अनुमानित
From जैनकोष
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 562
आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठं बादर च सुहुमं च। छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।
= आलोचना के दश दोष हैं - आकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 563-603
भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण। अणकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोई ॥563॥ गणह य मज्झ थाम अंगाणं दुव्बलदा अणारोगं। णेव समत्थोमि अहं तवं विकट्ठं पि कादुंजे ॥570॥ आलोचेमि य सव्वं जइ मे पच्छा अणुग्गहं कुणह। तुज्झ सिरीए इच्छं सोधी जह णिच्छरेज्जामि ॥571॥ अणुमाणेदूण गुरुं एवं आलोचणं तदो पच्छा। कुणइ ससल्लो सो से विदिओ आलोयणा दोसो ॥572॥ जो होदि अण्णदिट्ठं तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि। अद्दिट्ठं गूहंतो मायिल्लो होदि णायव्वो ॥574॥ दिट्ठं वा अदिट्ठं बा जदि ण कहेइ परमेण विणएण। आयरियपायमूले तदिओ आलोयणा दोसो ॥575॥ बादरमालोचंतो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो। सुहुमं पच्छादेंतो जिणवयणपरंमुहो होइ ॥577॥ इह जो दोसं लहुगं समालोचेदि गूहदे चूलं। भयमयमायाहिदओ जिणपयणपरंमुहो होदि ॥581॥ जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सइ तदिए चउत्थए पंचमे च वदे ॥584॥ को तस्स दिज्जइ तवो केण उवाएण वा हवदि मुद्धो। इय पच्छण्णं पुच्छदि पायच्छित्तं करिस्सदि ॥585॥
पच्छण्णं पुच्छिय साधु जो कुणइ अप्पणो सुद्धिं। तो सो जणेहिं वुत्तो छट्ठो आलोयणा दोसो ॥586॥ पक्खियचडमासिय संवच्छरिएसु सोधिकालेसु। बहु जण सद्दाउलए कहेदि दोसो जहिच्छाए ॥590॥ इय अव्वत्तं जइ सावेंतो दोसो कहेइ सगुरुणं। आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुसयासे ॥591॥ तेसिं असद्दहंतो आइरियाणं पुणोवि अण्णाणं। जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो हु अट्ठमओ ॥596॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि। बालस्सालोचेंतो णवमो आलोचणाए दोसो ॥599॥ पासत्थो पासत्थस्स अणुगदो दुक्कडं परिकहेइ। एसो वि मज्झसरिसो सव्वत्थविदोस संचइओ ॥601॥ जाणादि मज्झ एसो सुहसीलत्तं च सव्वदोसे य। तो एस मे ण दाहिदि पायच्छित्तं महल्लित्ति ॥602॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि। सोपवयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो ॥603॥
= 1. आकंपित - स्वतः भिक्षालब्धि से युक्त होने से आचार्य की प्रासुक और उद्गमादि दोषों से रहित आहार-पानी के द्वारा वैयावृत्त्य करना, पिंछी, कमंडलु वगैरह उपकरण देना, कृतिकर्म वंदना करना इत्यादि प्रकार से गुरु के मन में दया उत्पन्न करके दोषों को कहता है सो आकंपित दोष से दूषित है॥563॥
2. अनुमानित - हे प्रभो! आप मेरा सामर्थ्य कितना है यह तो जानते ही हैं, मेरी उदराग्नि अतिशय दुर्बल है, मेरे अंग के अवयव कृश हैं, इसलिए मैं उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ हूं, मेरा शरीर हमेशा रोगी रहता है। यदि मेरे ऊपर आप अनुग्रह करेंगे, अर्थात् मेरे को आप यदि थोड़ा-सा प्रायश्चित्त देंगे तो मैं अपने संपूर्ण अतिचारों का कथन करूँगा और आपकी कृपा से शुद्धि युक्त होकर मैं अपराधों से मुक्त होऊँगा ॥570-571॥ इस प्रकार गुरु मेरे को थोड़ा-सा प्रायश्चित देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे, ऐसा अनुमान करके माया भाव से जो मुनि पश्चात् आलोचना करता है, वह अनुमानित नामक आलोचना का दूसरा दोष है।
