समुद्घात
From जैनकोष
- समुद्घात सामान्य का लक्षण
- समुद्धात के भेद
- गमन की दिशा संबंधी नियम
- अवस्थान काल संबंधी नियम
- समुद्घातों के स्वामित्व विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा
- समुद्घात सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/1/20/12/77/12 हंतेर्गमिक्रियात्वात् संभूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्हननं समुद्घात:। =वेदना आदि निमित्तों से कुछ आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/3 )
धवला 1/1,1,60/300/6 घातनं घात: स्थित्यनुभवयोर्विनाश इति यावत् । ...उपरि घात: उद्घात:, समीचीन उद्घात: समुद्घात:। =(केवलि समुद्घात के प्रकरण में) घातने रूप धर्म को घात कहते हैं, जिसका प्रकृत में अर्थ कर्मों की स्थिति और अनुभाग का विनाश होता है। ...उत्तरोत्तर होने वाले घात को उद्घात कहते हैं, और समीचीन उद्घात को समुद्घात कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/668 मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स। निग्गमणं देहादो होदि समुग्घादणामं तु।668। =मूल शरीर को न छोड़कर तैजस कार्मण रूप उत्तरदेह के साथ-साथ जीव प्रदशों के शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। ( द्रव्यसंग्रह टीका/10/25 में उद्धृत) - समुद्धात के भेद
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/196 वेयण कसाय वेउव्विय मारणंतिओ समुग्घाओ। तेजाहारो छट्ठो सत्तमओ केवलीणं च।196। = वेदना, कषाय, वैक्रियक, मारणांतिक, तैजस, आहारक और केवलि समुद्घात; ये सात प्रकार के समुद्घात होते हैं। ( राजवार्तिक/1/20/12/77/12 ); (धवला 4/1,3,2/ गा.11/29); (धवला 4/1,3,2/26/5); (गोम्मटसार जीवकांड/667/1112 ); (बृ. द्रव्यसंग्रह/10/24 ); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/13); (पं.सं./1/337)
* समुद्घात विशेष - देखें वह वह नाम । - गमन की दिशा संबंधी नियम
देखें मरण - 5.7 [मारणांतिक समुद्घात निश्चय से आगे जहाँ उत्पन्न होना है, ऐसे क्षेत्र की दिशा के अभिमुख होता है, शेष समुद्घात दशों दिशाओं में प्रतिबद्ध होते हैं।]
राजवार्तिक/1/20/12/77/21 आहारकमारणांतिकसमुद्घातावेकदिक्कौ। यत आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन् श्रेणिगतित्वात् एकदिक्कानात्मदेशानसंख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरमरत्निमात्रं निर्वर्तयति। अन्यक्षेत्रसमुद्घातकारणाभावात् यत्रानेन नरकादावुत्पत्तव्यं तत्रैव मारणांतिकसमुद्घातेन आत्मप्रदेशा एकदिक्का: समुद्घन्यनते, अतस्तावेकदिक्कौ। शेषा: पंच समुद्घाता: षड्दिक्का:। यतो वेदनादिसमुद्घातवशाद् बहिर्नि:सृतानामात्मप्रदेशानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरोर्ध्वाधोदिक्षु गमनमिष्टं श्रेणिगतित्वादात्मप्रदेशानाम् । =आहारक और मारणांतिक समुद्घात एक ही दिशा में होते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/669 ) क्योंकि आहारक शरीर की रचना के समय श्रेणि गति होने के कारण एक ही दिशा में असंख्य आत्मप्रदेश निकलकर...आहारक शरीर को बनाते हैं। मारणांतिक में जहाँ नरक आदि में जीव को मरकर उत्पन्न होना है वहाँ की ही दिशा में आत्मप्रदेश निकलते हैं। शेष पाँच समुद्घात छहों दिशाओं में होते हैं। क्योंकि वेदना आदि के वश से बाहर निकले हुए आत्मप्रदेश श्रेणी के अनुसार ऊपर, नीचे, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन छहों दिशाओं में होते हैं। - अवस्थान काल संबंधी नियम
राजवार्तिक/1/20/12/77/26 वेदना-कषाय-मारणांतिकतेजो-वैक्रियिकाहारकसमुद्घाता: षडसंख्येयसमयिका:। केवलिसमुद्घात: अष्टसमयिक:।=वेदनादि छह समुद्घातों का काल असंख्यात समय है। और केवलिसमुद्घात का काल आठ समय है। [विशेष - देखें केवली - 7.8]। - समुद्घातों के स्वामित्व विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा
धवला 4/1,2,3-3/38-47क्र. गुणस्थान धवला 4 पृष्ठ वेदना पृष्ठ कषाय पृष्ठ मारणांतिक पृष्ठ वैक्रियक पृष्ठ तैजस पृष्ठ आहारक पृष्ठ केवली 1 मिथ्यादृष्टि 43 हाँ 43 हाँ 43 हाँ 38 हाँ 38 नहीं 38 नहीं 38 नहीं 2 सासादन 41 हाँ 41 हाँ 43 हाँ 41 हाँ 38 नहीं 38 नहीं 38 नहीं 3 मिश्र 41 हाँ 41 हाँ 41 नहीं 41 हाँ 38 नहीं 38 नहीं 38 नहीं 4 असंयत 41 हाँ 41 हाँ 43 हाँ 41 हाँ 38 नहीं 38 नहीं 38 नहीं 5 संयतासंयत 44 हाँ 44 हाँ 44 हाँ 44 हाँ 38 नहीं 38 नहीं 38 नहीं 6 प्रमत्त 46 हाँ 46 हाँ 46 हाँ 46 हाँ 45 हाँ 47 हाँ 38 नहीं 7 अप्रमत्त 47 नहीं 47 नहीं 47 हाँ 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 38 नहीं 8 अपूर्वकरण उपशम 47 नहीं 47 नहीं 47 हाँ 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 38 नहीं 9 अपूर्वकरण क्षपक 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 38 नहीं 10 9-11 उपशम 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 38 नहीं 11 9-11 क्षपक 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 38 नहीं 12 क्षीणकषाय 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 38 नहीं 13 सयोगी 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 48 हाँ 14 अयोगी 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं 47 नहीं