उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
From जैनकोष
४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
1. कल्पकाल निर्देश
सं.सि./3/27/223/7 सोभयी कल्प इत्याख्यायते।=ये दोनों (उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी) मिलकर एक कल्पकाल कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/3/27/5/191/3 )।
तिलोयपण्णत्ति/4/316 दोण्णि वि मिलिदेकप्पं छब्भेदा होंति तत्थ एकेक्कं...।=इन दोनों को मिलने पर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण एक कल्पकाल होता है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/115 )।
2. काल के उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेद—
सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/2 स च कालो द्विविध:–उत्सर्पिणी अवसर्पिणी चेति।=वह काल (व्यवहार काल) दो प्रकार का है—उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। ( तिलोयपण्णत्ति/4/313 ) ( राजवार्तिक/3/27/3/191/26 ) ( कषायपाहुड़ 1/56/74/2 )
3. दोनों के सुषमादि छ: छ: भेद
सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/4 तत्रावसर्पिणी षड्विधा—सुषमासुषमा सुषमा सुषमदुष्षमा दुष्षमसुषमा दुष्षमा अतिदुष्ष्मा चेति। उत्सर्पिण्यपि अतिदुष्षमाद्या सुषमसुषमांता षड्विधैव भवति।=अवसर्पिणी के छह भेद हैं—सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा। इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी अतिदुष्षमा से लेकर सुषमसुषमा तक छह प्रकार का है। (अर्थात् दुष्षमदुष्षम, दुष्षमा, दुष्षमसुषमा, सुषमदुष्षमा, सुषमा और अतिसुषमा) ( राजवार्तिक/3/27/5/191/31 ) ( तिलोयपण्णत्ति/4/316 ) ( तिलोयपण्णत्ति/4/1555-1556 ) ( कषायपाहुड़ 1/56/74/3 ) ( धवला 9/4,1,44/119/10 )।
4. सुषमा दुषमा आदि का लक्षण
महापुराण/3/19 समाकालविभाग: स्यात् सुदुसावर्हगर्हयो:। सुषमा दुषमेत्यमतोऽन्वर्थत्वमेतयो:।19।=समा काल के विभाग को कहते हैं तथा सु और दुर् उपसर्ग क्रम से अच्छे और बुरे अर्थ में आते हैं। सु और दुर् उपसर्ग को पृथक् पृथक् समा के साथ जोड़ देने तथा व्याकरण के नियमानुसार स को ष कर देने से सुषमा और दु:षमा शब्दों की सिद्धि होती है। जिनके अर्थ क्रम से अच्छा काल और बुरा काल होता है, इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छहों भेद सार्थक नाम वाले हैं।19।
5. अवसर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप
तिलोयपण्णत्ति/4/320-394 ‘‘नोट—मूल न देकर केवल शब्दार्थ दिया जाता है।’’ 1. सुषमासुषमा–(भूमि) सुषमासुषमा काल में भूमि रज, धूम, अग्नि और हिम से रहित, तथा कंटक, अभ्रशिला (बर्फ) आदि एवं बिच्छू आदिक कीड़ों के उपसर्गों से रहित होती है।320। इस काल में निर्मल दर्पण के सदृश और निंदित द्रव्यों से रहित दिव्य बालू, तन, मन और नयनों को सुखदायक होती है।321। कोमल घास व फलों से लदे वृक्ष।322-323। कमलों से परिपूर्ण वापिकाएँ।324। सुंदर भवन।325। कल्पवृक्षों से परिपूर्ण पर्वत।328। रत्नों से भरी पृथ्वी।329। तथा सुंदर नदियाँ होती हैं।330। स्वामी भृत्य भाव व युद्धादिक का अभाव होता है। तथा विकलेंद्रिय जीवों का अभाव होता है।331-332। दिन रात का भेद, शीत व गर्मी की वेदना का अभाव होता है। परस्त्री व परधन हरण नहीं होता।333। यहाँ मनुष्य युगल-युगल उत्पन्न होते हैं।334। मनुष्य-प्रकृति—अनुपम लावण्य से परिपूर्ण सुख सागर में मग्न, मार्दव एवं आर्जव से सहित मंदकषायी, सुशीलता पूर्ण भोग-भूमि में मनुष्य होते हैं। नर व नारी से अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता।।337-340।। वहाँ गाँव व नगरादिक सब नहीं होते केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं।341। मांसाहार के त्यागी, उदंबर फलों के त्यागी, सत्यवादी, वेश्या व परस्त्रीत्यागी, गुणियों के गुणों में अनुरक्त, जिनपूजन करते हैं। उपवासादि संयम के धारक, परिग्रह रहित यतियों को आहारदान देने में तत्पर रहते हैं।365-368। मनुष्य—भोगभूमिजों के युगल कदलीघात मरण से रहित, विक्रिया से बहुत से शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं।358। मुकुट आदि आभूषण उनके स्वभाव से ही होते हैं।360-364। जन्म–मृत्यु–भोगभूमि में मनुष्य और तिर्यंचों की नौ मास आयु शेष रहने पर गर्भ रहता है और मृत्यु समय आने पर युगल बालक बालिका जन्म लेते हैं।375। नवमास पूर्ण होने पर गर्भ से युगल निकलते हैं, तत्काल ही तब माता-पिता मरण को प्राप्त होते हैं।376। पुरुष छींक से और स्त्री जँभाई आने से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उन दोनों के शरीर शरत्कालीन मेघ के समान आमूल विनष्ट हो जाते हैं।