3. यद्दृष्ट - जो अपराध अन्य जनों ने देखे हैं, उतने ही गुरु के पास जाकर कोई मुनि कहता है और अन्य से न देखे गये अपराधों को छिपाता है, वह मायावी है ऐसा समझना चाहिए। दूसरों के द्वारा देखे गये हों अथवा न देखे गये हों संपूर्ण अपराधों का कथन गुरु के पास जाकर अतिशय विनय से कहना चाहिए, परंतु जो मुनि ऐसा नहीं करता है वह आलोचना के तीसरे दोष से लिप्त होता है, ऐसा समझना चाहिए ॥574-575॥
4. बादर - जिन-जिन व्रतों में अतिचार लगे होंगे उन-उन व्रतों में स्थूल अतिचारों की तो आलोचना करके सूक्ष्म अतिचारों को छिपाने वाला मुनि जिनेंद्र भगवान् के वचनों से पराङ्मुख हुआ है ऐसा समझना चाहिए ॥577॥
5. सूक्ष्म - जो छोटे-छोटे दोष कहकर बड़े दोष छिपाता है, वह मुनि भय, मद और कपट इन दोषों से भरा हुआ जिनवचन से पराङ्मुख होता है। बड़े दोष यदि मैं कहूँगा तो आचार्य मुझे महा प्रायश्चित्त देंगे, अथवा मेरा त्याग कर देंगे, ऐसे भय से कोई बड़े दोष नहीं कहता है। मैं निरतिचार चारित्र हूं ऐसा समझकर स्थूल दोषों को कोई मुनि कहता नहीं, कोई मुनि स्वभाव से ही कपटी रहता है अतः वह भी बड़े दोष कहता नहीं, वास्तव में ये मुनि जिनवचन से पराङ्मुख हैं ॥581॥
6. प्रच्छन्न - यदि किसी मुनि को मूलगुणों में अर्थात् पाँच महाव्रतों में और उत्तर गुणों में तपश्चरण में अनशनादि बारह तपों में अतिचार लगेगा तो उसको कौन-सा तप दिया जाता है, अथवा किस उपाय से उसकी शुद्धि होती है ऐसा प्रच्छन्न रूप से पूछता है, अर्थात् मैंने ऐसा-ऐसा अपराध किया है उसका क्या प्रायश्चित्त है? ऐसा न पूछकर प्रच्छन्न पूछता है, प्रच्छन्न पूछकर तदनंतर मैं उस प्रायश्चित्त का आचरण कहूँगा, ऐसा हेतु उसके मन में रहता है। ऐसा गुप्त रीति से पूछकर जो साधु अपनी शुद्धि कर लेता है वह आलोचना का छठा दोष है ॥584-586॥
7. शब्दाकुलित अथवा बहुजन - पाक्षिक दोषों की आलोचना, चातुर्मासिक दोषों की आलोचना और वार्षिक दोषों की आलोचना, सब यति समुदाय मिलकर जब करते हैं तब अपने दोष स्वेच्छा से कहना यह बहुजन नाम का दोष है। यदि अस्पष्ट रीति से गुरु को सुनाता हुआ अपने दोष मुनि कहेगा तो गुरु के चरण सान्निध्य में उसने सातवाँ शब्दाकुलिक दोष किया है। ऐसा समझना ॥590-591॥
8. बहुजन-पृच्छा - आचार्य के द्वारा (आचार्य के द्वारा) दिये हुए प्रायश्चित् में अश्रद्धान करके यह आलोचक मुनि यदि अन्य को पूछेगा अर्थात् आचार्य महाराज ने दिया हुआ प्रायश्चित्त योग्य है या अयोग्य है ऐसा पूछेगा तो यह आलोचना का बहुजन पृच्छा नामक आठवाँ दोष होगा ॥596॥
9. अव्यक्त - और मैंने इसके (आगम बाल वा चारित्र बाल मुनि के) पास संपूर्ण अपराधों की आलोचना की है मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से किये हुए अपराधों की मैनें आलोचना की है ऐसे जो समझता है, उसकी यह आलोचना करना नौवें दोष से दृष्ट हैं ॥599॥
10. तत्सेवी - पार्श्वस्थ मुनि, पार्श्वस्थ मुनि के पास जाकर उसको अपने दोष कहता है, क्योंकि यह मुनि भी सर्व व्रतों मे मेरे समान दोषों से भरा हुआ है ऐसा वह समझता है। यह मेरे सुखिया स्वभाव को और व्रतों के अतिचारों को जानता है, इसका और मेरा आचरण समान है, इसलिए यह मेरे को बड़ा प्रायश्चित न देगा ऐसा विचार कर वह पार्श्वस्थ मुनि गुरु को अपने अतिचार कहता नहीं और समान शील को अपने दोष बताता है। यह पार्श्वस्थ मुनि कहे हुए संपूर्ण अतिचारों के स्वरूप को जानता है, ऐसा समझकर व्रत भ्रष्टों से प्रायश्चित्त लेना यह आगम निषिद्ध तत्सेवी नाम का दसवाँ दोष हैं ॥601-603॥
आलोचना का एक दोष - देखें आलोचना ।