष्मताको लिए हुए सम्पूर्ण श्रुतको जानता है और उसको नियमपूर्वक निरूपण करता है उसकी बुद्धिको प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि कहते हैं। वह औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा, इन भेदोंसे चार प्रकारकी जाननी चाहिए ।१०१७-१०१९। इनमें-से पूर्व भवमें किये गये श्रुतके विनयसे उत्पन्न होनेवाली औत्पत्तिकी (बुद्धि है) ।१०२०।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१८/२२/८२ विणएण सुदमधीदं किह वि पमादेण होदि विस्सरिदं। तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आहवदि ।२२। - एसो उप्पत्तिपण्णसमणो छम्मासोपवासगिलाणो वि तब्बुद्धिमाहप्पजाणावणट्ठ पुच्छावावदचोद्दसपुव्विस्स विउत्तरबाहओ। = विनयसे अधीत श्रुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो उसे वह परभवमें उपस्थित करती है और केवलज्ञानको बुलाती है ।२२। यह औत्पत्तिकी प्रज्ञाश्रमण छह मासके उपवाससे कृश होता हुआ भी उस बुद्धिके माहात्म्यको प्रकट करनेके लिए पूछने रूप क्रियामें प्रवृत्त हुए चौदहपूर्वीको भी उत्तर देता है। निज-निज जाति विशेषोंमें उत्पन्न हुई बुद्धि `पारिणामिकी' है, द्वादशांग श्रुतके योग्य विनयसे उत्पन्न होनेवाली `वैनयिकी' और उपदेशके बिना ही विशेष तपकी प्राप्तिसे आविर्भूत हुई चतुर्थ `कर्मजा' प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि समझना चाहिए ।१०२०-१०२१। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२२); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१८/८१/१); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या /२१६/४)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१८/८३/१ उसहसेणादीणं-तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदट्ठावहारयाणं पण्णाए कत्थं तब्भावो। पारिणामियाए, विणय-उप्पत्तिकम्मेहि विणा उप्पत्तीदो। = प्रश्न-तीर्थंकरोंके मुखसे निकले हुए बीजपदोंके अर्थका निश्चय करनेवाले वृषभसेनादि गणधरोंकी प्रज्ञाका कहाँ अन्तर्भाव होता है? उत्तर-उसका पारिणामिक प्रज्ञामें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, वह विनय, उत्पत्ति और कर्मके बिना उत्पन्न होती है। - पारिणामिकी व औत्पत्तिकीमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१८/८३/२ पारिणामिय-उप्पत्तियाणं को विसेसो। जादि विसेसजणिदकम्मक्खओवसमुप्पण्णा पारिणामिया, जम्मंतरविणयजणिदसंसकारसमुप्पण्णा अउप्पत्तिया, त्ति अत्थि विसेसो। = प्रश्न-पारिणामिकी और औत्पत्तिकी प्रज्ञामें क्या भेद है? उत्तर-जाति विशेषमें उत्पन्न कर्म क्षयोपशमसे आविर्भूत हुई प्रज्ञा पारिणामिकी है, और जन्मान्तरमें विनयजनित संस्कारसे उत्पन्न प्रज्ञा औपपत्तिकी है, यह दोनोंमें विशेष है। - प्रज्ञाश्रमण बुद्धि और ज्ञान सामान्यमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१८/८४/२ पण्णाए णाणस्स य को विसेसो णाणहेदुजीवसत्ती गुरूवएसणि रवेक्खा पण्णा णाम, तक्कारियं णाणं। तदो अत्थि भेदो। = प्रश्न-प्रज्ञा और ज्ञानके बीच क्या भेद है? उत्तर-गुरुके उपदेशसे निरपेक्ष ज्ञानकी हेतुभूत जीवकी शक्तिका नाम प्रज्ञा है, और उसका कार्य ज्ञान है; इस कारण दोनोंमें भेद है।
- प्रज्ञाश्रमणत्व सामान्य व विशेषके लक्षण
- वादित्वका लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०२३ सक्कादीणं वि पक्खं बहुवादेहिं णिरुत्तरं कुणदि। परदव्वाइं गवेसइ जीए वादित्तरिद्धी सा ।१०२३। = जिस ऋद्धिके द्वारा शक्रादिके पक्षको भी बहुत वादसे निरुत्तर कर दिया जाता है और परके द्रव्योंकी गवेषणा (परीक्षा) करता है (अर्थात् दूसरोंके छिद्र या दोष ढूँढता है) वह वादित्व ऋद्धि कहलाती है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२५); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१७/५)
- बुद्धि ऋद्धि सामान्यका लक्षण
- विक्रिया ऋद्धि निर्देश
- विक्रिया ऋद्धिकी विविधता
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०२४-२५, १०३३ अणिमा-सहिमा-लघिमा-गरिमा-पत्ती-य तह अ पाकम्मं। ईसत्तवसित्तताइं अप्पडिघादंतधाणाच ।१०२४। रिद्धी हु कामरूवा एवं रूवेहिं विविहभेएहिं। रिद्धी विकिरिया णामा समणाणं तवविसेसेणं ।१०२५। दुविहा किरियारिद्धी णहयलगामित्तचारणत्तेहिं ।१०३३।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७५,४ अणिमा महिमा लहिमा पत्ती पागम्यं ईसित्तं वसित्तं कामरूवित्तमिदि विउव्वणमट्ठविहं।....एत्थ एगसंजोगादिणा विसदपंचवंचासविउव्वणभेदा उप्पाएदव्वा, तइक्कारणस्स वडचित्तयत्तादो (पृ. ७६/६)। = अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप इस प्रकारके अनेक भेदोंसे युक्त विक्रिया नामक ऋद्धि तपोविशेषसे श्रमणोंको हुआ करती है। तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ....( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/३३); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/१); (व.सु.श्रा. ५१३)। नभस्तलगामित्व और चारणत्वके भेदसे `क्रियाऋद्धि' दो प्रकार है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२७); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/१)। अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, और कामरूपित्व - इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि आठ प्रकार है। यहाँ एकसंयोग, द्विसंयोग आदिके द्वारा २५५ विक्रियाके भेद उत्पन्न करना चाहिए, क्योंकि, उनके कारण विचित्र हैं। एकसंयोगी = ८; द्विसंयोगी = २८; त्रिसंयोगी = ५६; चतुःसंयोगी = ७०; पंचसंयोगी = ५६; षट्संयोगी = २८; सप्तसंयोगी = ८; और अष्टसंयोगी = १। कुल भंग = २५५ (विशेष देखो गणित II/४)। - अणिमा विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०२६ अणुतणुकरणं अणिमा अणुछिद्दे पविसिदूण तत्थेव। विकरदि खंदावारं णिएसमविं चक्कवट्टिस्स ।१०२६। = अणुके बराबर शरीरको करना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋद्धिके प्रभावसे महर्षि अणुके बराबर छिद्रमें प्रविष्ट होकर वहाँ ही, चक्रवर्तीके कटक और निवेशकी विक्रिया द्वारा रचना करता है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/३४) (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७५/५) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/२) - महिमा गरिमा व लघिमा विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०२७ मेरूवमाण देहा महिमा अणिलाउ लहुत्तरो लहिमा। वज्जाहिंतो गुरुवत्तणं च गरिमं त्ति भणंति ।१०२७। = मेरुके बराबर शरीरके करनेको महिमा, वायुसे भी लघु (हलका) शरीर करनेको लघिमा और वज्रसे भी अधिक गुरुतायुक्त (भारी) शरीरके करनेको गरिमा ऋद्धि कहते हैं। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७५/५); (च.सा. २१९/२) - प्राप्ति व प्राकाम्य विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०२८-१०२९ भूमोए चेट्ठंतो अंगुलिअग्गेण सूरिससिपहुदिं। मेरुसिहराणि अण्णं जं पावदि पत्तिरिद्धी सा ।१०२८। सलिले वि य भूमीए उन्मज्जणिमज्जणाणि जं कुणदि। भूमीए वि य सलिले गच्छदि पाकम्मरिद्धी सा ।१०२९। = भूमिपर स्थित रहकर अंगुलिके अग्रभागसे सूर्य-चन्द्रादिकको, मेरुशिखरोंको तथा अन्य वस्तुको प्राप्त करना यह प्राप्ति ऋद्धि है ।१०२८। जिस ऋद्धिके प्रभावसे जलके समान पृथिवीपर उन्मज्जन-निमज्जन क्रियाको करता है और पृथिवीके समान जलपर भी गमन करता है वह प्राकाम्य ऋद्धि है ।१०२९। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/३)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७५/७ भूमिट्ठियस्स करेण चदाइच्चदबिंबच्छिवणसत्ती पत्ती णाम। कुलसेलमेरुमहीहर भूमीणं बाहमकाऊण तासु गमणसत्ती तवच्छरणबलेणुप्पणा पागम्मं णाम। = (प्राप्तिका लक्षण उपरोक्तवत् ही है) - कुलाचल और मेरुपर्वतके पृथिवीकायिक जीवोंको बाधा न पहुँचाकर उनमें, तपश्चरणके बलसे उत्पन्न हुई गमनशक्तिको प्राकाम्य ऋद्धि कहते हैं।
चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/४ अनेकजातिक्रियागुणद्रव्याधीनं स्वाङ्गाद् भिन्नमभिन्नं च निर्माणं प्राकाम्यं सैन्यादिरूपमिति केचित्। = कोई-कोई आचार्य; अनेक तरहकी क्रिया गुण वा द्रव्यके आधीन होनेवाले सेना आदि पदार्थोंको अपने शरीरसे भिन्न अथवा अभिन्न रूप बनानेकी शक्ति प्राप्त होनेको प्राकाम्य कहते हैं। (विशेष दे. वैक्रियक ।१। पृथक् व अपृथक्विक्रिया) - ईशित्व व वशित्व विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३० णिस्सेसाण पहुत्तं जगाण ईसत्तणामरिद्धी सा। वसमेंति तवबलेणं जं जीओहा वसित्तरिद्धी सा ।१०३०। = जिससे सब जगत् पर प्रभुत्व होता है, वह ईशित्वनामक ऋद्धि है और जिससे तपोबल द्वारा जीव समूह वशमें होते हैं, वह वशित्व ऋद्धि कही जाती है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/४) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/५)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७६/२ सव्वेसिं जीवाणं गामणयरखेडादीणं च भुंजणसत्ती समुप्पण्णा ईसित्तं णाम। माणुस-मायंग-हरि-तुरयादीणं सगिच्छाए विउव्वणसत्ती वसित्तं णाम। = सब जीवों तथा ग्राम, नगर, एवं खेडे आदिकोंके भोगनेकी जो शक्ति उत्पन्न होती है वह ईशित्व ऋद्धि कही जाती है। मनुष्य, हाथी, सिंह एवं घोड़े आदिक रूप अपनी इच्छासे विक्रिया करनेकी (अर्थात् उनका आकार बदल देनेकी) शक्तिका नाम वशित्व है।
- ईशित्व व वशित्व विक्रियामें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७६/३ ण च वसित्तस्स ईसित्तिम्म पवेसो, अवसाणं पि हदाकारेण ईसित्तकरणुवलंभादो। = वशित्वका ईशित्व ऋद्धिमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि, अवशीकृतोंका भी उनका आकार नष्ट किये बिना ईशित्वकरण पाया जाता है। - . ईशित्व व वशित्वमें विक्रियापना कैसे है?
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७६/५ ईसित्तवसित्ताणं कधं वेउव्विवत्तं। ण, विविहगुणइड्ढिजुत्तं वेउव्वियमिदि तेसिं वेउव्वियत्ताविरोहादो। = प्रश्न-ईशित्व और वशित्वके विक्रियापना कैसे सम्भव है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, नाना प्रकार गुण व ऋद्धि युक्त होनेका नाम विक्रिया है, अतएव उन दोनोंके विक्रियापनेमें कोई विरोध नहीं है।
- ईशित्व व वशित्व विक्रियामें अन्तर
- अप्रतिघात अन्तर्धान व कामरूपित्व
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३१-१०३२ सेलसिलातरुपमुहाणब्भंतरं होइदूण गमणं व। जं वच्चदि सा ऋद्धी अप्पडिघादेत्ति गुणणामं ।१०३१। जं हवदि अद्दिसत्तं अंतद्धाणाभिधाणरिद्धी सा। जुगवें बहुरूवाणि जं विरयदि कामरूवरिद्धी सा ।१०३२। = जिस ऋद्धिके बलसे शैल, शिला और वृक्षादिके मध्यमें होकर आकाशके समान गमन किया जाता है, वह सार्थक नामवाली अप्रतिघात ऋद्धि है ।१०३१। जिस ऋद्धिसे अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अन्तर्धाननामक ऋद्धि है; और जिससे युगपत् बहुत-से रूपोंको रचता है, वह कामरूप ऋद्धि है ।१०३२। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/५); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१९/६)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१५/७६/४ इच्छिदरूवग्गहणसत्ती कामरूवित्तं णाम। = इच्छित रूपके ग्रहण करनेकी शक्तिका नाम कामरूपित्व है।
- विक्रिया ऋद्धिकी विविधता
- चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश
- चारण ऋद्धि सामान्य निर्देश
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१९/८४/७ चरणं चारित्तं संजमो पावकिरियाणिरोहो एयट्ठो तह्मि कुसलो णिउणो चारणो। = चरण, चारित्र, संजम, पापक्रियानिरोध इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण हैं वे चारण कहलाते हैं। - चारण ऋद्धिकी विविधता
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३४-१०३५, १०४८ "चारणरिद्धी बहुविहवियप्पसंदोह वित्थरिदा ।१०३४। जलजंधाफलपुप्फं पत्तग्गिसिहाण धूममेधाणं। धारामक्कडतंतूजोदीमरुदाण चारणा कमसो ।१०३५। अण्णो विविहा भंगा चारणरिद्धीए भाजिदा भेदा। तां सरूवंकहणे उवएसो अम्ह उच्छिण्णो ।१०४८। = चारण ऋद्धि क्रमसे जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूमचारण, मेघचारण, धाराचारण, मर्कटतन्तुचारण, ज्योतिषचारण और मरुच्चारण इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्प समूहोंसे विस्तारको प्राप्त हैं ।१०३४-१०३५। इस चारण ऋद्धिके विविध भंगोंसे युक्त विभक्त किये हुए और भी भेद होते हैं। परन्तु उनके स्वरूपका कथन करनेवाला उपदेश हमारे लिए नष्ट हो चुका है ।१०४८।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/पृ. ७८/१० तथा पृ. ८०/६ जल-जंघ-तंतु-फल-पुप्फ-बीय-आयास-सेडीभेएण अट्ठविहा चारणा। उत्तं च (गा.सं. २१)।७८-१०। चारणाणमेत्थ एगसंजोगादिकमेण विसदपंचपंचासभागा उप्पाएदव्वा। कधमेगं चारित्तं विचित्तसत्तिमुप्पाययं। ण परिणामभेएण णाणाभेदभिण्णचारित्तादो चारणबहुत्तं पडि विरोहाभावादो। कधं पुण चारणा अट्ठविहा त्ति जुज्जदे ण एस दोसो, णियमाभावादो, विसदपंचवंचासचारणाणं अट्ठविहचारणेहिंतो एयंतेण पुधत्ताभावादो च। = जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणीके भेदसे चारण ऋद्धि धारक, आठ प्रकार हैं। कहा भी है। (गा. नं. २१ में भी यही आठ भेद कहे हैं।) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२७), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/१।) यहाँ चारण ऋषियोंके एक संयोग, दो संयोग आदिके क्रमसे २५५ भंग उत्पन्न करना चाहिए। एक संयोगी = ८; द्विसंयोगी = २८; त्रिसंयोगी = ५६; चतुःसंयोगी = ७०; पंचसंयोगी = ५६; षट्संयोगी = २८; सप्तसंयोगी = २८; अष्टसंयोगी = १। कुल भंग = २५५। (विशेष दे. गणित II/४) प्रश्न-एक ही चारित्र इन विचित्र शक्तियोंका उत्पादक कैसे हो सकता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि परिणामके भेदसे नाना प्रकार चारित्र होनेके कारण चारणोंकी अधिकतामें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-जब चारणोंके भेद २५५ हैं तो फिर उन्हें आठ प्रकार का बतलाना कैसे युक्त है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उनके आठ होनेका कोई नियम नहीं है। तथा २५५ चारण आठ प्रकार चारणोंसे पृथक् भी नहीं है। - . आकाशचारण व आकाशगामित्व