377। पालन—उत्पन्न् हुए बालकों के शय्या पर सोते हुए अपने अँगूठे के चूसने में 3 दिन व्यतीत होते हैं।379। इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शन के ग्रहण की योग्यता, इनमें क्रमश: प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के तीन तीन दिन व्यतीत होते हैं।380। इनका शरीर में मूत्र व विष्ठा का आस्रव नहीं होता।381। विद्याएँ—वे अक्षर, चित्र, गणित, गंधर्व और शिल्प आदि 64 कलाओं में स्वभाव से ही अतिशय निपुण होते हैं।385। जाति—भोगभूमि में गाय, सिंह, हाथी, मगर, शूकर, सारंग, रोझ, भैंस, वृक, बंदर, गवय, तेंदुआ, व्याघ्र, शृगाल, रीछ, भालू, मुर्गा, कोयल, तोता, कबूतर, राजहंस, कोरंड, काक, क्रौंच, और कंजक तथा और भी तिर्यंच होते हैं।389-390। योग व आहार—ये युगल पारस्परिक प्रेम में आसक्त रहते हैं।386। मनुष्योंवत् तिर्यंच भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार मांसाहार के बिना कल्पवृक्षों का भोग करते हैं।391-393। चौथे दिन बेर के बराबर आहार करते हैं।334। कालस्थिति—चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमासुषमा काल में पहिले से शरीर की ऊँचाई, आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीन-हीन होते जाते हैं।394। ( हरिवंशपुराण/7/64-105 ) ( महापुराण/9/63-91 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/112-164 ) ( त्रिलोकसार/784-791 ) 2— तिलोयपण्णत्ति/4/395-402 । 2. सुषमा—इस प्रकार उत्सेधादिक के क्षीण होने पर सुषमा नाम का द्वितीय काल प्रविष्ट होता है।395। इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। उत्तम भोगभूमिवत् मनुष्य व तिर्यंच होते हैं। शरीर—शरीर समचतुरस्र संस्थान से युक्त होता है।318। आहार—तीसरे दिन अक्ष (बहेड़ा) फल के बराबर अमृतमय आहार को ग्रहण करते हैं।398। जन्म व वृद्धि—उस काल में उत्पन्न हुए बालकों के शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में पाँच दिन व्यतीत होते हैं।399। पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य, और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता, इनमें से प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के पाँच-पाँच दिन जाते हैं।409। शेष वर्णन सुषमासुषमावत् जानना। 3. तिलोयपण्णत्ति/4/403-510 सुषमादुषमा—उत्सेधादि के क्षीण होने पर सुषमादुषमा काल प्रवेश करता है, उसका प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम है।403। शरीर—इस काल में शरीर की ऊँचाई दो हज़ार धनुष प्रमाण तथा एक पल्य की आयु होती है।404। आहार—एक दिन के अंतराल से आँवले के बराबर अमृतमय आहार को ग्रहण करते हैं।406। जन्म व वृद्धि—उस काल में बालकों के शय्या पर सोते हुए सात दिन व्यतीत होते हैं। इसके पश्चात् उपवेशनादि क्रियाओं में क्रमश: सात सात दिन जाते हैं।408। कुलकर आदि पुरुष—कुछ कम पल्य के आठवें भाग प्रमाण तृतीय काल के शेष रहने पर...प्रथम कुलकर उत्पन्न होता है।421। फिर क्रमश: चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं।422-494। यहाँ से आगे संपूर्ण लोक प्रसिद्ध त्रेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं।510। शेष वर्णन जो सुषमा (वा सुषमासुषमा) काल में कह आये हैं, वही यहाँ भी कहना चाहिए।409। 4. तिलोयपण्णत्ति/4/1276-1277 दुषमादुषमा—ऋषभनाथ तीर्थंकर के निर्वाण होने के पश्चात् तीन वर्ष और साढ़े आठ मास के व्यतीत होने पर दुषमासुषमा नामक चतुर्थकाल प्रविष्ट हुआ।1276। इस काल में शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी।1277। इसमें 63 शलाका पुरुष व कामदेव होते हैं। इनका विशेष वर्णन--देखें शलाका पुरुष । 5. तिलोयपण्णत्ति/4/1474-1535 दुषमा—वीर भगवान् का निर्वाण होने के पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास, और एक पक्ष के व्यतीत हो जाने पर दुषमाकाल प्रवेश करता है।1474। शरीर—इस काल में उत्कृष्ट आयु कुल 120 वर्ष और शरीर की ऊँचाई सात हाथ होती है।1475। श्रुत विच्छेद—इस काल में श्रुततीर्थ जो धर्म प्रवर्तन का कारण है वह 20317 वर्षों में काल दोष से हीन होता होता व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा।1463। इतने मात्र समय तक ही चातुर्वर्ण्य संघ रहेगा। इसके पश्चात् नहीं।1494। मुनिदीक्षा—मुकुटधरों में अंतिम चंद्रगुप्त ने दीक्षा धारण की। इसके पश्चात् मुकुटधारी प्रव्रज्या को धारण नहीं करते।1481। राजवंश—इस काल में राजवंश क्रमश: न्याय से गिरते-गिरते अन्यायी हो जाते हैं। अत आचारांगधरों के 275 वर्ष के पश्चात् एक कल्की राजा हुआ।