ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 100
From जैनकोष
सौवां पर्व
अथानंतर श्री गौतम स्वामी कहते हैं कि हे नरेश्वर ! इस प्रकार यह वृत्तांत तो रहा अब दूसरा लवणांकुश से संबंध रखने वाला वृत्तांत कहता हूँ सो सुन ॥1।। तदनंतर जनक नंदिनी के कृश शरीर ने धवलता धारण की, सो ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त प्रजाजनों के निर्मल पुण्य ने उसे ग्रहण किया था, इसलिए उसकी धवलता से ही उसने धवलता धारण की हो ॥2॥ स्तनों के सुंदर चूचुक संबंधी अग्रभाग श्यामवर्ण से युक्त हो गये, सो ऐसे जान पड़ते थे मानो पुत्र के पीने के लिए स्तनरूपी घट मुहर बंद करके ही रख दिये हों ॥3॥ उसकी स्नेहपूर्ण धवल दृष्टि उस प्रकार परम माधुर्य को धारण कर रही थी मानो दूध के लिए उसके मुख पर लंबी-चौड़ी दूध की नदी ही लाकर रख दी हो ॥4॥ उसकी शरीरयष्टि सब प्रकार के मंगलों के समूह से युक्त थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो अपरिमित एवं विशाल कल्याणों का गौरव प्रकट करने के लिए ही युक्त थी ॥5।। जब सीता मणिमयी निर्मल फर्श पर धीरे-धीरे पैर रखती थी तब उनका प्रतिबिंब नीचे पड़ता था, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवी प्रतिरूपी कमल के द्वारा उसकी पहले से ही सेवा कर रही हो ॥6।। प्रसूति काल में जिसकी आकांक्षा की जाती है ऐसी जो पुत्तलिका सीता की शय्या के समीप रखी गई थी उसका प्रतिबिंब सीता के कपोल में पड़ता था उससे वह पुत्तलिका लक्ष्मी के समान दिखाई देती थी ।।7। रात्रि के समय सीता महल की छत पर चली जाती थी, उस समय उसके वस्त्ररहित स्तनमंडल पर जो चंद्रबिंब का प्रतिबिंब पड़ता था वह ऐसा जान पड़ता था मानो गर्भ के ऊपर सफेद छत्र ही धारण किया गया हो ॥8॥ जिस समय वह निवास-गृह में सोती थी उस समय भी चंचल भुजाओं से युक्त एवं नाना प्रकार के चमर धारण करनेवाली स्त्रियाँ उस पर चमर ढोरती रहती थीं ।।9।। स्वप्न में अलंकारों से अलंकृत बड़े-बड़े हाथी, कमलिनी के पत्र पुट में रखे हुए जल के द्वारा उसका आदरपूर्वक अभिषेक करते थे ॥10॥ जब वह जागती थी तब बार-बार जय-जय शब्द होता था, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो महल के ऊर्द्ध भाग में सुशोभित पुत्तलियाँ ही जय-जय शब्द कर रही हों ।।11।।
जब वह परिवार के लोगों को बुलाती थी तब 'आज्ञा देओ' इस प्रकार के संभ्रम सहित शरीर रहित परम कोमल वचन अपने-आप उच्चरित होने लगते थे ।।12।। वह मनस्विनी क्रीड़ा में भी किये गये आज्ञा भंग को नहीं सहन करती थी तथा अत्यधिक शीघ्रता के साथ किये हुए कार्यों में भी विभ्रमपूर्वक भौहें घुमाती थी ॥13॥ यद्यपि समीप में इच्छानुकूल मणियों के दर्पण विद्यमान रहते थे तथापि उसे उभारी हुई तलवार के अग्रभाग में मुख देखने का व्यसन पड़ गया था ॥14॥ वीणा आदि को दूर कर स्त्रीजनों को नहीं रुचने वाली धनुष की टंकार का शब्द ही उसके कानों में सुख उत्पन्न करता था ।।15।। उसके नेत्र पिंजड़ों में बंद सिंहों के ऊपर परम प्रीति को प्राप्त होते थे और मस्तक तो बड़ी कठिनाई से नम्रीभूत होता मानो खड़ा ही हो गया हो ॥16।।
