ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 102
From जैनकोष
एक सौ दोवां पर्व
अथानंतर परम ऐश्वर्य को प्राप्त हुए वे दोनों पुरुषोत्तम बड़े-बड़े राजाओं को आज्ञा प्रदान करते हुए स्थित थे।।1।। उसी समय कृतांतवक्त्र सेनापति से सीता के छोड़ने का स्थान पूछकर उसकी खोज करने वाले दुखी नारद भ्रमण करते हुए वहाँ पहुँचे । सो दोनों ही वीर उनकी दृष्टि में पड़े। गृहस्थ मुनि अर्थात् क्षुल्लक का वेष धारण करने वाले उन नारदजी का दोनों ही कुमारों ने आसनादि देकर सम्मान किया ।।2-3॥ तदनंतर सुख से बैठे परम संतोष को धारण करते एवं स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखते हुए नारद ने उन कुमारों से कहा कि राजा राम लक्ष्मण की जैसी विभूति है सर्वथा वैसी ही विभूति शीघ्र ही आप दोनों की भी हो ॥4-5॥ इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि हे भगवन् ! वे राम लक्ष्मण कौन हैं ? कैसे उनके गुण और समाचार हैं तथा किस कुल में उत्पन्न हुए हैं ? ॥6॥
तदनंतर क्षणभर के लिए निश्चल शरीर बैठकर मुख को आश्चर्य से चकित करते एवं करपल्लव को हिलाते हुए नारद बोले ॥7॥ कि मनुष्य भुजाओं से मेरु को उठा सकता है और समुद्र को तैर सकता है परंतु इन दोनों के गुण कहने के लिए कोई समर्थ नहीं है ।।8। यह सबका सब संसार, अनंतकाल तक और अनंत जिह्वाओं के द्वारा भी उनके गुण कहने के लिए समर्थ नहीं है ॥9॥ आपने उनके गुणों का प्रश्न किया सो इनके उत्तर स्वरूप प्रतिकार से आकुल हुआ हमारा हृदय काँपने लगा है । आप कौतुक के साथ देखिये ॥10॥ फिर भी आप लोगों के कहने से स्थूलरूप में उनके कुछ पुण्यवर्धक गुण कहता हूँ सो सुनो ॥11॥
इक्ष्वाकुवंशरूपी आकाश के पूर्णचंद्रमा तथा दुराचाररूपी ईंधन के लिए अग्नि-स्वरूप एक दशरथ नाम के राजा थे ॥12॥ जो महातेजस्वरूप थे । उत्तर कोसल देश पर शासन करते थे तथा सूर्य के समान समस्त संसार में प्रकाश करते थे ॥13॥ जिस पुरुषरूपी पर्वतराज से निकली और समुद्र में गिरी हुई कीर्तिरूपी उज्ज्वल नदियाँ समस्त संसार को आनंदित करती हैं ॥14॥ राज्य का महाभार उठाने में जिनकी चेष्टाएँ समर्थ हैं तथा जो गुणों से संपन्न हैं ऐसे उनके सुनय के समान चार पुत्र हैं ॥15॥ उन सब पुत्रों में राम प्रथम पुत्र हैं जो सब ओर से सुंदर हैं तथा सर्व शास्त्रों के ज्ञाता होनेपर भी जो समस्त संसार में विभ्रम अर्थात शास्त्र से रहित (पक्ष में प्रसिद्ध) हैं ॥16॥ अपने छोटे भाई लक्ष्मण और स्त्री सीता के साथ जो कि राजा जनक की पुत्री थी तथा अत्यंत भक्त थी, पिता के सत्य की रक्षा कराते हुए अयोध्या को सूनी कर छद्मस्थ वेष में पृथिवी पर भ्रमण करने लगे तथा भ्रमण करते हुए दंडकवन में प्रविष्ट हुए ॥17-18।। वहाँ महाविद्याधरों के लिए भी अत्यंत दुर्गम स्थान में वे रहते थे और वहीं चंद्रनखा संबंधी स्त्री का वृत्तांत हुआ अर्थात् चंद्रनखा ने अपना त्रिया चरित्र दिखाया ॥19॥ उधर राम, छोटे भाई की वार्ता जानने के लिए युद्ध में गये उधर कपटवृत्ति रावण ने सीता का हरण कर लिया ।।20।। तदनंतर महेंद्र, किष्किंध, श्रीशैल और मलय के अधिपति तथा विराधित आदि प्रधान प्रधान वानरवंशी राजा जो कि महासाधन से संपन्न और विद्यारूप महापराक्रम के धारक थे, राम के गुणों के अनुराग से अथवा अपने पुण्योदय से इनके समीप आये और युद्ध में रावण को जीतकर सीता को वापिस ले आये । विद्याधरों ने अयोध्या को स्वर्गपुरी के समान कर दिया ।।21-23॥ परम ऐश्वर्य से सेवित, पुरुषों में उत्तम श्रीराम लक्ष्मण वहाँ नागेंद्रों के समान एक दूसरे के सम्मुख आनंद से समय बिताते थे ॥24॥ अथवा अभी तक आप दोनों को उन राम का ज्ञान क्यों नहीं हुआ जिनका कि वह लक्ष्मण अनुज हैं, जिनके पास कभी व्यर्थ नहीं जाने वाला सुदर्शन चक्र विराजमान है ॥25॥ इसके सिवाय जिसके पास ऐसे और भी रत्न हैं जिनकी एकाग्रचित्त होकर प्रत्येक की हजार-हजार देव रक्षा करते हैं तथा जो उसके राजाधिराजत्व के कारण हैं ॥26॥ जिन्होंने प्रजा के हित की इच्छा से सीता का परित्याग कर दिया, इस संसार में ऐसा कौन है जो राम को नहीं जानता हो ।॥27॥ अथवा इस लोक की बात जाने दो इसके गुणों से स्वर्ग में भी देवों के समूह शब्दायमान तथा तत्पर चित्त हो रहे हैं ॥28॥