1496-1510। जो कि मुनियों के आहार पर भी शुल्क माँगता है। तब मुनि अंतराय जान निराहार लौट जाते हैं।1512। उस समय उनमें किसी एक को अवधिज्ञान हो जाता है। इसके पश्चात् कोई असुरदेव उपसर्ग को जानकर धर्मद्रोही कल्की को मार डालता है।1513। इसके 500 वर्ष पश्चात् एक उपकल्की होता है और प्रत्येक 1000 वर्ष पश्चात् एक कल्की होता है।1516। प्रत्येक कल्की के समय मुनि को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। और चातुर्वर्ण्य भी घटता जाता है।1517। संघविच्छेद—चांडालादि ऐसे बहुत मनुष्य दिखते हैं।1518-1519। इस प्रकार से इक्कीसवाँ अंतिम कल्की होता है।1520। उसके समय में वीरांगज नामक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होते हैं।1521। उस राजा के द्वारा शुल्क माँगने पर वह मुनि उन श्रावक श्राविकाओं को दुषमा काल का अंत आने का संदेशा देता है। उस समय मुनि की आयु कुल तीन दिन की शेष रहती है। तब वे चारों ही संन्यास मरणपूर्वक कार्तिक कृष्ण अमावस्या को यह देह छोड़ कर सौधर्म स्वर्ग में देव होते हैं।1520-1533। अंत—उस दिन क्रोध को प्राप्त हुआ असुर देव कल्की को मारता है और सूर्यास्तसमय में अग्नि विनष्ट हो जाती है।1533। इस प्रकार धर्मद्रोही 21 कल्की एक सागर आयु से युक्त होकर धर्मा नरक में जाते हैं।1534-1535। ( महापुराण/76/390-435 )।
6— तिलोयपण्णत्ति/4/1535-1544 दुषमादुषमा—21 वें कल्की के पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम वह अतिदुषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है।1535। शरीर—इस काल के प्रवेश में शरीर की ऊँचाई तीन अथवा साढ़े तीन हाथ और उत्कृष्ट आयु 20 वर्ष प्रमाण होती है।1536। धूम वर्ण के होते हैं। आहार—उस काल में मनुष्यों का आहार मूल, फल मत्स्यादिक होते हैं।1537। निवास—उस समय वस्त्र, वृक्ष और मकानादिक मनुष्यों को दिखाई नहीं देते।1537। इसलिए सब नंगे और भवनों से रहित होकर वनों में घूमते हैं।1538। शारीरिक दुःख—मनुष्य प्राय: पशुओं जैसा आचरण करने वाले, क्रूर, बहिरे, अंधे, काने, गूंगे, दारिद्र्य एवं क्रोध से परिपूर्ण, दीन, बंदर जैसे रूपवाले, कुबड़े बौने शरीरवाले, नाना प्रकार की व्याधि वेदना से विकल, अतिकषाय युक्त, स्वभाव से पापिष्ठ, स्वजन आदि से विहीन, दुर्गंधयुक्त शरीर एवं केशों से संयुक्त, जूं तथा लीख आदि से आच्छन्न होते हैं।1538-1541। आगमन निर्गमन—इस काल में नरक और तिर्यंचगति से आये हुए जीव ही यहाँ जन्म लेते हैं, तथा यहाँ से मरकर घोर नरक व तिर्यंचगति में जन्म लेते हैं।1542। हानि—दिन प्रतिदिन उन जीवों की ऊँचाई, आयु और वीर्य हीन होते जाते हैं।1543। प्रलय—उनचास दिन कम इक्कीस हज़ार वर्षों के बीत जाने पर जंतुओं को भयदायक घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है।1544। (प्रलय का स्वरूप–देखें प्रलय । ( महापुराण/76/438-450 ) ( त्रिलोकसार/859-864 ) षट्कालों में अवगाहना, आहारप्रमाण, अंतराल, संस्थान व हड्डियों आदि की वृद्धिहानि का प्रमाण। देखें काल - 4.19।
6. उत्सर्पिणी काल का लक्षण व काल प्रमाण
सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/3 अन्वर्थसंज्ञे चैते। अनुभवादिभिरुत्सर्पणशीला उत्सर्पिणी।...अवसर्पिण्या: परिमाणं दशसागरोपमकोटीकोट्य:। उत्सर्पिण्या अपि तावत्य एव।=ये दोनों (उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी) काल सार्थक नामवाले हैं। जिसमें अनुभ्व आदि की वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है। ( राजवार्तिक/3/27/5/191/30 )
अवसर्पिणी काल का परिमाण दस कोड़ाकोड़ी सागर है और उत्सर्पिणी का भी इतना ही है। ( सर्वार्थसिद्धि/3/38/234/9 ) ( धवला 13/5,5,59/31/301 ) ( राजवार्तिक/3/38/7/208/21 ) ( तिलोयपण्णत्ति/4/315 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/115 )
धवला 9/4,1,44/119/9 जत्थ बलाउ-उस्सेहाणं उस्सप्पणं उड्ढी होदि सो कालो उस्सप्पिणी।=जिस काल में बल, आयु व उत्सेध का उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/3141/1557 ) ( कषायपाहुड़ 1/56/74/3 ) ( महापुराण/3/20 )
7. उत्सर्पिणी काल के षट्भेदों का विशेष स्वरूप
उत्सर्पिणी काल का प्रवेश क्रम=देखें काल - 4.12
