इंगिनी
From जैनकोष
(धवला 1/1,1,1/23/4) तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनम् । आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् । आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति। =[भोजन का क्रमिक त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों समान हैं। अंतर है शरीर के प्रति उपेक्षा भाव में] तहाँ अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रहित समाधिमरण को प्रायोपगमन विधान कहते हैं। जिस संन्यास में अपने द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है किंतु दूसरे के द्वारा किये गये वैयावृत्त्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनी समाधि कहते हैं। जिस संन्यास में अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं।
इंगिनी मरण विधि
(भगवती आराधना/2030-2061/1773) जो भत्तपदिण्णाए उवक्कमो वण्णिदो सवित्थारो। सो चेव जधाजोग्गो उवक्कमो इंगिणीए वि।2030। णिप्पादित्ता सगणं इंगिणिविधिसाधणाए परिणमिया।...।2032। परियाइगमालोचिय अणुजाणित्ता दिसं महजणस्स। तिविधेण खमावित्ता सवालवुड्ढाउलं गच्छं।2033। एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं च थंडिले जोगे। पुढवीसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को।2035। पुव्वुत्ताणि तणाणि य जाचित्ता थंडिलम्मि पुव्वुत्ते। जदणाए संथरित्ता उतरसिरमधव पुव्वसिरं।2036। अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं। दंसणणाणचरित्तं परिसारेदूण णिस्सेसं।2038। सव्वं आहारविधिं जावज्जीवाय वोसरित्ताणं। वोसरिदूण असेसं अभ्भंतरबाहिरे गंथे।2039। ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदूणव सकायपडिचरणं। सयमेव णिरुवसंग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयबं।2041। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंचिदे विधिणा।2042। सव्वो पोग्गलकाओ दुक्खत्ताए जदि तमुवणमेज्ज। तधवि य तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोत्तिया को वि।2047। सव्वो पोग्गलकाओ सोक्खत्ताए जदि वि तमुवणमेज्ज। तधवि हु तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोतिया को वि।2048। वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तधय धम्मथुदिं। सुत्तच्छपोरिसीसु वि सरेदि सुत्तत्थमेय मणो।2052। एवं अट्ठवि जामे अनुवट्टो तच्च ज्झादि एयमणो। जदि आधच्चा णिद्दा हविज्ज सो तत्थ अपदिण्णो।2053। सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओ। जम्हा सुसाणमज्झे तस्स य झाणं अपडिसिद्धं।2054। आवासगं च कुणदे उवधोकालम्मि जं जहिं कमदि। उवकरणं पि पडिलिहइ उवधोकालम्मि जदणाए।2055। पादे कंटयमादिं अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज। गच्छदि अधाविधिं सो परिणीहरणे य तुसिणीओ।2057। वेउव्वणमाहारयचारणखीरासवादिलद्धीसु। तवसा उप्पण्णासु वि विरागभावेण सेवदि सो।2058। मोणाभिग्गहणिरिदो रोगादंकादिवेदणाहेदुं। ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाछुहादीणं।2059। उवएसो पुण आइरियाणं इंगिणिगदो वि छिण्णकधो। देवेहिं माणुसेहिं व पुट्ठो धम्मं कधेदित्ति।2060। =भक्त प्रतिज्ञा में जो प्रयोगविधि कही है (देखें सल्लेखना - 4) वही यथा संभव इस इंगिनीमरण में भी समझनी चाहिए।2030। अपने गण को साधु आचरण के योग्य बनाकर इंगिनी मरण साधने के लिए परिणत होता हुआ, पूर्व दोषों की आलोचना करता है, तथा संघ का त्याग करने से पहिले अपने स्थान में दूसरे आचार्य की स्थापना करता है। तत्पश्चात् बाल वृद्ध आदि सभी गण से क्षमा के लिए प्रार्थना करता है।2032-2033। स्वगण से निकलकर अंदर बाहर से समान ऊँचे व ठोस स्थडिल का आश्रय लेता है। वह स्थंडित निर्जंतुक पृथिवी या शिलामयी होना चाहिए।2035। ग्राम आदि से याचना करके लाये हुए तृण उस पूर्वोक्त स्थंडिल पर यत्नपूर्वक बिछाकर संस्तर तैयार करे जिसका सिराहना पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखे।2036। तदनंतर अर्हंत आदिकों के समीप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में लगे दोषों की आलोचना करके रत्नत्रय को शुद्ध करे।2038। संपूर्ण आहारों के विकल्पों का तथा बाह्याभ्यंतर परिग्रह का यावज्जीवन त्याग करे।2039। कायोत्सर्ग से खड़े होकर, अथवा बैठकर अथवा लेटकर एक कर्वट पर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीर की क्रिया करते हैं।2041। शौच व प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं।2042। जगत् के संपूर्ण पुद्गल दु:खरूप या सुखरूप परिणमित होकर उनको दु:खी सुखी करने को उद्यत होवें तो भी उनका मन ध्यान से च्युत नहीं होता।2047-2048। वे मुनि याचना पृच्छना परिवर्तन और धर्मोपदेश इन सभों का त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं।2052। इस प्रकार आठों पहरों में निद्रा का परित्याग करके वे एकाग्र मन से तत्त्वों का विचार करते हैं। यदि बलात् निद्रा आ गयी तो निद्रा लेते हैं।2053। स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियाएँ उनको नहीं हैं। श्मशान में भी उनको ध्यान करना निषिद्ध नहीं है।2054। यथाकाल षडावश्यक कर्म नियमित रूप से करते हैं। सूर्योदय व सूर्यास्त में प्रयत्नपूर्वक उपकरणों की प्रतिलेखना करते हैं।2055। पैरों में काँटा चुभने और नेत्र में रजकण पड़ जाने पर वे उसे स्वयं नहीं निकालते। दूसरों के द्वारा निकाला जाने पर मौन धारण करते हैं।2057। तप के प्रभाव से प्रगटी वैक्रियक आदि ऋद्धियों का उपयोग नहीं करते।2058। मौन पूर्वक रहते हैं। रोगादिकों का प्रतिकार नहीं करते।2059। किन्हीं आचार्यों के अनुसार वे कदाचित् उपदेश भी देते हैं।2060।
अधिक जानकारी के लिए देखें सल्लेखना - 3.1