- आकाशगामित्व ऋद्धिका लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३३-१०३४.....। अट्ठीओ आसीणो काउसग्गेण इदरेण ।१०३३। गच्छेदि जीए एसा रिद्धी गयणगामिणी णाम ।१०३४। = जिस ऋद्धिके द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकारसे ऊर्ध्व स्थित होकर या बैठकर जाता है वह आकाशगामिनी नामक ऋद्धि है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/३१ पर्यङ्कावस्था निषण्णा वा कायोत्सर्ग शरीरा वा पादोद्धारनिक्षेपणविधिमन्तरेण आकाशगमनकुशला आकाशगामिनः।" = पर्यङ्कासनसे बैठकर अथवा अन्य किसी आसनसे बैठकर या कायोत्सर्ग शरीरसे [पैरोंको उठाकर रखकर (धवला)] तथा बिना पैरोंको उठाये रखे आकाशमें गमन करनेमें जो कुशल होते हैं, वे आकाशगामी हैं। (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/८०/५); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/४)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१९/८४/५ आगासे जहिच्छाए गच्छंता इच्छिदपदेसं माणुसुत्तरं पव्वयावरुद्धं आगासगामिणो त्ति घेतव्वो। देवविज्जाहरणं णग्गहणं जिणसद्दणुउत्तीदो। = आकाशमें इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वतसे घिरे हुए इच्छित प्रदेशोंमें गमन करनेवाले आकाशगामी हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँ देव व विद्याधरोंका ग्रहण नहीं है, क्योंकि `जिन' शब्दकी अनुवृत्ति है। - आकाशचारण ऋद्धिका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/८०/२ चउहि अंगुलेहिंतो अहियपमाणेण भूमीदो उवरि आयासे गच्छंतो आगासचारणं णाम। = चार अंगुलसे अधिक प्रमाणमें भूमिसे ऊपर आकाशमें गमन करनेवाले ऋषि आकाशचारण कहे जाते हैं। - आकाशचारण व आकाशगामित्वमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१९/८४/६ "आगासचारणाणमागासगामीणं च को विसेसो। उच्चदे-चरणं चारित्तं संजमो पावकिरियाणिरोहो त्ति एयट्ठो, तह्मि कुसलो णिउणो चारणो। तवविसेसेण जणिदआगासट्ठियजीव(-वध) परिहरणकुसलत्तणेण सहिदो आगासचारणो। आगासगमणमेत्तजुत्तो आगासगामी। आगासगामित्तादो जीववधपरिहरणकुसलत्तणेण विसेसिदआगासगामित्तस्स विसेसुवलंभादो अत्थि विसेसो। = प्रश्न-आकाशचारण और आकाशगामीके क्या भेद हैं? उत्तर-चरण, चारित्र, संयम व पापक्रिया निरोध, इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण है वह चारण कहलाता है। तप विशेषसे उत्पन्न हुई, आकाशस्थित जीवोंके (वधके) परिहारकी कुशलतासे जो सहित है वह आकाशचारण है। और आकाशमें गमन करने मात्रसे आकाशगामी कहलाता है। (अर्थात् आकाशगामीको जीववध परिहारकी अपेक्षा नहीं होती)। सामान्य आकाशगामित्वकी अपेक्षा जीवोंके वध परिहारकी कुशलतासे विशेषित आकाशगामित्वके विशेषता पायी जानेसे दोनोंमें भेद हैं।
- आकाशगामित्व ऋद्धिका लक्षण
- जलचारण निर्देश
- जलचारणका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/७९-३; ८१-७ तत्थ भूमीए इव जलकाइयजीवाणं पीडमकाऊण जलमफुसंता जहिच्छाए जलगमणसत्था रिसओ जलचारणा णाम। पउणिपत्तं व जलपासेण विणा जलमज्झगामिणो जलचारणा त्ति किण्ण उच्चंति। ण एस दोसो, इच्छिज्जमाणत्तादो ।७९-३। ओसकखासधूमरोहिमादिचारणाणं जलचारणेसु अंतब्भावो, आउक्काइयजीवपरिहरणकुशलत्तं पडि साहम्मदंसणादो ।८१-७। = जो ऋषि जलकायिक जीवोंको बाधा न पहुँचाकर जलको न छूते हुए इच्छानुसार भूमिके समान जलमें गमन करनेमें समर्थ हैं, वे जलचारण कहलाते हैं। (जलपर भी पादनिक्षेपपूर्वक गमन करते हैं)। प्रश्न-पद्मिनीपत्रके समान जलको न छूकर जलके मध्यमें गमन करनेवाले जलचारण क्यों नहीं कहलाते? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऐसा अभीष्ट है। (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३६) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२८) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/२)। ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि पर गमन करनेवाले चारणोंका जलचारणोंमें अन्तर्भाव होता है। क्योंकि, इनमें जलकायिक जीवोंके परिहारकी कुशलता देखी जाती है। - जलचारण व प्राकाम्य ऋद्धिमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/७१/५ जलचारण-पागम्मरिद्धीणं दोण्हं को विसेसो। घणपुढवि-मेरुसायराणमंतो सव्वसरीरेण पवेससत्ती पागम्मं णाम। तत्थ जीवपरिहरणकउसल्लं चारणत्तं। = प्रश्न-जलचारण और प्राकाम्य इन दोनों ऋद्धियोंमें क्या विशेषता है? उत्तर-सघन पृथिवी, मेरु और समुद्रके भीतर सब शरीरसे प्रवेश करनेकी शक्तिको प्राकाम्यऋद्धि कहते हैं, और यहाँ जीवोंके परिहारकी कुशलताका नाम चारण ऋद्धि है।
- जलचारणका लक्षण
- जंघाचारण निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या १०३७ चउरंगुलमेत्तमहिं छंडिय गयणम्मि कुडिलजाणु व्रिणा। जं बहुजोयणगमणं सा जंघाचारणा रिद्धी ।१०३७। = चार अंगुल प्रमाण पृथिवीको छोड़कर आकाशमें घुटनोंको मोड़े बिना (या जल्दी जल्दी जंघाओंको उत्क्षेप निक्षेप करते हुए- राजवार्तिक अध्याय संख्या ) जो बहुत योजनों तक गमन करना है, वह जंघाचारण ऋद्धि है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२९); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/३)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/७९/७; ८१/४ भूमीए पुढविकाइयजीवाणं बाहमकाऊण अणेगजोयणसयगामिणो जंघाचारणा णाम ।७९-७।....चिक्खल्लछारगोवर-भूसादिचारणाणं जंघाचारणेसु अंतब्भावो, भूमीदो चिक्खलादीणं कधंचि भेदाभावादो ।८१-४। = भूमिमें पृथिवीकायिक जीवोंको बाधा न करके अनेक सौ योजन गमन करनेवाले जंघाचारण कहलाते हैं।....कीचड़ भस्म, गोबर और भूसे आदि परसे गमन करनेवालोंका जंघाचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, भूमिसे कीचड़ आदिमें कथंचित् अभेद है। - अग्नि, धूम, मेघ, तन्तु, वायु व श्रेणी चारण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०४१-१०४३, १०४५, १०४७ अविराहिदूण जोवे अग्निसिहालंठिए विचित्ताणं। जं ताण उवरि गमणं अग्निसिहाचारणा रिद्धी ।१०४१। अधउड्ढतिरियपसरं धूमं अवलंबिऊण जं देंति। पदखेवे अक्खलिया सा रिद्धी धूमचारणा णाम ।१०४२। अविरा `हदूणजीवे अपुकाए बहुविहाण मेघाणं। जं उवरि गच्छिइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणाणाम ।१०४३। मक्कडयतंतुपंतीउवरिं अदिलघुओ तुरदपदखेवे। गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्कडतंतुचारणा रिद्धी ।१०४५। णाणाविहगदिमारुदपदेसपंतीसु देंति पदखेवे। जं अक्खलिया मुणिणो सा मारुदचारणा रिद्धी ।१०४७। = अग्निशिखामें स्थित जीवोंकी विराधना न करके उन विचित्र अग्नि-शिखाओं परसे गमन करनेको `अग्निशिखा चारण' ऋद्धि कहते हैं ।१०४१। जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिजन नीचे ऊपर और तिरछे फैलनेवाले धुएँका अवलम्बन करके अस्खलित पादक्षेप देते हुए गमन करते हैं वह `धूमचारण' नामक ऋद्धि है ।१०४२। जिस ऋद्धिसे मुनि अप्कायिक जीवोंको पीड़ा न पहुँचाकर बहुत प्रकारके मेघोंपरसे गमन करता है वह `मेघचारण' नामक ऋद्धि है ।१०४३। जिसके द्वारा मुनि महर्षि शीघ्रतासे किये गये पद-विक्षेपमें अत्यन्त लघु होते हुए मकड़ीके तन्तुओंकी पंक्तिपरसे गमन करता है, वह `मकड़ीतन्तुचारण' ऋद्धि है ।१०४५। जिसके प्रभावसे मुनि नाना प्रकारकी गतिसे युक्त वायुके प्रदेशोंकी पंक्ति परसे अस्खलित होकर पदविक्षेप करते हैं; वह `मारुतचारण' ऋद्धि है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०२/२७); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २१८/१)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/८०-१; ८१-८ धूमग्गि-गिरि-तरु-तंतुसंताणेसु उड्ढारोहणसत्तिसंजुत्ता सेडीचारणा णाम ।८०-१।.....धूमग्गिवाद-मेहादिचारणाणं तंतु-सेडिचारणेसु अंतब्भाओ, अणुलोमविलोमगमणेसु जीवपीडा अकरणसत्तिसंजुत्तादो। = धूम, अग्नि, पर्वत, और वृक्षके तन्तु समूह परसे ऊपर चढ़नेकी शक्तिसे संयुक्त `श्रेणी चारण' है। .....धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदिकके आश्रयसे चलनेवाले चारणोंका `तन्तु-श्रेणी' चारणोंमें अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि, वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करनेमें जीवोंको पीड़ा न करनेकी शक्तिसे संयुक्त हैं। - धारा व ज्योतिष चारण निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०४४,१०४६ अविराहिय तल्लीणे जीवे घणमुक्कवारिधाराणं। उवरिं जं जादि मुणी सा धाराचारणा ऋद्धि ।