अनवस्था
From जैनकोष
श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या./459/551/19
उत्तरोत्तरधर्मापेक्षया विश्रामाभावानवस्था।
= उत्तर - उत्तर धर्मों में अनेकांत की कल्पना बढ़ती चली जाने से उसको अनवस्था दोष कहते हैं।
सप्तभंगीतरंगिणी/82/4
अप्रामाणिकपदार्थपरंपरापरिकल्पनाविश्रांत्यभावश्चानवस्थेत्युच्यते।
= अप्रामाणिक पदार्थों की परंपरा से जो कल्पना है, उस कल्पना के विश्राम के अभाव को ही अनवस्था कहते हैं।
पंचाध्यायी पूर्वार्ध/382
अपि कोऽपि परायत्तः सोऽपि परः सर्वथा परायत्तात्। सोऽपि परायत्तः स्यादित्यनवस्थाप्रसंगदोषश्च ॥382॥
= यदि कदाचित् कहो कि (कोई एक धर्म) उनमें से पर के आश्रय है, तो जिस पर के आश्रय है वह पर भी सब तरह से अपने से पर के आश्रय होने से, अन्य पर के आश्रय की अपेक्षा करेगा और वह भी पर अन्य के आश्रय की अपेक्षा रखता है इस प्रकार उत्तरोत्तर अन्य-अन्य आश्रयों की कल्पना की संभावना से अनवस्था प्रसंग रूप दोष भी आवेगा।