तदनंतर अंकुश ने कहा कि हे मुने ! राम ने सीता किस कारण छोड़ी सो कहो मैं जानना चाहता हूँ ॥26॥ तत्पश्चात् सीता के गुणों से जिनका चित्त आकृष्ट हो रहा था तथा जिनके नेत्रों में आँसू छलक आये थे ऐसे नारद ने कथा पूरी करते हुए कहा ॥30॥ कि उसका गोत्र, चारित्र तथा हृदय अत्यंत शुद्ध है, वह गुणों से सुशोभित हैं, आठ हजार स्त्रियों की अग्रणी हैं, अतिशय पंडिता हैं, अपनी पवित्रता से सावित्री, गायत्री, श्री, कीर्ति, धृति और ह्री देवी को पराजित कर विद्यमान हैं तथा जिनवाणी के समान हैं ॥31-32॥ निश्चित ही जंमांतर में उपार्जित पाप कर्म के प्रभाव से केवल लोकापवाद के कारण उन्होंने उसे निर्जन वन में छोड़ा है ॥33।। सुख से वृद्धि को प्राप्त हुई वह सती दुर्जनरूपी सूर्य की कटूक्तिरूपी किरणों से संतप्त होकर प्रायः नष्ट हो गई होगी ॥34॥ क्योंकि सुकुमार प्राणी थोड़े ही कारण से दुःख को प्राप्त हो जाते हैं जैसे कि मालती की माला दीपक के प्रकाशमात्र से मुरझा जाती है ॥35॥ जिसने अपने नेत्रों से कभी सूर्य नहीं देखा ऐसी सीता हिंसक जंतुओं से भरे हुए भयंकर वन में क्या जीवित रह सकती है ? ॥36॥ पापी मनुष्य की जिह्वा दुष्ट भुजंगी के समान निरपराध लोगों को दूषित कर निवृत्त क्यों नहीं होती है ? ॥37॥ आर्जवादि गुणों से प्रशंसनीय और अत्यंत निर्मल सीता जैसी सती का जो अपवाद करता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह दुःख को प्राप्त होता है ॥38॥ अथवा अपने द्वारा संचित कर्म आश्रित प्राणी के नष्ट करने के लिए जहाँ सदा जागरूक रहते हैं वहाँ किससे क्या कहा जाय ? इस विषय में तो यह संसार ही निंदा का पात्र है ॥39॥ इतना कहकर जिनका मन शोक के भार से आक्रांत हो गया था ऐसे नारदमुनि आगे कुछ भी नहीं कह सके अतः चुप बैठ गये ॥40॥
अथानंतर अंकुश ने हँस कर कहा कि हे ब्राह्मण ! भयंकर वन में सीता को छोड़ते हुए राम ने कुल की शोभा के अनुरूप कार्य नहीं किया ॥41॥ लोकापवाद के निराकरण करने के अनेक उपाय हैं फिर उनके रहते हुए क्यों उन्होंने इस तरह सीता को विद्ध किया― घायल किया ॥42॥ अनंगलवण नामक दूसरे कुमार ने भी कहा कि हे मुने ! यहाँ से अयोध्या नगरी कितनी दूर है ? इसके उत्तर में भ्रमण के प्रेमी नारद ने कहा कि वह अयोध्या यहाँ से साठ योजन दूर है जिसमें चंद्रमा के समान निर्मल प्रिया के स्वामी राम रहते हैं ॥43-44॥ यह सुन दोनों कुमारों ने कहा कि हम उन्हें जीतने के लिए चलते हैं। इस पृथिवीरूपी कुटिया में किसी दूसरे की प्रधानता कैसे रह सकती है ? ॥45॥
उन्होंने वज्रजंघ से भी कहा कि हे माम ! इस वसुधा तल पर जो सुह्म, सिंधु तथा कलिंग आदि सर्वसाधन संपन्न राजा हैं उन्हें आज्ञा दी जाय कि आप लोग अयोध्या के प्रति चलने के लिए रण के योग्य सब वस्तुएँ लेकर शीघ्र ही तैयार हो जावें ॥46-47॥ मद रहित तथा मद सहित बड़े-बड़े हाथी, महाशब्द करने वाले तथा वायु के समान शीघ्रगामी घोड़े, सेना में प्रसिद्ध तथा युद्ध से नहीं भागने वाले योद्धा देखे जावें, उत्तम शस्त्रों का निरीक्षण किया जाय, कवच आदि साफ किये जावें और महायुद्ध के प्रारंभ की खबर देने में निपुण तथा शंख के शब्दों से मिश्रित तुरही के शब्द दिलाये जावें ॥48-50।। इस प्रकार राजाओं को आज्ञा दे जो प्राप्त हुए युद्ध संबंधी आनंद को हृदय में धारण कर अत्यधिक हर्ष से युक्त थे ऐसे धीर-वीर तथा महावैभव से संपन्न दोनों कुमार उन इंद्रों के समान जो देवों को आज्ञा देकर निश्चिंत हो जाते हैं निश्चिंत हो यथायोग्य सुख से विद्यमान हुए ॥51-52॥
