ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 17
From जैनकोष
अथानंतर कितना ही समय बीतने पर राजा महेंद्र की पुत्री अंजना के शरीर में गर्भ को सूचित करने वाले विशेष चिह्न प्रकट हुए ।।1।। उसकी कांति सफेदी को प्राप्त हो गयी सो मानो गर्भ में स्थित हनुमान के यश से ही प्राप्त हुई थी। मदोन्मत्त दिग्गज के समान विभ्रम से भरी उसकी मंद चाल और भी अधिक मंद हो गयी ।।2।। जिनका अग्रभाग श्यामल पड़ गया था ऐसे स्तन अत्यंत उन्नत हो गये और आलस्य के कारण वह जहाँ बात करना आवश्यक था वहाँ केवल भौंह ऊपर उठा कर संकेत करने लगी ।।3।। तदनंतर इन लक्षणों से उसे गर्भवती जान ईर्ष्या से भरी सास ने उससे पूछा कि तेरे साथ यह कार्य किसने किया है? ।।4।। इसके उत्तर में अंजना ने हाथ जोड़ प्रणाम कर पहले का समस्त वृत्तांत कह सुनाया। यद्यपि पवनंजय ने यह वृत्तांत प्रकट करने के लिए उसे मना कर दिया था तथापि जब उसने कोई दूसरा उपाय नहीं देखा तब विवश हो संकोच छोड़ सब समाचार प्रकट कर दिया ।।5।।
तदनंतर केतुमती ने कुपित होकर बड़ी निष्ठुरता के साथ पत्थर जैसी कठोर वाणी में उससे कहा। जब केतुमती अंजना से कठोर शब्द बोल रही थी तब ऐसा जान पड़ता था मानो वह लाठियों से उसे ताड़ित कर रही थी ।।6।। उसने कहा कि अरी पापिन! अत्यंत द्वेष से भरा होने के कारण जो तुझ जैसा आकार भी नहीं देखना चाहता और तेरा शब्द भी कान में नहीं पड़ने देना चाहता वह धीर वीर पवनंजय तो आत्मीय जनों से पूछकर घर से बाहर गया हुआ है। हे निर्लज्जे! वह तेरे साथ समागम कैसे कर सकता है ।।7-8।। चंद्रमा की किरणों के समान उज्जवल संतान को दूषित करने वाली तथा दोनों लोकों में निंदनीय इस क्रिया को करने वाली तुझ पापिन को धिक्कार है ।।9।। जान पड़ता है कि सखी वसंतमाला ने ही तेरे लिए यह उत्तम बुद्धि दी है सो ठीक ही है क्योंकि वेश्या और कुलटा स्त्रियों की सेविकाएँ इसके सिवाय करती ही क्या हैं ।।10।। उस समय अंजना ने यद्यपि पवनंजय का दिया कड़ा भी दिखाया पर उस दुष्ट हृदय ने उसका विश्वास नहीं किया। विश्वास तो दूर रहा तीक्ष्ण शब्द कहती हुई अत्यंत कुपित हो उठी ।।11।। उसने उस समय क्रूर नामधारी दुष्ट सेवक को बुलाया। सेवक ने आकर उसे प्रणाम किया। तदनंतर क्रोध से जिसके नेत्र लाल हो रहे थे ऐसी केतुमती ने सेवक से कहा कि हे क्रूर! तू सखी के साथ इस अंजना को शीघ्र ही ले जाकर राजा महेंद्र के नगर के समीप छोड़कर बिना किसी विलंब के वापस आ जा ।।12-13।।
तदनंतर आज्ञा पालन में तत्पर रहने वाला क्रूर केतुमती के वचन सुन अंजना को वसंतमाला के साथ गाड़ी पर सवार कर राजा महेंद्र के नगर की ओर चला। उस समय अंजना का शरीर भय से अत्यंत कंपित हो रहा था, वह प्रचंड वायु के द्वारा झकझोर कर नीचे गिरायी हुई निराश्रय लता के समान जान पड़ती थी, आगामी काल में प्राप्त होनेवाले भारी दुःख का वह बड़ी व्याकुलता से चिंतन कर रही थी, उसका हृदय दु:खरूपी अग्नि से मानो पिघल गया था, भय के कारण वह निरुत्तर थी, सखी वसंतमाला पर उसके नेत्र लग रहे थे, वह पुन: उदय में आये अशुभ कर्म की मन ही मन निंदा कर रही थी और जिसका एक छोर स्तनों के बीच में रखा हुआ था ऐसी स्फटिक की चंचल शलाका के समान आँसुओं की धारा छोड़ रही थी ।।14-18।।
तदनंतर जब दिन समाप्त होने को आया तब क्रूर राजा महेंद्र के नगर के समीप पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने अंजना सुंदरी को नमस्कार कर निम्नांकित मधुर वचन कहे ।।11।। उसने कहा कि हे देवि! मैंने तुम्हारे लिए दुःख देने वाला यह कार्य स्वामिनी की आज्ञा से किया है अत: मुझ पर क्रोध करना योग्य नहीं है ।।20।। ऐसा कहकर उसने सखी सहित अंजना को गाड़ी से उतार कर तथा शीघ्र ही वापस आकर स्वामिनी के लिए सूचित कर किया कि मैं आपकी आज्ञा का पालन कर चुका ।।21।। तदनंतर उत्तम नारी अंजना को देखकर ही मानो दुःख के भार से जिसका प्रभामंडल फीका पड गया था ऐसा सूर्य अस्त हो गया ।।22।। पश्चिम दिशा लाल हो गयी सो ऐसा जान पड़ता था मानो अंजना सुंदरी, निरंतर रोती रहने के कारण अत्यंत लाल दिखने वाले नेत्रों से रक्षा करने के उद्देश्य से सूर्य की ओर देख रही थी सो उन्हीं की लाली से लाल हो गयी थी ।।23।। तदनंतर दिशाओं ने आकाश को श्यामल कर दिया सो ऐसा जान पड़ता था मानो अंजना के दुःख से दुखी होकर उन्होंने अत्यधिक वाष्प ही छोड़े थे, उन्हीं से आकाश श्यामल हो गया था ।।24।। घोंसलों में इकट्ठे होने वाले पक्षी बड़ी आकुलता से अत्यधिक कोलाहल करने लगे सो ऐसा मालूम होता था मानो अंजना के दुःख से दुःखी होकर ही वे चिल्ला रहे हों ।।25।। तदनंतर वह अंजना भूख-प्यास आदि से उत्पन्न होनेवाला दुःख तो भूल गयी और अपवाद जन्य महादु:ख रूपी सागर में उतरने लगी ।।26।। वह भयभीत होने के कारण जोर से तो नहीं चिल्लाती थी पर मुख के भीतर ही भीतर अश्रु ढालती हुई विलाप कर रही थी। तत्पश्चात् सखी ने वृक्षों के पल्लवों से एक आसन बनाया सो वह उसी पर बैठ गयी ।।27।। उस रात्रि में अंजना के नेत्रों में निद्रा नहीं आयी सो ऐसा जान पड़ता था मानो निरंतर निकलने वाले उष्ण आँसुओं से समुत्पन्न दाह से डरकर ही नहीं आयी थी ।।28।। सखी ने हाथ से दाब कर जिसकी थकावट दूर कर दी थी तथा जिसे निरंतर सांतवना दी थी ऐसी अंजना ने बड़े कष्ट के साथ पूर्ण रात्रि बितायी अथवा ‘समा समां निशा कृच्छेण नित्ये’ एक वर्ष के समान रात्रि बड़े कष्ट से व्यतीत की ।।29।।
तदनंतर प्रभात हुआ सो लंबी और गरम-गरम साँसों से जिसके पल्लव अत्यंत मुरझा गये थे ऐसी शय्या छोड़कर अंजना पिता के महल के द्वार पर पहुंची। छाया की तरह अनुकूल चलने वाली सखी उसके पीछे पीछे चल रही थी और लोग उसे दया भरी दृष्टि से देख रहे थे ।।30-31।। दुःख के कारण अंजना का रूप बदल गया था सो द्वारपाल की पहचान में नहीं आयी। अत: द्वार में प्रवेश करते समय उसने उसे रोक दिया। जिससे वह वहीं खड़ी हो गयी ।।32।। तदनंतर सखी ने सब समाचार सुनाया सो उसे जानकर शिला कपाट नाम का द्वारपाल द्वार पर किसी दूसरे मनुष्य को खड़ा कर भीतर गया और राजा को नमस्कार कर हाथ से पृथिवी को छूता हुआ एकांत में पुत्री के आने का समाचार कहने लगा ।। 33-34।। तत्पश्चात् राजा महेंद्र ने समीप में बैठे हुए प्रसन्न कीर्ति नामक पुत्र को आज्ञा दी कि पुत्री का बड़े वैभव के साथ शीघ्र ही प्रवेश कराओ ।।35।।
तदनंतर राजा ने फिर कहा कि नगर की शोभा करायी जाये तथा सेना सजायी जाये मैं स्वयं ही पुत्री का प्रवेश कराऊँगा ।।36।। तत्पश्चात् द्वारपाल ने पुत्री का जैसा चरित्र सुन रखा था वैसा मुँह पर हाथ लगाकर राजा के लिए कह सुनाया ।।37।। तदनंतर पिता पुत्री की लज्जाजनक चेष्टा सुनकर परम क्रोध को प्राप्त हुआ और प्रसन्न कीर्ति नामक पुत्र से बोला ।।38।। कि उस पापकारिणी को इस नगर से शीघ्र ही निकाल दो। उसका चरित्र सुनकर मेरे कान मानो वज्र से ही ताड़ित हुए हैं ।।39।। तदनंतर महोत्साह नाम का सामंत जो राजा महेंद्र को अत्यंत प्यारा था बोला, हे नाथ! इसके प्रति ऐसा करना योग्य नहीं है ।।40।। वसंतमाला ने द्वारपाल के लिए जैसी बात कही है कदाचित् वह वैसी ही हो तो अकारण घ्रणा करना उचित नहीं है ।।41।। इसकी सास केतुमती अत्यंत क्रूर है, लौकिक श्रुतियों से प्रभावित होनेवाली है और बिलकुल ही विचार रहित है। उसने बिना दोष के ही इसका परित्याग किया है ।।42।। कल्याणरूप आचार का पालन करने में तत्पर रहने वाली इस पुत्री का जिस प्रकार उस दुष्ट सास ने परित्याग किया है उसी प्रकार यदि आप भी तिरस्कार कर त्याग करते हैं तो फिर यह किसकी शरण में जायेगी? ।।43।। जिस प्रकार व्याघ्र के द्वारा देखी हुई हरिणी भयभीत होकर किसी महावन की शरण में पहुँचती है उसी प्रकार यह मुग्ध-वदना सास से भयभीत होकर महावन के समान जो तुम हो सो तुम्हारी शरण में आयी है ।।44।। यह बाला मानो ग्रीष्मऋतु के सूर्य की किरणों के संताप से ही दुःखी हो रही है और तुम्हें महावृक्ष के समान जानकर तुम्हारे पास आयी है ।।45।। यह बेचारी स्वर्ग से परिभ्रष्ट लक्ष्मी के समान अत्यंत विह्वल हो रही है और अपवाद रूपी धाम से युक्त हो कल्पलता के समान काँप रही है ।।46।। द्वारपाल के रोकने से यह अत्यंत लज्जा को प्राप्त हुई है। इसीलिए इसने लज्जावश मस्तक के साथ साथ अपना सारा शरीर वस्त्र से ढंक लिया है ।।47।। पिता के स्नेह से युक्त होकर जो सदा लाड़-प्यार से भरी रहती थी वह अंजना आज दरवाजे पर रुकी खड़ी है। हे राजन्! इस द्वारपाल ने यह समाचार आप से कहा है ।।48।। सो तुम इस पर दया करो, यह निर्दोष है, इसलिए इसका भीतर प्रवेश कराओ। यथार्थ में केतुमती दुष्ट है यह लोक में कौन नहीं जानता? ।।41।। जिस प्रकार कमलिनी के पत्र पर स्थित पानी के बूँदों का समूह उस पर स्थान नहीं पाता है उसी प्रकार महोत्साह नामक सामंत के वचन राजा के कानों में स्थान नहीं पा सके ।।50।।