तदनंतर नवम महीना पूर्ण होने पर जब चंद्रमा श्रवण नक्षत्र पर था, तब श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन, उत्तम मंगलाचार से युक्त समस्त लक्षणों से परिपूर्ण एवं पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली सीता ने सुखपूर्वक सुखदायक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥17-18।। उन दोनों के उत्पन्न होने पर प्रजा नृत्यमयी के समान हो गई और शंखों के शब्दों के साथ भेरियों एवं नगाड़ों के शब्द होने लगे ।।19।। बहिन की प्रीति से राजा ने ऐसा महान उत्सव किया जो उन्मत्त मनुष्य लोक के समान था और सुंदर संपत्ति से सहित था।॥20॥ उनमें से एक ने अनंगलवण नाम को अलंकृत किया और दूसरे ने सार्थक भाव से मदनांकुश नाम को सुशोभित किया । ॥21॥
तदनंतर माता के हृदय को आनंद देने वाले, प्रवीर पुरुष के अंकुर स्वरूप वे दोनों बालक क्रम-क्रम से वृद्धि को प्राप्त होने लगे ॥22।। रक्षा के लिए उनके मस्तक पर जो सरसों के दाने डाले गये थे वे देदीप्यमान प्रतापरूपी अग्नि के तिलगों के समान सुशोभित हो रहे थे ।।23।। गोरोचना की पंक से पीला पीला दिखने वाला उनका शरीर ऐसा जान पड़ता था मानो अच्छी तरह से प्रकट होनेवाले स्वाभाविक तेज से ही घिरा हो ॥24॥ सुवर्णमाला में खचित व्याघ्र संबंधी नखों की बड़ी-बड़ी पंक्ति उनके हृदय पर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो दर्प के अंकुरों का समूह ही हो ॥25।। सब लोगों के मन को हरण करनेवाला जो उनका अव्यक्त प्रथम शब्द था वह उनके जन्म दिन की पवित्रता के सत्यंकार के समान जान पड़ता था अर्थात् उनका जन्म दिन पवित्र दिन है, यह सूचित कर रहा था ॥26॥ जिस प्रकार पुष्प भ्रमरों के समूह को आकर्षित करते हैं, उसी प्रकार उनकी भोली भाली मनोहर मुसकाने सब ओर से हृदयों को आकर्षित करती थीं ॥27॥ माता के क्षीर के सिंचन से उत्पन्न विलास हास्य के समान जो छोटे-छोटे दाँत थे उनसे उनका मुख रूपी कमल अत्यंत सुशोभित हो रहा था ॥28॥ धाय के हाथ की अँगुली पकड़ कर पाँच छह डग देने वाले उन दोनों बालकों ने किसका मन हरण नहीं किया था ॥29॥ इस प्रकार सुंदर क्रीड़ा करने वाले उन पुत्रों को देखकर माता सीता शोक के समस्त कारण भूल गई ॥30॥ इस तरह क्रम-क्रम से बढ़ते तथा स्वभाव से उदार विभ्रम को धारण करते हुए वे दोनों सुंदर बालक विद्या ग्रहण के योग्य शरीर की अवस्था को प्राप्त हुए ॥31॥
तदनंतर उनके पुण्य योग से सिद्धार्थ नामक एक प्रसिद्ध शुद्ध हृदय क्षुल्लक, राजा वज्रजंघ के घर आया ॥32॥ वह क्षुल्लक महाविद्याओं के द्वारा इतना पराक्रमी था कि तीनों संध्याओं में प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिन-प्रतिमाओं की वंदना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाता था ॥33॥ वह प्रशांत मुख था, धीर वीर था, केश लुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओं से युक्त था, वह वस्त्र मात्र परिग्रह का धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुण रूपी अलंकारों से अलंकृत था, जिन शासन के रहस्य को जानने वाला था, कलारूपी समुद्र का पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चंचल वस्त्र से ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मंद मंद चलने वाला गजराज ही हो, जो पीछी को प्रिय सखी के समान बगल में धारण कर अमृत के स्वाद के समान मनोहर 'धर्मवृद्धि' शब्द का उच्चारण कर रहा था, और घर घर में भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था, इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुंचा, जहाँ सीता बैठी थी ॥34-38॥
जिनशासन देवी के समान मनोहर भावना को धारण करनेवाली सीता ने ज्यों ही क्षुल्लक को देखा, त्योंही वह संभ्रम के साथ नौखंडा महल से उतर कर नीचे आ गई ॥36॥