अधिगम
From जैनकोष
मौखिक उपदेशों को सुनकर या लिखित उपदेशों को पढ़कर जीव जो भी गुण दोष उत्पन्न करता है वे अधिगमज कहलाते हैं, क्योंकि वे अधिगम पूर्वक हुए हैं। वे ही गुण या दोष यदि किन्हीं जीवों में स्वाभाविक होते हैं, तो उन्हें निसर्गज कहते हैं। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो दो प्रकार का होता है पर चारित्र केवल अधिगमज ही होता है क्योंकि उसमें अवश्य ही किसी के उपदेश की या अनुसरण की आवश्यकता पड़ती है।
१. अधिगम सामान्य
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/३/१२ अधिगमोऽर्थावबोधः।
= अधिगम का अर्थ पदार्थ का ज्ञान है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३,..../२२/१४ अधिपूर्वाद् गमेर्भावसाधनोऽच् अधिगमनमधिगमः।
= `अधि' उपसर्ग पूर्वक `गम्' धातुमें भाव साधन अच् प्रत्यय करनेपर अधिगम अर्थात् पदार्थ का ज्ञान करना सो अधिगम है।
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,५/३९/१ अधिगमो णाणपमाणमिदि एगट्ठो।
= अधिगम और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाची हैं।
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/६/४३ प्रमाण नय करि भया जो अपने स्वरूप का आकार ताकू अधिगम कहिये।
२. अधिगम सामान्य के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या १/६ प्रमाणनयैरधिगमः।
= जीवादि पदार्थों का ज्ञान प्रमाण और नयों द्वारा होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/६/३ जीवादीनां तत्त्वं प्रमाणाभ्यां नयैश्चाधिगम्यते। ....तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च।
= जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रमाण और नयों के द्वारा जाना जाता है। प्रमाण के दो भेद हैं - स्वार्थ और परार्थ।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/६,४/३३/११)।
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ संख्या १/६/ तत्राधिगमो द्विविधः स्वार्थः परार्थश्चेति।....स च द्विविधः प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति।
= अधिगम दो प्रकार का है - स्वार्थ और परार्थ। और वह अधिगम प्रमाण-रूप तथा नय-रूप इन दो भागों में विभक्त है।
(Chitra-5)
अधिगम
स्वार्थाधिगम परार्थाधिगम
(ज्ञानात्मक) (शब्दात्मक)
प्रमाण नय प्रमाण नय
३. स्वार्थाधिगम
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/६/३ ज्ञानात्मकं स्वार्थम्।
= स्वार्थ अधिगम ज्ञान स्वरूप है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/६,४/३३/१२ स्वाधिगमहेतुर्ज्ञानात्मकः प्रमाणनयविकल्पः।
= स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है जो प्रमाण और नय भेदों वाला है।
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ संख्या १/२ स्वार्थाधिगमो ज्ञानात्मको मतिश्रुत्यादिरूपः।
= स्वार्थाधिगम ज्ञानात्मक है जो मति श्रुत आदि ज्ञान रूप है।
४. परार्थाधिगम
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/६/३ वचनात्मकं परार्थम्।
= परार्थ अधिगम वचन रूप है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/६,४/३३/१२ पराधिगमहेतुर्वचनात्सकः। तेन श्रुताख्येन प्रमाणेन स्याद्वादनयसंस्कृतेन प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गीमन्तो जीवादयः पदार्था अधिगमयितव्या।
= वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुत के द्वारा जीवादिक की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है।
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ संख्या १/७ परार्थाधिगमः शब्दरूपः। स च द्विविधः-प्रमाणत्मको नयात्मकश्चेति।.....अयं द्विविधोऽपि भेदः सप्तधा प्रवर्तते, विधिप्रतिषेधप्राधान्यात्। इयमेव प्रमाणसप्तभङ्गी नयसप्तभङ्गी च कथ्यते।
= शब्दात्मक अर्थात् वचन रूप अधिगम को परार्थाधिगम कहते हैं। वह अधिगम प्रमाण और नय रूप है। पुनः विधि प्रतिषेध की प्रधानता से ये दोनों भेद सप्त भंग में विभक्त हैं। इसीको प्रमाणसप्तभङ्गी तथा नयसप्तभङ्गी कहते हैं।
५. निसर्गज सम्यग्दर्शन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/३/१२ यद्बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्।
= जो बाह्य उपदेश के बिना होता है, वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३,५/१३/२३)।
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या २/१/३/१३/८५/२८ तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनोहोपशमादौ सत्यन्तरङ्गे हेतौ बहिरङ्गादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात्..... प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजम्......प्रत्येतव्यम्।