राजा ने कहा कि कदाचित् सखी ने स्नेह के कारण इस सत्य बात को भी अन्यथा कह दिया हो तो इसका निश्चय कैसे किया जाये? ।।51।। इसलिए यह स्निग्ध शीला है अर्थात् इसके शील में संदेश है अत: जब तक हमारे निर्मल कुल में कलंक नहीं लगता है उसके पहले ही इसे नगर से शीघ्र निकाल दिया जाये ।।52।। निर्दोष, विनय को धारण करने वाली, सुंदर और उत्तम चेष्टाओं से युक्त घर की लड़की किसे अत्यंत प्रिय नहीं होती? पर ये सब गुण इसमें कहाँ रहे? ।।53।। वे महान् धैर्य को धारण करने वाले अत्यंत निर्मल पुरुष बड़े पुण्यात्मा हैं जिन्होंने दोषों के मूल कारणभूत स्त्रियों का परिग्रह ही नहीं किया अर्थात् उन्हें स्वीकृत ही नहीं किया ।।54।। स्त्रियों के स्वीकार करने में ऐसा ही फल होता है। यदि कदाचित् स्त्री अपवाद को प्राप्त होती है तो पृथिवी में प्रवेश करने की इच्छा होने लगती है ।।55।। जिनके हृदय में बड़े दुःख से विश्वास उत्पन्न कराया जाता है ऐसे अन्य मनुष्य तो दूर रहें आज मेरा हृदय ही इस विषय में शंकाशील हो गया है ।।56।। यह अपने पति की द्वेष पात्र है अर्थात् इसका पति इसे आँख से भी नहीं देखना चाहता यह मैंने कई बार सुना है। इसलिए यह तो निश्चित है कि इसके गर्भ की उत्पत्ति पति से नहीं है ।।57।। इस दशा में यदि और कोई भी इसके लिए आश्रय देगा तो मैं उसे प्राण रहित कर दूँगा ऐसी मेरी प्रतिज्ञा है ।।58।।
इस प्रकार कुपित हुए राजा ने जब तक दूसरों को पता नहीं चल पाया उसके पहले ही अंजना को सखी के साथ द्वार से बाहर निकलवा दिया। उस समय अंजना का शरीर दुःख से भरा हुआ था ।।55।। आश्रय पाने की इच्छा से वह जिस जिस आत्मीयजन के घर जाती थी राजा की आज्ञा से वह वहीं वहीं के द्वार बंद पाती थी ।।60।। जो ठीक ही है क्योंकि जहाँ पिता ही क्रुद्ध होकर तिरस्कार करता है वहाँ उसी के अभिप्राय के अनुसार कार्य करने वाले दूसरे लोगों का क्या विश्वास किया जा सकता है?- उनमें क्या आशा रखी जा सकती है? ।।61।। इस तरह सब जगह से निकाली गयी अंजना अत्यंत अधीर हो गयी। अश्रुओं के समूह से उसका शरीर गीला हो गया। उसने सखी से कहा कि हे माता! हम दोनों यहाँ भटकती हुई क्यों पड़ी हैं? हे सखि! हमारे पापोदय के कारण यह समस्त संसार पाषाणहृदय हो गया है अर्थात् सबका हृदय पत्थर के समान कड़ा हो गया है ।।62-63।। इसलिए हम लोग उसी वन में चलें । जो कुछ होना होगा सो वहीं हो लेगा। इस अपमान से तथा तज्जन्य दुःख से तो मर जाना ही परम सुख है ।।64।। इतना कहकर अंजना सखी के साथ उसी वन में प्रविष्ट हो गयी जिसमें केतुमती का सेवक उसे छोड़ गया था। जिस प्रकार कोई मृग सिंह से भयभीत हो वन से भागे और कुछ समय बाद भ्रांतिवश उसी वन में फिर जा पहुँचे उसी प्रकार फिर से अंजना का वन में जाना हुआ ।।65।। दुःख के भार से पीड़ित अंजना जब वायु और घाम से थक गयी तब वन के समीप बैठकर विलाप करने लगी ।।66।। हाय हाय! मैं बड़ी अभागिनी हूँ, अकारण वैर रखनेवाले दु:खदायी विधाता ने मुझे यों ही नष्ट कर डाला। बड़े दुःख की बात है, मैं किसकी शरण गहूँ ।।67।। दौर्भाग्यरूपी सागर को पार करने के बाद मेरा नाथ किसी तरह प्रसन्नता को प्राप्त हुआ सो दुष्कर्म से प्रेरित हो अन्यत्र चला गया ।।68।। जिन्हें सास आदि दुःख पहुँचाती हैं ऐसी स्त्रियाँ जाकर पिता के घर रहने लगती हैं पर मेरे दुर्भाग्य ने पिता के घर रहना भी छुड़ा दिया ।।69।। माता ने भी मेरी कुछ भी रक्षा नहीं की सो ठीक ही है क्योंकि कुलवती स्त्रियां अपने भर्तार के अभिप्रायानुसार ही चलती हैं ।।70।। हे नाथ! तुमने कहा था कि तुम्हारा गर्भ प्रकट नहीं हो पायेगा और मैं आ जाऊंगा सो वह वचन याद क्यों नहीं रखा? तुम तो बड़े दयालु थे ।।71।। हे सास! बिना परीक्षा किये ही क्या मेरा त्याग करना तुम्हें उचित था? जिनके शील में संशय होता है उनकी परीक्षा करने के भी तो बहुत उपाय हैं ।।72।। हे पिता! आपने मुझे बाल्यकाल में गोद में खिलाया है और सदा बड़े लाड़-प्यार से रखा है फिर परीक्षा किये बिना ही मेरा परित्याग करने की बुद्धि आपकी कैसे हो गयी? ।।73।। हाय माता! इस समय तेरे मुख से एक बार भी उत्तम वचन क्यों नहीं निकला? तूने वह अनुपम प्रीति इस समय क्यों छोड़ दी? ।।74।। हे भाई! मैं तेरी एक ही माता के उदर में वास करने वाली अत्यंत दुःखिनी बहन हूँ सो मेरी रक्षा करने के लिए तेरी कुछ भी चेष्टा क्यों नहीं हुई? तू बड़ा निष्ठुर हृदय है ।।75।। जब बंधुजनों में प्रधानता रखने वाले तुम लोगों की यह दशा है तब जो बेचारे दूर के बंधु हैं वे तो कर ही क्या सकते हैं? ।।76।। अथवा इसमें तुम सबका क्या दोष है? पुण्यरूपी ऋतु के समाप्त होने पर अब मेरा यह पापरूपी वृक्ष फलीभूत हुआ है सो विवश होकर मुझे इसकी सेवा करनी ही है ।।77।।
अंजना का विलाप सुनकर जिसके हृदय का धैर्य दूर हो गया था ऐसी सखी वसंतमाला भी प्रतिध्वनि के समान विलाप कर रही थी ।।78।। यह अंजना बड़ी दीनता के साथ इतने जोर जोर से विलाप कर रही थी कि उसे सुनकर वन की हरिणियों ने भी आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें छोड़ी थीं ।।79।। तदनंतर चिरकाल तक रोने से जिसके नेत्र लाल हो गये थे ऐसी अंजना का दोनों भुजाओं से आलिंगन कर बुद्धिमती सखी ने कहा कि हे स्वामिनी! रोना व्यर्थ है। पूर्वोपार्जित कर्म उदय में आया है सो उसे आँख बंद कर सहन करना ही योग्य है ।।80-81।। हे देवि! समस्त प्राणियों के पीछे, आगे तथा बगल में कर्म विद्यमान हैं इसलिए यहाँ शोक का अवसर ही क्या है? ।।82।। जिनके शरीर पर सैकड़ों अप्सराओं के नेत्र विलीन रहते हैं ऐसे देव भी पुष्य का अंत होने पर परम दुःख प्राप्त करते हैं ।।83।। लोग अन्यथा सोचते हैं और अन्यथा ही फल प्राप्त करते हैं। यथार्थ में लोगों के कार्य पर दृष्टि रखने वाला विधाता ही परम गुरु है ।।84।। कभी तो यह विधाता प्राप्त हुई हितकारी वस्तु को क्षण भर में नष्ट कर देता है और कभी ऐसी वस्तु लाकर सामने रख देता है जिसकी मन में कल्पना ही नहीं थी ।।85।।
कर्मों की दशाएँ बड़ी विचित्र हैं। उनका पूर्ण निश्चय कौन कर पाया है? इसलिए तुम दुःखी होकर गर्भ को पीड़ा मत पहुँचाओ ।।86।। हे देवि! दाँतों से दांतों को दबाकर और मन को पत्थर के समान बनाकर जिसका छूटना अशक्य है ऐसा सोपार्जित कर्म का फल सहन करो ।।87।। वास्तव में आप स्वयं विशुद्ध हैं अत: आपके लिए मेरा शिक्षा देना निंदा के समान जान पड़ता है। तुम्हीं कहो कि आप क्या नहीं जानती हैं? ।।88।। इतना कहकर सांतवना देने में तत्पर रहने वाली सखी ने अपने काँपते हुए हाथों से उसके लाल-लाल नेत्र पोंछ दिये ।।89।। फिर कहा कि हेव देवि! यह प्रदेश आश्रय से रहित है अर्थात् यहाँ ठहरने योग्य स्थान नहीं है इसलिए उठो इस पर्वत के पास चलें ।।90।। यहाँ किसी ऐसी गुफा में जिसमें दुष्ट जीव नहीं पहुँच सकेंगे, गर्भ के कल्याण के लिए कुछ समय तक निवास करेंगी ।।91।।
तदनंतर सखी का उपदेश पाकर वह पैदल ही मार्ग चलने लगी। क्योंकि गर्भ के भार के कारण वह आकाश में चलने के लिए समर्थ नहीं थी ।।92।। वह पर्वत की समीपवर्तिनी महावन की भूमि में चलती-चलती मातंग मालिनी नाम की उस भूमि में पहुँची जो हिंसक जंतुओं से व्याप्त थी और उनके शब्दों से भय उत्पन्न कर रही थी। बड़े-बड़े वृक्षों ने जहाँ सूर्य की किरणों का समूह रोक लिया था, जो छोटी-छोटी पहाड़ियों से व्याप्त थी, डाभ की अनियों के कारण जहाँ चलना कठिन था, जो हाथियों की श्रेणियों से युक्त थी तथा शरीर की बात तो दूर रही मन से भी जहाँ पहुँचना कठिन था। अंजना बड़े कष्ट से एक-एक डग रखकर चल रही थी ।।93-95।। यद्यपि उसकी सखी आकाश में चलने में समर्थ थी तो भी वह प्रेम रूपी बंधन में बँधी होने से छाया के समान पैदल ही उसके साथ साथ चल रही थी ।।96।। उस भयानक सघन अटवी को देखकर अंजना का समस्त शरीर कांप उठा। वह अत्यंत भयभीत हो गयी ।।97।।
