जीवन
From जैनकोष
स.सि./५/२-/२८८/१३ भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयाद्भवस्थित्यादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तप्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितमित्युच्यते। =पर्याय के धारण करने में कारणभूत आयुकर्म के उदय से भवस्थिति को धारण करने वाले जीव के पूर्वोक्त प्राण और अपानरूप क्रिया विशेष का विच्छेद नहीं होना जीवित है। (रा.वा./५/२०/३/४७४/२६); (गो.जी./जी.प्र./६०६/१०६२/१५)।
ध.१४/५,६,१६/१३/२ आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं। =आयु आदि प्राणों का धारण करना जीवन है।
ध.१३/५,५,६३/३३३/११ आउपमाणं जीविदं णाम।=आयु के प्रमाण का नाम जीवित है।
भ.आ./वि./२५/८५/९ जीवितं स्थितिरविनाशोऽवस्थितिरिति यावत् ।=जीवन पर्याय के ही स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ऐसे नाम हैं।