तदनंतर उनकी राम के प्रति चढ़ाई सुन अत्यधिक उत्कंठा को धारण करती हुई सीता रोने लगी ॥53॥ तत्पश्चात् सीता के समीप खड़े नारद से सिद्धार्थ ने कहा कि तुमने यह ऐसा अशोभन कार्य क्यों प्रारंभ किया ? ॥54॥ रण के कौतुकी एवं रण का प्रोत्साहन देने वाले तुमने देखो यह कुटुंब का बड़ा भेद कर दिया है― घर में बड़ी फूट डाल दी है ॥55।। नारद ने कहा कि मैं इस वृत्तांत को ऐसा थोड़े ही जानता था। मैंने तो केवल उनके सामने राम-लक्ष्मण संबंधी चर्चा ही रक्खी थी ॥56॥ किंतु ऐसा होने पर भी डरो मत; कुछ भी अशोभन कार्य नहीं होगा यह मैं जानता हूँ अतः मन को स्वस्थ करो ॥57॥
तदनंतर दोनों कुमार समीप जाकर सीता से बोले कि हे अंब ! क्यों रो रही हो ? बिना किसी विलंब के शीघ्र ही कहो ॥8॥ किसने तुम्हारे विरुद्ध काम किया है अथवा किसने तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहा है ? आज किस दुष्ट हृदय के प्राणों का वियोग करूँ ? ॥56॥ औषधि जिसके हाथ में नहीं ऐसा वह कौन मनुष्य साँप के साथ क्रीड़ा करता है ? वह कौन मनुष्य अथवा देव है जो तुम्हें शोक उत्पन्न करता है ? ॥60॥ हे मातः ! आज किस क्षीणायुष्क पर कुपित हुई हो ? हे अंब ! शोक का कारण बतलाने की प्रसन्नता करो ॥61।। इस प्रकार कहने पर सीता देवी ने अश्रु धारण करते हुए कहा कि हे कमललोचन पुत्रो ! मैं किसी पर कुपित नहीं हूँ ॥62।। आज मुझे तुम्हारे पिता का स्मरण हो आया है इसीलिए दुःखी हो गई हूँ और इसीलिए बलात् अश्रु डालती हुई रो रही हूँ ॥63॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सीता के इस प्रकार कहने पर उन दोनों वीरों की यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि सिद्धार्थ हमारा पिता नहीं है ॥64॥ तत्पश्चात् उन दोनों ने पूछा कि हे मातः ! हमारा पिता कौन है ? कहाँ है ? इस प्रकार पूछने पर सीता ने अपना सब वृत्तांत कह दिया ।।65।। अपना जन्म, राम का जन्म, वन में जाना, वहाँ हरण होना तथा पुनः वापिस आना आदि जैसा वृत्तांत नारद ने कहा था वैसा सब विस्तार से कह सुनाया क्योंकि वृत्तांत के छिपाने का अब कौन-सा अवसर है ? ॥66-67॥
यह कह कर सीता ने कहा कि जब तुम दोनों गर्भ में थे तब लोकापवाद के भय से तुम्हारे पिता ने मुझे वन में छोड़ दिया था ॥68।। मैं उस सिंहरवा नाम की अटवी में रो रही थी कि हाथी पकड़ने के लिए गये हुए वज्रजंघ ने मुझे देखा ॥69।। जो हाथी प्राप्त कर अटवी से लौट रहा था, जो विशुद्ध शक्ति रूपी रत्न का धारक था, महात्मा था एवं दयालु चित्त था, ऐसा यह श्रावक वज्रजंघ मुझे बहिन कह इस स्थान पर ले आया और बड़े सन्मान के साथ उसने हमारा पालन किया ॥70-71॥ जो तुम्हारे पिता के ही समान है ऐसे इस वज्रजंघ के वैभवशाली घर में मैंने तुम दोनों को जन्म दिया है। तुम दोनों श्रीराम के शरीर से उत्पन्न हो ॥72॥ हे वत्सो ! लक्ष्मण नामक छोटे भाई से सहित उन श्रीराम ने हिमालय से लेकर समुद्रपर्यंत की इस समस्त पृथिवी को अपनी दासी बनाया है ॥73।। अब आज उनके साथ तुम्हारा महायुद्ध होने वाला है सो मैं क्या पति की अमांगलिक वार्ता सुनूँगी ? या तुम्हारी? अथवा देवर की ? ॥74॥ इसी ध्यान के कारण खिन्न चित्त होने से मैं रो रही हूँ। हे भले पुत्रो ! यहाँ और दूसरा कारण क्या हो सकता है ?॥75॥
यह सुनकर लवणांकुश परम हर्ष को प्राप्त हो आश्चर्य करने लगे, और उनके मुखकमल खिल उठे। उन्होंने कहा कि अहो ! वह सुधन्वा, लोकश्रेष्ठ, श्रीमान् , विशाल एवं उज्ज्वल कीर्ति के धारक तथा अनेक महान आश्चर्य के करने वाले श्रीराम हमारे पिता हैं ॥76-77॥ हे मातः ! 'मैं वन में छोड़ी गई हूँ।‘ इस बात का विषाद मत करो। तुम शीघ्र ही राम-लक्ष्मण का अहंकार खंडित देखो ॥78॥ तब सीता ने कहा कि हे पुत्रो ! पिता के साथ विरोध करना रहने दो । यह करना उचित नहीं है। तुम लोग शांतचित्तता को प्राप्त करो ॥79।। हे वत्सो ! बड़ी विनय के साथ जाओ और नमस्कार कर पिता के दर्शन करो यही मार्ग न्यायसंगत है ।।80॥