१०४४। अघउड्ढतिरियपसरे किरणे अविलंबिदूण जोदीणं। जं गच्छेदि तवस्सी सा रिद्धी जोदि-चारणा णाम ।१०४६। = जिसके प्रभावसे मुनि मेघोंसे छोड़ी गयी जलधाराओंमें स्थित जीवोंको पीड़ा न पहुँचाकर उनके ऊपरसे जाते हैं, वह धारा चारण ऋद्धि है ।१०४४। जिससे तपस्वी नीचे ऊपर और तिरछे फैलनेवाली ज्योतिषी देवोंके विमानोंकी किरणोंका अवलम्बन करके गमन करता है वह ज्योतिश्चारण ऋद्धि है ।१०४६। (इन दोनोंका भी पूर्व वाले शीर्षकमें दिये धवला ग्रन्थके अनुसार तन्तु श्रेणी ऋद्धिमें अन्तर्भाव हो जाता है।) - फल पुष्प बीज व पत्रचारण निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३८-१०४० अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बणप्फलाण विविहाणं। उवरिम्मि जं पधावदि स च्चिय फलचारणा रिद्धी ।१०३८। अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पुप्फाणं। उवरिम्मि जं पसप्पदि सा रिद्धो पुप्फचारणा णाम ।१०३०। अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पत्ताण। जा उवरि वच्चदि मुणी सा रिद्धी पत्तचारणा णामा ।१०३९। = जिस ऋद्धिका धारक मुनि वनफलोंमें, फूलोंमें, तथा पत्तोंमें रहनेवाले जीवोंकी विराधना न करके उनके ऊपरसे जाता है वह फलचारण, पुष्पचारण तथा पत्रचारण नामक ऋद्धि है।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,१७/७९-७; ८१-५ तंतुफलपुप्फबीजचारणाणं पि जलचारणाणं व वत्तव्वं ।७९-७।.....कुंथुद्देही-मुक्कण-पिपीलियादिचारणाणं फलचारणेसु अंतब्भावो, तस जीवपरिहरणकुसलत्तं पडि भेदाभावादो। पत्तंकुरत्तण पवालादिचारणाणं पुप्फचारणेसु अंतब्भावो, हरिदकायपरिहरणकुसलत्तेण साहम्मादो ।८१/५। = तन्तुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बीजचारणका स्वरूप भी जलचारणोंके समान कहना चाहिए (अर्थात् उनमें रहने वाले जीवोंको पीड़ा न पहुँचाकर उनके ऊपर गमन करना) ।७९-७।....कुंथुजीव, मुत्कण, और पिपीलिका आदि परसे संचार करनेवालोंका फलचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, इनमें त्रसजीवोंके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है ।। पत्र, अंकुर, तृण और प्रवाल आदि परसे संचार करनेवालोंका पुष्पचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, हरितकाय जीवोंके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा इनमें समानता है।
- चारण ऋद्धि सामान्य निर्देश
- तपऋद्धि निर्देशs
- उग्रतपऋद्धि निर्देश
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२२/८७-५; ८९-६ उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवट्ठिदुग्गतवा चेदि। तत्थ जो एक्कोववासं काऊण पारिय दो उववासो करेदि, पुणरवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि। एवमेगुत्तरवड्डीए जाव जीविदं तं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उववासे करेंतो उग्गगतवो णाम। एदस्सुववास पारणाणयणे सुत्तं-"उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्टापितेऽत्र गुणमादिम्। उत्तरविशेषितं वर्ग्गितं च योज्यान्येन्मूलम् ।२३। इत्यादि....तत्थ दिक्खट्ठेमेगोववासं काऊण पारिय पुणो-एक्कहंतरेण गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो। पुणो तेण छट्ठोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। एवं दसमदुवालसादिक्कमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीविदंतं जो विहरदि अवट्ठिदुग्गतवो णाम। एदं पि तवोविहाणं वीरियंतराइयक्खओवसमेण होदि। = उग्रतप ऋद्धिके धारक दो प्रकार हैं-उग्रोग्रतप ऋद्धि धारक और अवस्थितउग्रतप ऋद्धि धारक। उनमें जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियोंसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला `उग्रोग्रतप' ऋद्धिका धारक है। इसके उपवास और पारणाओंका प्रमाण लानेके लिए सूत्र-(यहाँ चार गाथाएँ दी हैं जिनका भावार्थ यह है कि १४ दिन में १० उपवास व ४ पारणाएँ आते हैं। इसी क्रमसे आगे भी जानना) (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५०-१०५१) दीक्षाके लिए एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिनके अंतरसे ऐसा करते हुए किसी निमित्तसे षष्टोपवास (बेला) हो गया। फिर (पूर्वाक्तवत् ही) उस षष्ठोपवाससे विहार करनेवाले के (कदाचित्) अष्टमोपवास (तेला) हो गया। इस प्रकार दशमद्वादशम आदि क्रमसे नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यन्त विहार करता है, वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धिका धारक कहा जाता है। यह भी तपका अनुष्ठान वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होता है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/८); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२०/१) - घोर तपऋद्धि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५५ जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चंतपीडिअंगा वि। साहंति दुर्द्ध रतवं जोए सा घोरतवरिद्धी ।१०५५।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२६/९२/२ उववासेसुछम्मासोववासो, अवमोदरियासु एक्ककवलो उत्तिपरिसंखासु चच्चरे गोयराभिग्गहो, रसपरिच्चाग्गेसु उण्हजलजुदोयणभोयणं, विवित्तसयणासणेसु वय-वग्घ-तरच्छ-छवल्लादिसावयसेवियासुसज्झविज्झुडईसु णिवासो, कायकिलेसेसुतिव्वहिमवासादिणिवदंतविसएसु अब्भोकासरुक्खमूलादावणजोगग्गहणं। एवमब्भंतरतवेसु वि उक्कट्ठतवपरूवणा कायव्वा। एसो बारह विह वि तवो कायरजणाणं सज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो। सो जेसिं ते घोरत्तवा। बारसविहतवउक्कट्ठवट्ठाए वट्टमाणा घोरतवा त्ति भणिद होदि। एसा वि तवजणिदरिद्धी चेव, अण्णहा एवं विहाचरणाणुववत्तीदो। = (तिलोयपण्णत्ति ) जिस ऋद्धिके बलसे ज्वर और शूलादिक रोगसे शरीरके अत्यन्त पीड़ित होने पर भी साधुजन दुर्द्धर तपको सिद्ध करते हैं, वह घोर तपऋद्धि है ।१०५५। उपवासोंमें छह मासका उपवासः अवमोदर्य तपोंमें एक ग्रास; वृत्तिपरिसंख्याओंमें चौराहेमें भिक्षाकी प्रतिज्ञा; रसपरित्यागोंमें उष्ण जल युक्त ओदनका भोजन; विविक्तशय्यासनोंमें वृक, व्याघ्र, तरक्ष, छवल्ल आदि श्वापद अर्थात् हिंस्रजीवोंसे सेवित सह्य, विन्ध्य आदि (पर्वतोंकी) अटवियोंमें निवास; कायक्लेशोंमें तीव्र हिमालय आदिके अन्तर्गत देशोंमें, खुले आकाशके नीचे, अथवा वृक्षमूलमें; आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तपोंमें भी उत्कृष्ट तपकी प्ररूपणा करनी चाहिए। ये बारह प्रकार ही तप कायर जनोंको भयोत्पादक हैं, इसी कारण घोर तप कहलाते हैं। वह तप जिनके होता है वे घोरतप ऋद्धिके धारक हैं। बारह प्रकारके तपोंकी उत्कृष्ट अवस्थामें वर्तमान साधु घोर तप कहलाते हैं, यह तात्पर्य है। यह भी तप जनित (तपसे उत्पन्न होनेवाली) ऋद्धि ही है, क्योंकि, बिना तपके इस प्रकारका आचरण बन नहीं सकता। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१२), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२२/२)। - घोर पराक्रम तप ऋद्धि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५६-१०५७ णिरुवमवड्ढंततवा तिहुवणसंहरणकरसत्तिजुत्ता। कंटयसिलग्गिपव्वयधूमुक्कापहुदिवरिसणसमत्था ।१०५६। सहस त्ति सयलसायरसलिलुप्पीलस्स सोसणसमत्था। जायंति जीए मुणिणो घोरपरक्कमतव त्ति सा रिद्धी ।