ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 28
From जैनकोष
अथानंतर जो इस प्रकार के पराक्रम से आकर्षित था तथा बहुत भारी आश्चर्य से युक्त था ऐसा नारद युद्ध की चर्चा के बिना कहीं भी संतोष को प्राप्त नहीं होता था ॥1॥ उसने समाचार सुना कि समस्त संसार में प्रसिद्ध अपनी सीता नाम की पुत्री उसके पिता राजा जनक ने रामचंद्र के लिए देने की इच्छा की है ॥2॥ समाचार सुनते ही उसने विचार किया कि उस कन्या को देखें तो सही कि वह शुभ लक्षणों से कैसी है जिससे रामचंद्र के लिए उसका देना निश्चित किया गया है ॥3॥ ऐसा विचार कर नारद उस समय सीता के महल में पहुँचा जबकि वह एकांत स्थान में कमल की भीतरी कलिका को अपने स्तन तट के समीप करके इस बुद्धि से उसे देख रही थी कि यह मेरी कांति के समान है या नहीं ॥4॥ जिसे सीता के देखने की लालसा थी तथा जिसका हृदय अत्यंत शुद्ध अर्थात् निर्विकार था ऐसा नारद उस समय सीता के महल में ऊपर जा चढ़ा ॥5॥ तदनंतर जिसका दर्पण में प्रतिबिंब पड़ रहा था और जो जटारूपी मुकुट से भीषण था ऐसा नारद का शरीर देखकर सीता भय से व्याकुल हो गयी ॥6॥ हा मातः ! यह यहाँ कौन आ रहा है ? इस प्रकार अर्धोच्चारित शब्द कर वह महल के भीतर घुस गयी । उस समय उसका शरीर कंपित हो रहा था ॥ 7 ॥ अत्यंत कुतूहल से भरा नारद भी उसी के पीछे महल में भीतर प्रवेश करने लगा तो द्वार की रक्षा करने वाली स्त्रियों ने उसे बलपूर्वक रोक लिया ॥8॥ जब तक नारद तथा उन स्त्रियों के बीच बड़ा कलह होता है तब तक उनका शब्द सुनकर तलवार और धनुष को धारण करने वाले पुरुष वहाँ आ पहुँचे ॥9॥ वे पुरुष पकड़ो-पकड़ो कौन है ? कौन है ? इस प्रकार का जोरदार शब्द कर रहे थे । जो ओठ चाब रहे थे, शस्त्रों से युक्त थे तथा मारने के लिए उद्यत थे ऐसे उन पुरुषों को देखकर नारद अत्यंत भयभीत हो उठा । उसके शरीर से अत्यधिक कंपकंपी छूट रही थी, और रोमांच खड़े हो गये थे । खैर, जिस किसी तरह वह आकाश में उड़कर कैलास पर्वत पर पहुंचा और वहीं विश्राम करने लगा ॥10-11॥ वह विचारने लगा कि हाय ! मैं बड़े कष्ट में पड़ गया था । बचकर क्या आया मानो दूसरा जन्म ही मैंने प्राप्त किया है । जिस प्रकार ज्वालाओं से झुलसा पक्षी किसी बड़े दावानल से बाहर निकलता है उसी प्रकार मैं भी उस कष्ट से बाहर निकला हूँ ॥12॥ उस समय भी उसके नेत्र उसी दिशा में लग रहे थे । तदनंतर धीरे-धीरे उसने शरीर की कंपकंपी छोड़ी और ललाट पर स्थित पसीने की बड़ी-बड़ी बूंदें पोंछी ॥13॥ उसने काँपते हुए हाथ से अपनी बिखरी हुई जटाएं ठीक की । यह करते हुए जब उसे बार-बार पिछली घटना का स्मरण हो आता था तब वह लंबी-लंबी साँसें छोड़ने लगता था ॥14॥ तत्पश्चात् जब भय दूर हुआ तो क्रोध में आकर वह इस प्रकार विचार करने लगा । विचार करते समय उसके समस्त अंग निश्चितरूप से स्थिर थे केवल वह मस्तक को कुछ-कुछ हिला रहा था ॥15॥ वह विचारने लगा कि देखो मेरे मन में कोई दोष नहीं था मैं केवल रामचंद्र के अनुराग से सीता का रूप देखने की इच्छा से ही वहाँ गया था परंतु ऐसी दशा को प्राप्त हो गया जिसमें मृत्यु तक की आ शंका हो गयी ॥16॥ आश्चर्य है कि उस प्रौढ़कुमारी की वह चेष्टा कितनी दुष्टता से भरी थी कि जिसके कारण मैं यमराज की समानता करने वाले मनुष्यों के द्वारा पकड़ लिया गया ॥17॥ वह पापिनी अब जायेगी कहाँ ? मैं उसे अवश्य ही संकट में डालूंगा । मैं तो बाजे के बिना ही नाचता हूँ फिर यदि बाजे मिल जायें तो कहना ही क्या है ? ॥18॥ ऐसा विचारकर उसने एक पट पर प्रत्यक्ष के समान सीता का सुंदर चित्र बनाया और उसे लेकर वह शीघ्र ही रथनूपुर नगर गया ॥ 19 ॥ वहाँ जाकर उसने उपवन में जो अत्यंत उत्तुंग क्रीड़ा भवन था उसमें वह चित्रपट रख दिया और स्वयं अप्रकट रहकर नगर के बाहर रहने लगा । ॥20॥