तदनंतर उसे व्यग्र देख सखी ने हाथ पकड़कर बड़े आदर से कहा कि स्वामिनी! डरो मत, इधर आओ ।।98।। अंजना सहारा पाने की इच्छा से सखी के कंधे पर हाथ रखकर चल रही थी पर उसका हाथ सखी के कंधे से बार-बार खिसककर नीचे आ जाता था। चलते चलते जब कभी डाभ की अनी पैर में चुभ जाती थी तब बेचारी आँख मींचकर खड़ी रह जाती थी ।।99।। वह जहाँ से पैर उठाती थी दुःख के भार से चीखती हुई वहीं फिर पैर रख देती थी। वह अपना शरीर बडी कठिनता से धारण कर रही थी ।।100।। वेग से बहते हुए झरनों को वह बड़ी कठिनाई से पार कर पाती थी। उसे निष्ठुर व्यवहार करने वाले अपने समस्त आत्मीय जनों बार-बार स्मरण हो आता था ।।101।। वह कभी अपनी निंदा करती थी तो कभी भाग्य को बार-बार दोष देती थी। लताएँ उसके शरीर में लिपट जाती थीं सो ऐसा जान पड़ता था कि दया से वशीभूत होकर मानो उसका आलिंगन ही करने लगती थीं ।।102।। उसके नेत्र भयभीत हरिणी के समान चंचल थे, थकावट के कारण उसके शरीर में पसीना निकल आया था, काँटेदार वृक्षों में वस्त्र उलझ जाता था तो देर तक उसे ही सुलझाती खड़ी रहती थी ।।103।। उसके पैर रुधिर से लाल-लाल हो गये थे, सो ऐसे जान पड़ते थे मानो लाख का महावर ही उनमें लगाया गया हो। शोक रूपी अग्नि की दाह से उसका शरीर अत्यंत सांवला हो गया था ।।104।। पत्ता भी हिलता था तो वह भयभीत हो जाती थी, उसका शरीर काँपने लगता था, भय के कारण उसकी दोनों जाँघें अकड़ जाती थीं और खेद के कारण उनका उठाना कठिन हो जाता था ।।105।। अत्यंत प्रिय वचन बोलने वाली सखी उसे बार-बार बैठाकर विश्राम कराती थी। इस प्रकार दुःख से भरी अंजना धीरे-धीरे पहाड़ के समीप पहुँची ।।106।। वहाँ तक पहुँचने में वह इतनी अधिक थक गयी कि शरीर संभालना भी दूभर हो गया। उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे और वह बहुत भारी खेद के कारण सखी की बात अनसुनी कर बैठ गयी ।।107।। कहने लगी कि अब तो मैं एक डग भी चलने के लिए समर्थ नहीं हूँ अत: यहीं ठहरी जाती हूँ। यदि यहाँ मरण भी हो जाय तो अच्छा है ।।108।।
तदनंतर प्रेम से भरी चतुर सखी हृदय को प्रिय लगने वाले वचनों से उसे सांतवना देकर तथा कुछ देर विश्राम कराकर प्रमाणपूर्वक इस प्रकार बोली ।।109।। हे देवि! देखो-देखो यह पास ही उत्तम गुफा दिखाई दे रही है। प्रसन्न होओ, उठो, हम दोनों उस गुफा में सुख से ठहरेगी ।।110।। यहाँ क्रूर चेष्टाओं को धारण करने वाले अनेक जीव विचर रहे हैं और तुम्हें गर्भ की भी रक्षा करनी है। इसलिए हे स्वामिनी! गलती न करो ।।111।। ऐसा कहने पर संताप से भरी अंजना सखी के अनुरोध से तथा वन के भय से पुन: चलने के लिए उठी ।।112।। उस समय ये दोनों स्त्रियाँ वन में कष्ट तो उठाती रहीं पर पवनंजय के पास नहीं गयीं सो इसमें उनकी महानुभावता, आज्ञा का अभाव अथवा लज्जा ही कारण समझना चाहिए ।।113।। तदनंतर सखी वसंतमाला हाथ का सहारा देकर जिस किसी तरह उस ऊँची-नीची भूमि को पार कराकर बड़े कष्ट से अंजना को गुफा के द्वार तक ले गयी ।।114।। ऊँचे-नीचे पत्थरों में चलने के कारण वे दोनों ही बहुत थक गयी थीं और साथ ही उस गुफा में सहसा प्रवेश करने के लिए डर भी रही थीं इसलिए क्षणभर के लिए बाहर ही बैठ गयीं ।।1 15।। बहुत देर तक विश्राम करने के बाद उन्होंने अपनी मंदगामिनी दृष्टि गुफा पर डाली। उनकी वह दृष्टि मुरझाये हुए, लाल, नीले और सफेद कमलों की माला के समान जान पड़ती थी ।।116।।
तदनंतर उन्होंने शुद्ध सम और निर्मल शिला तल पर पर्यंकासन से विराजमान चारण ऋद्धि के धारक मुनिराज को देखा ।।117।। उन मुनिराज का श्वासोच्छवास निश्चल अथवा नियमित था। उन्होंने अपने नेत्र नासिका के अग्रभाग पर लगा रखे थे, उनकी शरीर यष्टि शिथिल होने पर भी सीधी थी और वे स्वयं स्थाणु अर्थात् ठूंठ के समान हलन चलन से रहित थे ।।118।। उन्होंने अपनी गोद में स्थित वाम हाथ की हथेली पर दाहिना हाथ उत्तान रूप से रख छोड़ा था, वे स्वयं निश्चल थे और उनका मन समुद्र के समान गंभीर था ।।119।। वे जिनागम के अनुसार वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, वायु के समान सर्व परिग्रह से रहित थे और आकाश के समान निर्मल थे ।।120।। उन्हें देखकर किसी पर्वत के शिखर की आशंका उत्पन्न होती थी। वे महान् धैर्य के धारक थे तथा उनका शरीर सौम्य होने पर भी देदीप्यमान था। बहुत देर तक देखने के बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह उत्तम मुनिराज हैं ।।121।।
तदनंतर जिन्होंने पहले अनेक बार मुनियों की सेवा की थी ऐसी वे दोनों स्त्रियां हर्ष से मुनिराज के समीप गयीं और क्षण भर में अपना सब दुःख भूल गयीं ।।122।। उन्होंने भावपूर्वक तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, हाथ जोड़कर नमस्कार किया और परम बंधु के समान मुनिराज को पाकर उनके नेत्र खिल उठे ।।123।। जिस समय ये पहुँची उसी समय मुनिराज ने स्वेच्छा से ध्यान समाप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीवों की क्रिया अवसर के अनुसार ही होती है ।।124।। तत्पश्चात् जिनके दोनों हाथ जुड़े हुए थे और जिन्होंने अपने अश्रु रहित निश्चल नेत्र मुनिराज के चरणों में लगा रखे थे ऐसी दोनों सखियों ने कहा कि हे भगवन्! हे कुशल अभिप्राय के धारक! हे उत्तम चेष्टाओं से संपन्न! आपके शरीर में कुशलता तो है? क्योंकि समस्त साधनों का मूल कारण यह शरीर ही है ।।125-126।। हे गुणों के सागर! आपका तप उत्तरोत्तर बढ़ तो रहा है? इसी प्रकार हे इंद्रियविजय के धारक! आपका विहार उपसर्गरहित तथा महा क्षमा से युक्त तो है? ।।127।। हे प्रभो! हम आप से जो इस तरह कुशल पूछ रही हैं सो ऐसी पद्धति है यही ध्यान रखकर पूछ रही हैं अन्यथा आप जैसे मनुष्य किस कुशल के योग्य नहीं हैं? अर्थात् आप समस्त कुशलता के भंडार हैं ।।128।। आप जैसे पुरुषों की शरण में पहुँचे हुए लोग कुशलता से युक्त हो जाते हैं; किंतु स्वयं अपने आपके विषय में अच्छे और बुरे पदार्थों की चर्चा ही क्या है? ।।129।। इस प्रकार कहकर वे दोनों चुप हो रहीं। उस समय उनके शरीर विनय से नम्रीभूत थे। मुनिराज ने जब उनकी ओर देखा तो वे सर्व प्रकार के भय से रहित हो गयीं ।।130।।
अथानंतर मुनिराज दाहिना हाथ ऊपर उठाकर अमृत के समान प्रशांत एवं गंभीर वाणी में इस प्रकार कहने लगे कि हे कल्याणि! कर्मो के प्रभाव से मेरा सर्वप्रकार कुशल है। हे बाले! निश्चय से यह सब अपने अपने कर्मों की चेष्टा है ।।131-132।। कर्मो की लीला देखो जो राजा महेंद्र की यह निरपराधी पुत्री भाइयों द्वारा निर्वासित पना को प्राप्त हुई अर्थात् घर से निकाली जाकर अत्यंत अनादर को प्राप्त हुई ।।133।। तदनंतर बिना कहे ही जिन्होंने सब वृत्तांत जान लिया था ऐसे महा मुनिराज को नमस्कार कर बड़े आदर से वसंतमाला बोली। उस समय वसंतमाला का मन कुतूहल से भर रहा था, वह स्वामिनी का भला करने में तत्पर थी और अपने नेत्रों की कांति से मानो मुनिराज के चरणों का अभिषेक कर रही थी ।।134-135।। उसने कहा कि हे नाथ! मैं कुछ प्रार्थना कर रही हूँ सो कृपा कर उसका उत्तर कहिए। क्योंकि आप जैसे पुरुषों की क्रियाएँ परोपकार बहुल ही होती हैं ।।136।। इस अंजना का भर्ता किस कारण से चिरकाल तक विरक्त रहा और अब किस कारण से अनुरक्त हुआ है? यह अंजना महावन में किस कारण से दुःख को प्राप्त हुई है? और मंद भाग्य का धारक कौन-सा जीव इसकी कुक्षि में आया है जिसने: कि सुख भोगने वाली इस बेचारी को प्राणों के संशय में डाल दिया है ।।137-138।।
तदनंतर मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों में निपुण अमित गति नामक मुनिराज अंजना का यथावत् वृत्तांत कहने लगे। सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमानों को यह वृत्ति है ।।139।। उन्होंने कहा कि हे बेटी! सुन, इस अंजना ने अपने पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से जिस कारण यह ऐसा दुःख पाया है उसे मैं कहता हूँ ।।140।। इसी जंबूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र के मंदर नामक नगर में एक प्रियनंदी नाम का सद गृहस्थ रहता था ।।141।। उसकी स्त्री का नाम जाया था। उस स्त्री से प्रियनंदी के दमयंत नाम का ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ था जो महा सौभाग्य से संपन्न तथा कल्याणकारी गुणरूपी आभूषणों से विभूषित था ।।142।। तदनंतर वसंत ऋतु आने पर नगर में बड़ा भारी उत्सव हुआ सो नगरवासी लोगों से व्याप्त नंदनवन के समान सुंदर उद्यान में दमयंत भी अपने मित्रों के साथ सुख पूर्वक क्रीड़ा कर रहा था। उस समय उसका शरीर सुगंधित चूर्ण से सफेद था तथा कुंडल आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।143-144।।
तदनंतर वहाँ ठहरकर क्रीड़ा करते हुए दमयंत ने समीप में ही विद्यमान ध्यान, स्वाध्याय आदि क्रियाओं में तत्पर दिगंबर मुनिराज देखे ।।145।। उन्हें देखते ही जिस प्रकार सूर्य से देदीप्यमान किरण निकलती है उसी प्रकार अपनी गोष्ठी से निकलकर अतिशय देदीप्यमान दमयंत मुनिसमूह के पास पहुँचा। वह मुनियों का समूह मेरु के शिखरों के समूह के समान निश्चल था ।।146।। तदनंतर दमयंत ने मुनिराज की वंदना कर उनसे विधिपूर्वक धर्म का उपदेश सुना और सम्यग्दर्शन से संपन्न होकर नियम आदि धारण किये ।।147।।