१०५७। = जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि जन अनुपम एवं वृद्धिंगत तपसे सहित, तीनों लोकोंके संहार करनेकी शक्तिसे युक्त; कंटक, शिला, अग्नि, पर्वत, धुआँ तथा उल्का आदिके बरसानेमें समर्थ; और सहसा समपूर्ण समुद्रके सलिलसमूहके सुखानेकी शक्तिसे भी संयुक्त होते हैं वह घोर-पराक्रम-तप ऋद्धि है ।१०५६-१०५७। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१६); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२७/९३/२); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/१) - घोर ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५८-१०६० जीए ण होंति मुणिणो खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओ। कालमहाजुद्धादी रिद्धी सघोरब्रह्मचारित्ता ।१५८। उक्कस्स खउवसमे चारित्तावरणमोहकम्मस्स। जा दुस्सिमणं णासइ रिद्धी सा घोरब्रह्मचारित्ता ।१०५९। अथवा-सव्वगुणेहिं अघोरं महेसिणो बह्मसद्दचारित्तं। विप्फुरिदाए जीए रिद्धी साघोरब्रह्मचारित्ता ।१०६०।" = जिस ऋद्धिसे मुनिके क्षेत्रमें भी चौरादिककी बाधाएँ और काल एवं महायुद्धादि नहीं होते हैं, वह `अघोर ब्रह्मचारित्व' ऋद्धि है ।१०५८। (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२९/९४/३); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/४) चारित्रमोहनीयका उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुःस्वप्नको नष्ट करती है तथा जिस ऋद्धिके आविर्भूत होनेपर महर्षिजन सब गुणोंके साथ अघोर अर्थात् अविनश्वर ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है ।१०५९-१०६०। ( राजवार्तिक तथा चारित्रसार में इस लक्षणका निर्देश ही घोर गुण ब्रह्मचारीके लिए किया गया है) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१६); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/३)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२९/९३-६; ९४-२ घोरा रउद्दा गुणा जेसिं ते घोरगुणा। कधं चउरासादिलक्खगुणाणं घोरत्तं। घोरकज्जकारिसत्तिजणणादो। ९४६।.....ब्रह्म चारित्रं पंचव्रत-समिति-त्रिगुप्त्यात्मकम्, शान्तिपुष्टिहेतुत्वात्। अघोरा शान्ता गुणा यस्मिन् तदघोरगुणं, अघोरगुणं, ब्रह्मचरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः।.....एत्थ अकारो किण्ण सुणिज्जदे। संधिणिद्देसादो ।१९२। = घोर अर्थात् रौद्र हैं गुण जिनके वे घोर गुण कहे जाते हैं। प्रश्न-चौरासी लाख गुणोंके घोरत्व कैसे सम्भव है। उत्तर-घोर कार्यकारी शक्तिको उत्पन्न करनेके कारण उनके घोरत्व सम्भव है। ब्रह्मका अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिस्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह शान्तिके पोषणका हेतु है। अघोर अर्थात् शान्त हैं गुण जिसमें वह अघोर गुण है। अघोर गुण ब्रह्म (चारित्र) का आचरण करनेवाले अघोर गुण ब्रह्मचारी कहलाते हैं। (भावार्थ-अघोर शान्तको कहते हैं। जिनका ब्रह्म अर्थात् चारित्र शान्त है उनको अघोर गुण ब्रह्मचारी कहते हैं। ऐसे मुनि शान्ति और पुष्टिके कारण होते हैं, इसीलिए उनके तपश्चरणके माहात्म्यसे उपरोक्त ईति, भीति, युद्ध व दुर्भिक्षादि शान्त हो जाते हैं। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/३)। = प्रश्न-`णमो घोरगुणबम्हचारीणं' इस सूत्रमें अघोर शब्दका अकार क्यों नहीं सुना जाता? उत्तर-सन्धियुक्त निर्देश होनेसे।- घोर गुण और घोर पराक्रम तपमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२८/९३/८ ण गुण-परक्कमाण मेयत्तं, गुणजणि दसत्तीए परक्कमववएसादो। = गुण और पराक्रमके एकत्व नहीं हैं, क्योंकि गुण से उत्पन्न हुई शक्तिकी पराक्रम संज्ञा है।
- घोर गुण और घोर पराक्रम तपमें अन्तर
- तप्त दीप्त व महातप ऋद्धि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५२-१०५४ बहुविहउववासेहिं रविसमवड्ढंतकायकिरणोघो। कायमणवयणबलिणो जीए सा दित्ततवरिद्धी ।१०५२। तत्ते लोहकढाहे पडिंअंबुकणं ब जीए भुत्तण्णं। झिज्जहिं धाऊहिं सा णियझाणाएहिं तत्ततवा ।१०५३। मंदरपंत्तिप्पमुहे महोववासे करेदि सव्वे वि। चउसण्णाण बलेणं जीए सा महातवा रिद्धी ।१०५४।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२३/९०/५ तेसिं ण केवलं दित्ति चेव वंड्ढदि किंतु बलो वि वड्ढदि।.....तेण ण तेसिं भुत्ति वि तेण कारणाभावादो। ण च भुक्खादुक्खवसमणट्ठं भुजंति, तदभावादो। तदभावो कुदीवगम्मदे। = जिस ऋद्धिके प्रभावसे, मन, वचन और कायसे बलिष्ठ ऋषिके बहुत प्रकारके उपवासों द्वारा सूर्यके समान दीप्ति अर्थात् शरीरकी किरणोंका समूह बढ़ता हो वह `दीप्त तप ऋद्धि' है ।१०५२। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/९); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२१/२)। (धवलामें उपरोक्तके अतिरिक्त यह और भी कहा है कि उनके केवल दीप्ति ही नहीं बढ़ती है, किन्तु बल भी बढ़ता है। इसीलिए उनके आहार भी नहीं होता, क्योंकि उसके कारणोंका अभाव है। यदि कहा जाय कि भूखके दुःखको शान्त करनेके लिए वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनके भूखके दुःखका अभाव है।) तपी हुई लोहेकी कड़ाहीमें गिरे हुए जलकणके समान जिस ऋद्धिसे खाया हुआ अन्न धातुओं सहित क्षीण हो जाता है, अर्थात् मल-मूत्रादि रूप परिणमन नहीं करता है, वह निज ध्यानसे उत्पन्न हुई तप्त `तप ऋद्धि' है ।१०५३। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१०); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२४/९१/१), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२१/३)। जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि चार सम्यग्ज्ञानों (मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय) के बलसे मन्दिर पंक्ति प्रमुख सब ही महान् उपवासोंको करता है वह `महा तप ऋद्धि' है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३/६३/२०३/११)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२५/९१/५ अणिमादिअट्ठगुणोवेदो जलचारणादिअट्ठविहचारणगुणालंकरियो फुरंतसरीरप्पहो दुविहअवखीणरिद्धिजुत्तो सव्वोसही सरूवो पाणिपत्तणिवदिदसव्वहारो अमियसादसरूवेण पल्लट्ठावणसमत्थो सयलिंदेहिंतो वि अणंतबलो आसी-दिट्ठिविसलद्धिसमण्णिओ तत्ततवो सयलविज्जाहरो मदि सुद ओहि मणपज्जवणाणेहि मुणिदतिहुवणवावारो मुणी महातवो णाम। कस्मात्। महत्त्वहेतुस्तपोविशेषो महानुच्यते उपचारेण, स येषां ते तपसः इति सिद्धत्वात्। अथवा महसां हेतुः तप उपचारेण महा इति भवति। = जो अणिमादि आठ गुणोंसे सहित हैं, जलचारणादि आठ प्रकारके चारण गुणोंसे अलंकृत हैं, प्रकाशमान शरीर प्रभासे संयुक्त हैं, दो प्रकारकी अक्षीण ऋद्धिसे युक्त हैं, सर्वोषध स्वरूप हैं, पाणिपात्रमें गिरे हुए आहारको अमृत स्वरूपसे पलटानेमें समर्थ हैं, समस्त इन्द्रोंसे भी अनन्तगुणे बलके धारक हैं, आशीर्विष और दृष्टिविष लब्धियोंसे समन्वित हैं, तप्ततप ऋद्धिसे संयुक्त हैं, समस्त विद्याओंके धारक हैं; तथा मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ज्ञानोंसे तीनों लोकोंके व्यापारकी जाननेवाले हैं, वे मुनि `महातप ऋद्धि' के धारक हैं। कारण कि महत्त्वके हsेतुभूत तपविशेषको उपचारसे महान् कहा जाता है। वह जिनके होता है वे महातप ऋषि हैं, ऐसा सिद्ध है। अथवा, महस् अर्थात् तेजोंका हेतुभूत जो तप है वह उपचार से महा होता है। (तात्पर्य यह कि सातों ऋद्धियोंकी उत्कृष्टताको प्राप्त होनेवाले ऋषि महातप युक्त समझे जाते हैं।)
- उग्रतपऋद्धि निर्देश
