पद्धति
From जैनकोष
- पद्धति का लक्षण
कषायपाहुड २/२,२२/§२९/१४/९ सुत्तवित्तिविवरणाए पद्धईववएसादो। = सूत्र और वृत्ति इन दोनों का जो विवरण है, उसकी पद्धति संज्ञा है।
- आगम व अध्यात्म पद्धति में अन्तर
- आगम व अध्यात्म सामान्य की अपेक्षा
का./ता.वृ./१७३/२५५/११ अर्थपदार्थानामभेदरत्नत्रयप्रतिपादका-नामनुकूलं यत्र व्याख्यानं क्रियते तदध्यात्मशास्त्रं भण्यते... वीतराग-सर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यादिसम्यक्श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्त्रं भण्यते। = जिसमें अभेद रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ और पदार्थों का व्याख्यान किया जाता है उसको अध्यात्म शास्त्र कहते हैं।... वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत छः द्रव्यों आदि का सम्यक्श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान, तथा व्रतादि के अनुष्ठानरूप रत्नत्रय के स्वरूप का जिसमें प्रतिपादन किया जाता है उसको आगम शास्त्र कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह/टीका/१३/४०/६पुढविजलतेउवाऊ इत्यादिगाथाद्वयेन, तृतीय-गाथापदत्रयेण च ‘‘गुणजीवापज्जत्ती पाणासण्णा य मग्गणाओ य। उवओगे वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया। १।’’ इति गाथा-प्रभृति कथितस्वरूपं धवलजयधवलमहाधवलप्रबन्धाभिधानसिद्धान्त-त्रयबीजपदं सूचितम्। ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ इति शुद्धात्मतत्त्व-प्रकाशकं तृतीयगाथाचतुर्थपादेन पञ्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसाराभिधानप्राभृतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितमिति। = ‘पुढवीजलतेयवाऊ’ इत्यादि गाथाओं और तीसरी गाथा ‘णिक्कम्मा अट्ठगुणा’ के तीन पदों से गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोगों से इस प्रकार क्रम से बीस प्ररूवणा कही हैं। १। इत्यादि गाथा में कहा हुआ स्वरूप धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन सिद्धान्त ग्रन्थ हैं उनके बीजपद की सूचना ग्रन्थकार ने की है। ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ इस तृतीय गाथा के चौथे पाद से शुद्ध आत्म तत्त्व के प्रकाशक पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनों प्राभृतों का बीजपद सूचित किया है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीव तत्त्व प्रदीपिका/२९९/६४९/२ अत्राहेतुवादरूपे आगमे हेतुवादस्या-नधिकारात्। = अहेतुवादरूप आगमविषैं हेतुवाद का अधिकार नाहीं। इहाँ तो जिनागम अनुसारि वस्तु का स्वरूप कहने का अधिकार जानना।
सूत्रपाहुड/पं. जयचन्द/६/५४/५ तहाँ सामान्य विशेषकरि सर्व पदार्थनिका निरूपण करिये है सो आगम रूप (पद्धति) है। बहुरि जहाँ ऐ आत्मा ही के आश्रय निरूपण करिये सो अध्यात्म है।
रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमल-समयसारादि ग्रन्थ अध्यात्म है और आगम की चर्चा गोम्मटसार में है।
परमार्थ वचनिका पं. बनारसीदास - द्रव्यरूप तो पुद्गल (कर्मों) के परिणाम हैं, और भावरूप पुद्गलाकार आत्मा की अशुद्ध परिणतिरूप परिणाम हैं। वह दोनों परिणाम आगमरूप स्थापें। द्रव्यरूप तो जीवत्व (सामान्य) परिणाम है और भावरूप ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण (विशेष) परिणाम है। यह दोनों परिणाम अध्यात्मरूप जानने।
- पंच भावों की अपेक्षा
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/३२०/४०८/२१ आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकं भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञा लभते। = आगम भाषा से औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीन भाव कहे जाते हैं। और अध्यात्म भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम व शुद्धोपयोग इत्यादि पर्याय नाम को प्राप्त होते हैं। (द्रव्यसंग्रह/टीका/४५/१९४/९)।
