वर्णलाभक्रिया
From जैनकोष
(1) गर्भान्वय की त्रेपन क्रियाओं में अठारहवीं क्रिया । इसमें विवाह के पश्चात् पिता की आज्ञा से धन-धान्य आदि संपदाएं प्राप्त करके पृथक् मकान में रहने की व्यवस्था करनी होती है । पिता उपासकों के समक्ष अपने पुत्र को धन देकर कहता है कि ‘‘यह धन लेकर पृथक् मकान में रहो और जैसे मैंने धन और यश का अर्जन किया हैं वैसे ही धन और यश का अर्जन करो । इस प्रकार कहकर पिता पुत्र को इस क्रिया में नियुक्त करता है । इस क्रिया से पुत्र समर्थ और सदाचारी बना रहता है । महापुराण 38. 57, 138-141
(2) एक दीक्षान्वय-क्रिया । भव्य पुरुष इसमें अपने सम्यक्त्वी होने का श्रावकों को विश्वास कराता है तथा भव्य श्रावक सम्यक्त्वी जानकर उसे अपने समान मानकर सम्मान देते हैं । महापुराण 30. 61-71