यह सुन लवणांकुश ने कहा कि वे हमारे शत्रु के स्थान को प्राप्त हैं अतः हे मातः ! हम लोग जाकर यह दीन वचन उनसे किस प्रकार कहें कि हम तुम्हारे लड़के हैं ।।81।। संग्राम के अग्रभाग में यदि हम लोगों को मरण प्राप्त होता है तो अच्छा है परंतु वीर मनुष्यों के द्वारा निंदित ऐसा विचार रखना अच्छा नहीं है ॥82॥ अथानंतर जिसका चित्त चिंता से दुःखी हो रहा था ऐसी सीता चुप हो रही और लवणांकुश ने स्नान आदि कार्य संपन्न किये ॥83॥ तत्पश्चात जिन्होंने मंगलमय मुनिसंघ की सेवा की थी, सिद्ध भगवान को नमस्कार किया था तथा माता को सांत्वना देकर प्रणाम किया था ऐसे मंगलमय वेष को धारण करने वाले दोनों कुमार दो हाथियों पर उस प्रकार आरूढ़ हुए जिस प्रकार कि चंद्रमा और सूर्य पर्वत के शिखर पर आरूढ़ होते हैं । तदनंतर दोनों ने अयोध्या की ओर उस तरह प्रयाण किया जिस तरह कि राम-लक्ष्मण ने लंका की ओर किया था ॥84-85।।
तत्पश्चात् तैयारी के शब्द से उन दोनों का निर्गमन जानकर हजारों योधा शीघ्र ही पौंडरीकपुर से बाहर निकल पड़े ॥86॥ परस्पर की प्रतिस्पर्धा से जिनका चित्त बढ़ रहा था ऐसे अपनी-अपनी सेनाएँ दिखलाने वाले राजाओं में बड़ी धकम-धका हो रही थी ॥87॥ तदनंतर जो एक योजन तक फैली हुई बड़ी भारी सेना से सहित थे जो नाना प्रकार के धान्य से सुशोभित पृथिवी का अच्छी तरह पालन करते थे, जिनका उत्कृष्ट प्रताप आगे आगे चल रहा था और जो उन-उन देशों में स्थापित राजाओं के द्वारा पूजा प्राप्त कर रहे थे, ऐसे दोनों भाई प्रजा की रक्षा करते हुए चले जा रहे थे ॥88-89॥ बड़े-बड़े कुल्हाड़े और कुदालें धारण करने वाले दश हजार पुरुष उनके आगे-आगे चलते थे ।।90।। वे वृक्षों आदि को काटते हुए ऊँची-नीची भूमि को सब ओर से दर्पण के समान करते जाते थे ॥91॥ सबसे पहले खजाने के भार को धारण करने वाले भैंसे, ऊँट तथा बड़े-बड़े बैल जा रहे थे। फिर कोमल शब्द करते हुए गाड़ियों के सेवक चल रहे थे। तदनंतर तरुण हरिण के समान उछलने वाले पैदल सैनिकों के समूह और उनके बाद उत्तम चेष्टाएँ करने वाले घोड़ों के समूह जा रहे थे ।।92-93।।
उनके पश्चात् जो सुवर्ण की मालाओं से अत्यधिक सुशोभित थे, जिनके गले में बंधे हुए बड़े-बड़े घंटा शब्द कर रहे थे, जो शंखों और चामरों को धारण कर रहे थे, काँच के छोटे-छोटे गोले तथा दर्पण तथा फन्नूसों आदि से जिनका वेष बहुत सुंदर जान पड़ता था, जो महाउद्दंड थे, जिनकी सफेद रंग की बड़ी-बड़ी खीसें लोहा तामा तथा सुवर्णादि से जड़ी हुई थीं, जो रत्न तथा सुवर्णादि से निर्मित कंठमालाओं से विभूषित थे, चलते-फिरते पर्वतों के समान जान पड़ते थे, नाना रंग के चित्राम से सहित थे, जिनमें से किन्हीं के गंडस्थलों से अत्यधिक मद झर रहा था, कोई नेत्र बंद कर रहे थे, कोई हर्ष से परिपूर्ण थे, किन्हीं के मद की उत्पत्ति होने वाली थी, कोई वेग से तीक्ष्ण थे और कोई मेघों के समान थे, जो कवच आदि से युक्त, नाना शास्त्रों में निपुण, महाशब्द करने वाले और अत्यंत तेजस्वी पुरुषों से अधिष्ठित थे, जो अपनी तथा परायी सेना में उत्पन्न हुए शब्द के जानने में निपुण थे, सर्वप्रकार की शिक्षा से संपन्न थे और सुंदर चेष्टा को धारण करने वाले थे ऐसे हाथी जा रहे थे ।।94-99॥
उनके पश्चात् जो सुंदर कवच धारण कर रहे थे, जिन्होंने पीछे की ओर ढाल टाँग रक्खी थी तथा भाले जिनके हाथों में थे ऐसे घुड़सवार सुशोभित हो रहे थे ॥100॥ अश्वसमूह के खुराघात से उठी धूलि से आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो सफेद मेघों के समूह से ही व्याप्त हो गया हो ॥1011। उनके पश्चात् जो शस्त्रों के अंधकार से आच्छादित थे, नाना प्रकार की चेष्टाओं को करने वाले थे, अहंकारी थे तथा उदात्त आचार से युक्त थे ऐसे पदाति चल रहे थे।॥102।।
