कृतकृत्य
From जैनकोष
भगवान् की कृतकृत्यता—ति.प./१/१.... णिट्ठियकज्जा...।...।१।=जो करने योग्य कार्यों को कर चुके हैं वे कृतकृत्य हैं। पं.वि./१/२ नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद्दृशोर्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न। तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रह:। संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिन:।२।=हाथों से कोई भी करने योग्य कार्य शेष न रहने से जिन्होंने अपने हाथों को नीचे लटका रखा है, गमन से प्राप्त करने योग्य कुछ भी कार्य न रहने से जो गमन रहित हो चुके हैं, नेत्रों के देखने योग्य कोई भी वस्तु न रहने से जो अपनी दृष्टि को नासाग्रपर रखा करते हैं, तथा कानों से सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहने से जो आकुलता रहित होकर एकान्त स्थान को प्राप्त हुए थे; ऐसे वे ध्यान में एकचित हुए भगवान् जयवन्त होंवे।