संकोच
From जैनकोष
तत्त्वार्थसूत्र/5/16
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ।
=दीप के प्रकाश के समान जीव के प्रदेशों का संकोच विस्तार होता है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/9 ); ( राजवार्तिक/5/8/4/449/33 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136,137 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/176 ) - देखें जीव - 3।