- बल ऋद्धि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०६१-१०६६ बलरिद्धी तिविहप्पा मणवयणसरीरयाणभेएण। सुदणाणावरणाए पगडीए वीरयंतरायाए ।१०६१। उक्कसक्खउवसमे सुहुत्तमेत्तंतरम्मि सयलसुदं। चिंतइ जाणइ जीए सा रिद्धी मणबला णामा ।१०६२। जिब्भिंदियणोइंदिय-सुदणाणावरणविरियविग्घाणं। उक्कस्सखओवसमे मुहुत्तमेत्तंतरम्मि मुणी ।१०६३। सयलं पि सुदं जाणइ उच्चारइ जीए विप्फुरंतीए। असयो अहिकंठो सा रिद्धीउ णेया वयणबलणामा ।१०६४। उक्कस्सखउसमे पविसेसे विरियविग्धपगढीए। मासचउमासपमुहे काउसग्गे वि समहीणा ।१०६५। उच्चट्ठिय तेल्लोक्कं झत्ति कणिट्ठंगुलीए अण्णत्थं। घविदं जीए समत्था सा रिद्धी कायबलणामा ।१०६६। = मन वचन और कायके भेदसे बल ऋद्धि तीन प्रकार है। इनमें-से जिस ऋद्धिके द्वारा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर मुहूर्तमात्र कालके भीतर अर्थात् अन्तर्मुहूर्त्त कालमें सम्पूर्ण श्रुतका चिन्तवन करता है वह जानता है, वह `मनोबल' नामक ऋद्धि है ।१०६१-१०६२। जिह्वेन्द्रियावरण, नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर जिस ऋद्धिके प्रगट होनेसे मुनि श्रमरहित और अहीनकंठ होता हुआ मुहूर्त्तमात्र कालके भीतर सम्पूर्ण श्रुतको जानता व उसका उच्चारण करता है, उसे `वचनबल' नामकऋद्धि जानना चाहिए ।१०६३-१०६४। जिस ऋद्धिके बलसे वीर्यान्तराय प्रकृतिके उत्कृष्ट क्षयोपशमकी विशेषता होनेपर मुनि, मास व चतुर्मासादिरूप कायोत्सर्गको करते हुए भी श्रमसे रहित होते हैं, तथा शीघ्रतासे तीनों लोकोंको कनिष्ठ अँगुलीके ऊपर उठाकर अन्यत्र स्थापित करनेके लिए समर्थ होते हैं, वह `कायबल' नामक ऋद्धि है ।१०६५-१०६६। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१९); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,३५-३७/९८-९९); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या /२२४/१) - औषध ऋद्धि निर्देश
- औषध ऋद्धि सामान्य
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/२४ औषधर्द्धिरष्टविधा-असाध्यानामप्यामयानां सर्वेषां विनिवृत्तिहेतुरामर्शक्ष्वेलजल्लमलविट्सर्वौषधिप्राप्तास्याविषदृष्टिविषविकल्पात्। = असाध्य भी सर्व रोगोंकी निवृत्तिकी हेतुभूत औषध-ऋद्धि आठ प्रकारकी है - आमर्ष, क्ष्वेल, जल्ल, मल, विट्, सर्व, आस्याविष और दृष्टिविष। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२५/१)। - आमर्ष क्ष्वेल जल मल व विट् औषध ऋद्धि
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०६८-१०७२ रिसिकरचरणादीणं अल्लियमेत्तम्मि। जीए पासम्मि। जीवा होंति णिरोगा सा अम्मरिसोसही रिद्धी ।१०६८। जीए तालासेमच्छीमलसिंहाणआदिआ सिग्घं। जीवाणं रोगहरणा स च्चिय खेलोसही रिद्धो ।१०६९। सेयजलो अंगरयं जल्लं भण्णेत्ति जीए तेणावि। जीवाणं रोगहरणं रिद्धी जस्लोसही णामा ।१०७०। जीहीट्ठदं तणासासोंत्तादिमलं पि जीए सत्तीए। जोवाणं रोगहरणं मलोसही णाम सा रिद्धी ।१०७१। = जिस ऋद्धिके प्रभावसे जीव पासमें आनेपर ऋषिके हस्त व पादादिके स्पर्शमात्र से ही निरोग हो जाते हैं, वह `आमर्षौषध' ऋद्धि है ।१०६८। जिस ऋद्धिके प्रभावसे लार, कफ, अक्षिमल और नासिकामल शीघ्र ही जीवोंके रोगोंको नष्ट करता है वह `क्ष्वेलौषध ऋद्धि है ।१०६९। पसीनेके आश्रित अंगरज जल्ल कहा जाता है। जिस ऋद्धिके प्रभावसे उस अंगरजसे भी जीवों के रोग नष्ट होते हैं, वह `जल्लौषधि' ऋद्धि कहलाती है ।१०७०। जिस शक्तिसे जिह्वा, ओठ, दाँत, नासिका और श्रोत्रादिकका मल भी जीवोंके रोगोंको दूर करनेवाला होता है, वह `मलौषधि' नामक ऋद्धि है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/२५); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,३०-३३/९५-९७); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२५/२)।- आमर्षौषधि व अघोरगुण ब्रह्मचर्यमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,३०/९६/१ तवोमाहप्पेण जेसिं फासो सयलोसहरूवत्तं पत्तो तेसिमाम्मरिसो सहिपत्ता त्ति सण्णा। = ण च एदेसिमघोरगुणबंभयारीणं अंतब्भावो, एदेसिं वाहिविणासणे चेव सत्तिदंसणादो। = तप के प्रभावसे जिनका स्पर्श समस्त औषधियोंके स्वरूपको प्राप्त हो गया है, उनको आमर्षौषधि प्राप्त ऐसी संज्ञा है। इनका अघोरगुणब्रह्मचारियों में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, इनके अर्थात् अघोरगुण ब्रह्मचारियोंके केवल, व्याधिके नष्ट करनेमें ही शक्ति देखी जाती है। (पर उनका स्पर्श औषध रूप नहीं होता)। - सर्वौषध ऋद्धि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या /४/१०७३ जीए पस्सजलाणिलरीमणहादीणि वाहिहरणाणि। दुक्करवजुत्ताणं रिद्धी सव्वोही णामा ।१०७३। = जिस ऋद्धिके बलसे दुष्कर तपसे युक्त मुनियोंका स्पर्श किया हुआ जल व वायु तथा उन के रोम और नखादिक व्याधिके हरनेवाले हो जाते हैं, वह सर्वौषधि नामक ऋद्धि है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/२९); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२५/५) धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,३४/९७/६ रस-रुहिर-मांस-मेदट्ठि-मज्ज-सुक्क-पुप्फस-खरीसकालेज्ज-मुत्त-पित्तंतुच्चारादओ सव्वे ओसाहत्तं पत्ता जेसि ते सव्वोसहिषत्ता। = रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, पुप्फस, खरीष, कालेय, मूत्र, पित्त, अँतड़ी, उच्चार अर्थात् मल आदिक सब जिनके औषधिपनेको प्राप्त हो गये हैं वे सर्वौषधिप्राप्त जिन हैं। - आस्यनिर्विष व दृष्टिनिर्विष औषध ऋद्धि
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या /४/१०७४-१०७६ तित्तादिविविहम्मण्णं विसुजुत्तं जीए वयणमेत्तेण। पावेदि णिव्विसत्तं सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ।१०७४। अहवा बहुवाहाहिं परिभूदा झत्ति होंति णीरोगा। सोदुं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ।१०७५। रोगाविसेहिं पहदा दिट्ठीए जीए झत्ति पावंति। णीरोगणिव्विसत्तं सा भणिदा दिट्ठिणिव्विसा रिद्धी ।१०७६।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३,३६,३/२०३/३० उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्यनिर्गतं वचःश्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि निर्विषीभवन्ति ते आस्याविषाः। = (तिलोयपण्णत्ति ) - जिस ऋद्धिसे तिक्तादिक रस व विषसे युक्त विविध प्रकारका अन्न वचनमात्रसे ही निर्विषताको प्राप्त हो जाता है, वह `वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है ।१०७४। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ) - उग्र विषसे मिला हुआ भी आहार जिनके मुखमें जाकर निर्विष हो जाता है, अथवा जिनके मुखसे निकले हुए वचनके सुनने मात्रसे महाविष व्याप्त भी कोई व्यक्ति निर्विष हो जाता है वे `आस्याविष' हैं। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/१)। (तिलोयपण्णत्ति ) अथवा जिस ऋद्धिके प्रभावसे बहुत व्याधियोंसे युक्त जीव, ऋषिके वचनको सुनकर ही झटसे नीरोग हो जाया करते हैं, वह वचन निर्विष नामक ऋद्धि है ।१०७५। रोग और विषसे युक्त जीव जिस ऋद्धिके प्रभावसे झट देखने मात्रसे ही निरोगता और निर्विषताको प्राप्त कर लेते हैं; वह `दृष्टिनिर्विष' ऋद्धि है ।१०७६। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३२); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/२)
- आमर्षौषधि व अघोरगुण ब्रह्मचर्यमें अन्तर
- औषध ऋद्धि सामान्य
- रस ऋद्धि निर्देश
- आशीर्विष रस ऋद्धि
