ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 10
From जैनकोष
अथेदानींश्रद्धानगोचरस्यतभोभृत: स्वरूपम्प्ररूपयन्नाह --
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः
ज्ञानध्यानतपोरक्त: तपस्वी स प्रशस्यते ॥10॥
टीका:
विषयेषुस्रग्वनितादिष्वाशाआकाङ्क्षातस्यावशमधीनता । तदतीतोविषयाकाङ्क्षारहित: । निरारम्भ: परित्यक्तकृष्यादिव्यापार: । अपरिग्रहो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहित: । ज्ञानध्यानतपोरत्न ज्ञानध्यानतपांस्येवरत्नानियस्य एतद्गुणविशिष्टोय: स तपस्वी गुरु: प्रशस्यते श्लाघ्यते ॥१०॥
अब इसके पश्चात् सम्यग्दर्शन के विषयभूत तपोभृतगुरु का लक्षण कहते हैं --
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः
ज्ञानध्यानतपोरक्त: तपस्वी स प्रशस्यते ॥10॥
टीकार्थ:
जिनके स्पर्शनादिक पञ्चेन्द्रिय के विषयभूत माला तथा स्त्री आदि विषयों की आकाङ्क्षा सम्बन्धी अधीनता नष्ट हो गई है अर्थात् जो पूर्णरूपेण इन्द्रिय-विजयी हैं। तथा जिन्होंने खेती आदि व्यापार का परित्याग कर दिया है और जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं, तथा ज्ञान ध्यान और तप ही जिनके श्रेष्ठ रत्न हैं, उन्हीं में जो सदैव लीन रहते हैं वे तपस्वी-गुरु प्रशंसनीय होते हैं ।