ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 129
From जैनकोष
अधुना सल्लेखनाया अतिचारानाह -
जीवितमरणाशंसे, भयमित्र-स्मृतिनिदाननामान:
सल्लेखनातिचारा:, पञ्च जिनेन्द्रै: समादिष्टा: ॥129॥
टीका:
जीवितं च मरणं च तयोराशंसे आकाङ्क्षे । भयमिहपरलोकभयम् । इहलोकभयं हि क्षुत्पिपासापीडादिविषयं परलोकभयं- एवंविधदुर्धरानुष्ठानाद्विशिष्टं फलं परलोके भविष्यति न वेति । मित्रस्मृति: बाल्याद्यवस्थायां सहक्रीडितमित्रानुस्मरणम् । निदानं भाविभोगाद्याकाङ्क्षणम् । एतानि पञ्चनामानि येषां ते तन्नामान: सल्लेखनाया: पञ्चातिचारा: । जिनेन्द्रैस्तीर्थङ्करै: । समादिष्टा आगमे प्रतिपादिता: ॥
सल्लेखना के पांच अतिचार
जीवितमरणाशंसे, भयमित्र-स्मृतिनिदाननामान:
सल्लेखनातिचारा:, पञ्च जिनेन्द्रै: समादिष्टा: ॥129॥
टीकार्थ:
अब सल्लेखना के अतिचार कहते हैं- सल्लेखना धारण कर ऐसी इच्छा करना कि मैं कुछ समय के लिए और जीवित रहूँ, तो अच्छा है । यह जीविताशंसा नाम का अतिचार है । भूख, प्यास की वेदना होने पर ऐसी इच्छा होना कि मैं जल्दी मर जाऊँ तो अच्छा है, यह मरणाशंसा नाम का अतिचार है । इहलोकभय और परलोकभय की अपेक्षा भय दो प्रकार का है । 'मैंने सल्लेखना धारण तो की है, किन्तु अधिक समय तक मुझे भूख-प्यास की वेदना सहन नहीं करनी पड़े' इस प्रकार का भय होना इहलोकभय कहलाता है । तथा 'इस प्रकार के दुर्धर अनुष्ठान का परलोक में विशिष्ट फल प्राप्त होगा कि नहीं' ऐसा भय उत्पन्न होना परलोकभय है । बाल्यादि अवस्था में मित्रों के साथ जो क्रीड़ा की थी, उन मित्रों का स्मरण करना मित्रस्मृति नामक अतिचार है और आगामी भोगों की आकांक्षा रखना निदान नामक अतिचार है । इस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने सल्लेखना के पाँच अतिचार आगम में प्रतिपादित किये हैं ।