तिलोयपण्णत्ति/4/1563-1566 दुषमादुषमा—इस काल में मनुष्य तथा तिर्यंच नग्न रहकर पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वनप्रदशों में धतूरा आदि वृक्षों के फल मूल एवं पत्ते आदि खाते हैं।1563। शरीर की ऊँचाई एक हाथ प्रमाण होती है।1564। इसके आगे तेज, बल, बुद्धि आदि सब काल स्वभाव से उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं।1565। इस प्रकार भरतक्षेत्र में 21000 वर्ष पश्चात् अतिदुषमा काल पूर्ण होता है।1566। ( महापुराण/76/454-459 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1567-1575 दुषमा—इस काल में मनुष्य-तिर्यंचों का आहार 20,000 वर्ष तक पहले के ही समान होता है। इसके प्रारंभ में शरीर की ऊँचाई 3 हाथ प्रमाण होती है।1568। इस काल में एक हज़ार वर्षों के शेष रहने पर 14 कुलकरों की उत्पत्ति होने लगती है।1569-1571। कुलकर इस काल के म्लेक्ष पुरुषों को उपदेश देते हैं।1575। ( महापुराण 76/460-469 ) ( त्रिलोकसार/871 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1575-1595 दुषमासुषमा—इसके पश्चात् दुष्षम-सुषमाकाल प्रवेश होता है। इसके प्रारंभ में शरीर की ऊँचाई सात हाथ प्रमाण होती है।1576। मनुष्य पाँच वर्णवाले शरीर से युक्त, मर्यादा, विनय एवं लज्जा से सहित संतुष्ट और संपन्न होते हैं।1577। इस काल में 24 तीर्थंकर होते हैं। उनके समय में 12 चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण हुआ करते हैं।1578-1592। इस काल के अंत में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है।1594-1595। ( महापुराण/76/470-489 ) ( त्रिलोकसार/872-880 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1596-1599 सुषमादुषमा—इसके पश्चात् सुषमदुष्षम नाम चतुर्थ काल प्रविष्ट होता है। उस समय मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है। उत्तरोत्तर आयु और ऊँचाई प्रत्येक काल के बल से बढ़ती जाती है।1596-1597। उस समय यह पृथिवी जघन्य भोगभूमि कही जाती है।1598। उस समय वे सब मनुष्य एक कोस ऊँचे होते हैं।1599। ( महापुराण/76/490-91 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1599-1601 सुषमा—सुषमादुषमा काल के पश्चात् पाँचवाँ सुषमा नामक काल प्रविष्ट होता है।1599। उस काल के प्रारंभ में मनुष्य तिर्यंचों की आयु व उत्सेध आदि सुषमादुषमा काल अंतवत् होता है, परंतु काल स्वभाव से वे उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं।1600। उस समय (काल के अंत के) नरनारी दो कोस ऊँचे, पूर्ण चंद्रमा के सदृश मुखवाले विनय एवं शील से संपन्न होते हैं।1601। ( महापुराण/76/492 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1602-1605 सुषमासुषमा—तदनंतर सुषमासुषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। उसके प्रवेश में आयु आदि सुषमाकाल के अंतवत् होती हैं।1602। परंतु काल स्वभाव के बल से आयु आदिक बढ़ती जाती हैं। उस समय यह पृथिवी उत्तम भोगभूमि के नाम से सुप्रसिद्ध है।1603। उस काल के अंत में मनुष्यों की ऊँचाई तीन कोस होती है।1604। वे बहुत परिवार की विक्रिया करने में समर्थ ऐसी शक्तियों से संयुक्त होते हैं। ( महापुराण/76/492 )
(छह कालों में आयु, वर्ण, अवगाहनादि की वृद्धि व हानि की सारणी–देखें काल - 4.19)
8. छह कालों का पृथक्-पृथक् प्रमाण
सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/7 तत्र सुषमासुषमा चतस्र: सागरोपमकोटीकोट्य:। तदादौ मनुष्या उत्तरकुरुमनुष्यतुल्या:। तत: क्रमेण हानौ सत्यां सुषमा भवति तिस्र: सागरोपमकोटीकोट्य:। तदादौ मनुष्या हरिवर्षमनुष्यसमा:। तत: क्रमेण हानौ सत्यां सुषमादुष्षमा भवति द्वे सागरोपमकोटीकोट्यौ। तदादौ मनुष्या हैमवतकमनुष्यसमा:। तत: क्रमेण हानौ सत्यां दुष्षमसुषमा भवति एकसागरोपमकोटाकोटी द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रीना। तदादौ मनुष्या विदेहजनतुल्या भवंति। तत: क्रमेण हानौ सत्यां दुष्षमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि। तत: क्रमेण हानौ सत्यामतिदुष्षमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि। एवमुत्सर्पिण्यपि विपरीतक्रमा वेदितव्या।=इसमें से सुषमासुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्य उत्तरकुरु के मनुष्यों के समान होते हैं। फिर क्रम से हानि होने पर तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण सुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्य हरिवर्ष के मनुष्यों के समान होते हैं। तदनंतर क्रम से हानि होने पर दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमादुष्षमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्य है मवतक के मनुष्यों के समान होते हैं। तदनंतर क्रम से हानि होकर ब्यालीस हज़ार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का दुषमासुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्य विदेह क्षेत्र के मनुष्यों के समान होते हैं। तदनंतर क्रम से हानि होकर इक्कीस हजार वर्ष का दुष्षमा काल प्राप्त होता है। तदनंतर क्रम से हानि होकर इक्कीस हजार वर्ष का अतिदुषमा काल प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी इससे विपरीत क्रम से जानना चाहिए। ( तिलोयपण्णत्ति/4/317-319 )