उस विशाल सेना में शयन, आसन, पान, गंध, माला तथा मनोहर वस्त्र, आहार और विलेपन आदि से कोई दुःखी नहीं था अर्थात् सबके लिए उक्त पदार्थ सुलभ थे ।।103।। राजा की आज्ञानुसार नियुक्त होकर जो मार्ग में सब जगह व्याप्त थे, अत्यंत चतुरता से कार्य करने के लिए जो सदा कमर कसे रखते थे और उत्तम हृदय से युक्त थे ऐसे मनुष्य प्रति बड़े आदर के साथ सबके लिए मधु, स्वादिष्ट पेय, घी, पानी और नाना प्रकार के रसीले भोजन सब ओर प्रदान करते रहते थे ॥104-105।। उस सेना में न तो कोई मनुष्य मलिन दिखाई देता था, न दीन, न भूखा, न प्यासा, न कुत्सित वस्त्र धारण करने वाला और न चिंतातुर ही दिखाई पड़ता था ॥106॥ उस सेनारूपी महासागर में नाना आभरणों से युक्त, उत्तम वेश से सुसज्जित एवं उत्तम कांति से युक्त पुरुष और स्त्रियाँ सुशोभित थीं ॥107। इस प्रकार परमविभूति से युक्त सीता के दोनों पुत्र उस तरह अयोध्या के उस देश में पहुँचे जिस तरह कि इंद्र देवों के स्थान में पहुँचते हैं ॥108।।
जौ, पौंडे, ईख तथा गेहूँ आदि उत्तमोत्तम धान्यों से जहाँ की भूमि निरंतर सुशोभित है ॥106॥ वहाँ की नदियाँ राजहंसों के समूहों से, तालाब कमलों और कुवलयों से, पर्वत नाना प्रकार के पुष्पों से और बाग-बगीचों की भूमियाँ सुंदर संगीतों से सुशोभित हैं ॥110।। जहाँ के वन बड़े-बड़े बेलों के शब्दों से, सुंदर गायों और भैंसों के समूह से तथा मचान पर बैठी गोपालिकाओं से सुशोभित हैं ॥111।। जहाँ की सीमाओं पर स्थित गाँव नगरों के समान और नगर स्वर्गपुरी के समान सुशोभित हैं ॥112।। इस तरह पंचेंद्रिय के विषयों से प्रिय उस देश का इच्छानुसार उपभोग करते हुए, परमतेज के धारक लवणांकुश आनंद से चले जाते थे ॥113।। रण के कारण तीव्र क्रोध को प्राप्त हुए हाथियों के गंडस्थल से झरने वाले जल से मार्ग की समस्त धूलि कीचड़पने को प्राप्त हो गई थी ॥114॥ चश्चल घोड़ों के तीक्ष्ण खुराघात से उस कोमल देश को भूमि माने अत्यंत जर्जर अवस्था को प्राप्त हो गई थी ॥115॥
तदनंतर लवणांकुश, दूर से ही आकाश को संध्याकालीन मेघों के समूह सहित जैसा देखकर बोले कि हे माम ! जिसकी लाल-लाल विशाल कांति बहुत ऊँची उठ रही है ऐसा यह क्या दिखाई दे रहा है ? यह सुन वज्रजंघ ने बहुत देर तक पहिचानने के बाद कहा कि हे देवो! यह वह उत्कृष्ट अयोध्या नगरी दिखाई दे रही है जिसके सुवर्णमय कोट की यह कांति इतना ऊँची उठ रही है ॥116-118।। इस नगरी में वह श्रीमान् बलभद्र रहते हैं जो कि तुम दोनों के पिता हैं तथा नारायण और महागुणवान् शत्रुघ्न जिनके भाई हैं ।।116।। इस तरह शूर-वीरता और गौरव से सहित कथाओं से जो अत्यंत प्रसन्न थे ऐसे सुख से जाते हुए उन दोनों के बीच नदी आ पड़ी ॥120॥ जो अपने चालू वेग से ही उस नगरी को ग्रहण करने की इच्छा रखते थे ऐसे उन दोनों वीरों के बीच वह नदी उस प्रकार आ पड़ी जिस प्रकार कि मोक्ष के लिए प्रस्थान करने वाले के बीच तृष्णा आ पड़ती है ।।121॥ जिस प्रकार नंदनवन की नदी के समीप देवों की विशाल सेना ठहराई जाती है उसी प्रकार उस नदी के समीप थकी मांदी सेना ठहरा दी गई ॥122॥
अथानंतर शत्रु की सेना को निकटवर्ती स्थान में स्थित सुन परम आश्चर्य को प्राप्त होते हुए राम-लक्ष्मण ने कहा कि ॥123।। यह कौन मनुष्य शीघ्र ही मरना चाहता है जो युद्ध का बहाना लेकर हम दोनों के पास चला आ रहा है ।।124॥ लक्ष्मण ने उसी समय राजा विराधित को आज्ञा दी कि बिना किसी विलंब के युद्ध के लिए सेना तैयार की जाय ।।125॥ रण का कार्य उपस्थित हुआ है इसलिए वृष, नाग तथा वानर आदि की पताकाओं को धारण करने वाले विद्याधर राजाओं को सब समाचार का ज्ञान कराओ अर्थात उनके पास सब समाचार भेजे जाय ।।126।। 'जैसी आप आज्ञा करते हैं वैसा ही होगा' इस प्रकार कह कर राजा विराधित सुग्रीव आदि राजाओं को बुला कर युद्ध के लिए उद्यत हो गया ॥127॥ दूत के देखते ही वे सब विद्याधर राजा बड़ी-बड़ी सेनाएं लेकर अयोध्या आ पहुँचे ॥128॥