किसी एक समय उसने साधुओं के लिए सप्त गुणों से युक्त पारणा करायी और अंत में मरकर स्वर्ग में देवपर्याय पाया ।।148।। वहाँ वह पूर्वा चरित नियम और दान के प्रभाव से उत्तम भोग भोगने लगा। सैकड़ों देवियों के नेत्रों के समान कांति वाले नील कमलों की माला से वह वहाँ सदा अलंकृत रहता था ।।149।। वहाँ से च्युत होकर वह इसी जंबूद्वीप के मृगांक नामा नगर में राजा हरिचंद्र और प्रियंगुलक्ष्मी नामक रानी से सिंहचंद्र नाम का कला और गुणों में निपुण पुत्र हुआ। सिंहचंद्र यद्यपि एक था तो भी समस्त प्राणियों के हृदयों में विद्यमान था ।।150-151।। उस पर्याय में भी उसने साधुओं से सद्बोध पाकर भोगों का त्याग कर दिया था जिससे आयु के अंत में मरकर स्वर्ग गया ।।152।। वहाँ वह देवियों के मुखरूपी कमल वन को विकसित करने के लिए सूर्य के समान था और संकल्प मात्र से प्राप्त होने वाले उत्तम सुख का उपभोग करता था ।।153।। वही से च्युत होकर इसी भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर अरुण नामक नगर में राजा सुकंठ की कनकोदरी नामा रानी से सिंहवाहन नाम का पुत्र हुआ। इस सिंहवाहन ने गुणों के द्वारा समस्त लोगों का मन अपनी ओर आकर्षित कर लिया था ।।154-155।। अप्सराओं के विभ्रम को चुराने वाली स्त्रियों के आलिंगन से परमाह्लाद को प्राप्त हुआ सिंहवाहन वहाँ देवों के समान उदार भोगों का अनुभव करने लगा ।।156।।
किसी एक समय श्री विमलनाथ भगवान् के तीर्थ में उसे सद्बोध प्राप्त हुआ सो मेघवाहन नामक पुत्र के लिए राज्य लक्ष्मी सौंप संसार से विरक्त हो गया। तदनंतर जो बहुत भारी संवेग से युक्त था और संसार की असारता को जिसने अच्छी तरह समझ लिया था ऐसा सिंहवाहन लक्ष्मी तिलक नामक मुनि का शिष्य हो गया अर्थात् उनके पास उसने दीक्षा धारण कर ली ।।157-158।। जिनेंद्र भगवान के द्वारा कहे हुए उत्तम व्रत का अच्छी तरह पालन कर उसने अनित्य आदि भावनाओं के चिंतवन से अपनी आत्मा को प्रभावित किया ।।159।। शरीर का आदर छोड़कर उसने ऐसा कठिन तपश्चरण किया कि कायर मनुष्य जिसका विचार भी नहीं कर सकते थे। वह सदा रत्नत्रय के प्रभाव से उत्पन्न होनेवाली परमार्थता को धारण करता था ।।160।। नाना प्रकार की ऋद्धियाँ उत्पन्न होने से यद्यपि वह अनिष्ट पदार्थों का निवारण करने में समर्थ था तो भी शांत हृदय से उसने परीषह रूपी घोर शत्रुओं का कष्ट सहन किया था ।।161।। आयु का अंत आने पर वह निर्मल ध्यान में लीन हो गया और ज्योतिषी देवों का पटल भेदन कर अर्थात् उससे ऊपर जाकर लांतव स्वर्ग में उत्कृष्ट देव हुआ ।।162।। वहाँ वह उत्कृष्ट स्थिति का धारी हुआ और छदमस्थ जीवों के ज्ञान तथा वचन दोनों से परे रहने वाले इच्छानुकूल भोगों का उपभोग करने लगा ।।163।। परम अम्युदय से सहित तथा सुख का पात्र भूत, इसी देव का जीव लांतव स्वर्ग से च्युत होकर बाकी बचे पुण्य से प्रेरित होता हुआ इस अंजना के गर्भ में प्रविष्ट हुआ है ।।164।। इस प्रकार जो गर्भ तेरी स्वामिनी के शरीर में प्रविष्ट हुआ है उसका वर्णन किया। अब हे शुभ चेष्टा की धारक वसंतमाले! इसके विरह जन्य दुःख का कारण कहता हूँ सो सुन ।।165।। जब यह अंजना कनकोदरी के भव में थी तब इसकी लक्ष्मी नामक सौत थी। उसकी आत्मा सम्यग्दर्शन से पवित्र थी और वह सदा मुनियों की पूजा करने में तत्पर रहती थी ।।166।। उसने घर के एक भाग में देवाधिदेव जिनेंद्र देव की प्रतिमा स्थापित कराकर भक्तिपूर्वक मुख से स्तुतियाँ पढ़ती हुई उसकी पूजा की थी ।।167।। कनकोदरी महादेवी थी इसलिए उसने अभिमान वश सौत के प्रति बहुत ही क्रोध प्रकट किया। इतना ही नहीं जिनेंद्रदेव की प्रतिमा को घर के बाहरी भाग में फिकवा दिया ।।168।। इसी बीच में संयमश्री नामक आर्यिका ने भिक्षा के लिए इसके घर में प्रवेश किया। संयमश्री अपने तप के कारण समस्त संसार में प्रसिद्ध थीं ।।169।। तदनंतर जिनेंद्र देव की प्रतिमा का अनादर देख उन्हें बहुत दुःख हुआ। पारणा करने से उनका मन हट गया ।।170।। तथा इस अंजना का जीव जो कनकोदरी था उसे मिथ्यात्व ग्रस्त देख उन्हें परम करुणा उत्पन्न हुई सो ठीक ही है क्योंकि साधु वर्ग सभी प्राणियों का कल्याण चाहता है ।।171।। गुरुभक्ति से प्रेरित हुए साधु जन बिना पूछे भी अज्ञानी प्राणियों का हित करने के लिए धर्मोपदेश देने लगते हैं ।।172।।
तदनंतर शीलरूप आभूषण को धारण करने वाली संयमश्री आर्यिका अत्यंत मधुर वाणी में कनकोदरी से बोलीं कि हे भद्रे! मन को उदार कर सुन। तू परम कांति को धारण करने वाली है, राजा तेरा सम्मान करता है, तथा तेरा शरीर भोगों का आयतन है ।।173-174।। चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव सदा दु:खी रहता है। जब अशुभ कर्म का उदय शांत होता है तभी यह उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त होता है ।।175।। हे शोभने! तू पुण्योदय से मनुष्य योनि को प्राप्त हुई है अत: घृणित आचार करने वाली न हो। तू उत्तम क्रिया करने योग्य है अर्थात् अच्छे कार्य करना ही तुझे उचित है ।।176।। जो प्राणी मनुष्य पर्याय पाकर भी शुभ कार्य नहीं करता है उस मोही के हाथ में आया हुआ रत्न यों ही नष्ट हो जाता है ।।177।। मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति ही प्राणियों का हित करती है और अशुभ प्रवृत्ति अहित करती है ।।178।। इस संसार में निंदित आचार के धारक मनुष्यों की ही बहुलता है पर जो आत्महित का लक्ष्य कर शुभ कार्य में प्रवृत्त होते हैं वे उत्तम कहलाते हैं ।।179।। जो स्वयं कृतकृत्य होकर भी उपदेश देकर भव्य प्राणियों को संसाररूपी महासागर से तारते हैं, जो सर्वोत्कृष्ट हैं तथा धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं ऐसे अरहंत भगवान की प्रतिमा का जो तिरस्कार करते हैं उन मोही जीवों को अनेक भवों तक साथ जाने वाला जो दुःख प्राप्त होता है उसे पूर्ण रूप से कहने के लिए कौन समर्थ हो सकता है? ।।180-182।। अरहंत भगवान् तो माध्यस्थ्य भाव को प्राप्त हैं इसलिए यद्यपि इन्हें शरणागत जीवों में न प्रसन्नता होती है न अपकार करने वालों पर द्वेष ही होता है ।।183।। तो भी जीवों को उपकार और अपकार के निमित्त से होने वाले अपने शुभ-अशुभ परिणाम से सुख की उत्पत्ति होती है ।।184।।
जिस प्रकार यह जीव अग्नि की सेवा से अपना शीत जन्य दुःख दूर कर लेता है और भोजन तथा जल का सेवन कर भूख-प्यास की पीड़ा से छुट्टी पा जाता है यह स्वाभाविक बात है उसी प्रकार जिनेंद्र भगवान की पूजा करने से प्राणियों को सुख उत्पन्न होता है और उनका तिरस्कार करने से परम दुःख प्राप्त होता है यह भी स्वाभाविक बात है ।।185-186।। यह निश्चित जानो कि संसार में जो भी दुःख दिखाई देता है वह पाप से उत्पन्न हुआ है और जो भी सुख दृष्टिगोचर है वह पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म से उपलब्ध है ।।187।। तूने जो यह वैभव, राजा पति और आश्चर्य जनक कार्य करने वाला पुत्र पाया है सो पुण्य के द्वारा ही पाया है। तू प्राणियों में प्रशंसनीय है ।।188।। इसलिए ऐसा कार्य कर जिससे फिर भी तुझे सुख प्राप्त हो। हे भव्ये! तू मेरे कहने से सूर्य के रहते हुए गड्ढे में मत गिर ।।189।। इस पाप के कारण घोर वेदना से युक्त नरक में तेरा निवास हो और मैं तुझे संबोधित न करूँ यह मेरा बड़ा प्रमाद कहलायेगा ।।190।। आर्यिका के ऐसा कहने पर कनकोदरी नरकों में उत्पन्न होने वाले दुःख से भयभीत हो गयी। उसने उसी समय शुद्ध हृदय से उत्तम सम्यग्दर्शन धारण किया ।।191।। गृहस्थ का धर्म और शक्ति अनुसार तप भी उसने स्वीकृत किया। उसे ऐसा लगने लगा मानो धर्म का समागम होने से मैंने दूसरा ही जन्म पाया हो ।।192।। अर्हंत भगवान की प्रतिमा को उसने पूर्व स्थान पर विराजमान कराया और नाना प्रकार के सुगंधित फूलों से उसकी पूजा की ।।193।। कनकोदरी को धर्म में लगाकर अपने आपको कृतकृत्य मानती हुई संयमश्री आर्यिका हर्षित हो अपने योग्य स्थान पर चली गयीं ।।194।।