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०७८ मर इदि भणिदे जीओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए। दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविस णाम रिद्धी सा। = जिस शक्तिसे दुष्कर तपसे युक्त मुनिके द्वारा `मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३४); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/५)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२०/८५/५ अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशीः, आशीर्विष एषां ते आशीर्विषाः। जेसि जं पडि मरिहि त्ति वयणं णिप्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्तिवयणं भिक्खं भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीस छिंददि, आसीविसा णाम समणा। कधं वयणस्स विससण्णा। विसमिव विसमिदि उवयारादो। आसी अविसममियं जेसिं ते आसीविसा। जेसिं वयणं थावर-जंगम-विसपूरिदजीवे पडुच्च `णिव्विसा होंतु' त्ति णिस्सरिदं ते जीवावेदि। वाहिवेयण-दालिद्दादिविलयं पडुच्च णिप्पडितं सं तं तं तं कज्जं करेदि ते वि आसीविसात्ति उत्तं होदि। = अविद्यमान अर्थकी इच्छाका नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीर्विष कहे जाते हैं। `मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है, `भिक्षाके लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, `शिरका छेद हो' ऐसा वचन शिरको छेदता है, (अशुभ) आशीर्विष नामक साधु हैं। प्रश्न-वचनके विष संज्ञा कैसे सम्भव है? उत्तर-विषके समान विष है। इस प्रकार उपचारसे वचनको विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे (शुभ) आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विषसे पूर्ण जीवोंके प्रति `निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन उन्हें जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदिके विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्यको करता है, वे भी आशीर्विष हैं, यह सूत्रका अभिप्राय है। - . दृष्टिविष व दृष्टि अमृत रस ऋद्धि
- दृष्टिविष रस ऋद्धिका लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०७९ जीए जीवो दिट्ठो महासिणा रोसभरिदहिदएण। अहदट्ठं व मरिज्जदि दिट्ठिविसा णाम सा रिद्धी ।१०७९। = जिस ऋद्धिके बलसे रोषयुक्त हृदय वाले महर्षिसे देखा गया जीव सर्प द्वारा काटे गयेके समान मर जाता है, वह दृष्टिविष नामक ऋद्धि है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०४/१); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२७/१)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८६/७ दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात्। तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि। रुट्ठो जदि जोएदि चिंतेदि किरियं करेदि वा `मारेमि' त्ति तो मारेदि, अण्णं पि असुहकम्मं संरंभपुव्वावलोयणेण कुणमाणोदिट्ठविसो णाम। = दृष्टि शब्दसे यहाँ चक्षु और मन (दोनों) का ग्रहण है, क्योंकि उन दोनोंमें दृष्टि शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है। उसकी सहचरतासे क्रियाका भी ग्रहण है। रुष्ट होकर वह यदि `मारता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है; तथा क्रोधपूर्वक अवलोकनसे अन्य भी अशुभ कार्यको करनेवाला (अशुभ) दृष्टिविष कहलाता है।
- दृष्टि अमृतरस ऋद्धिका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८६/९ एवं दिट्ठअमियाणं पि जाणिदूण लक्खणं वत्तव्वं। = इसी प्रकार दृष्टि अमृतोंका भी लक्षण जानकर कहना चाहिए। (अर्थात् प्रसन्न होकर वह यदि `नीरोग करता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, व क्रिया करता है तो नीरोग करता है, तथा प्रसन्नतापूर्वक अवलोकनसे अन्य भी शुभ कार्यको करनेवाला दृष्टिअमृत कहलाता है)। - दृष्टि अमृत रस ऋद्धि व अघोरब्रह्मचर्य तपमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२९/९४/६ दिट्ठअमियाणमघोरगुणबंभयारीणं च को विसेसो। उवजोगसहेज्जदिट्ठीए दिट्ठिलद्धिजुत्ता दिट्ठिविसा णाम। अघोर गुणबंभयारीणं पुण लद्धी असंखेज्जा सव्वंगगया, एदेसिमंगलग्गवादे वि सयलोवद्दवविणासणसत्तिदंसणादो तदो। अत्थि भेदो। णवरि असुद्धलद्धोणं पउत्ती लद्धिमंताणमिच्छावसवट्टणी। सुहाणं पउत्ती पुण दोहि वि पयारेहि संभवदि, तदिच्छाए विणा वि पउत्तिदंसणादो। = प्रश्न-दृष्टि-अमृत और अघोरगुणब्रह्मचारीके क्या भेद हैं? उत्तर-उपयोगकी सहायता युक्त दृष्टिमें स्थित लब्धिसे संयुक्त दृष्टिविष कहलाते हैं। किन्तु अघोरगुणब्रह्मचारियोंकी लब्धियाँ सर्वांगगत असंख्यात हैं। इनके शरीरसे स्पृष्ट वायुमें भी समस्त उपद्रवोंको नष्ट करनेकी शक्ति देखी जाती है इस कारण दोनोंमें भेद है।
विशेष इतना है कि अशुभ लब्धियोंकी प्रवृत्ति लब्धियुक्त जीवों की इच्छाके वशसे होती है। किन्तु शुभ लब्धियोंकी प्रवृत्ति दोनों ही प्रकारोंसे सम्भव है, क्योंकि, इनकी इच्छाके बिना भी उक्त लब्धियोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
- दृष्टिविष रस ऋद्धिका लक्षण
- क्षीर-मधु-सर्पि व अमृतस्रावी रस ऋद्धि
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०८०-१०८७ करयलणि क्खिताणिं रुक्खाहारादियाणि तक्कालं। पावंति खीरभावं जीए खीरोसवी रिद्धी ।१०८०। अहवा दुक्खप्पहुदी जीए मुणिवयण सवण मेत्तेणं। पसमदि णरतिरियाणं स च्चिय खीरोसवी ऋद्धी ।१०८१। मुणिकइणिक्खिताणि लुक्खाहारादियाणिहोंतिखणे। जीए महुररसाइं स च्चिय महुवासवी रिद्धी ।१०८२। अहवा दुक्खप्पहुदी जीए मुणिवयणसवणमेत्तेण। णासदि णरतिरियाणं तच्चिय महुवासवी रिद्धी ।१०८३। मुणिपाणिसंठियाणिं रुक्खाहारादियाणि जीय खणे। पावंति अमियभावं एसा अमियासवी ऋद्धी ।१०८४। अहवा दुक्खादीणं महेसिवयणस्स सवणकालम्मि। णासंति जीए सिग्घं रिद्धी अमियआसवी णामा ।१०८५। रिसिपाणितलणिक्खित्तं रुक्खाहारादियं पि खणमेत्ते। पावेदि सप्पिरूवं जीए सा सप्पियासवी रिद्धी ।१०८६। अहवा दुक्खप्पमुहं सवणेण मुणिंदव्ववयणस्स। उवसामदि जीवाणं एसा सप्पियासवी रिद्धी ।१०८७। = जिससे हस्ततलपर रखे हुए रूखे आहारादिक तत्कालही दुग्धपरिणाम को प्राप्त हो जाते हैं, वह `क्षीरस्रावी' ऋद्धि कही जाती है ।१०८०। अथवा जिस ऋद्धिसे मुनियोंके वचनोंके श्रवणमात्रसे ही मनुष्य तिर्यंचोंके दुःखादि शान्त हो जाते हैं उसे क्षीरस्रावी ऋद्धि समझना चाहिए ।१०८१। जिस ऋद्धिसे मुनिके हाथमें रखे गये रूखे आहारादिक क्षणभरमें मधुररससे युक्त हो जाते हैं, वह `मध्वास्रव' ऋद्धि है, ।१०८२। अथवा, जिस ऋषि-मुनिके वचनोंके श्रवणमात्रसे मनुष्यतिर्यंचके दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं वह मध्वास्रावी ऋद्धि है ।१०८३। जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के हाथ में स्थित रूखे आहारादिक क्षणमात्र में अमृतपने को प्राप्त करते हैं, वह अमृतास्रवी नामक ऋद्धि है ।१०८४। अथवा जिस ऋद्धि से महर्षि के वचनों के श्रवण काल में शीघ्र ही दुःखादि नष्ट हो जाते हैं, वह अमृतस्रावी नामक ऋद्धि है ।१०८५। जिस ऋद्धिसे ऋषिके हस्ततलमें निक्षिप्त रूखा आहारादिक भी क्षणमात्रमें घृतरूपको प्राप्त करता है, वह `सर्पिरास्रावी ऋद्धि है ।१०८६। अथवा जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनीन्द्रके दिव्य वचनोंके सुननेसे ही जीवोंके दुःखादि शान्त हो जाते हैं, वह सर्पिरास्रावी ऋद्धि है ।१०८७। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०४/२); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२८/४१/९१-१०१) (च.सा. २२७/२) नोट-धवलामें हस्तपुटवाले लक्षण हैं। वचन वाले नहीं। राजवार्तिक अध्याय संख्या व.चारित्रसार में दोनों प्रकारके है। - रस ऋद्धि द्वारा पदार्थोंका क्षीरादि रूप परिणमन कैसे सम्भव है?
