अतद्भाव
From जैनकोष
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 106,108
पविभत्तपदेसत्त पुधुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतव्भावो ण तब्भयं होदि कधमेगं। जं दव्वं तण्ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो ॥106॥ एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ॥108॥
= विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है-ऐसा वीरका उपदेश है। अतद्भाव अन्यत्व है। जो उस रूप न हो वह एक कैसे हो सकता है ॥106॥ स्वरूपपेशासे जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह अतद्भाव है। सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं। ऐसा निर्दिष्ट किया गया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 106-107
अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ता द्रव्ययोर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव ॥106॥ यथा-एकस्मिन्मुक्ताफलखग्दाम्नि यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं, यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्याभावः स तदभावालक्षणोऽतद्भावोऽंयत्वनिबंधनभूतः। तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वास न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽंयत्वनिबंधनभूतः ॥107॥
= अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्तागुण और द्रव्यके है ही, क्योंकि गुण और गुणी के तद्भाव का अभाव होता है-शुक्लत्व और वस्त्र (या हार) की भाँति ॥106॥ जैसे एक मोतियों की माला में जो शुक्ल गुण है, वह हार नहीं है, धागा नहीं है, या मोती नहीं है; और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है-इस प्रकार एक-दूसरे में जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होने का अभाव है' सो वह `तदभाव' लक्षण वाला `अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्व का कारण है। इसी प्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है; वह सत्तागुण है - इस प्रकार एक दूसरे में जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होने का अभाव' है वह `तदभाव' लक्षण `अतद्भाव' है, जो किं अन्यत्व का कारण है।
- `अतद्भाव'/अभाव को विस्तार से समझने के लिये देखें अभाव ।