ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 116
From जैनकोष
एक सौ सोलहवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! लक्ष्मण के मृत्यु को प्राप्त होनेपर युग. प्रधान रामने इस व्याकुल संसार को छोड़ दिया ॥ 1 ॥ उस समय स्वरूप से कोमल और स्वभाव सुगंधित नारायण का शरीर यद्यपि निर्जीव हो गया था तथापि राम उसे छोड़ नहीं रहे थे ॥2॥ वे उसका आलिंगन करते थे, गोद में रखकर उसे पोंछते थे, सूंघते थे, चूमते थे और बड़ी उमंग के साथ भुजपंजर में रखकर बैठते थे ।।3। इसके छोड़ने में वे क्षणभर के लिए भी विश्वास को प्राप्त नहीं होते थे। जिस प्रकार बालक अमृत फलको महाप्रिय मानता है। उसी प्रकार वे उस मृत शरीर को महाप्रिय मानते थे ॥4॥ कभी विलाप करने लगते कि हाय भाई ! क्या तुझे यह ऐसा करना उचित था । मुझे छोड़कर अकेले ही तूने चल दिया ॥5॥ क्या तुझे यह विदित नहीं कि मैं तेरे विरह को सहन नहीं कर सकता जिससे तू मुझे दुःख रूपी अग्नि में डालकर अकस्मात् यह करना चाहता है ॥6॥ हाय तात ! तूने यह अत्यंत कर कार्य क्यों करना चाहा जिससे कि मुझसे पूछे बिना ही परलोक के लिए प्रयाण कर दिया ॥7॥ हे वत्स! एक बार तो प्रत्युत्तर रूपी अमृत शीघ्र प्रदान कर । तू तो बड़ा विनयवान था फिर दोष के बिना ही मेरे ऊपर भी कुपित क्यों हो गया है ? ॥8॥ हे मनोहर ! तूने मेरे ऊपर कभी मान नहीं किया, फिर अब क्यों अन्य रूप हो गया है ? कह, मैंने क्या किया है ? ।।9॥ तू अन्य समय तो राम को दूर से ही देखकर आदरपूर्वक खड़ा हो जाता था और उसे सिंहासन पर बैठाकर स्वयं पृथिवी पर नीचे बैठता था ॥10॥ हे लक्ष्मण ! इस समय चंद्रमा के समान सुंदर नखावली से युक्त तेरा पैर मेरे मस्तक पर रखा है फिर भी तू क्रोध ही करता है क्षमा क्यों नहीं करता?॥11॥ हे देव ! शीघ्र उठ, मेरे पुत्र वन को चले गये हैं सो जब तक वे दूर नहीं पहुँच जाते हैं तब तक उन्हें वापिस ले आवें ॥12॥ तुम्हारे गुण ग्रहण से ग्रस्त ये स्त्रियाँ तुम्हारे बिना कुररी के समान करुण शब्द करती हुई पृथिवीतल में लोट रही हैं ॥13॥ हार, चूड़ामणि, मेखला तथा कुंडल आदि आभूषण नीचे गिर गये हैं ऐसी करुण रुदन करती हुई इन व्याकुल स्त्रियों को मना क्यों नहीं करते हो? ॥14॥ अब तेरे विना क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? वह स्थान नहीं देखता हूँ जहाँ पहुँचने पर संतोष उत्पन्न हो सके ॥15॥ जिसे देखते-देखते तृप्ति ही नहीं होती थी ऐसे तेरे इस मुख को मैं अब भी देख रहा हूँ फिर अनुराग से भरे हुए मुझे छोड़ना क्या तुझे उचित था ? ॥16।। इधर भाई पर मरणरूपी संकट पड़ा है उधर यह अपूर्व शोकाग्नि मेरे शरीर को जलाने के लिए तत्पर है, हाय मैं अभागा क्या करूँ ? ॥17॥ भाई का उपमातीत मरण शरीर को जिस प्रकार जलाता और सुखाता है उस प्रकार न अग्नि जलाती है और न विष सुखाता है ॥18॥ अहो लक्ष्मण ! इस समय क्रोध की आसक्ति को दूर करो। यह गृहत्यागी मुनियों के संचार का समय निकल गया ॥19॥ देखो, यह सूर्य अस्त होने जा रहा है और तालाबों के जल में कमल तुम्हारे निद्रा निमीलित नेत्रों के समान हो रहे हैं ॥20॥ यह कहकर अन्य सब कामों से निवृत्त रामने शीघ्र ही शय्या बनाई और लक्ष्मण को छाती से लगा सोने को उपक्रम किया ॥21॥ वे कहते कि हे देव ! इस समय मैं अकेला हूँ। आप मेरे कान में अपना अभिप्राय बता दो कि किस कारण से तुम इस अवस्था को प्राप्त हुए हो ? ॥22॥ तुम्हारा मनोहर मुख तो उज्ज्वल चंद्रमा के समान सुंदर था पर इस समय यह ऐसा कांतिहीन कैसे हो गया ? ॥23॥ तुम्हारे नेत्र मंद-मंद वायु से कंपित पल्लव के समान थे फिर इस समय म्लानि को प्राप्त कैसे हो गये ? ॥24॥ कह, कह, तुझे क्या इष्ट है ? मैं सब अभी ही पूर्ण किये देता हूँ । हे विष्णो ! तू इस प्रकार शोभा नहीं देना, मुख को व्यापार सहित कर अर्थात् मुख से कुछ बोल ॥25॥ क्या तुझे सुख-दुःख में सहायता देने वाली सीता देवी का स्मरण हो आया है परंतु वह साध्वी तो परलोक चली गई है क्या इसी लिए तुम विषाद युक्त हो ॥26॥ हे लक्ष्मीपते ! विषाद छोड़ो, देखो विद्याधरों का समूह विरुद्ध होकर आक्रमण के लिए आ पहुँचा है और अयोध्या में प्रवेश कर रहा है ॥27॥ हे मनोहर ! कभी क्रुद्ध दशा में भी तुम्हारा ऐसा मुख नहीं हुआ फिर अब क्यों रहा है ? हे वत्स ! ऐसी विरुद्ध चेष्टा अब तो छोड़ो ॥28॥ प्रसन्न होओ, देखो मैंने कभी तुझे नमस्कार नहीं किया किंतु आज तेरे चरणों में नमस्कार करता हूँ। अरे ! तू तो मुझे अनुकूल रखने के लिए समस्त लोक में प्रसिद्ध है ॥29।। तू अनुपम प्रकाश का धारी बहुत बड़ा लोकप्रदीप है सो इस असमय में चलने वाली प्रचंड वायु के द्वारा प्रायः बुझ गया है ॥30॥ तुमने राजाधिराज पद पाकर लोक को बहुत भारी उत्सव प्राप्त कराया था अब उसे अनाथ कर तुम्हारा जाना किस प्रकार होगा ? ॥31॥ अपने चक्ररत्न के द्वारा शत्रुओं के समस्त सबल दल को जीतकर अब तुम कालचक्र का पराभव क्यों सहन करते हो ॥32॥ तुम्हारा जो सुंदर शरीर पहले राजलक्ष्मी से जैसा सुशोभित था वैसा ही अब निर्जीव होने पर भी सुशोभित है ॥33।। हे राजेंद्र ! उठो, निद्रा छोड़ो, रात्रि व्यतीत हो गई, यह संध्या सूचित कर रही है कि अब सूर्य का उदय होने वाला है ॥34।।
लोकालोक को देखने वाले जिनेंद्र भगवान का सदा सुप्रभात है तथा भगवान् मुनि सुव्रत देव अन्य भव्य जीवरूपी कमलों के लिए शरण स्वरूप हैं ॥35।। इस प्रभात को भी मैं परम अंधकार स्वरूप ही जानता हूँ क्योंकि मैं तुम्हारे मुख को चेष्टारहित देख रहा हूँ॥36॥ हे चतुर! उठ, देर तक मत सो, निद्रा छोड़, चल सभास्थल में चलें, सामंतों को दर्शन देने के लिए सभा स्थल में बैठ ॥37।। देख, यह शोक से भरा कमलाकर विनिद्र अवस्था को प्राप्त हो गया है विकसित हो गया है पर तू विद्वान होकर भी निद्रा का सेवन क्यों कर रहा है ? ॥38।। तूने कभी ऐसी विपरीत चेष्टा नहीं की अतः उठ और राजकार्यों में सावधान चित्त हो ॥39॥ हे भाई! तेरे बहुत समय तक सोते रहने से जिन-मंदिरों में सुंदर संगीत तथा भेरियों के मांगलिक शब्द आदि उचित क्रियाएँ नहीं हो रही हैं ॥40॥ तेरे ऐसे होने पर जिनके प्रातःकालीन कार्य शिथिल हो गये ऐसे दयालु मुनिराज भी परम उद्वेग को प्राप्त हो रहे हैं ।।41।। तुम्हारे वियोग से दुःखी हुई यह नगरी वीणा बाँसुरी तथा मृदंग आदि के शब्द से रहित होने के कारण सुशोभित नहीं हो रही है ॥42॥ जान पड़ता है कि मेरा पूर्वोपार्जित पाप कर्म उदय में आया है इसीलिए मैं भाई के वियोग से दुःखपूर्ण ऐसे कष्ट को प्राप्त हुआ हूँ ॥43॥ हे मानव सूर्य ! जिस प्रकार तूने पहले युद्ध में सचेत हो मुझ शोकातुर के लिए आनंद उत्पन्न किया था उसी प्रकार अब भी उठ और अत्यंत खेद से खिन्न मेरे लिए एक बार आनंद उत्पन्न कर ॥44॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराण में श्रीरामदेव के विप्रलाप का वर्णन करने वाला एक सौ सोलहवाँ पर्व समाप्त हुआ॥116॥