अर्हत्
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
यह अर्हंत का ही अपरनाम है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 505,562 अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए ॥505॥ अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं। अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति ॥562॥
= जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजा के योग्य हैं, और देवों में उत्तम हैं, वे अर्हंत हैं ॥505॥ वंदना और नमस्कार के योग्य हैं, पूजा और सत्कार के योग्य हैं, मोक्ष जाने के योग्य हैं इस कारण से अर्हंत कहे जाते हैं ॥562॥
अर्हंत सम्बन्धित विषय अर्हंत ।
पुराणकोष से
(1) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.40, 25.112
(2) शरीर सहित जीवमुक्त प्रथम परमेष्ठी । ये दो प्रकार के होते हैं― सामान्य अर्हत् और तीर्थंकर अर्हत् । इनमें सामान्य अर्हत् पंचकल्याणक विभूति से रहित होते हैं । वृषभदेव से महावीर पर्यंत धर्म-चक्र-प्रवर्तक चौबीस ऐसे ही तीर्थंकर है । विशेष पूजा के योग्य होने से ये अर्हत् कहलाते हैं । ये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्मों का नाश कर लेते है । इन कर्मों का क्षय हो जाने से इनके अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य प्रकट हो जाते हैं । इन्हें अष्ट प्रातिहार्य और समवसरण रूप वैभव प्राप्त हो जाता है । राग-द्वेष आदि दोषों से रहित हो जाने से ये आप्त कहलाते हैं । इनके जन्म लेने पर ओर केवलज्ञान होने पर दस-दस अतिशय होते हैं । देव भी आकर चौदह अतिशय प्रकट करते हैं । अष्ट मंगल द्रव्य इनके साथ रहते हैं । ये सभी जीवों का हित करते हैं । महापुराण 2.127-134, पद्मपुराण 17.180-183, हरिवंशपुराण 1.28, 3.10-30 इसी नाम को आदि में रखकर निम्न मंत्र प्रचलित है—पीठिका मंत्र— ‘‘अर्हज्जाताय नमः’’ तथा ‘‘अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नम:’’ , जाति मंत्र—‘‘अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामिः’’, ‘‘अर्हस्तुतस्य शरणं प्रपद्यामि’’ तथा ‘‘अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि’’ और निस्तारक मंत्र― ‘‘अर्हज्जाताय स्वाहा’’ । महापुराण 40.11, 19.27-28, 32