इच्छानुलोमा भाषा
From जैनकोष
भगवती आराधना विजयोदयी टीका/1195-1196/1193 आमंतणि आणवणी जायणि संपुच्छणी य पण्णवणी। पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य।1195। संसयवयणी य तहा असच्चमोसा य अट्ठमी भासा। णवमी अणण्क्खरगदा असच्चमोसा हवदि णेया।1196। टीका- आमंतणी यया वाचा परोऽभिमुखीक्रियते सा आमंत्रणी। हे देवदत्त इत्यादि अगृहीतसंकेतानभिमुखी करोती तेनन मृषा गृहीतागृहीतसंकेतयोः प्रतीतिनिमित्तमनिमित्तं चेति ह्यात्मकता। स्वाध्यायं कुरुत, विरमतासंयमात् इत्यादिका अनुशासनवाणी आनवणी। चोदितायाः क्रियायाः करणमकरणं वापेक्ष्यानैकांतेन सत्या न मृषैव वा। जायणी ज्ञानोपकरणं पिच्छादिकं वा भवद्भिर्दातव्यं इत्यादिका याचनी। दातुरपेक्षया पूर्ववदुभयरूपा। निरोधवेदनास्ति भवतांन वेति प्रश्नवाक् संपुच्छणीयद्यस्ति सत्या न चेदिततरा। वेदना भावाभावमपेक्ष्य प्रवृत्तेरुभयरूपता। पण्णवणी नाम धर्म्मकथा। सा बहून्निर्दिश्य प्रवृत्ता कैश्चिन्मनसि करणमितरैरकरणं चापेक्ष्य करणत्वाद्द्विरूपा। पच्चक्खवाणी नाम केनचिद्गुरुमननुज्ञाप्य इदं क्षीरादिकं इयंतं कालं मया प्रत्याख्यातं इत्युक्तं कार्यांतरमुद्दिश्य तत्कुर्वित्युदितं गुरुणा प्रत्याख्यानावधिकालो न पूर्ण इति नैकांततः सत्यता गुरुवचनात्प्रवृत्तो न दोषायेति न मृषैकांतः। इच्छानुलोमा य ज्वरितेन पृष्टं घृतशर्करामिश्रं शरीरं शोभनमिति। यदि परो ब्रूयात् शोभनमिति। माधुर्यादिप्रज्ञस्य गुणसद्भावं ज्वरवृद्धिनिमित्ततां चापेक्ष्य न शोभनमिति वचो न मृषैकांततो नापि सत्यमेवेति द्वयात्मकता।1195। संसयवयणी किमयं स्थाणुरुत पुरुषं इत्यादिका द्वयोरेकस्य सद्भावमितरस्याभावं चापेक्ष्य द्विरूपता। अणक्खरगदा अंगुलिस्फोटादिध्वनिः कृताकृतसंकेतपुरुषापेक्षया प्रतीतिनिमित्ततामनिमित्ततां च प्रतिपद्यते इत्युभयरूपा।
- जिस भाषा से दूसरों को अभिमुख किया जाता है, उसको आमंत्रणी- संबोधिनी भाषा कहते हैं। जैसे–‘हे देवदत्त यहाँ आओ’ देवदत्त शब्द का संकेत जिसने ग्रहण किया है उसकी अपेक्षा से यह वचन सत्य है जिसने संकेत ग्रहण नहीं किया उसकी अपेक्षा से असत्य भी है।
- आज्ञापनी भाषा–जैसे स्वाध्याय करो, असंयम से विरक्त हो जाओ, ऐसी आज्ञा दी हुई क्रिया करने से सत्यता और न करने से असत्यता इस भाषा में है, इसलिए इसको एकांत रीति से सत्य भी नहीं कहते और असत्य भी नहीं कह सकते हैं।
- ज्ञान के उपकरण शास्त्र और संयम के उपकरण पिच्छादिक मेरे को दो ऐसा कहना यह याचनी भाषा है। दाता ने उपर्युक्त पदार्थ दिये तो यह भाषा सत्य है और न देने की अपेक्षा से असत्य है। अतः यह सर्वथा सत्य भी नहीं है।
- प्रश्न पूछना उसको प्रश्नभाषा कहते हैं। जैसे–तुमको निरोध में- कारागृह में वेदना दुख हैं या नहीं वगैरह। यदि वेदना होती हो तो सत्य समझना न हो तो असत्य समझना। वेदना का सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा इसको सत्यासत्य कहते हैं।
- धर्मोपदेश करना इसको प्रज्ञापनी भाषा कहते हैं। यह भाषा अनेक लोगों को उद्देश्य कर कही जाती है। कोई मनःपूर्वक सुनते हैं और कोई सुनते नहीं, इसकी अपेक्षा इसको असत्यमृषा कहते हैं।
- किसी ने गुरु का अपनी तरफ लक्ष न खींच करके मैंने इतने काल तक क्षीरादि पदार्थों का त्याग किया है ऐसा कहा। कार्यांतर को उद्देश्य करके वह करो ऐसा गुरु ने कहा। प्रत्याख्यान की मर्यादा का काल पूर्ण नहीं हुआ तब तक वह एकांत सत्य नहीं है। गुरु के वचनानुसार प्रवृत्त हुआ है इस वास्ते असत्य भी नहीं है। यह प्रत्याख्यानी भाषा है।
- इच्छानुलोमा- ज्वरित मनुष्य ने पूछा घी और शक्कर मिला हुआ दूध अच्छा नहीं है? यदि दूसरा कहेगा कि वह अच्छा है, तो मधुरतादिक गुणों का उसमें सद्भाव देखकर वह शोभन है ऐसा कहना योग्य है। परंतु ज्वर वृद्धि को वह निमित्त होता है इस अपेक्षा से वह शोभन नहीं है, अतः सर्वथा असत्य और सत्य नहीं है इसलिए इस वचन में उभयात्मकता है।1195।
- संशय वचन–यह असत्यमृषा का आठवाँ प्रकार है। जैसे–यह ठूंठ है अथवा मनुष्य है इत्यादि। इसमें दोनों में से एक की सत्यता है और इतर का अभाव है, इस वास्ते उभयपना इसमें है।
- अनक्षर वचन–चुटकी बजाना, अंगुलि से इशारा करना, जिसको चुटकी बजाने का संकेत मालूम है उसकी अपेक्षा से उसको वह प्रतीति का निमित्त है, और जिसको संकेत मालूम नहीं है उसको अप्रतीतिका निमित्त होती है। इस तरह उभयात्मकता इसमें है।1196। (मूलाचार/315-316); ( गोम्मटसार जीवकांड/225-226/485 )।
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