ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 2
From जैनकोष
अथ तन्नमस्कारकरणानन्तरं किं कर्तुं लग्नो भवानित्याह --
देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्म-निबर्हणम्
संसारदु:खत: सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥2॥
टीका:
देशयामि कथयामि । कं ? धर्मं । कथंभूतं ? समीचीनम् अबाधितं तदनुष्ठातॄणामिह परलोके चोपकारकम् । कथं तं तथा निश्चितवन्तो भवन्त इत्याह कर्मनिबर्हणं यतो धर्मः संसारदुःखसम्पादककर्मणां निबर्हणो विनाशकस्ततो यथोक्तविशेषणविशिष्टः । अमुमेवार्थं व्युत्पत्तिद्वारेणास्य समर्थयमानः संसारेत्याद्याह संसारे चर्तुगतिके दुःखानि शरीरमानसादीनि तेभ्यः सत्त्वान् प्राणिन उद्धृत्य यो धरति स्थापयति । क्व ? उत्तमे सुखे स्वर्गापवर्गादि प्रभवे सुखे स धर्म इत्युच्यते ॥२॥
अब नमस्कार करने के बाद समन्तभद्रस्वामी ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा करते हुए धर्म का निरुक्त अर्थ बतलाते हैं ।
देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्म-निबर्हणम्
संसारदु:खत: सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥2॥
टीकार्थ:
ग्रन्थकर्त्ता श्री समन्तभद्रस्वामी प्रतिज्ञावाक्य कहते हैं कि मैं उस अबाधित श्रेष्ठ धर्म का कथन करता हूँ जो जीवों का इस लोक में और परलोक में उपकार करने वाला है तथा संसार के समस्त दुःख देने वाले कर्मों का नाशक है । इन विशेषणों से विशिष्ट यह धर्म है । इसी अर्थ का व्युत्पत्ति द्वारा समर्थन करते हुए कहते हैं- जो जीवों को चतुर्गतिरूप संसार में होने वाले शारीरिक, मानसिक एवं आगन्तुक आदि दुःखों से निकालकर स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुख में धारण करता है उस समीचीन धर्म का कथन करता हूँ ।