अथानंतर जिनकी आत्मा अत्यंत आकुल हो रही थी ऐसे सिद्धार्थ और नारद ने शीघ्र ही जाकर भामंडल के लिए सब खबर दी ॥129॥ बहिन सीता का जो हाल हुआ था उसे सुन कर वात्सल्य गुण के कारण भामंडल बहुत दुखी हुआ ॥130॥ तदनंतर विषाद विस्मय और हर्ष को धारण करने वाला, शीघ्रता से सहित एवं स्नेह से भरा भामंडल, किंकर्तव्यविमूढ़ हो पिता सहित मन के समान शीघ्रगामी विमान पर आरूढ़ हो सब सेना के साथ पौंडरीकपुर की ओर चला ॥131-132॥ भामंडल, पिता और माता को आया देख जिसका शोक नया हो गया था ऐसी सीता शीघ्रता से उठ सबका आलिंगन कर आंसुओं की लगातार वर्षा करती हुई विलाप करने लगी। वह उस समय अपने परित्याग आदि के दुःख को बतलाती हुई विह्वल हो उठती थी ॥133-134॥ भामंडल ने उसे बड़ी कठिनाई से सांत्वना देकर कहा कि हे देवि ! तेरे पुत्र संशय को प्राप्त हुए है। उन्होंने यह अच्छा नहीं किया ॥135।। उन्होंने जाकर उन बलभद्र और नारायण को क्षोभित किया है जो पुरुषोत्तम वीर देवों के भी अजेय हैं ॥136।। जब तक उन कुमारों का प्रमाद नहीं होता है तब तक आओ, शीघ्र ही चलें और रक्षा का उपाय सोचें ॥137॥ तदनंतर पुत्र-वधुओं सहित सीता भामंडल के विमान में बैठ उस ओर चली जिस ओर कि वज्रजंघ और सेना से सहित दोनों पुत्र गये थे ॥138।।
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! राम लक्ष्मण की पूर्ण लक्ष्मी का वर्णन के लिए कौन समर्थ है ? इसलिए संक्षेप से ही यहाँ कहते हैं सो सुन ॥136॥ रथ, घोड़े, हाथी और पैदल सैनिक रूप महासागर से घिरे हुए राम लक्ष्मण क्रोध को धारण करते हुए के समान निकले ॥140॥ जो घोड़े जुते हुए रथ पर सवार था, जिसका वक्षःस्थल हार से सुशोभित था तथा जिसका मन युद्ध में लग रहा था ऐसा प्रतापी शत्रुघ्न भी निकल कर बाहर आया ॥141॥ जिस प्रकार हरिणकेशी देव सैनिकों का अग्रणी होता है उसी प्रकार मानी कृतांतवक्त्र सब सेना का अग्रसर हुआ ॥142॥ जिसमें धनुषों की छाया हो रही थी तथा जो महाकांति से युक्त थी ऐसी उसकी अपरिमित चतुरंगिणी सेना उसके प्रताप को बढ़ा रही थी ।।143।। जिसमें बीच के खंभा के ऊपर ध्वजा फहरा रही थी, तथा जो शत्रुओं की सेना के द्वारा दुर्निरीक्ष्य था ऐसा उसका बड़ा भारी रथ देवों के महल के समान सुशोभित हो रहा था ॥144॥ कृतांतवक्त्र के पीछे त्रिमूर्ध, फिर अग्निशिख, फिर सिंहविक्रम, फिर दीर्घबाहु, फिर सिंहोदर, सुमेरु, महाबलवान् बालिखिल्य, अत्यंत क्रोधी रौद्रभूति, शरभ, स्यंदन, क्रोधी वनकर्ण, युद्ध का प्रेमी मारिदत्त, और मदोन्मत्त मन के धारक मृगेंद्रवाहन आदि पाँच हजार सामंत बाहर निकले। ये सभी सामंत नाना शस्त्र रूपी अंधकार को धारण करने वाले थे तथा चारणों के समूह उनके करोड़ों गुणों का उद्गान कर रहे थे ।।145-148।। इसी प्रकार जो कुटिक्त सेनाओं से सहित थी, जिन्होंने विश्वासप्रद शस्त्र के ऊपर क्षण भर के लिए अपनी दृष्टि डाली था, युद्ध संबंधी हर्ष से जिनका उत्साह बढ़ रहा था, जो स्वामी की भक्ति में तत्पर थीं, महाबलवान् थीं, शीघ्रता से सहित थीं और जिन्होंने पृथिवी को कंपित कर दिया था ऐसी कुमारों की अनेक श्रेणियाँ भी बाहर निकली ।।146-150॥ नाना प्रकार के वादित्रों से जिन्होंने दिशाओं को बहिरा कर दिया था, जो कवच और टोप से सहित थे, जिनके चित्त क्रोध से व्याप्त थे, तथा जिनके सेवक पूर्व दृष्ट, परम पराक्रमी और प्रसन्नता प्राप्त करने में तत्पर थे ऐसे कितने ही लोग पर्वतों के समान ऊँचे रथों से, कितने ही मेघों के समान हाथियों से, कितने ही महासागर की तरंगों के समान घोड़ों से, कितने ही पालकी के शिखरों से और कितने ही अत्यंत योग्य वृषभों से अर्थात् इन पर आरूढ हो बाहर निकले ॥151-153।।
