गुणस्थान |
कर्म प्रकृति |
संभव करण
|
सातिशय मिथ्यात्व |
मिथ्यात्व |
एक समयाधिक आवली तक उदीरणा
|
1-4 |
नरकायु |
सत्त्व, उदय, उदीरणा =3
|
1-5 |
तिर्यंचायु |
सत्त्व, उदय, उदीरणा =3
|
4-6 |
अनंतानुबंधी चतुष्क |
स्व स्व विसंयोजना तक उत्कर्षण
|
10 |
सूक्ष्मलोभ |
उदीरणा
|
1-11 (सामान्य) |
देवायु |
अपकर्षण
|
1-11 (उपशामक) |
नरक द्वि. तिर्य. द्वि.; 4 जाति; स्त्यान त्रिक; आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर, दर्शनमोहत्रिक=19 |
अपकर्षण
|
-- |
अप्रत्याखान व प्रत्याखान चतुष्क; संज्वलन क्रोध, मान, माया; नोकषाय =20 |
स्व स्व उपशम पर्यंत अपकर्षण
|
1-11 क्षपक |
उपरोक्त 19 |
क्षयदेश पर्यंत अपकर्षण
|
Example |
उपरोक्त 20 |
स्व स्व क्षयदेश पर्यंत अपकर्षण
|
11 उपशम स |
स. मिथ्यात्व व मिश्रमोह |
उपशम, निधत्ति व नि:कांचित बिना 7
|
11 क्षायिक स. |
उपरोक्त 2 के बिना शेष 146, |
संक्रमण रहित उपरोक्त =6
|
12 |
5 ज्ञानावरण, 5 अंतराय, 4 दर्शनावरण,निद्रा व प्रचला = 16 |
स्व स्व क्षयदेश पर्यंत अपकर्षण
|
1-13 |
अयोगी की सत्त्ववाली 85 |
अपकर्षण
|
1-13 |
जिस प्रकृति की जहाँ व्युच्छित्ति वहाँ पर्यंत |
बंध और उत्कर्षण
|
1-13 |
स्व जाति प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति पर्यंत |
संक्रमण
|