ईर्यासमिति
From जैनकोष
मूलाचार/11,302,303 फासुयमग्गेण दिवा जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण। जंतूण परिहरति इरियासमिदी हवे गमणं।11। मग्गुज्जोवुपओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो। सुत्ताणुवीचि भणिया इरियासमिदी पवयणम्मि।302। इरियावहपडिवण्णेणवलोगंतेण होदि गंतव्वं। पुरदो जुगप्पमाणं सयाप्पमत्तेण सत्तेण।303। =1. प्रासुक मार्ग से (देखें विहार - 1.7) दिन में चार हाथ प्रमाण देखकर अपने कार्य के लिए प्राणियों को पीड़ा नहीं देते हुए संयमी का जो गमन है वह ईर्यासमिति है। ( नियमसार/61 )। 2. मार्ग, नेत्र, सूर्य का प्रकाश, ज्ञानादि में यत्न, देवता आदि आलंबन - इनकी शुद्धता से तथा प्रायश्चित्तादि सूत्रों के अनुसार से गमन करते मुनि के ईर्यासमिति होती है ऐसा आगम में कहा है।302। ( भगवती आराधना/1191 ) 3. कैलास गिरनार आदि यात्रा के कारण गमन करना ही तो ईर्यापथ से आगे की चार हाथ प्रमाण भूमि को सूर्य के प्रकाश से देखता मुनि सावधानी से हमेशा गमन करे।303। ( तत्त्वसार/6/7 )
राजवार्तिक/9/5/3/594/1 विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेर्धर्मार्थं प्रयतमानस्य सवितर्युदिते चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्ये उपजाते मनुष्यादिचरणपातोपहृतावश्याय-प्रायमार्गे अनन्यमनस: शनैर्न्यस्तपादस्य संकुचितावयवस्ययुगमात्रपूर्वनिरीक्षणाविहितदृष्टे: पृथिव्याद्यारंभाभावात् ईर्यासमितिरित्याख्यायते। =जीवस्थान आदि की विधि को जानने वाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधु का सूर्योदय होने पर चक्षुरिंद्रिय के द्वारा दिखने योग्य मनुष्य आदि के आवागमन के द्वारा कुहरा क्षुद्र जंतु आदि से रहित मार्ग में सावधान चित्त हो शरीर संकोच करके धीरे-धीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर पृथिवी आदि के आरंभ से रहित गमन करना ईर्यासमिति है। ( चारित्रसार/66/2 ); ( ज्ञानार्णव/18/6-7 ); ( अनगारधर्मामृत/4/164/492 )।
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