तदनंतर परकीय सेना का शब्द सुनकर संभ्रम से सहित वज्रजंघ ने अपनी सेना को आदेश दिया कि तैयार होओ ॥154॥ तदनंतर पर-सेना का शब्द सुनकर कवच आदि से आवृत सब सैनिक तैयार हो वज्रजंघ के पास स्वयं आ गये ॥155॥ प्रलय काल की अग्नि के समान प्रचंड अंग, बंग, नेपाल, वर्वर, पौंड, मागध, सौस्न, पारशैल, सिंहक, कालिंगक तथा रत्नांक आदि महाबलवान् एवं उत्तमतेज से युक्त ग्यारह हजार राजा युद्ध के लिए तैयार हुए ॥156-157।। इस प्रकार जिसने शत्रुसेना की ओर मुख किया था, तथा जिसमें शस्त्र चल रहे थे ऐसी वह चंचल उत्कृष्ट सेना उत्तम संघट्ट को प्राप्त हुई अर्थात् दोनों सेनाओं में तीव्र मुठभेड़ हुई ॥158।। उन दोनों सेनाओं में ऐसा भयंकर समागम हुआ जो पहले हुए देव और असुरों के समागम से भी कहीं आश्चर्यकारी था तथा क्षोभ को प्राप्त हुए दो समुद्रों के समागम के समान महाशब्द कर रहा था ॥159।। 'अरे क्षुद्र ! पहले प्रहार कर, शस्त्र छोड़, क्यों उपेक्षा कर रहा है ? मेरा शस्त्र पहले प्रहार करने के लिए कभी प्रवृत्त नहीं होता ॥160।। अरे, उसने हलका प्रहार किया इससे मेरी भुजा स्वस्थ रही आई अर्थात् उसमें कुछ हुआ ही नहीं, जरा दृढ़ मुट्ठी कस कर शरीर पर जोरदार प्रहार कर ॥161॥ कुछ सामने आ, युद्ध में बाण का संचार ठीक नहीं हो रहा है, अथवा फिर बाण को छोड़; छुरी उठा ॥162।। क्यों काँप रहा है ? मैं तुझे नहीं मारता, मार्ग छोड़, युद्ध की महाखाज से चपल यह दूसरा प्रबल योद्धा सामने खड़ा हो ॥163॥ अरे क्षुद्र ! व्यर्थ क्यों गरज रहा है ? वचन में शक्ति नहीं रहती, यह मैं तेरी चेष्टा से ही रण की पूजा करता हूँ ॥164॥ इन्हें आदि लेकर, पराक्रम से सुशोभित योद्धाओं के मुखों से सब ओर अत्यंत गंभीर महाशब्द निकल रहे थे ॥165।। जिस प्रकार भूमिगोचरी राजाओं की ओर से भयंकर शब्द आ रहा था उसी तरह विद्याधर राजाओं की ओर से भी अत्यंत महान् शब्द आ रहा था ॥166॥ भामंडल, वीर पवन वेग, बिजली के समान उज्ज्वल मृगांक तथा महा विद्याधर राजाओं के प्रतिनिधि देवच्छंद आदि जो कि बड़ी बड़ी सेनाओं से युक्त तथा महायुद्ध में निपुण थे, लवणांकुश के पक्ष में खड़े हुए ॥167-16॥
अथानंतर जब कर्तव्य के ज्ञान और प्रयोग में अत्यंत निपुण हनुमान् ने लवणांकुश की वास्तविक उत्पत्ति सुनी तब वह विद्याधर राजाओं के संघट्ट को शिथिल करता हुआ लवणांकुश के पक्ष में आ गया ॥169-170॥ लांगूल नामक शस्त्र को हाथ में धारण कर राम की सेना से निकलते हुए हनुमान् ने भामंडल का चित्त हर्षित कर दिया ॥171॥ तदनंतर विमान के शिखर पर आरूढ जानकी को देखकर सब विद्याधर राजा उदासीनता को प्राप्त हो गये ॥172॥ और हाथ जोड़ बड़े आदर से उसे प्रणाम कर अत्यधिक आश्चर्य को धारण करते हुए उसे घेरकर खड़े हो गये ।।173॥ सीता ने जब दोनों सेनाओं की मुठभेड़ देखी तब उसके नेत्र भयभीत हरिणी के समान चंचल हो गये, उसके शरीर में रोमांच निकल आये और कँपकँपी छूटने लगी ॥174॥
अथानंतर चंचल ध्वजाओं से युक्त उस विशाल सेना को क्षोभित करते हुए लवणांकुश, जिस ओर राम लक्ष्मण थे उसी ओर बढ़े ॥175॥ इस तरह प्रतिपक्ष भाव को प्राप्त हुए दोनों कुमार सिंह और गरुड़ की ध्वजा धारण करने वाले राम-लक्ष्मण के सामने आ डटे ॥176॥ आते ही के साथ अनंगलवण ने शस्त्र चलाकर रामदेव की ध्वजा काट डाली और धनुष छेद दिया ॥177।। हँसकर राम जब तक दूसरा धनुष लेने के लिए उद्यत हुए तब तक वीर लवण ने वेग से उन्हें रथ रहित कर दिया ॥178॥ अथानंतर प्रबल पराक्रमी राम, भौंह तानते हुए, दूसरे रथ पर सवार हो क्रोधवश अनंगलवण की ओर चले ॥176।। ग्रीष्म काल के सूर्य के समान दुनिरीक्ष्य नेत्रों से युक्त एवं धनुष उठाये हुए राम अनंगलवण के समीप उस प्रकार पहुँचे जिस प्रकार कि असुर कुमारों के इंद्र चमरेंद्र के पास इंद्र पहुँचता है ॥180।। इधर सीता सुत अनंगलवण भी बाण सहित धनुष उठाकर रण की भेट देने के लिए राम के समीप गये ॥181॥ तदनंतर राम और लवण के बीच परस्पर कटे हुए शस्त्रों के समूह से कठिन परम युद्ध हुआ ॥182॥