9. अवसर्पिणी के छह भेदों में क्रम से जीवों की वृद्धि होती जाती है
तिलोयपण्णत्ति/4/1612-1613 अवसप्पिणीए दुस्समसुसमुमवेसस्स पढमसमयम्मि। वियलिंदियउप्पत्ती वड्ढी जीवाण थोवकालम्मि।1612। कमसो वड्ढंति हु तियकाले मणुवतिरियाणमवि संखा। तत्तो उस्सप्पिणिए तिदए वट्टंति पुव्वं वा।1613।=अवसर्पिणी काल में दुष्षमसुषमा काल के प्रारंभिक प्रथम समय में थोड़े ही समय के भीतर विकलेंद्रियों की उत्पत्ति और जीवों की वृद्धि होने लगती है।1612। इस प्रकार क्रम से तीन कालों में मनुष्य और तिर्यंच जीवों की संख्या बढ़ती ही रहती है। फिर इसके पश्चात् उत्सर्पिणी के पहले तीन कालों में भी पहले के समान ही वे जीव वर्तमान रहते हैं।1613।
10. उत्सर्पिणी के छह कालों में जीवों की क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि
तिलोयपण्णत्ति/4/1608-1611 उस्सप्पिणीए अज्जाखंडे अदिदुस्समस्स पढमखणे। होंति हु णरतिरियाणं जीवा सव्वाणि थोवाणिं।1608। ततो कमसो बहवा मणुवा तेरिच्छसयलवियलक्खा। उप्पज्जंति हु जाव य दुस्समसुसमस्स चरिमो त्ति।1608। णासंति एक्कसमए वियलक्खायंगिणिवहकुलभेया। तुरिमस्स पढमसमए कप्पतरूणं पि उप्पत्ती।1610। पविसंति मणुवतिरिया जेत्तियमेत्ता जहण्णभोगिखिदिं। तेत्तियमेत्ता होंति हु तक्काले भरहखेत्तम्मि।1611।=उत्सर्पिणी काल के आर्यखंड में अतिदुषमा काल के प्रथम क्षण में मनुष्य और तिर्यंचों में से सब जीव थोड़े होते हैं।1608। इसके पश्चात् फिर क्रम से दुष्षमसुषमा काल के अंत तक बहुत से मनुष्य और सकलेंद्रिय एवं विकलेंद्रिय तिर्यंच जीव उत्पन्न होते हैं।1609। तत्पश्चात् एक समय में विकलेंद्रिय प्राणियों के समूह व कुलभेद नष्ट हो जाते हैं तथा चतुर्थ काल में प्रथम समय में कल्पवृक्षों की भी उत्पत्ति हो जाती है।1610। जितने मनुष्य और तिर्यंच जघन्य भोगभूमि में प्रवेश करते हैं उतने ही इस काल के भीतर भरतक्षेत्र में होते हैं।1611।
11. युग का प्रारंभ व उसका क्रम
तिलोयपण्णत्ति/1/70 सावणबहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो। अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं।70।=श्रावण कृष्णा पड़िवा के दिन रुद्र मुहूर्त के रहते हुए सूर्य का शुभ उदय होने पर अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में इस युग का प्रारंभ हुआ, यह स्पष्ट है।
तिलोयपण्णत्ति/7/530-548 आसाढपुण्णिमीए जुगणिप्पत्ती दु सावणे किण्हे। अभिजिम्मि चंदजोगे पाडिवदिवसम्मि पारंभो।530। पणवरिसे दुमणीणं दक्खिणुत्तरायणं उसुयं। चय आणेज्जो उस्सप्पिणिपढम आदिचरिमंतं।547। पल्लस्सासंखभागं दक्खिणअयणस्स होदि परिमाणं। तेत्तियमेत्तं उत्तरअयणं उसुपं च तद्दुगुणं।548।=आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन पाँच वर्ष प्रमाण युग की पूर्णता और श्रावणकृष्णा प्रतिपद् के दिन अभिजित् नक्षत्र के साथ चंद्रमा का योग होने पर उस युग का प्रारंभ होता है।530।...इस प्रकार उत्सर्पिणी के प्रथम समय से लेकर अंतिम समय तक पाँच परिमित युगों में सूर्यों के दक्षिण व उत्तर अयन तथा विषुवों को ले आना चाहिए।547। दक्षिण अयन का प्रमाण पल्य का असंख्यातवाँ भाग और इतना ही उत्तर अयन का भी प्रमाण है। विषुपों का प्रमाण इससे दूना है।548।
तिलोयपण्णत्ति/4/1558-1563 पोक्खरमेघा सलिलं वरिसंति दिणाणि सत्त सुहजणणं। वज्जग्गिणिए दड्ढा भूमि सयला वि सीयला होदि।1558। वरिसंति खीरमेघा खीरजलं तेत्तियाणि दिवसाणिं। खीरजलेहिं भरिदा सच्छाया होदि सा भूमि।1559। तत्तो अमिदपयोदा अमिद वरिसंति सत्तदिवसाणिं। अमिदेणं सित्ताए महिए जायंति वल्लिगोम्मादी।1560। ताधे रसजलवाहा दिव्वरसं पवरिसंति सत्तदिणे। दिव्वरसेणाउण्णा रसवंता होंति ते सव्वे।1561। विविहरसोसहिभरिदो भूमि सुस्सादपरिणदा होदि। तत्तो सीयलगंधं णादित्ता णिस्सरंति णरतिरिया।1562। फलमूलदलप्पहुदिं छुहिदा खादंति मत्तपहुदीणं। णग्गा गोधम्मपरा णरतिरिया वणपएसेसुं।1563।=उत्सर्पिणी काल के प्रारंभ में सात दिन तक पुष्कर मेघ सुखोत्पादक जल को बरसाते हैं, जिससे वज्राग्नि से जली हुई संपूर्ण पृथिवी शीतल हो जाती है।1558। क्षीर मेघ उतने ही दिन तक क्षीर जलवर्षा करते हैं, इस प्रकार क्षीर जल से भरी हुई यह पृथिवी उत्तम कांति से युक्त हो जाती है।1559। इसके पश्चात् सात दिन तक अमृतमेघ अमृत की वर्षा करते हैं। इस प्रकार अमृत से अभिषिक्त भूमि पर लतागुल्म इत्यादि उगने लगते हैं।1560।उस समय रसमेघ सात दिन तक दिव्य रस की वर्षा करते हैं। इस दिव्य रस से परिपूर्ण से सब रसवाले हो जाते हैं।1561। विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वाद परिणत हो जाती है। पश्चात् शीतल गंध को ग्रहण कर वे मनुष्य और तिर्यंच गुफाओं से बाहर निकलते हैं।1562। उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वृक्षों के फल, मूल व पत्ते आदि को खाते हैं।1563।
