क्षेत्रविपाकी प्रकृति
From जैनकोष
(पंचसंग्रह / प्राकृत/490-493) पण्णरसं छ तिय छ पंच दोण्णि पंच य हवंति अट्ठेव। सरीरादिय फासंता। य पयडीओ आणुपुव्वीए।490। अगुरुयलहुगुवघाया परघाया आदवुज्जोव णिमिणणामं च। पत्तेयथिर-सुहेदरणामाणि य पुग्गल विवागा।490। आऊणि भवविवागी खेत्तविवागी उ आणुपुव्वी य। अवसेसा पयडोओ जीवविवागी मुणेयव्वा।492। वेयणीय-गोय-घाई-णभगई जाइ आण तित्थयरं। तस-जस-बायर-पुण्णा सुस्सर-आदेज्ज-सुभगजुयलाइं।493। = ..... 3. चारों आनुपूर्वी प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं। (क्योंकि इनका विपाक विग्रह गतिरूप में होता है ) ......।490-492। ...।
देखें प्रकृतिबंध 2.2।