घर में अनुराग रखने वाली कनकोदरी भी पुण्योपार्जन कर आयु के अंत में स्वर्ग गयी और वहाँ उत्तमोत्तम भोग भोगकर वहाँ से च्युत हो महेंद्र नगर में राजा महेंद्र की मनोवेगा नामा रानी से यह अंजना नामक पुत्री हुई है ।।195-196।। इसने जन्मांतर में जो पुण्य किया था उसके अवशिष्ट अंश से यह यहाँ संपन्न एवं विशुद्ध कुल में उत्पन्न हुई है तथा उत्तम वर को प्राप्त हुई है ।।197।। इसने त्रिकाल में पूजनीय जिनेंद्र भगवान की प्रतिमा को कुछ समय तक घर से बाहर किया था उसी से इसे यह दुःख प्राप्त हुआ है ।।198।। विवाह के पूर्व जब इसके आगे मिश्रकेशी विद्युत्प्रभ के गुणों की प्रशंसा और पवनंजय की निंदा कर रही थी तब पवनंजय अपने मित्र के साथ रात्रि के समय झरोखे से छिपा खड़ा था सो यह सब सुनकर इससे रोष को प्राप्त हो गया और उस रोष के कारण ही उसने पहले इसे दुःख उपजाया है ।।199-200।। जब वह युद्ध के लिए गया तो अत्यंत मनोहर मानसरोवर पर ठहरा। वहाँ विरह से छटपटाती हुई चकवी को देखकर अंजना पर दयालु हो गया ।।201।। उसके हृदय में जो दया उत्पन्न हुई थी वह सखी के समान उसे शीघ्र ही समय पर इस सुंदरी के पास ले आयी और वह गर्भाधान करा कर पिता की आज्ञा पूर्ण करने के लिए चला गया ।।202
महा दयालु मुनिराज इतना कहकर वाणी से अमृत झराते हुए के समान अंजना से फिर कहने लगे कि हे बेटी! कर्म के प्रभाव से ही तूने यह दुःख पाया है इसलिए फिर कभी ऐसा निंद्य कार्य नहीं करना ।।203-204।। इस पृथ्वीतल पर जो जो सुख उत्पन्न होते हैं वे सब जिनेंद्र देव की भक्ति से ही उत्पन्न होते हैं ।।205।। इसलिए तू संसार से पार करने वाले जिनेंद्र देव की भक्त हो, शक्ति के अनुसार नियम ग्रहण कर और मुनियों की पूजा कर ।।206।। भाग्य से तू उस समय संयमश्री आर्या के द्वारा प्रदत्त बोधि को प्राप्त हुई थी। आर्या ने तुझे बोधि क्या दी थी मानो अधोगति में जाती हुई तुझे हाथ का सहारा देकर ऊपर खींच लिया था ।।207।। यह महा भाग्यशाली गर्भ तेरे उदर में आया है सो आगे चल कर अनेक उत्तमोत्तम कल्याणों का पात्र होगा ।।208।। हे शोभने! तू इस पुत्र से परम विभूति को प्राप्त होगी। सब देव मिलकर भी इसका पराक्रम खंडित नहीं कर सकेंगे ।।209।। थोड़े ही दिनों में तुम्हारा पति के साथ समागम होगा। इसलिए हे शुभे! चित्त की सुखी रखो और प्रमाद रहित होओ ।।210।। मुनिराज के ऐसा कहने पर जो अत्यंत हर्षित हो रही थीं तथा जिनके नेत्र कमल खिल रहे थे ऐसी दोनों सखियों ने मुनिराज को बार-बार प्रणाम किया ।।211।।
तदनंतर निर्मल हृदय के धारक मुनिराज उन दोनों के लिए आशीर्वाद देकर आकाश मार्ग से संयम के योग्य स्थान पर चले गये ।।212।। वे उत्तम मुनिराज उस गुहा में पर्यंकासन से विराजमान थे। इसलिए आगे चल कर वह गुहा पृथिवी में पर्यंक गुहा इस नाम को प्राप्त हो गयी ।।213।। इस प्रकार राजा महेंद्र की पुत्री अंजना अपने भवांतर सुन आश्चर्य से चकित हो गई। उसने पूर्व भव में जो निंद्य कार्य किया था उसकी वह बार-बार निंदा करती रहती थी ।।214।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! मुनिराज के संगम से जो अत्यंत पवित्र हो चुकी थी ऐसी उस गुफा में अंजना प्रसव काल की प्रतीक्षा करती हुई रहने लगी ।।215।। विद्याबल से समृद्ध वसंतमाला उसकी इच्छानुसार आहार पान की विधि मिलाती रहती थी ।।216।।
अथानंतर सूर्य अस्ताचल के सेवन की इच्छा करने लगा अर्थात् अस्त होने के सम्मुख हुआ। सो ऐसा जान पड़ता था मानो अत्यधिक करुणा के कारण भर्तार से वियुक्त अंजना को देखने के लिए असमर्थ हो गया हो ।।217।। सूर्य की किरणें भी चित्रलिखित सूर्य की किरणों के समान मंद पने को प्राप्त हो गयी थीं सो ऐसा जान पड़ता था मानो अंजना का दुःख देखकर ही मंद पड़ गयी हों ।।218।। पर्वत और वृक्षों के अग्रभाग पर स्थित किरणों के समूह को समेटता हुआ सूर्य का बिंब सहसा पतन को प्राप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो अंजना के शोक के कारण ही पतन को प्राप्त हुआ हो ।।219।। तदनंतर आगे आने वाले सिंह की कुपित दृष्टि के समान लाल वर्ण की संध्या से समस्त आकाश क्षण भर में व्याप्त हो गया ।।220।। तत्पश्चात् भावी उपसर्ग से प्रेरित होकर ही मानो शीघ्रता करने वाली अंधकार की रेखा उत्पन्न हो गयी। वह अंधकार की रेखा ऐसी जान पड़ती थी मानो पाताल से वेताली ही निकल रही हो ।।221।। उस वन में पक्षी पहले तो कोलाहल कर रहे थे पर उन्होंने जब अंधकार की रेखा देखी तो मानो उसके भय से ही निशब्द होकर वृक्षों के अग्रभाग पर बैठ रहे ।।222।। महा वज्रपात के समान भयंकर शृंगालो के शब्द होने लगे सो ऐसा जान पड़ता था मानो आने वाले उपसर्ग ने अपने नगाड़े ही बजाना शुरू कर दिया हो ।।223।।
अथानंतर वहाँ क्षण भर में एक ऐसा विकराल सिंह प्रकट हुआ जो हाथियों के रुधिर से लाल-लाल दिखने वाले जटाओं के समूह को बार बार हिला रहा था, मृत्यु के द्वारा भेजे हुए पत्र पर पड़ी अंगुली की रेखा के समान कुटिल भौंह को धारण कर रहा था। बीच बीच में प्रतिध्वनि से युक्त वेगशाली भयंकर शब्द छोड़ रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त आकाश के खंड खंड ही कर रहा हो। जो प्रलय कालीन अग्नि की ज्वाला के समान चंचल एवं अनेक प्राणियों का क्षय करने में निपुण जिह्वा को मुखरूपी महागर्त में बार-बार चला रहा था। जो जीव को खींचने वाली कुशा के समान तीक्ष्ण, नुकीली, सघन, कुटिल, रौद्र और मृत्यु को भी भय उत्पन्न करने वाली डाढ़ को धारण कर रहा था। जो उदित होते हुए प्रलय कालीन सूर्य बिंब के समान लाल वर्ण एवं दिशाओं को व्याप्त करने वाले भयंकर नेत्रों से युक्त था। जिसकी पूछ का अग्रभाग मस्तक पर रखा हुआ था, जो अपने नखाग्र से पृथ्वी को खोद रहा था, जिसका वक्षःस्थल कैलास के तट के समान चौड़ा था, जो स्थूल नितंब मंडल को धारण कर रहा था और जिसे सब प्राणी ऐसी आशंका करते हुए देखते थे कि क्या यह साक्षात् मृत्यु है? अथवा दैत्य है अथवा कृतांत है, अथवा प्रेत राज है, अथवा कलिकाल है अथवा प्रलग्र है अथवा अंतक (यमराज) का भी अंत करनेवाला है अथवा सूर्य है अथवा अग्नि है? ।।224-231।। उसकी गर्जना की प्रतिध्वनि से जिनकी बड़ी-बड़ी गुफाएँ भर गयी थीं ऐसे पर्वत, ऐसे जान पड़ते थे मानो भयभीत हो अत्यंत गंभीर रुदन ही कर रहे हों ।।232।। उसके मुद्गर के समान भयंकर वेगशाली शब्द से कानों में ताड़ित हुए प्राणी नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगते थे ।।233।। जो सामने डटे हुए दुर्गम पहाड़ पर अपने दोनों नेत्र लगाये हुए था तथा अत्यंत अहंकार से युक्त था ऐसे उस सिंह ने अंगड़ाई लेते हुए बहुत ही कोप प्रकट किया ।।234।। जिसके शरीर में तृण पुष्प के समान रोमांच निकल रहे थे तथा जिसके नेत्र गुमची के समान लाल व पीले एवं चंचल थे ऐसे सिंह ने पर्वत की गुफा में प्रवेश किया ।।235।। उसे देख जिनके मुख से दूर्वा और कोमल पल्लवों के ग्रास नीचे गिर गये थे तथा भय से जिनका शरीर अकड़ गया था ऐसे हरिण ज्यों के त्यों खड़े रह गये ।।236।। जिनके पीले पीले नेत्र घूम रहे थे, कान खड़े हो गये थे, मन की गति बंद हो गयी थी और शरीर निश्चल हो गया था ऐसे हाथियों के मद के प्रवाह रुक गये ।।237।। हरिणी आदि पशु स्त्रियों के जो समूह थे वे भय से काँपते हुए बच्चों के घेरे के भीतर कर खड़े हो गये। उन सबके नेत्र अपने झुंड के मुखिया पर लगे हुए थे ।।238।।
जो सिंह की गर्जना से भयभीत हो रही थी तथा जिसका शरीर काँप रहा था ऐसी अंजना ने यदि उपसर्ग से जीती बचूँगी तो शरीर और आहार ग्रहण करूँगी अन्यथा नहीं इस आलंबन के साथ शरीर और आहार का त्याग कर दिया ।।239।। इसकी सखी वसंतमाला इसे उठाने में समर्थ नहीं थी इसलिए शीघ्रता से आकाश में उड़कर पक्षिणी की तरह व्याकुल होती हुई मंडलाकार भ्रमण कर रही थी- चक्कर लगा रही थी ।।240।। वह अंजना के प्रेम और गुणों से आकर्षित होकर बार-बार उसके पास आती थी पर तीव्र भय के कारण पुन: आकाश में ऊपर चली जाती थी ।।241।। अथानंतर जिनके हृदय विशीर्ण हो रहे थे ऐसी उन दोनों स्त्रियों को भयभीत देख उस गुफा में रहने वाला गंधर्व दया के आलिंगन को प्राप्त हुआ अर्थात् उसे दया उत्पन्न हुई ।।242।। उस गंधर्व की स्त्री का नाम रत्नचूला था। सो बहुत भारी दया से प्रेरित एवं शीघ्रता से भाषण करने वाली उस साध्वी रत्नचूला ने अपने पति मणिचूल नामा गंधर्व से कहा ।।243।। कि हे प्रिय! देखो-देखो, सिंह से भयभीत हुई एक स्त्री यहीं स्थित है और उससे संबंध रखने वाली दूसरी स्त्री आकाशांगण में चक्कर काट रही है ।।244।। हे नाथ! मेरे ऊपर प्रसाद करो और इस अत्यंत विह्वल स्त्री की रक्षा करो। यह कुलवती उत्तम नारी किसी कारण इस विषम स्थान में आ पडी है ।।245।। इस प्रकार कहने पर गंधर्व देव ने विक्रिया से अष्टापद का रूप बनाया। उसका वह रूप ऐसा जान पड़ता था मानो तीनों लोकों में जितने भयंकर पदार्थ हैं उन सबको इकट्ठा कर ही उसकी रचना की गयी हो ।।246।। अंजना और सिंह के बीच में सिर्फ तीन हाथ का अंतर रह गया था कि इतने में ही अपने शरीर से शिखरों के समूह को आच्छादित करनेवाला अष्टापद सिंह के सामने आकर खड़ा हो गया ।।247।। तदनंतर वहाँ सिंह और अष्टापद के बीच भयंकर युद्ध हुआ। उनका वह युद्ध भयंकर गर्जना से युक्त था और बिजली से प्रकाशित वर्षाकालीन मेघों के समूह की मानो हंसी ही उड़ा रहा था ।।248।। इस प्रकार वहाँ शूरवीर मनुष्यों को भी भय उत्पन्न करने वाला समय यद्यपि आया था तो भी अंजना निर्भय रहकर हृदय में जिनेंद्र देव का ध्यान करती रही ।।241।।