12. हुंडावसर्पिणी काल की विशेषताएँ
तिलोयपण्णत्ति/4/1615-1623 असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है; उसके चिह्न ये हैं–1. इस हुंडावसर्पिणी काल के भीतर सुषमादुष्षमा काल की स्थिति में से कुछ काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदिक पड़ने लगती है और विकलेंद्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है।1616। 2. इसके अतिरिक्त इसी काल में कल्पवृक्षों का अंत और कर्मभूमि का व्यापार प्रारंभ हो जाता है। 3. उस काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं।1617। 4. चक्रवर्ती का विजय भंग। 5. और थोड़े से जीवों का मोक्ष गमन भी होता है। 6. इसके अतिरिक्त चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वंश की उत्पत्ति भी होती है।1618। 7. दुष्षमसुषमा काल में 58 ही शलाकापुरुष होते हैं। 8. और नौवें (पंद्रहवें की बजाय) से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति होती है।1619। ( त्रिलोकसार/814 ) 9. ग्यारह रूद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं। 10. तथा इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है।1620। 11. तृतीय, चतुर्थ व पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के दुष्ट पापिष्ठ कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। 12. तथा चांडाल, शबर, पाण (श्वपच), पुलिंद, लाहल, और किरात इत्यादि जातियाँ उत्पन्न होती हैं। 13. तथा दुषम काल में 42 कल्की व उपकल्की होते हैं। 14. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि (भूकंप?) और वज्राग्नि आदि का गिरना, इत्यादि विचित्र भेदों को लिये हुए नाना प्रकार के दोष इस हुंडावसर्पिणी काल में हुआ करते हैं।1621-1623।
धवला 3/1,2,14/98/4 पउमप्पहभडारओ बहुसीसपरिवारो...पुव्विलगाहाए वुत्तसंजदाणं पमाणं ण पावेंति। तदो गाहा ण भद्दिएत्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे–सव्वोसप्पिणीहिंतो अहमा हुंडोसप्पिणी। तत्थतण तित्थयरसिस्सपरिवारं जुगमाहप्पेण ओहट्टिय डहरभावमापण्णं घेत्तूण ण गाहासुत्तं दुसिदं सक्किज्जदि, सेसोसप्पिणो तित्थयरेसु बहुसोसपरिवारुवलंभादो। =प्रश्न—पद्मप्रभ भट्टारक का शिष्य परिवार....(की) संख्या पूर्व गाथा में कहे गये संयतों के प्रमाण को प्राप्त नहीं होती, इसलिए पूर्व गाथा ठीक नहीं? उत्तर—आगे पूर्वशंका का परिहार करते हैं कि संपूर्ण अवसर्पिणीयों की अपेक्षा यह हुंडावसर्पिणी है, इसलिए युग के माहात्म्य से घटकर ह्नस्वभाव को प्राप्त हुए हुंडावसर्पिणी काल संबंधी तीर्थंकरों के शिष्य परिवार को ग्रहण करके गाथा सूत्र को दूषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि शेष अवसर्पिणियों के तीर्थंकरों के बड़ा शिष्य परिवार पाया जाता है।
13. ये उत्सर्पिणी आदि षट्काल भरत व ऐरावत क्षेत्रों में ही होते हैं
तत्त्वार्थसूत्र/3/27-28 भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।27। ताभ्ययामपरा भूमयोऽवस्थिता:।28।=भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी के और अवसर्पिणी के छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है।27। भरत और ऐरावत के सिवा शेष भूमियाँ अवस्थित हैं।28।
तिलोयपण्णत्ति/4/313 भरहस्खेत्तंभि इमे अज्जाखंडम्मि कालपरिभागा। अवसप्पिणिउस्सप्पिपज्जाया दोण्णि होंति पुढं।313।=भरत क्षेत्रे के आर्य खंडों में ये काल के विभाग हैं। यहाँ पृथक्-पृथक् अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप दोनों ही काल की पर्यायें होती हैं।313। और भी विशेष–देखें भूमि - 5।
14. मध्यलोक में सुषमा दुषमा आदि काल विभाग