द्रव्यसंग्रह/अधिकार २ की चूलिका/८४/४ आगमभाषया... भव्यत्वसंज्ञस्य पारिणामिकभावस्य संबन्धिनी व्यक्तिर्भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनर्द्रव्य-शक्तिरूपशुद्धपारिणामिकभावविषये भावना भण्यते, पर्यायानामन्तरेण निर्विकल्पसमाधिर्वा शुद्धोपयोगदिकं वेति। = आगम भाषा से भव्यत्व संज्ञाधारक जीव के पारिणामिक भाव से सम्बन्ध रखनेवाली व्यक्ति कही जाती है और अध्यात्म भाषा द्वारा द्रव्य-शक्तिरूप शुद्धभाव के विषय में भावना कहते हैं। अन्य पर्याय नामों से इसी द्रव्य-शक्ति रूप पारिणामिक भाव की भावना को निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोगादिक कहते हैं।
- पंचलब्धि की अपेक्षा
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१५१/२१७/१४ यदायं जीवः आगमभाषया कालादि-लब्धिरूपमध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूपं स्वसंवेदनज्ञानं लभते तदा... सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा...पराश्रितधर्मध्यानबहिरङ्गसह-कारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावना-स्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेण शुक्लध्यानमनुभूय... भावमोक्षं प्राप्नोतीति। = जब यह जीव आगम भाषा से कालादि लब्धि रूप और अध्यात्म भाषा से शुद्धात्माभिमुख परिणाम रूप स्व संवेदन ज्ञान को प्राप्त करता है तब.. सराग सम्यग्दृष्टि होकर पराश्रित धर्म-ध्यान की बहिरंग सहकारी कारण रूप जो ‘अनन्त ज्ञानादि स्वरूप मैं हूँ’ इत्यादि भावना स्वरूप आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त करके आगम कथित क्रम से शुक्लध्यान को अनुभव करते हुए... भावमोक्ष को प्राप्त करता है। (द्रव्यसंग्रह/टीका/३५/१५६/३)
द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६५/११ समवसरणे मानस्तम्भावलोकनमात्रादेवागम-भाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशमक्षयसंज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च कालादिलब्धिविशेषण मिथ्यात्वं विलयं गतं। = (इन्द्रिभूति जब) समवसरण में गये तब मानस्तम्भ को देखने मात्र से ही आगम-भाषा में दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से और अध्यात्म-भाषा में निज शुद्ध आत्मा के सम्मुख परिणाम तथा कालादि लब्धियों के विशेष से उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया। (द्रव्यसंग्रह/टीका/४५/१९४/९)।
- सम्यग्दर्शन की अपेक्षा
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/१४५/२०८/१० अध्यात्मभाषया शुद्धात्मभावनां विना आगमभाषया तु वीतरागसम्यक्त्वं विना व्रतदानादिकं पुण्यबन्धकारणमेव न च मुक्तिकारणम्। = अध्यात्म भाषा में शुद्धात्मा की भावना के बिना और आगम भाषा से वीतराग सम्यक्त्व के बिना व्रत दानादिक पुण्यबंध के ही कारण हैं, मुक्ति के कारण नहीं।
द्रव्यसंग्रह/टीका/३८/१५९/४ परमागमभाषया... पञ्चविंशतिमलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्वभावनैव मुख्येति विज्ञेयम्। = परमागम-भाषा से पच्चीस दोषों से रहित सम्यग्दर्शन और अध्यात्म-भाषा से निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार जो रुचि है उस रूप सम्यक्त्व की भावना ही मुख्य है। ऐसा जानना चाहिए।
- ध्यान की अपेक्षा
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/२१५/२९५/१३ (अध्यात्मभाषया) परमार्थशब्दाभिधेयं... शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणं परमागमभाषया वीतरागधर्मध्यानशुक्ल-ध्यानस्वरूपम्। = (अध्यात्म भाषा में) परमार्थ शब्द का वाच्य शुद्धात्म संवित्ति है लक्षण जिसका उसे ही परमागम भाषा से वीतराग धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहते हैं।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१५०/२१६/१७ (अध्यात्मभाषया) शुद्धात्मानुभूतिलक्षण-निर्विकल्पसमाधिसाध्यागमभाषया रागादिविकल्परहितशुक्लध्यान-साध्ये वा। = (अध्यात्म भाषा से) शुद्धात्मानुभूति है लक्षण जिसका ऐसी निर्विकल्प समाधि साध्य है और आगम भाषा से रागादि विकल्प रहित शुक्लध्यान साध्य है। ( परमात्मप्रकाश/टीका/१/१/६/२)