इधर जिस प्रकार राम और लवण का महायुद्ध हो रहा था उधर उसी प्रकार लक्ष्मण और अंकुश का भी महायुद्ध हो रहा था ॥183॥ इसी प्रकार स्वामी के राग को प्राप्त तथा अपने-अपने वीरों की शोभा चाहने वाले सामंतों में भी द्वंद्व-युद्ध हो रहा था ॥184॥ कहीं परचक्र से रुका और तरंगों के समान चंचल ऊँचे घोड़ों का समूह रणांगण को सघन कर रहा था― वहाँ की भीड़ बढ़ा रहा था ॥185॥ कवच टूट गया था ऐसे सामने खड़े शत्रु को देख रण की खाज से युक्त योद्धा दूसरी ओर मुख कर रहा था ॥186।। कितने ही योद्धा स्वामी को छोड़ शत्रु की सेना में घुस पड़े और अपने स्वामी का नाम लेकर जो भी दिखे उसे मारने लगे ॥187॥ तीव्र अहंकार से भरे कितने ही महायोद्धा, मनुष्यों की उपेक्षा कर मदस्रावी हाथियों की शत्रुता को प्राप्त हुए ॥188।। कोई एक उत्तम योद्धा मदोन्मत्त हाथी की दंतरूपी शय्या का आश्रय ले रण निद्रा के उत्तम सुख को प्राप्त हुआ अर्थात् हाथी के दांतों से घायल हो कर कोई योद्धा मरण को प्राप्त हुआ ॥189।। जिसका शस्त्र टूट गया था ऐसे किसी योद्धा ने सामने आते हुए घोड़े के लिए मार्ग तो नहीं दिया किंतु हाथ ठोक कर प्राण दे दिये ॥190।। कोई एक योद्धा प्रथम प्रहार में ही गिर गया था इसलिए उसके बकने पर भी उदारचेता किसी महायोद्धा ने लज्जित हो उस पर पुनः प्रहार नहीं किया ॥191॥ जिसका हृदय नहीं टूटा था ऐसा कोई योद्धा, सामने के वीर को शस्त्र रहित देख, अपना भी शस्त्र फेंककर मात्र भुजाओं से ही युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ था ॥192॥ कितने ही वीरों ने सदा के सुप्रसिद्ध दानी हो कर भी युद्ध क्षेत्र में आकर अपने प्राण तो दे दिये थे पर पीठ के दर्शन किसी को नहीं दिये ॥193॥ किसी सारथि का रथ रुधिर की कीचड़ में फँस जाने के कारण बड़ी कठिनाई से चल रहा था इसलिए वह चाबुक से ताड़ना देने में तत्पर होने पर भी शीघ्रता को प्राप्त नहीं हो रहा था ॥194॥ इस प्रकार उन दोनों सेनाओं में वह महायुद्ध हुआ जिसमें कि शब्द करने वाले घोड़ों के द्वारा खींचे गये रथ ची-ची शब्द कर रहे थे, जो घोड़ों के वेग से उड़े हुए सामंत भटों से व्याप्त था ॥195॥ जिसमें महायोद्धाओं के शब्द निकलते हुए खून के उद्गार से सहित थे, जहाँ वेगशाली शस्त्रों के पड़ने से अग्नि कणों का समूह उत्पन्न हो रहा था ॥196॥ जहाँ हाथियों के सू-सू शब्द के साथ जल के छींटों का समूह निकल रहा था, जहाँ हाथियों के द्वारा विदीर्ण वक्षःस्थल वाले योद्धाओं से भूतल व्याप्त था ॥197॥ जहाँ इधर-उधर पड़े हुए हाथियों से युद्ध का मार्ग रुक जाने के कारण यातायात में गड़बड़ी हो रही थी। जहाँ हाथी रूपी मेघों से मुक्ताफल रूपी महोपलों― बड़े-बड़े ओलों की वर्षा हो रही थी, ।।198॥ जो मोतियों की वर्षा के समाघात से विकट था, नाना प्रकार के कर्मों की रंगभूमि था, जहाँ हाथियों के द्वारा उखाड़ कर ऊपर उछाले हुए पुंनाग के वृक्ष, विद्याधरों का संगम कर रहे थे ॥199। जहाँ शिरों के द्वारा यशरूपी रत्न खरीदा गया था, जहाँ मूर्च्छा से विश्राम प्राप्त होता था, और मरण से जहाँ निर्वाण मिलता था ।।200। इस प्रकार वीरों की चाहे बड़ी टुकड़ी हो चाहे छोटी, सबमें वह युद्ध हुआ कि जो जीवन की तृष्णा से रहित था, जिसमें योद्धाओं के समूह धन्य-धन्य शब्दरूपी समुद्र के लोभी थे तथा जो समरस से सहित था-किसी भी पक्ष की जय पराजय से रहित था ॥201।। स्वामी में अटूट भक्ति, जीविका प्राप्ति का बदला चुकाना और रण की तेज खाज यही सब सूर्य के समान तेजस्वी योद्धाओं के संग्राम के कारणपने को प्राप्त हुए थे ॥202।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में लवणांकुश के युद्ध का वर्णन करने वाला एक सौ दूसरा पर्व समाप्त हुआ ॥102॥