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.नं. भरहक्खेत्तम्मि इमे अज्जाखंडम्मि कालपरिभागा। अवसप्पिणिउस्सपिणिपज्जाया दोण्णि होंति पुढं (313) दोण्णि वि मिलिदे कप्पं छव्भेदा होंति तत्थ एक्केक्कं।...(316) पणमेच्छखयरसेढिसु अवसप्पुस्सप्पिणीए तुरिमम्मि। तदियाए हाणिच्चयं कमसो पढमासु चरिमोत्ति (1607) अवसेसवण्णणाओ सरि साओ सुसमदुस्समेणं पि। णवरि यवट्ठिदरूवं परिहीणं हाणिवड्ढीहिं (1703) अवसेसवण्णणाओ सुसमस्स व होंति तस्स खेत्तस्स। णवरि य संठिदरूवं परिहीणं हाणिवडढीहिं (1744) रम्मकविजओ रम्मो हरिवरिसो व वरवण्णणाजुत्तो।...(2335) सुसमसुसमम्मि काले जा मणिदावण्णा विचित्तपरा। सा हाणीए विहीणा एदस्सिं णिसहसेले य (2145)। विजओ हेरण्णवदो हेमवदो वप्पवण्णणाजुत्तो।...(2350)=भरत क्षेत्र के (वैसे ही ऐरावत क्षेत्र के) आर्यखंड में....उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही काल की पर्याय होती हैं।313। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में से प्रत्येक के छह-छह भेद हैं।316। पाँच म्लेक्षखंड और विद्याधरों की श्रेणियों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल में क्रम से चतुर्थ और तृतीय काल के प्रारंभ से अंत तक हानि-वृद्धि होती रहती हैं। (अर्थात् इन स्थानों में अवसर्पिणीकाल में चतुर्थकाल के प्रारंभ से अंत तक हानि और उत्सर्पिणी काल में तृतीयकाल के प्रारंभ से अंत तक की वृद्धि होती रहती है। यहाँ अन्य कालों की प्रवृत्ति नहीं होती।)।1607। इसका (हैमवतक्षेत्र) का शेष वर्णन सुषमादुषमा काल के सदृश है। विशेषता केवल यह है कि यह क्षेत्र हानिवृद्धि से रहित होता हुआ अवस्थितरूप अर्थात् एकसा रहता है।1703। उस (हरि) क्षेत्र का अवशेष वर्णन सुषमाकाल के समान है। विशेष यह है कि वह क्षेत्र हानि-वृद्धि से रहित होता हुआ संस्थितरूप अर्थात् एक-सा ही रहता है।1744। सुषमसुषमाकाल के विषय में जो विचित्रतर वर्णन किया गया है, वही वर्णन हानि से रहित—देवकुरु में भी समझना चाहिए।2145। रमणीय रम्यकविजय भी हरिवर्ष के समान उत्तम वर्णनों से युक्त है।2335। हैरण्यवतक्षेत्र हैमवतक्षेत्र के समान वर्णन से युक्त है।2350। ( त्रिलोकसार/779 )
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/166-174 तदिओ दु कालसमओ असंखदीवे य होंति णियमेण। मणुसुत्तरादु परदो णगिंदवरपव्वदो णाम।166। जलणिहिसयंभूरवणे सयंभूरवणवणस्स दोवमज्झम्मि। भूहरणगिंदपरदो दुस्समकालो समुद्दिट्ठो।174।=मानुषोत्तर पर्वत से आगे नगेंद्र (स्वयंप्रभ) पर्वत तक असंख्यात द्वीपों में नियमत: तृतीयकाल का समय रहता है।166। नगेंद्र पर्वत के परे स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र में दुषमाकाल कहा गया है।174। (कुमानुष द्वीपों में जघन्य भोगभूमि है। जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/54-55 )
15. छहों कालों में सुख-दुःख आदि का सामान्य कथन
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/190-191 पढमे विदये तदिये काले जे होंति माणुसा पवरा। ते अवमिच्चुविहूणा एयंतसुहेहिं संजुत्ता।190। चउथे पंचमकाले मणुया सुहदुक्खसंजुदा णेया। छट्ठमकाले सव्वे णाणाविहदुक्खसंजुत्ता।191।=प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालों में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्यु से रहित और एकांत सुख से संयुक्त होते हैं।190। चतुर्थ और पंचमकाल में मनुष्य सुख-दुःख से संयुक्त तथा छठेकाल में सभी मनुष्य नानाप्रकार के दु:खों से संयुक्त होते हैं, ऐसा जानना चाहिए।191। और भी–देखें भूमि - 9।
16.चतुर्थकाल की कुछ विशेषताएँ
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/179-185 एदम्मि कालसमये तित्थयरा सयलचक्कवट्टीया। बलदेववासुदेवा पडिसत्तू ताण जायंति।179। रुद्दा य कामदेवा गणहरदेवा य चरमदेहधरा। दुस्समसुसमे काले उप्पत्ती ताण बौद्धव्वा।185।=इस काल के समय में तीर्थंकर, सकलचक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके प्रतिशत्रु उत्पन्न होते हैं।179। रुद्र, कामदेव, गणधरदेव, और जो चरमशरीरी मनुष्य हैं, उनकी उत्पत्ति दुषमसुषमा काल में जाननी चाहिए।185।
17. पंचमकाल की कुछ विशेषताएँ
महापुराण/41/63-79 का भावार्थ—भगवान् ऋषभदेव ने भरत महाराज को उनके 16 स्वप्नों का फल दर्शाते हुए यह भविष्यवाणी की–23वें तीर्थंकर तक मिथ्या मतों का प्रचार अधिक न होगा।63। 24वें तीर्थंकर के काल में कुलिंगी उत्पन्न हो जायेंगे।65। साधु तपश्चरण का भार वहन न कर सकेंगे।66। मूल व उत्तरगुणों को भी साधु भंग कर देंगे।67। मनुष्य दुराचारी हो जायेंगे।68। नीच कुलीन राजा होंगे।69। प्रजा जैनमुनियों को छोड़कर अन्य साधुओं के पास धर्म श्रवण करने लगेगी।70। व्यंतर देवों की उपासना का प्रचार होगा।71। धर्म म्लेछ खंडों में रह जायेगा।72। ऋद्धिधारी मुनि नहीं होंगे।73। मिथ्या ब्राह्मणों का सत्कार होगा।74। तरुण अवस्था में ही मुनि पद में ठहरा जा सकेगा।75। अवधि व मन:पर्यय ज्ञान न होगा।76। मुनि एकल विहारी न होंगे।77। केवलज्ञान उत्पन्न न होगा।78। प्रजा चारित्रभ्रष्ट हो जायेगी, औषधियों के रस नष्ट हो जायेंगे।79।
18. षट्कालों में आयु, आहारादि की वृद्धि व हानि प्रदर्शक सारणी