आकाश में मंडलाकार भ्रमण करती तथा महादुख से भरी वसंतमाला कुररी की तरह इस प्रकार विलाप कर रही थी ।।250।। हाय राजपुत्रि! तुम पहले दौर्भाग्य को प्राप्त रही फिर जिस किसी तरह कष्ट से दौर्भाग्य समाप्त हुआ तो समस्त बंधुजनों ने तुम्हारा त्याग कर दिया ।।251।। भयंकर वन में आकर किसी तरह इस गुफा में आयी और निकट काल में ही पति का समागम प्राप्त होगा यह कहकर मुनिराज ने आश्वासन दिया पर अब हे देवि! तुम सिंह के उस मुख में जा रही हो जो डाढ़ों से भयंकर है तथा उद्दंड हाथियों के क्षय का कारण है ।।252-253।। हाय देवि! दुष्ट विधाता के वश और मेरी दुर्बुद्धि के कारण तुम्हारा समय उत्तरोत्तर दुःख से ही व्यतीत हुआ ।।254।। हा नाथ पवनंजय! अपनी गृहिणी की रक्षा करो। हा महेंद्र! तुम इस पुत्री की रक्षा क्यों नहीं करते हो? ।।255।। हे दुष्टा केतुमति! तूने व्यर्थ ही इसके विषय में क्या अनर्थ किया? हे दयावती मनोवेगे! अपनी पुत्री की रक्षा क्यों नहीं कर रही हो? ।।256।। यह राजपुत्री निर्जन वन में मरण को प्राप्त हो रही है। हे वन देवताओं! कृपा कर इसकी रक्षा करो ।।257।। लोक के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले उन मुनि के शुभ सूचक वचन भी क्या अन्यथा हो जावेंगे? ।।258।। इस प्रकार रुदन करती तथा झूला पर चढ़ी हुई के समान विह्वल वसंतमाला जल्दी-जल्दी स्वामिनी के समीप गमन तथा आगमन कर रही थी अर्थात् साहस कर समीप आती थी फिर भय की तीव्रता से दूर हट जाती थी ।।259।।
अथानंतर अष्टापद की चपेट से आहत होकर सिंह नष्ट हो गया और कृतकृत्य होकर अष्टापद अपने स्थान में अंतर्हित हो गया ।।260।। तदनंतर स्वप्न के समान दोनों का युद्ध समाप्त हुआ देख पसीना से लथपथ वसंतमाला शीघ्र ही गुहा में आयी ।।261।। गुहा के भीतर पल्लव के समान कोमल हाथों से अंजना को खोजती हुई वसंतमाला कह रही थी कि कहाँ हो? कहाँ हो? उस समय भी उसका पूरा भय नष्ट नहीं हुआ था इसलिए आवाज गद्गद निकल रही थी ।।262।। वसंतमाला ने हाथ के स्पर्श से जाना कि यह बिलकुल निश्चल पड़ी हुई है। इसलिए उसका मन यह जीवित है या नहीं इस आशंका से व्याकुल हो उठा ।।263।। वह उसके वक्षःस्थल पर हाथ रखकर बार-बार उकसाती हुई कह रही थी कि हे देवि! देवि! जिंदा हो? ।।264।। तदनंतर वसंतमाला के हाथ के स्पर्श से जब अंजना को चेतना आयी और कुछ देर बाद उसने समझ लिया कि यह सखी है तब अस्पष्ट वाणी में उसने कहा कि मैं हूँ ।।265।। तत्पश्चात् वे दोनों सखियां परस्पर मिलकर अनिर्वचनीय सुख को प्राप्त हुई और अवसर के अनुसार वार्तालाप करने में उद्यत हो ऐसा समझने लगीं मानो हम लोगों का दूसरा ही जन्म हुआ ।।266।। भय, शेष रहने से उन भोलीभाली स्त्रियों ने उस भयावनी रात्रि को वर्ष के बराबर भारी समझा। वे सारी रात जागकर समस्त बंधुजनों की निष्ठुरता की चर्चा करती रहीं ।।267।।
तदनंतर जिस प्रकार गरुड़ सांप को नष्ट कर देता है उसी प्रकार गंधर्व सिंह को नष्ट कर बड़ा हर्षित हुआ और हर्षित होकर उसने महा गुणकारी मद्य का पान किया ।।68।। जिसके नेत्र चंचल हो रहे थे ऐसी गंधर्व की विदुषी स्त्री ने उसकी जाँघ पर अपनी भुजा रख गंधर्व से कहा कि ।।269।। हे नाथ! मुझे अवसर दीजिए मैं इस समय कुछ गाना चाहती हूँ क्योंकि मद्यपान के अनंतर उत्तम गाना गाना चाहिए ऐसा उपदेश है ।।270।। साथ ही हम दोनों का मधुर दिव्य एवं हृदयहारी संगीत सुनकर ये दोनों स्त्रियाँ अवशिष्ट भय को भी छोड़ देंगी ।।271।। तदनंतर जब अर्धरात्रि हो गयी और किसी दूसरे का शब्द भी सुनाई नहीं पड़ने लगा तब गंधर्व ने कानों को हरने वाली वीणा ठीक कर बजाना शुरू किया ।।272।। और उसकी स्त्री रत्नचूला पति के मुख पर नेत्र धारण कर मंजीरा बजाती हुई धीरे-धीरे गाने लगी। उसका वह गाना मुनियों को भी क्षोभ उत्पन्न करने का कारण था ।।273।। उस समय उन दोनों के बीच घन, वाद्य, सुषिर और तत इन चारों प्रकार के बाजों का प्रयोग चल रहा था और परिजन के अन्य लोग गंभीर हाथों से क्रमानुसार योग्य ताल दे रहे थे ।।274।। तबला बजाने में निपुण देव एकचित्त होकर गंभीर ध्वनि के साथ तबला बजा रहे थे तो बाँसुरी बजाने में चतुर देव भौंह चलाते हुए अच्छी तरह बांसुरी बजा रहे थे ।।275।। उत्तम आभा को धारण करने वाला यक्ष प्रवाल के समान कांति वाली तथा सुंदर उपमा से युक्त वीणा को तमूरे से बजा रहा था। तो स्वरों की सूक्ष्मता को जानने वाला गंधर्व, क्रम को नहीं छोड़ता हुआ, मध्यम, ऋषभ, गांधार, षड्ज, पंचम, धैवत और निषाद इन सात स्वरों को निकाल रहा था ।।276-277।। गाते समय वह गंधर्व द्रुता, मध्या और विलंबिता इन तीन वृत्तियों का यथास्थान प्रयोग करता था और जिनसे नेत्र नाच उठते हैं, ऐसी इक्कीस मूर्च्छनाओं का भी यथावसर उपयोग करता था ।।278।। वह देवों के गवैया जो हा-हा, हू-हू हैं उनके समान अथवा उनसे भी अधिक उत्तम गान गा रहा था और प्राय:कर गंधर्व देवों में यही गान प्रसिद्ध को प्राप्त है ।।279।। वह उनचास ध्वनियों में गा रहा था तथा उसका वह समस्त गान जिनेंद्र भगवान के गुणो से संबंध रखनेवाले मनोहर अक्षरों से युक्त वचनावली से निर्मित था ।।280।। वह गा रहा था कि भक्ति से नम्रीभूत सुर-असुर पुष्प, अर्ध तथा नाना प्रकार की गंध से जिनकी उत्तम पूजा करते हैं ऐसे देवाधिदेव वंदनीय अरहंत भगवान को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।।281।। उसने यह भी गाया कि मैं श्री मुनिसुव्रत भगवान के उस चरण युगल को उत्कट भक्ति से नमस्कार करता हूँ जो त्रिभुवन की कुशल करनेवाला है, अत्यंत पवित्र है और इंद्र के मुकुट का संबंध पाकर जिसके नखरूपी मणियों से किरणें फूट पड़ती हैं ।।282।।
तदनंतर जिसका मन आश्चर्य से व्याप्त था ऐसी वसंतमाला ने उस अश्रुतपूर्व तथा अत्यंत सुंदर संगीत की बहुत प्रशंसा की ।।283।। वह कहने लगी कि वाह! वाह! यह मनोहर गान किसने गाया है? इस अमृतवर्षी गवैया ने तो मेरा हृदय मानो गीला ही कर दिया है ।।284।। उसने स्वामिनी से कहा कि हे देवि! यह कोई देव है जिसने सिंह भगाकर हम लोगों की रक्षा की है ।।285।। जिसके बीच में स्त्री का मधुर शब्द सुनाई देता था तथा जो संगीत के समस्त अंगों से सहित था ऐसा यह कर्णप्रिय गाना, जान पड़ता है इसने हम लोगों के लिए ही गाया है ।।286।। हे देवि! हे शोभने! उत्तम शील को धारण करने वाली! तू किसकी दया पात्र नहीं है? भव्य जीवों को महाअटवी मे भी मित्र मिल जाते हैं ।।287।। इस उपसर्ग के दूर होने से यह सुनिश्चित है कि तुम्हारा पति के साथ समागम होगा। अथवा क्या मुनि भी अन्यथा कहते हैं? ।।288।। इसलिए इस उत्तम देव का यथोचित आश्रय लेकर मुनिराज की पद्मासन से पवित्र इस गुफा में श्री मुनिसुव्रत भगवान की प्रतिमा विराजमान कर सुख प्राप्ति के लिए अत्यंत सुगंधित फूलों से उसकी पूजा करती हुई हम दोनों कुछ समय तक यहीं रहें। इस गर्भ की सुख से प्रसूति हो जाये चित्त में इसी बात का ध्यान रखें और विरह संबंधी सब दुःख भूल जावें ।।289-291।।
तुम्हारा समागम पाकर परम हर्ष को प्राप्त हुआ। यह पर्वत झरनों के जल कणों के बहाने मानो हँस ही रहा है ।।292।। जिनके अग्रभाग फलों के भार से झक रहे हैं, जिनके कोमल पल्लव लहलहा रहे हैं और जो पुष्पों के बहाने हंसी प्रकट कर रहे ऐसे ये वृक्ष तुम्हारे समागम से ही मानो परम संतोष को प्राप्त हो रहे हैं ।।293।। इस पर्वत के जंगली मैदान मोर, मैना, तोता तथा कोयल आदि की मधुर ध्वनि से ऐसे जान पड़ते हैं मानो वार्तालाप ही कर रहे हों ।।294।। जिन में गेरू आदि नाना धातुओं की कांति छायी हुई है, जिन पर वृक्षों के समूह वस्त्र के समान आवरण किये हुए हैं और जो फूलों की सुगंधि से सुवासित हैं ऐसी इस पर्वत की गुफाएँ स्त्रियों के समान सुशोभित हो रही हैं ।।295।। तालाबों में जिनेंद्र देव की पूजा करने के योग्य जो कमल फूल रहे हैं वे तुम्हारे मुख की समानता धारण करते हैं ।।296।। हे स्वामिनि! यहाँ धैर्य धारण करो, चिंता की वशीभूत मत होओ। यहाँ देवता तुम्हारा सब प्रकार का कल्याण करेंगे ।।297।। अब दिन के प्रारंभ में पक्षी चहक रहे हैं सो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे शरीर की स्वस्थता जानकर हर्ष से मानो कोलाहल ही कर रहे हैं ।।298।। ये वृक्ष पत्तों के अग्रभाग में स्थित तथा मंद-मंद वायु से प्रेरित शीतल ओस के कणों को छोड़ रहे हैं सो ऐसे जान पड़ते हैं मानो हर्ष के आँसू ही छोड़ रहे हों ।।299।। तुम्हारा वृत्तांत जानने के लिए सर्वप्रथम दूती के समान रागवती (लालिमा से युक्त) संध्या को भेजकर अब पीछे से यह सूर्य स्वयं उदित हो रहा है ।।300।। वसंतमाला के ऐसा कहने पर अंजना ने उत्तर दिया कि हे सखि! मेरे समस्त बांधव तुम्हीं हो। तेरे रहते हुए मुझे यह वन नगर के समान है ।।31 ।। जो मनुष्य जिसके आपत्तिकाल, मध्यकाल और उत्सव काल अर्थात् सभी अवस्थाओं में सेवा करता है वही उसका बंधु है तथा जो दुःख देता है वह बंधु होकर भी शत्रु है ।।302।। इतना कहकर वे दोनों गुफा में देवाधिदेव मुनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान कर उसकी पूजा करती हुई रहने लगीं। विद्या के बल से उनके भोजन की व्यवस्था होती थी ।।303।। जिनेंद्र भगवान की भक्ति से प्रतिदिन संगीत करता हुआ गंधर्व देव भी करुणा भाव से इन दोनों स्त्रियों की सबसे रक्षा करता था ।।304।।
