घातायुष्क
From जैनकोष
धवला/ पुस्तक संख्या 4/1,5,97/385 पर विशेषार्थ
“यहाँ पर जो बद्धायुघात की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवों के दो प्रकार के काल की प्ररूपणा की है, उसका अभिप्राय यह है कि, किसी मनुष्य ने अपनी संयम अवस्था में देवायु बंध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और इसलिए अपवर्तन घात के द्वारा आयु का घात भी कर दिया। संयम की विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, तो मर कर जिसे कल्प में उत्पन्न होगा, वहाँ की साधाणतः निश्चित आयु से अंतर्मुहूर्त कम अर्ध सागरोपम प्रमाण अधिक आयु का धारक होगा। कल्पना कीजिए किसी मनुष्य ने संयम अवस्था में अच्युत कल्प में संभव बाईस सागर प्रमाण आयु बंध किया। पीछे संयम की विराधना और बाँधी हुई आयु की अपवर्तना कर असंयत सम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मर कर यदि सहस्रार कल्प में उत्पन्न हुआ, तो वहाँ की साधारण आयु जो अठारह सागर की है, उससे घातायुष्क सम्यग्दृष्टि देव की आयु अंतर्मूहूर्त कम आधा सागर अधिक होगी। यदि वही पुरुष संयम की विराधना के साथ ही सम्यक्त्व की विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है, और पीछे मरण कर उसी सहस्रार कल्प में उत्पन्न होता है, तो उसकी वहाँ की निश्चित अठारह सागर की आयुसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग से अधिक होगी। ऐसे जीव को घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
देखें मिथ्यादृष्टि ; आयु 6.3 ,।