प्रमाण–( तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.); ( सर्वार्थसिद्धि/3/27-31,37 ); ( त्रिलोकसार/780-791,881-884 ); ( राजवार्तिक/3/27-31,37/191-192,204 ); (महा.पु./3/22-55) (हरि.पु./7/64-70); (जं.प./2/112-155) संकेत–को.को.सा.=कोड़ाकोड़ी सागर;ज.=जघन्य; उ.=उत्कृष्ट; पू.को.=पूर्व कोड़ी।
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प्रमाण सामान्य |
षट्कालों में वृद्धि-ह्रास की विशेषताएँ |
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विषय |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ 2/ गा. |
त्रिलोकसार |
तिलोयपण्णत्ति |
सुषमा सुषमा |
तिलोयपण्णत्ति |
सुषमा |
तिलोयपण्णत्ति |
सुषमा दुषमा |
ति. प |
दुषमा सुषमा |
तिलोयपण्णत्ति |
दुषमा |
तिलोयपण्णत्ति |
दुषमा दुषमा |
काल विषय |
112-114 |
316-394 |
4 को को सा. |
316, 395 |
3 को को सा. |
317, 403 |
2 को को सा. |
317 |
1 को को सा. से 42000 वर्ष हीन |
318 |
21000 वर्ष |
319 |
21000 वर्ष |
|
आयु (ज.) |
696 |
2 पल्य |
1600 |
1 पल्य |
1596 |
1 पू.को. |
1576 |
120 वर्ष |
1564 |
15-16 वर्ष |
|
|
||
आयु (उ.) |
120-123 178, 186 |
|
335 |
3 पल्य |
396 |
2 पल्य |
404, 1598 |
1 पल्य |
1277, 1595 |
1 पू॰को॰ |
1475 |
120 वर्ष |
|
|
अवगाहाना (ज.) |
|
|
396 1601 |
4000 धनुष |
1600 |
2000 धनुष |
1597 |
500 धनुष |
1576 |
7 हाथ |
1568 |
|
|
|
अव. (उ.) |
177, 186 120-123 |
|
335 |
6000 धनुष |
396, 1601 |
4000 धनुष |
404, 1599 |
2000 धनुष |
1277, 1595 |
500 धनुष |
1475 |
7 हाथ |
|
|
आहार प्रमाण |
120-123 |
|
334 |
बेर प्रमाण |
398 |
बहेड़ा प्रमाण |
406 |
आंवला प्रमाण |
|
|
|
|
|
|
आहार अंतराल |
" |
785 |
" |
3 दिन |
" |
2 दिन |
" |
1 दिन |
त्रिलोकसार |
प्रति दिन |
त्रिलोकसार |
अलुक बरी |
|
|
विहार |
|
|
336 |
अभाव |
336 |
अभाव |
336 |
अभाव |
|
|
|
|
|
|
संस्थान |
153 |
|
341 |
समचतुरस्र |
398 |
समचतुरस्र |
406 |
|
|
|
|
|
|
|
संहनन |
124 |
|
" |
वज्रऋषभ ना. |
( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो ) |
वज्रऋषभ |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो |
वज्रऋषभ |
|
|
|
|
|
|
हड्डियाँ (शरीर के पृष्ठ में) |
|
|
337 |
256 |
397 |
128 |
405 |
64 |
1277, 1577 |
48-24 |
1475 |
|
|
|
शरीर का रंग |
|
784 |
राजवार्तिक |
स्वर्ण वत् सूर्य वत् |
राजवार्तिक |
शंख वत् चंद्र वत् |
राजवार्तिक |
नील कमल हरित श्याम |
|
पाँचों वर्ण |
|
|
|
|
बल |
155 |
|
|
9000 हाथियों का |
|
9000 गज वत् |
|
9000 गज वत् |
|
|
|
|
|
|
संयम |
|
|
|
अभाव |
|
अभाव |
|
अभाव |
|
|
|
|
|
|
मरण समय |
राजवार्तिक |
|
—> |
पुरुष के छींक स्त्री की जँभाई |
|
<— |
|
|
|
|
|
|
||
अपमृत्यु |
हरि.पु./ 3/31 |
|
|
अभाव |
|
अभाव |
|
अभाव |
|
|
|
|
|
|
मृत्यु पश्चात् |
राजवार्तिक |
|
—> |
कर्पूर वत् उड़ जाता है |
|
<— |
|
|
|
|
|
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||
उपपाद |
राजवार्तिक |
|
—> |
(सम्यक्त्व सहित सौधर्म ईशान में, मिथ्यात्व सहित भवनत्रिक में) |
|
|
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||||||
भूमि रचना |
राजवार्तिक |
881 |
|
उत्तम भोग |
|
मध्यम भोग |
1598 |
जघन्य भोग व कुभोगभूमि |
|
कर्म भूमि |
|
|
कर्मभूमि |
|
अन्य भूमियों में काल अवस्थान |
(ति.प/2/116-118, 166, 174;3/234-235); ( त्रिलोकसार/882-883 ); ( राजवार्तिक ); ( गोम्मटसार जीवकांड/548 ) |
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|||||||||
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राजवार्तिक |
उत्तर कुरु |
|
हरि वर्ष क्षेत्र |
|
हैमवत् क्षेत्र |
तिलोयपण्णत्ति/4 -1607 |
विदेह क्षेत्र |
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|
|
|
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|
देव कुरु |
|
रम्यक क्षेत्र |
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हैरण्यतत् क्षेत्र अंतर्द्वीप व मानुषोत्तर से स्वयंभूरमण पर्वत तक |
त्रिलोकसार/ 883 महापुराण/19 /9-10 जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2-116 हरि.पु./-5/730 |
भरत ऐरावत के म्लेक्ष खंड व विजयार्ध में विद्याधर श्रेणियाँ स्वयंभूरमण पर्वत से आगे |
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चर्तुगति में काल विभाग |
तिलोयपण्णत्ति/2- /175 |
884 |
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देव गति |
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