अथानंतर किसी दिन अंजना बोली कि हे सखि! मेरी खूब चंचल हो रही है और मैं व्याकुल सी हुई जा रही हूँ, यह क्या होगा? ।।305।। तब वसंतमाला ने कहा कि हे शोभने! अवश्य ही तेरे प्रसव का समय आ पहुँचा है इसलिए सुख से बैठ जाओ ।।306।। तदनंतर वसंतमाला ने कोमल पल्लवों से शय्या बनायी सो उस पर, जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्य को उत्पन्न करती है उसी प्रकार अंजना सुंदरी ने पुत्र उत्पन्न किया ।।307।। पुत्र उत्पन्न होते ही उसके शरीर संबंधी तेज से गुफा का समस्त अंधकार नष्ट हो गया और गुफा ऐसी हो गयी मानो सुवर्ण की ही बनी हो ।।308।। यद्यपि वह हर्ष का समय था तो भी अंजना दोनों कुलों का स्मरण कर दीनता को प्राप्त हो रही थी और इसीलिए वह पुत्र को गोद में ले रोने लगी ।।309।। वह विलाप करने लगी कि हे वत्स! मनुष्य के लिए भय उत्पन्न करने वाले इस सघन वन में मैं तेरा जन्मोत्सव कैसे करूं? ।।310।। यदि तू पिता अथवा नाना के घर उत्पन्न हुआ होता तो मनुष्यों को उन्मत्त बना देनेवाला महा आनंद मनाया जाता ।।311।। सुंदर नेत्रों से सुशोभित तेरे इस मुखचंद्र को देखकर संसार में किस सहृदय मनुष्य को आश्चर्य उत्पन्न नहीं होगा ।।312।। क्या करूं? मैं मंदभागिनी सब वस्तुओं से रहित हूँ। विधाता ने मुझे यह सर्व दुःख दायिनी अवस्था प्राप्त करायी है ।।313।। चूँकि संसार के प्राणी सब वस्तुओं से पहले दीर्घायुष्य की ही इच्छा रखते हैं इसलिए हे वत्स! मेरा आशीर्वाद है कि तू उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत जीवित रहे ।।314।। तत्काल प्राण हरण करने वाले ऐसे जंगल में पड़ी रहकर भी जो मैं जीवित हूँ यह तुम्हारे पुण्य कर्म का ही प्रभाव है ।।315।।
इस प्रकार वचन बोलती हुई अंजना से हितकारिणी सखी ने कहा कि हे देवि! चूँकि तुमने ऐसा पुत्र प्राप्त किया है इसलिए तुम कल्याणों से परिपूर्ण हो ।।316।। यह पुत्र उत्तम लक्षणों से युक्त दिखाई देता है। इसका यह शुभ सुंदर शरीर अत्यधिक संपदा को धारण कर रहा है ।।317।। जिन पर भ्रमर संगीत कर रहे हैं और जिनके कोमल पल्लव हिल रहे हैं ऐसी ये लताएँ तुम्हारे पुत्र के जन्मोत्सव से मानो नृत्य ही कर रही हैं ।।318।। उत्कट तेज को धारण करने वाले इस बालक के प्रभाव से सब कुछ ठीक होगा। तुम व्यर्थ ही खेद-खिन्न न हो ।।319।।
इस प्रकार उन दोनों सखियों में वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी क्षण आकाश में सूर्य के समान प्रभा वाला एक ऊँचा विमान प्रकट हुआ ।।320।। तदनंतर वसंतमाला ने वह विमान देखकर अंजना को दिखलाया सो अंजना आशंका से पुन: ऐसा विप्रलाप करने लगी कि ।।321।। क्या यह मेरा कोई अकारण वैरी है जो पुत्र को छीन ले जायेगा? अथवा कोई मेरा भाई ही आया है ।।322।। तदनंतर अंजना का उक्त विप्रलाप सुनकर वह विमान देर तक खड़ा रहा फिर कुछ देर बाद एक दयालु विद्याधर आकाशांगण से नीचे उतरा ।।323।। गुफा के द्वार पर विमान खड़ा कर वह विद्याधर भीतर घुसा। उसकी पत्नियां उसके साथ थीं और वह मन ही मन शंकित हो रहा था ।।324।। वसंतमाला ने उसका स्वागत किया। तदनंतर अपने सेवक के द्वारा दिये हुए सम आसन पर वह सहृदय विद्याधर बैठ गया ।।325।। तत्पश्चात् क्षणभर ठहरकर अपनी गंभीर वाणी से मेघ गर्जना की शंका करने वाले चातकों को उत्सुक करता हुआ बड़ी विनय से स्वागत करने वाली वसंतमाला से बोला। बोलते समय वह अपने दांतों की कांति से बालक की कांति को मिश्रित कर रहा था ।।326-327।। उसने कहा कि हे सुमर्यादे! बता यह किसकी लड़की है? किसकी शुभ पत्नी है और किस कारण इस महावन में आ पड़ी है? ।।328।। इसकी आकृति से निंदित आचार का मेल नहीं घटित होता। फिर यह समस्त बंधुजनों के साथ इस विरह को कैसे प्राप्त हो गयी? ।।325।। अथवा यह संसार है इसमें माध्यस्थ्यभाव से रहनेवाले लोगों के पूर्व कर्मों से प्रेरित अकारण वैरी हुआ ही करते हैं ।।330।।
तदनंतर दुःख के भार से अत्यधिक निकलते हुए वाष्पनों से जिसका कंठ रुक गया था ऐसी वसंतमाला पृथ्वी पर दृष्टि डालकर धीरे धीरे बोली ।।331।। कि हे महानुभाव! आपके वचन से ही आपके विशिष्ट शुभ हृदय का पता चलता है क्योंकि जो वृक्ष रोग का कारण होता है उसकी छाया स्निग्ध अथवा आनंद दायिनी नहीं होती है ।।332।। चूँकि आप जैसे गुणी मनुष्य अभिप्राय प्रकट करने के पात्र हैं अत: आपके लिए जिसे आप जानना चाहते हैं वह कहती हूँ, सुनिए ।।333।। यह नीति है कि सज्जन के लिए बताया हुआ दुःख नष्ट हो जाता है क्योंकि आपत्ति में पड़े हुए का उद्धार करना यह महापुरुषों की शैली है ।।334।। सुनिए, यह लोक व्यापी यश से युक्त, निर्मल हृदय के धारक राजा महेंद्र की पुत्री है, अंजना नाम से प्रसिद्ध है और जिसका चित्त गुणों का सागर है ऐसे राजा प्रह्लाद के पुत्र पवनवेग की प्राणों से अधिक प्यारी पत्नी है ।।335—336।। किसी एक समय वह आत्मीयजनों की अनजान में इसके गर्भ धारण कर पिता की आज्ञा से युद्ध के लिए चला गया। वह रावण का मित्र जो था ।।337।। यद्यपि यह अंजना निर्दोष थी तो भी स्वभाव की दुष्टता के कारण दया शून्य मूर्ख सास ने इसे पिता के घर भेज दिया ।।238।। परंतु अपकीर्ति के भय से पिता ने भी इसके लिए स्थान नहीं दिया सो ठीक ही है क्योंकि प्राय:कर सज्जन पुरुष मिथ्या दोष से भी डरते रहते हैं ।।339।। अंत में इस कुलवती बाला को जब सब सहारों ने छोड़ दिया तब यह निराश्रय हो मेरे साथ हरिणी के समान इस महावन में रहने लगी ।।340।। इस सुहृदया की मैं कुल परंपरा से चली आयी सेविका हूँ सो सदा प्रसन्न रहने वाली इसने मुझे अपना विश्वास पात्र बनाया है ।।341।। इसी अंजना ने आज नाना उप संज्ञा से भरे वन में पुत्र उत्पन्न किया है। मैं नहीं जानती कि यह साध्वी पतिव्रता सुख का आश्रय कैसे होगी ।।342।। आप सत्पुरुष हैं इसलिए उत्क्षेप से मैंने इसका यह वृत्तांत कहा है। इसने जो दुःख भोगा है उसे संपूर्ण रूप में कहने के लिए समर्थ नहीं हूँ ।।343।।
अथानंतर उस विद्याधर के हृदय से वाणी निकली सो ऐसी जान पड़ती थी मानो अंजना के संताप से पिघले हुए स्नेह से उसका हृदय पूर्णरूप से भर गया था अत: वाणी को भीतर ठहरने के लिए स्थान ही नहीं बचा हो ।।344।। उसने कहा कि हे पतिव्रते! तू मेरी भानजी है। चिरकाल के वियोग से प्राय: तेरा रूप बदल गया है इसलिए मैं पहचान नहीं सका हूँ ।।345।। मेरे पिता विचित्रभानु और माता सुंदरमालिनी हैं। मेरा नाम प्रतिसूर्य है और हनूरुह नामक द्वीप का रहनेवाला हूँ ।।346।। इतना कहकर जो जो घटनाएं कुमार काल में हुई थीं वे सब उसने रोते रोते अंजना से कहलायी ।।347।। तदनंतर जब पूर्व वृत्तांत कहने से अंजना ने मामा को पहचान लिया तब वह उसके गले में लगकर चिरकाल तक सिसक सिसक कर रोती रही ।।348।। अंजना का वह समस्त दुःख आँसुओं के साथ निकल गया सो ठीक ही है क्योंकि आत्मीयजनों के मिलने पर संसार की ऐसी ही स्थिति होती है ।।349।। इस तरह स्नेह के भार से जब दोनों रो रहे थे तब पास में बैठी वसंतमाला भी जोर से रो पड़ी ।।350।। उन सबके रोने पर विद्याधर की स्त्रियां भी करुणावश रोने लगीं। इन सबको रोते देख हरिणियाँ भी रोने लगीं ।।351।। उस समय गुफारूपी मुख से जोर की प्रलाप निकल रही थी इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो पर्वत भी झरनों के बहाने बड़े-बड़े आँसू ढालता हुआ रो रहा था ।।352।। और पक्षी भी दयावश आकुल होकर शब्द कर रहे थे इसलिए वह संपूर्ण बन उस समय शब्दमय हो गया था ।।353।।