= निकट सिद्धिवाले भव्य जीव के दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम आदिक अन्तरंग हेतुओं के विद्यमान रहनेपर और परोपदेश को छोड़कर शेष, ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन वेदना आदि बहिरंग कारणों से पैदा हुए तत्त्वार्थ-ज्ञानसे उत्पन्न हुआ तत्त्वार्थ श्रद्धान निसर्गज समझना चाहिए।
६. अधिगमज सम्यग्दर्शन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /१/३/१२ यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम्।
= जो बाह्य उपदेश पूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३,५/१४/२३)।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१४४/गा. २१२/३९५ छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवइठ्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं।
= जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थों का आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।
(गो. जो./मू. ५६१/१००६)।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ५६१/१३ तच्छ्रद्धानं....... अधिगमेन प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्यनुयोगद्वारैः विशेषनिर्णयलक्षणेन भवति।
= वह श्रद्धान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण अर द्रव्यार्थिक पर्यायर्थिक नय अर नाम स्थापना द्रव्य भाव निक्षेप अर व्याकरणादिकरि साधित निरुक्ति अर निर्देश स्वामित्व आदि अनुयोग इत्यादि करि विशेष निर्णय रूप है लक्षण जाका ऐसा जो अधिगमज श्रद्धान हो है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या ९३/११८/२८ परमार्थ विनिश्चयाधिगमशब्देन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत्। परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्धै कस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषणेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थ निश्चयरूपोऽधिगमः।
= परमार्थविनिश्चय अधिगमका अर्थ सम्यक्त्व है। सो कैसे?-परम अर्थ अर्थात् परमार्थ अर्थात् शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा। परमार्थ के विशेषण द्वारा संशयादि रहित निश्चय को परमार्थ निश्चयरूप अधिगम कहा गया है।
७. निसर्गज व अधिगमज सम्यग्दर्शन में अन्तर
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./५५०/७४२/२३ निसर्गजेऽर्थावबोधःस्यान्न वा। यदि स्यात्तदा तदप्यधिगमजमेव। यदि न स्यात्तदानवगततत्त्वः श्रद्दधीतेति। तन्न। उभयत्रान्तरङ्गकारणे दर्शनमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्याद्युपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात्।
= प्रश्न - जो निसर्ग विषैं पदार्थनिका अवबोध है कि नाहिं, जौ है तो वह भी अधिगमज ही भया अर नाहीं है तो तत्त्वज्ञान बिना सम्यक्त्व कैसे नाम पाया? = उत्तर - दोउनिविषैं अन्तरंग कारण दर्शन मोहका उपशम, क्षय, क्षयोपशमकी समानता है। ताकौ होतैं तहाँ आचार्यादिक का उपदेश करि तत्त्वज्ञान होय सो अधिगम है। तीहिं विना होइ सो निसर्गज है। यह दोनों में अन्तर है।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या २/४९/१७६ पर उद्धृत "यथा शूद्रस्य वेदार्थे शास्त्रान्तरसमीक्षणात्। स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं तत्त्वार्थे कस्यचित्तथा।"
= जिस प्रकार शूद्र वेद के अर्थका साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ग्रन्थान्तरों को पढ़कर उसके ज्ञानको प्राप्त कर सकता है। किसी-किसी जीवके तत्त्वार्थ का ज्ञान भी इसी तरह से होता है। ऐसे जीवों के गुरूपदेशादि के द्वारा साक्षात् तत्त्वबोध नहीं होता किन्तु उनके ग्रन्थों के अध्ययन आदि के द्वारा स्वयं तत्त्वबोध और तत्त्वरुचि उत्पन्न हो जाती है।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या २/४९/१७६ केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोऽपि रोचते। तत्त्वं हि चर्चानायस्तः कोऽपि च क्षोदयन्निधीः।
= जिनका मोह वेदना अभिभवादिकों में-से किसी भी निमित्त को पाकर दूर हो गया है, सम्यग्दर्शन को घातनेवाली सात प्रकृतियों का बाह्य निमित्त वश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमें से कोई जीव तो ऐसे होते हैं कि जिनको बिना किसी चर्चा के विशेष प्रयास के ही तत्त्व में रुचि उत्पन्न हो जाती है और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करनेपर ही बाह्य निमित्त के अनुसार मोह के दूर हो जानेपर तत्त्वरुचि को प्राप्त होते हैं। अल्प और अधिक प्रयास का ही निसर्ग और अधिगमज सम्यग्दर्शन में अन्तर है।
८. सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात् या परम्परा से अधिगमज ही होते हैं
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या २/१/३/४/६७/२६ न हि निसर्गः स्वभावी येन ततः सम्यग्दर्शन मुत्पाद्यमानुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनवन्नोपपद्येत।
= निसर्ग का अर्थ स्वभाव नहीं है जिससे कि उस स्वभाव से ही उत्पन्न हो रहा सत्ता सम्यग्दर्शन नहीं जाने हुए तत्त्वार्थों को विषय करनेकी अपेक्षा से रसायन के समान सम्यग्दर्शन ही न बन सके, अर्थात् रसायन के तत्त्वों को न समझ करके क्रिया करनेवाले पुरुष के जैसे रसायन की सिद्धि नहीं हो पाती है।
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या २/१/३/२/६३/१३ स्वयंबुद्धश्रुतज्ञानमपरोपदेशमिति चेन्न, तस्य जन्मान्तरोपदेशपूर्वकत्वात् तज्जन्मापेक्षया स्वयंबुद्धत्वस्याविरोधात्।
= प्रश्न - जो मुनिमहाराज स्वयंबुद्ध हैं अर्थात् अपने आप ही पूर्ण श्रुतज्ञान को पैदा कर लिया है उन मुनियों का श्रुतज्ञान तो परोपदेश की अपेक्षा नहीं रहता, अतः उसको निसर्गसे जन्य सम्यग्ज्ञान कह देना चाहिए।
(रा. वा. हि. /१/३/२८)।
उत्तर = ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन प्रत्येक बुद्ध (स्वयंबुद्ध) मुनियों के भी इस जन्म के पूर्व के दूसरे जन्मों में जाने हुए आप्त उपदेश को कारण मानकर ही इस जन्ममें पूर्ण श्रुतज्ञान हो सका है। इस जन्मकी अपेक्षा से उनको स्वयंबुद्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है।
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-९,३४/४३१/१ जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।
= जातिस्मरण और जिनबिम्ब दर्शनके बिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असंभव है।
ल.सा./जी.प्र./६/४ चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो वास देशनालब्धिर्भवति। तुशब्देनोपदेशकररहितेषु नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते।
= अथवा लम्बे समय पहले तत्त्वों की प्राप्ति देशना लब्धि है। तु शब्द करि नारकादि विषैं तहाँ उपदेश देने वाला नाहीं, तहाँ पूर्व भवविषैं धार् या हुवा तत्त्वार्थ के संस्कार बल तैं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति जाननी।
(मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार संख्या ७/३८३/८)।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या ९३/११९ परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगमम्।
= क्योंकि परमार्थ से सम्यक्त्व से ही अर्थावबोध होता है, इसलिए वह सम्यक्त्व ही परमार्थ विनिश्चयाधिगम है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३/२८-२९ सम्यग्दर्शन के उपजावने योग्य बाह्य परोपदेश पहले होय है, तिस तैं सम्यग्दर्शन उपजै है। पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै। * सर्वथा नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है - दे. सम्यग्दर्शन III/२/१।
९. क्षायिक सम्यक्त्व साक्षात् रूपसे अधिगमज व निसर्गज दोनों होते हैं
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या २/१/३/२/२०/६४ भाषा "किन्हीं कर्मभूमिया द्रव्य-मनुष्यों को केवली श्रुतकेवली के निकट उपदेश से और उपदेश के बिना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है।
१०. पाँचों ज्ञानों में निसर्गज व अधिगमजपना
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३/२८ केवलज्ञान श्रुतज्ञान-पूर्वक होता है तातैं निसर्गपना नाहीं। श्रुतज्ञान परोपदेश-पूर्वक ही होता है। स्वयंबुद्ध के श्रुतज्ञान हो है सो जन्मान्तर के उपदेश-पूर्वक है। (तातैं निसर्गज नाहीं) मति, अवधि, मनःपर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।
११. चारित्र तो अधिगमज ही होता है
श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या २/१/३/२/२८/६४ चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावात् द्विविधहेतुकत्वं न संभवति।
= चारित्र तो अधिगम से ही जन्य है। निसर्ग (परोपदेश के बिना अन्य कारण समूह) से उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञान से जीव आदि तत्त्वों का निर्णय कर चारित्र का पालन किया जाता है, अतः श्रुतज्ञान-पूर्वक ही चारित्र है। इसके विशेष अर्थात् सामायिक, परिहारविशुद्धि आदि भी निसर्ग से उत्पन्न नहीं होते। अतः चारित्र-निसर्ग व अधिगम दोनों प्रकार से नहीं होता (अपितु अधिगमसे ही होता है।)
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३/२८ चारित्र है सो अधिगम ही है तातैं श्रुतज्ञानपूर्वक ही हैं।