चर्या श्रावक
From जैनकोष
चारित्रसार/40/4 धर्मार्थं देवतार्थमंत्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसां न कुर्वंति। हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्ध: सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्मं च वेश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति। = धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोग के लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित्त कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रह का त्याग करने के समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि को समर्पण कर जब तक वे घर को परित्याग करते हैं तब तक उनके चर्या कहलाती है। (यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यंत होती है ( सागार धर्मामृत/1/19 )।
देखें श्रावक - 1।