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,३८/१००/१ कधं रसंतरेसु ट्ठियदव्वाणं तक्खणादेव खीरासादसरूवेण परिणामो। ण, अमियसमुद्दम्मि णिवदिदविसस्सेव पंचमहव्वय-समिइ-तिगुत्तिकलावघडिदंजलिउदणिवदियाणं तदविरोहादो। = प्रश्न-अन्य रसोंमें स्थित द्रव्यका तत्काल ही क्षीर स्वरूपसे परिणमन कैसे सम्भव है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार अमृत समुद्रमें गिरे हुए विषका अमृत रूप परिणमन होनेमें कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियोंके समूह से घटित अंजलिपुटमें गिरे हुए सब आहारोंका क्षीर स्वरूप परिणमन करनेमें कोई विरोध नहीं है।
- आशीर्विष रस ऋद्धि
- क्षेत्र ऋद्धि निर्देश
- अक्षीण महानस व अक्षीण महालय ऋद्धिके लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०८९-१०९१ लाभंतरायकम्मक्खउवसमसंजुदए जीए फुडं। मुणिभुत्तमसेसमण्णं धामत्थं पियं ज कं पि ।१०८९। तद्दिवसे खज्जंतं खंधावारेण चक्कवट्टिस्स। झिज्जइ न लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धो ।१०९०। जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि णरतिरिया। मंतियसंखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी ।१०९१। = लाभान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे संयुक्त जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिके आहारसे शेष, भोजनशालामें रखे हुए अन्नमेंसे जिस किसी भी प्रिय वस्तुको यदि उस दिन चक्रवर्तीका सम्पूर्ण कटक भी खावे तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होता है, वह `अक्षीणमहानसिक' ऋद्धि है ।१०८९-१०९९। जिस ऋद्धिसे समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्रमें असंख्यात मनुष्य तिर्यंच समा जाते हैं, वह `अक्षीण महालय' ऋद्धि है ।१०९०। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०४/९); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४२/१०१/८/केवल अक्षीण महानसका निर्देश है, अक्षीण महालयका नहीं); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२८/१)
- अक्षीण महानस व अक्षीण महालय ऋद्धिके लक्षण
- ऋद्धि सामान्य निर्देश
- शुभ ऋद्धिकी प्रवृत्ति स्वतः भी होती है पर अशुभकी प्रयत्न पूर्वक ही
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२९/९५/१ असुहलद्धीणं पउत्तो लद्धिमंताणमिच्छावसवट्टणी सुहाणं लद्धीणं पउत्ती पुण दोहि वि पयारेहि संभवदि, तदिच्छाए विणा वि पउत्तिदंसणादो। = अशुभ लब्धियोंकी प्रवृत्ति लब्धियुक्त जीवोंकी इच्छाके वशसे होती है। किन्तु शुभ लब्धियोंकी प्रवृत्ति दोनों ही प्रकारोंसे (इच्छासे व स्वतः) सम्भव है, क्योंकि, इच्छाके बिना भी उक्त लब्धियोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है। - एक व्यक्तिमें युगपत् अनेक ऋद्धियोंकी सम्भावना
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,५९/२९८/६ नैष नियमोऽप्यस्त्येकस्मिन्नक्रमेण नर्द्धयो भूयस्यो भवन्तीति। गणभृत्सु सप्तानामपि, ऋद्धीनामक्रमेण सत्त्वोपलम्भात्। आहारर्द्ध्या सह मनःपर्ययस्य विरोधो दृश्यते इति चेद्भवतु नाम दृष्टत्वात्। न चानेन विरोध इति सर्वाभिर्विरोधो वक्तुं पार्यतेऽव्यवस्थापत्तेरिति। = एक आत्मामें युगपत् अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न नहीं होती, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि, गणधरोंके एक साथ सातों ही ऋद्धियोंका सद्भाव पाया जाता है। प्रश्न-आहारक ऋद्धिके साथ मनःपर्ययका तो विरोध देखा जाता है। उत्तर-यदि आहारक ऋद्धिके साथ मनःपर्ययज्ञानका विरोध देखनेमें आता है तो रहा आवे। किन्तु मनःपर्ययके साथ विरोध है, इसलिए आहारक ऋद्धिका दूसरोसम्पूर्ण ऋद्धियोंके साथ विरोध है ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा अव्यवस्थाकी आपत्ति आ जायेगी। (विशेष देखो `गणधर')। - परन्तु विरोधी ऋद्धियाँ युगपत् सम्भव नहीं
धवला पुस्तक संख्या १३/५,३,२५/३२/३ पमत्तसंजदस्स अणिमादिलद्धिसंपण्णस्स विउव्विदसमए आहारसरीरुट्ठावणसंभवाभावादो। = अणिमादि लब्धियोंसे सम्पन्न प्रमत्त संयत जीवके विक्रिया करते समय आहारक शरीरकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २४२/५०५ वै गुव्विय आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदम्हि। जोगोवि एक्ककाले एक्केव य होदि नियमेण।।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/ मं.प्र. २४२/५०५ प्रमत्तविरते वैक्रियकयोगक्रिया आहारकयोगक्रिया च समं युगपन्न संभवतः। यदा आहारकयोगमवलम्ब्य प्रमत्तसंयतस्य गमनादिक्रिया प्रवर्तते तदा विक्रियर्द्धिबलेन वैक्रियकयोगमवलम्ब्य क्रिया तस्य न घटते, आहारकर्धिविक्रियर्द्ध्योर्युगपदवृत्तिविरोधात् अनेन गणधरादिनामितरर्द्धियुगपद्वृत्तिसम्भवो दर्शितः। = छट्ठे गुणस्थानमें वैक्रियिक और आहारक शरीरकी क्रिया युगपत् नहीं होती। और योग भी नियमसे एक कालमें एक ही होता है। प्रमत्त विरत षष्ठ गुणस्थानवर्ती मुनिकैं समकालविषैं युगपत् वैक्रियक योगकी क्रिया अर आहारक काययोगकी क्रिया नाहीं। ऐसा नाहीं कि एक ही काल विषैं आहारक शरीरको धारि गमनागमनादि क्रियाकौ करै अर तभी विक्रिया ऋद्धिके बलसे वैक्रियककाययोगको धारि विक्रिया सम्बन्धी कार्यकौ भी करैं। दोऊमें सौ एक ही होइ। यातैं यहू जान्या कि गणधरादिकनिकैं और ऋद्धि युगपत् प्रवर्त्तै तो विरुद्ध नाहीं।
- शुभ ऋद्धिकी प्रवृत्ति स्वतः भी होती है पर अशुभकी प्रयत्न पूर्वक ही