GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 11 - टीका हिंदी
From जैनकोष
रुचि का अर्थ सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा है । श्रद्धा, रुचि, स्पर्श, प्रतीति ये सब सम्यग्दर्शन के नामान्तर हैं। जिस प्रकार तलवार आदि पर चढ़ाया गया लोहे का पानी-धार निश्चल-अकम्प होती है, उसी प्रकार सन्मार्ग में 'संसारसमुद्रोत्तरणार्थं सद्भिर्मृग्यते अन्विष्यते इति सन्मार्ग: आप्तागमगुरुप्रवाह: तस्मिन्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार संसाररूप समुद्र के पार होने के लिए सत्पुरुषों के द्वारा जिसकी खोज की जाय वह सन्मार्ग कहलाता है, इस तरह सन्मार्ग का अर्थ आप्त-आगम और गुरु परम्परा का प्रवाह है एवं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है । उस सन्मार्ग के विषय में आप्त, आगम, तपस्वी अथवा जीवादि पदार्थों का स्वरूप यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है, अन्य प्रकार भी नहीं है ऐसी जो निश्चल-अकम्प प्रतीति है, श्रद्धा है, वह सम्यग्दर्शन का नि:शङ्कितत्व अंग कहलाता है। उक्त लक्षण से अन्य परवादियों के द्वारा कल्पित लक्षण सम्यक् नहीं है क्योंकि अन्य वादियों के द्वारा माने गये आप्त-आगम-गुरु में समीचीन लक्षण नहीं पाये जाते हैं ।