क्रियावाद
From जैनकोष
- क्रियावाद का मिथ्या रूप
रा.वा./भूमिका/६/१/२२ अपर आहु:–क्रियात एव मोक्ष इति नित्यकर्महेतुकं निर्वाणमिति वचनात् ।=कोई क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं। क्रियावादियों का कथन है कि नित्य कर्म करने से ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
भा.पा./टी./१३५/२८३/१५ अशीत्यग्रं शतं क्रियावादिनां श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति।=क्रियावादियों के १८० भेद हैं। वे श्राद्ध आदि क्रियाओं को मानने वाले ब्राह्मणों के होते हैं।
ज्ञा./४/२५ कैश्चिच्च कीर्त्तिता मुक्तिर्दर्शनादेव केवलम् । वादिनां खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।२४।=और कई वादियों ने अन्य समस्त वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शन (श्रद्धा) से ही मुक्ति होनी कही है।
गो.क./भाषा/८७८/१०६४/११ क्रियावादीनि वस्तु कूं अस्तिरूप ही मानकरि क्रिया का स्थापन करें हैं। तहाँ आपतैं कहिये अपने स्वरूप चतुष्टय की अस्ति मानै हैं, अर परतै कहिए परचतुष्टयतै भी अस्तिरूप मानै हैं। भा.पा./भाषा/१३७ पं॰ जयचन्द—केई तो गमन करना, बैठना, खड़ा रहना, खाना, पीना, सोवनां, उपजनां, विनसनां, देखनां, जाननां, करनां, भोगनां, भूलनां, याद करनां, प्रीति करनां, हर्ष करनां, विषाद करनां, द्वेष करनां, जीवनां, मरनां इत्यादि क्रिया हैं तिनिकूं जीवादिक पदार्थनिकै देखि कोई कैसी क्रिया का पक्ष किया है, कोई कैसी क्रिया का पक्ष किया है। ऐसे परस्पर क्रियावाद करि भेद भये है तिनिकै संक्षेप करि एक सौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार किये बहुत होय है।
- क्रियावाद का सम्यक् रूप— देखें - चारित्र / ६ ।
- क्रियावादियों के १८० भेद
रा.वा./१/२०/१२/७४/३ कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपि-करोमश-हारीत-मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् ।=कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, आश्वलायन आदि क्रियावादियों के १८० भेद हैं। (रा.वा./८/१/९/५६२/२); (ध.९/४,१,४५/२०३/२); (गो.जी./जी.प्र./३६०/७७०/११) ह.पु./१०/४९-५१ नियतिश्च स्वभावश्च कालो दैवं च पौरुषम् । पदार्था नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ।४९। पञ्चभिर्नियतिपृष्टैश्चतुर्भि: स्वपरादिभि:। एकैकस्यात्र जीवादेर्योगेऽशीत्युत्तरं शतम् ।५०। नियत्यास्ति स्वतो जीव: परतो नित्यतोऽन्यत:। स्वभावात्कालतो दैवात् पौरुषाच्च तथेतरे।=(अस्ति) (स्वत:, परत:, नित्य, अनित्य)। (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष), (काल, ईश्वर, आत्म, नियति, स्वभाव), इनमें पदनि के बदलनेतैं अक्ष संचार करि १×४×९×५ के परस्पर गुणनरूप १८० क्रियावादिनि के भंग हैं। (गो.क./मू./८७७)।