क्रीत
From जैनकोष
- आहार का एक दोष–देखें आहार - II.4। मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 435 - उद्गम दोष : कीदयडं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरं दुविहं। सच्चितादी दव्वं विज्जामंतादि भावं च ॥435॥
- वस्तिका का एक दोष–देखें वस्तिका । भगवती आराधना / विजयोदया टीका/230/443/10 तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते ..... द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं इति द्विविधं क्रीतं वेश्म, सचित्तं गोबलीवर्द्दादिक दत्वा संयतार्थक्रीतं, अचित्तं वा घृतगुड़खंडादिकं दत्वा क्रीतं द्रव्यक्रीतम् । विद्यामंत्रादिदानेन वा क्रीतं भावक्रीतम् । ..... उद्गमदोषा निरूपिताः ।
क्रीत दोष - क्रीततर दोष के दो भेद हैं - द्रव्य और भाव। हर एक के पुनः दो भेद हैं - स्व व पर। संयमी के भिक्षार्थ प्रवेश करने पर गाय आदि देकर बदले में भोजन लेकर साधु को देना द्रव्य क्रीत है। प्रज्ञप्ति आदि विद्या या चेटकादि मंत्रों के बदले में आहार लेके साधु को देना भावक्रीत दोष है ॥435॥
द्रव्यक्रीत और भावक्रीत ऐसे खरीदे हुए घर के दो भेद हैं । गाय, बैल, वगैरह सचित्त पदार्थ देकर संयतों के लिए खरीदा हुआ जो घर उसको सचित्त द्रव्यक्रीत कहते हैं । घृत, गुड़, खाँड़ ऐसे अचित पदार्थ देकर खरीदा हुआ जो घर उसको अचितद्रव्यक्रीत कहते हैं । विद्या मंत्रादि देकर खरीदे हुए घर को भावक्रीत कहते हैं ।