तदनंतर प्रतिसूर्य विद्याधर ने सांतवना देने के बाद जल लाने वाले नौकर के द्वारा दिये हुए जल से अंजना का और अपना मुँह धोया ।।354।। पहले जिस क्रम से बन शब्दायमान हो गया था उसी क्रम से अब पुनः शब्द रहित हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो इन दोनों की वार्ता सुनने के लिए ही चुप हो रहा हो ।।355।। तदनंतर क्षणभर ठहरकर जब दोनों दु:खरूपी गर्त से बाहर निकले तब उन्होंने परस्पर कुशल वार्ता पूछी और अपने अपने कुल का हाल एक दूसरे को बताया ।।356।। इसके बाद अंजना ने प्रतिसूर्य की स्त्रियो के साथ क्रम से संभाषण किया सो ठीक ही है क्योंकि गुणीजन करने योग्य कार्य में कभी नहीं। चूकते हैं ।।357।। अंजना ने मामा से कहा कि हे पूज्य! मेरे पुत्र के समस्त ग्रह कैसी दशा में हैं सो बताइए ।।358।। ऐसा कहने पर मामा ने ज्योतिष विद्या में निपुण पाश वंग नामक ज्योतिषी से पुत्र के यथावस्थित जात कर्म को पूछा अर्थात् पुत्र की ग्रह स्थिति पूछी ।।359।। तब ज्योतिषी ने कहा कि इस कल्याणस्वरूप पुत्र का जन्म समय बताओ। ज्योतिषी के ऐसा पूछने पर अंजना ने समय बताया ।।360।। साथ ही प्रमाद को दूर करने वाली सखी वसंतमाला ने भी कहा कि आज रात्रि में जब अर्ध प्रहर बाकी था तब बालक उत्पन्न हुआ था ।।361।। तदनंतर मुहूर्त के जानने वाले ज्योतिषी ने कहा कि इसका शरीर जैसा शुभलक्षणों से युक्त है उससे जान पड़ता है कि बालक सब प्रकार की सिद्धियों का भाजन होगा ।।362।। फिर भी यदि संतोष नहीं है अथवा ऐसा ख्याल है कि यह क्रिया लौकिक है तो सुनो मैं संक्षेप से इसका जीवन कहता हूँ ।।363।। आज यह चैत्र के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि है, श्रवण नक्षत्र है, सूर्य दिन का स्वामी है ।।364।। सूर्य मेष का है सो उच्च स्थान में बैठा है और चंद्रमा मकर का है सो मध्य गृह में स्थित है ।।365।। मंगल वृष का है सो मध्य स्थान में बैठा है। बुध मीन का है सो भी मध्य स्थान में स्थित है और बृहस्पति कर्क का है सो भी अत्यंत उच्च स्थान में बैठा है ।।366।। शुक्र और शनि दोनों हो मीन के हैं तथा उच्च स्थान में आरूढ़ हैं। हे राजाधिराज! उस समय मीन का ही उदय था ।।367।। सूर्य पूर्ण दृष्टि से शनि को देखता है और मंगल सूर्य को अर्ध दृष्टि से देखता है ।।368।। बृहस्पति पौन दृष्टि से सूर्य को देखता है और सूर्य बृहस्पति को अर्ध दृष्टि से देखता है ।।369।। बृहस्पति चंद्रमा को पूर्ण दृष्टि से देखता है और चंद्रमा भी अर्ध दृष्टि से बृहस्पति को देखता है ।।370।। बृहस्पति शनि को पौन दृष्टि से देखता है और शनि बृहस्पति को अर्ध दृष्टि से देखता है ।।371।। बृहस्पति एक को पौन दृष्टि से देखता है और शुक्र भी बृहस्पति पर पौन दृष्टि डालता है ।।372।। अवशिष्ट ग्रहों की पारस्परिक अपेक्षा नहीं है। उस समय इसके ग्रहों के उदय क्षेत्र और काल का अत्यधिक बल है ।।373।। सूर्य, मंगल और बृहस्पति इसके राज्य योग को सूचित कर रहे हैं और शनि मुक्ति दायी योग को प्रकट कर रहा है ।।374।। यदि एक बृहस्पति ही उच्च स्थान में स्थित हो तो समस्त कल्याण की प्राप्ति का कारण होता है फिर इसके तो समस्त शुभ ग्रह उच्च स्थान में स्थित हैं ।।375।। उस समय बास नामक योग और शुभ नाम का मुहूर्त था सो ये दोनों ही बाह्यस्थान अर्थात् मोक्ष संबंधी सुख के समागम को सूचित करते हैं ।।376।। इस प्रकार इस पुत्र का यह ज्योतिश्चक्र सर्व वस्तु को सर्व दोषों से रहित सूचित करता है ।।377।। तदनंतर राजा ने हजार मुद्रा द्वारा ज्योतिषी का सम्मान कर हर्षित हो अंजना से कहा कि ।।378।। आओ बेटी! अब हम लोग हनुरुह नगर चलें। वहीं इस बालक का सब जन्मोत्सव होगा ।।379।। मामा के ऐसा करने पर अंजना पुत्र को गोद में लेकर जिनेंद्र देव की वंदना कर और गुहा के स्वामी गंधर्व देव से बार बार क्षमा कराकर आत्मीयजनों के साथ गुहा से बाहर निकली। विमान के पास खड़ी अंजना वन लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ।।380-381।।
तदनंतर जो वायु से प्रेरित क्षुद्र घंटिकाओं के समूह से शब्दायमान था, जो लटकते हुए अतिशय निर्मल मोतियों के उत्तम हारों से ऐसा जान पड़ता था मानो झरनों से सहित ही हो, जिसमें गोले फानूस लटक रहे थे, जो काच निर्मित केलों के वनों से सुशोभित था, जिसमें लगे हुए सुवर्ण के गोले सूर्य की किरणों का संपर्क पाकर चमक रहे थे, नाना रत्नों की किरणों के संगम से जिसमें इंद्रधनुष उठ रहा था, रंग-बिरंगी सैकड़ों पताकाओं से जो कल्पवृक्ष के समान जान पड़ता था, चित्र-विचित्र रत्नों से जिसकी रचना हुई थी, जो नाना प्रकार के रत्नों से खचित था, दिव्य था और ऐसा जान पड़ता था मानो सब ओर से स्वर्गलोक से घिरा हुआ ही हो ऐसे विमान को देखकर कौतुक से मुसकराता हुआ बालक उछलकर स्वयं प्रवेश करने की इच्छा करता मानो माता को गोद से छूटकर पर्वत की गुफा में जा पड़ा ।।382-386 तदनंतर माता अंजना के साथ साथ सब लोग हाहाकार कर उस बालक का समाचार जानने के लिए शीघ्र ही विह्वल होते हुए वहाँ गये ।।387।। अंजना ने दीनता से ऐसा विलाप किया कि जिसे सुनकर तिर्यंचों के भी मन करुणा से कोमल हो गये ।।388।। वह कह रही थी कि हाय पुत्र! यह क्या हुआ? रत्नों से परिपूर्ण खजाना दिखाकर फिर उसे हरते हुए विधाता ने यह क्या किया? ।।389।। पति के वियोग दुःख से ग्रसित जो मैं हूँ सो मेरे जीवन का अवलंबन एक तू ही था पर देव ने उसे भी छीन लिया ।।390।।
तदनंतर सब लोगों ने देखा कि पतन संबंधी वेग से हजार टुकड़े हो जाने के कारण जो महाशब्द कर रही थी ऐसी शिला पर बालक सुख से पड़ा है ।।391।। वह मुख के भीतर अंगूठा देकर खेल रहा है, मंद मुसकान से सुशोभित है, चित्त पड़ा है, हाथ पैर हिला रहा है, शुभ शरीर का धारक है, मंद-मंद वायु से हिलते हुए लाल तथा नीले कमल वन के समान उसकी कांति है और अपने तेज से पर्वत की समस्त गुफा को पीत वर्ण कर रहा है ।।392-393।। तदनंतर निर्दोष शरीर के धारक बालक को आश्चर्य से भरी माता ने उठाकर तथा शिर पर सूँघकर छाती से लगा लिया ।।394।। राजा सूर्य ने कहा कि अहो! यह बड़ा आश्चर्य है कि बालक ने वज्र की तरह शिलाओं का समूह चूर्ण कर दिया ।।395।। जब बालक होने पर भी इसकी यह देवातिशायिनी शक्ति है तब तरुण होने पर तो कहना ही क्या है? निश्चित ही इसका यह शरीर अंतिम शरीर है ।।396।। ऐसा जानकर उसने, हस्त कमल शिर से लगा तथा तीन प्रदक्षिणाएं देकर अपनी स्त्रियो के साथ बालक के उस चरम शरीर को नमस्कार किया ।।397।। प्रतिसूर्य की स्त्रियों ने अपने सफेद, काले तथा लाल नेत्रों की कांति से उसे हँसते हुए देखा सो ऐसा जान पड़ता था मानो उन्होंने सफेद, नीले और लाल कमलों की मालाओं से उसकी पूजा ही की हो ।।398।।
तदनंतर प्रतिसूर्य पुत्र सहित अंजना को विमान में बैठाकर ध्वजाओं और तोरणों से सुशोभित अपने नगर की ओर चला ।।399।। तत्पश्चात् नाना मंगल द्रव्यों को धारण करने वाले नगरवासी लोगों ने जिसकी अगवानी की थी ऐसे राजा प्रतिसूर्य ने नगर में प्रवेश किया। उस समय नगर का आकाश तुरही आदि वादित्रों के शब्द से व्याप्त हो रहा था ।।400।। जिस प्रकार इंद्र का जन्म होने पर स्वर्ग में देव लोग महान् उत्सव करते हैं उसी प्रकार हनूरुह नगर में विद्याधरों ने उस बालक का बहुत भारी जन्मोत्सव किया ।।401।। कि बालक ने शैल अर्थात् पर्वत में जन्म प्राप्त किया था और उसके बाद शैल अर्थात् शिलाओं के समूह को चूर्ण किया था इसलिए माता ने मामा के साथ मिलकर उसका श्रीशैल नाम रखा था ।।402।। चूँकि उस बालक ने हनूरुह नगर में जन्म संस्कार प्राप्त किये थे इसलिए वह पृथिवी तल पर हनूमान इस नाम से भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।।403।। जिसके शरीर की क्रियाएँ समस्त मनुष्यों के मन और नेत्रों को महोत्सव उत्पन्न करने वाली थीं तथा जिसकी आभा देवकुमार के समान थी ऐसा वह उत्तम कांति का धारी बालक उस नगर में क्रीड़ा करता था ।।404।।
गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! पूर्व जन्म में संचित पुण्य कर्म के बल से प्राणियों के लिए पर्वतों को चूर्ण करनेवाला वज्र भी फूल के समान कोमल हो जाता है। अग्नि भी चंद्रमा की किरणों के समान शीतल विशाल कमल वन हो जाती है और खड्ग रूपी लता भी सुंदर स्त्रियों की सुकोमल भुजलता बन जाती है ।।405।। ऐसा जानकर दुःख देने में निपुण जो पापकर्म है उससे विरत होओ और श्रेष्ठ सुख देने में चतुर जो जिनेंद्रदेव का चरित है उसमें लीन होओ। अहो! हजारों रोगरूपी किरणों से युक्त यह जन्मरूपी सूर्य समस्त संसार को निरंतर बड़ी दृढ़ता के साथ संतप्त कर रहा है ।।406।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मरित में हनुमान के जन्म का वर्णन करनेवाला सत्रह वाँ पर्व समाप्त हुआ ।।17।।