द्रव्यसंग्रह/टीका/४८/२०१, २०४ ध्यानस्य तावदागमभाषया विचित्रभेदाः। २०१। अध्यात्मभाषया पुनः सहजशुद्धपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धि कृत्वा पश्चादनन्तज्ञानोऽहम् इत्यादि-रूपमभ्यन्तरधर्मध्यानमुच्यते। तथैव स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधि-लक्षणं शुक्लध्यानमिति। = आगम भाषा के अनुसार ध्यान के नाना प्रकार के भेद हैं। २०१। ...अध्यात्म भाषा से सहज-शुद्ध-परम चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्द का धारी भगवान् निजात्मा है, उसमें उपादेय बुद्धि करके, फिर ‘मैं अनन्त ज्ञान का धारक हूँ’ इत्यादि रूप से अन्तरंग धर्मध्यान है।... उसी प्रकार निज शुद्धात्मा में निर्विकल्प ध्यानरूप शुक्लध्यान है।
- चारित्र की अपेक्षा
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१५८/२२८/१५ [अध्यात्मभाषया] निजशुद्धात्मसंवित्त्य-नुचरणरूपं परमागमभाषया वीतरागपरमसामायिकसंज्ञं स्वचरितं चरति अनुभवति। = (अध्यात्मभाषा से) निज शुद्धात्मा की संवित्ति रूप अनुचरण स्वरूप, परमागम भाषा से वीतराग परम सामायिक नाम के स्वचारित्र को चरता है, अनुभव करता है।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१७१/२४४/१५ यः कोऽपि शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा आगम-भाषया मोक्षं वा व्रततपश्चरणादिकं करोति। = जो कोई (अध्यात्म-भाषा से शुद्धात्मा को उपादेय करके, आगम भाषा से मोक्ष को आदेय करके व्रत तपश्चरणादिक करता है...।)
- आगम व अध्यात्म सामान्य की अपेक्षा
- तर्क व सिद्धान्त पद्धति में अन्तर
द्रव्यसंग्रह/टीका/44९/१८९/४ तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं व्याख्यातम्। सिद्धान्ताभिप्रायेण... उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद्दर्शनं भण्यते। = तर्क के अभिप्राय से सत्तावलोकनदर्शन का व्याख्यान किया। सिद्धान्त के अभिप्राय से आगे होनेवाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिए प्रयत्न रूप जो आत्मा का अवलोकन वह दर्शन कहलाता है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/४४/१९२/३ तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं स्थूलव्याख्यानं... सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या... सूक्ष्मव्याख्यानम्...। = तर्क में मुख्यता से अन्यमतों का व्याख्यान होता है। स्थूल अर्थात् विस्तृत व्याख्यान होता है। सिद्धान्त में मुख्यता से निज समय का व्याख्यान है, सूक्ष्म व्याख्यान है।
- उत्सर्ग व अपवाद व्याख्यान में अन्तर
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१४६/२१२/९ सकलश्रुतधारिणां ध्यानं भवति तदुत्सर्गवचनं, अपवादव्याख्याने तु पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकश्रुतिपरिज्ञान-मात्रेणैव केवलज्ञानं जायते।... वज्रवृषभनाराचसंज्ञप्रथमसंहननेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनं अपवादव्याख्यानं पुनरपूर्वादिगुणस्थानवर्तिनां उपशमक्षपकश्रेण्योर्यच्छुक्लध्यानं तदपेक्षया स नियमः अपूर्वादधस्तन-गुणस्थानेषु धर्मध्याने निषेधकं न भवति। = सकल श्रुतधारियों को ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है, अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र के ज्ञान से भी केवलज्ञान होता है।... वज्रवृषभनाराच नाम की प्रथम संहनन से ही ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है। अपवाद रूप व्याख्यान से तो अपूर्वादि गुणस्थानवर्ती जीवों के उपशम व क्षपक श्रेणी में जो शुक्लध्यान होता है, उसकी अपेक्षा यह नियम है। अपूर्वकरण गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेध नहीं होता है। (द्रव्यसंग्रह/टीका/५७/२३२/५)।
- चारों अनुयोगों की कथन पद्धति में अन्तर