अथानंतर किसी दिन अनेक कुमारों के साथ क्रीड़ा करता हुआ भामंडल कुमार वहाँ आया ॥ 21 ॥ सो चित्र में अंकित बहन सीता को देखकर वह अज्ञानवश शीघ्र ही लज्जा, शास्त्र, ज्ञान तथा स्मृति से रहित हो गया अर्थात् सीता के चित्र को देखकर इतना कामाकुलित हुआ कि लज्जा, शास्त्र तथा स्मृति आदि सबको भूल गया ॥ 22 ॥ वह निरंतर शोक करने लगा, अत्यंत लंबे श्वासोच्छ्वास छोड़ने लगा, उसका शरीर सूख गया तथा शिथिल शरीर को वह चाहे जहाँ उपेक्षा से डालने लगा अर्थात् चाहे जहाँ उठने-बैठने लगा ॥ 23 ॥ उसे न रात्रि में नींद आती थी न दिन में चैन पड़ता था । वह रात-दिन उसी के ध्यान में निमग्न रहता था । सुंदर उपचारों से उसे कभी भी सुख नहीं मिलता था ॥24॥ वह पुष्प, सुगंधित पदार्थ तथा आहार से ऐसा द्वेष करता था मानो उन्हें विषम यही समझता हो । वह संताप से युक्त होकर बार-बार जल से सींचे हुए फर्श पर लोटता था ॥25॥ वह मौन बैठा रहता था, कभी हंसकर बार-बार चर्चा करने लगता था, कभी सहसा उठकर व्यर्थ ही चलने लगता था और फिर लौट आता था ॥26 ॥ उसकी समस्त चेष्टाएँ ऐसी हो गयों मानो उसे भूत लग गया हो । तदनंतर बुद्धिमान पुरुषों ने उसकी आतुरता के कारणों का पता लगाया ॥27॥वेपरस्पर में इस प्रकार कहने लगे कि यह कन्या किसने चित्रित की है ? इस महल में यह चित्रपट किसने रखा है ? जान पड़ता है कि यह सब नारद की चेष्टा है ॥28॥
तदनंतर जब नारद ने सुना कि हमारे कार्य से भामंडल कुमार अत्यंत आकुल हो रहा है तब उसने निःशंक होकर उसके बंधुओं के लिए दर्शन दिया ॥29॥ उन सबने बड़े आदर से नारद की पूजा कर नमस्कार किया तथा पूछा कि हे मुने ! कहो आपने यह ऐसी कन्या कहाँ देखी है ? ॥30॥ यह कोई नागकुमार देव की अंगना है या पृथिवी पर आयी हुई किसी कल्पवासीदेव की स्त्री आपने किसी तरह देखी है ? ॥31॥ तदनंतर परम विनय को धारण करता तथा स्वयं ही आश्चर्य को प्राप्त हो बार-बार शिर हिलाता हुआ नारद कहने लगा ॥32॥ कि इसी मध्यम लोक में अत्यंत मनोहर मिथिला नाम की नगरी है । उसमें इंद्रकेतु का पुत्र जनक नाम का राजा रहता है ॥33॥ उसके मन को बाँधने वाली विदेहा नाम की प्रिया है । उन दोनों की ही यह सीता नाम की कन्या है । यह कन्या उन दोनों के गोत्र का मानो सर्वस्व ही है ॥34॥ भामंडल के भाई-बंधुओं से ऐसा कहकर उसने भामंडल से कहा कि हे बालक ! तू विषाद को प्राप्त मत हो । यह कन्या तुझे सुलभ ही है ॥35॥ तू इसके रूपमात्र से ही ऐसी अवस्था को प्राप्त हो रहा है फिर इसके जो हाव-भाव विभ्रम हैं उनका वर्णन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥36 ॥ उसने तुम्हारा चित्त आकृष्ट कर लिया इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वह तो धर्मध्यान में सुदृढ़रूप से निबद्ध मुनियों के चित्त को भी आकृष्ट कर सकती है ॥37॥ मैंने चित्रपट में उसका यह केवल आकार मात्र ही अंकित किया है । उसका जो लावण्य है वह तो उसी में है अन्यत्र सुलभ नहीं है ॥38॥ वह नवयौवन से उत्पन्न कांतिरूपी समुद्र की तरंगों में ऐसी जान पड़ती है मानो स्तनरूपी कलशों के सहारे तैर ही रही हो ॥39॥ कांति से वस्त्र को तिरोहित करने वाले उसके नितंब यदि देखने में आ जावें तो निश्चित ही वह योगियों के मन को भी समूल उखाड़कर फेंक दें ॥40॥ आपको छोड़कर और यह किसके योग्य हो सकती है ? इस कार्य में यत्न करो जिससे योग्य समागम प्राप्त हो सके ॥41 ॥ इतना कहकर नारद तो कृतकृत्य हो इच्छित स्थानपर चला गया पर इधर भामंडल काम के बाणों से ताड़ित हो इस प्रकार विचार करने लगा कि ॥42॥ चूंकि मेरा मन काम से इतना आकुल हो रहा है कि यदि मैं शीघ्र ही इस स्त्रीरत्न को नहीं पाता हूँ तो अवश्य ही जीवित नहीं रह सकूँगा ॥43॥
परम कांति को धारण करने वाली यह सुंदरी प्रमदा मेरे हृदय में स्थित है फिर अग्नि की ज्वाला के समान संताप क्यों कर रही है ॥44॥ सूर्य सिर्फ बाहरी चमड़े को जलाता है पर काम भीतरी भाग को जलाता है । इतने पर भी सूर्य अस्त हो जाता है पर काम कभी अस्त नहीं होता ॥45॥ इस समय तो ऐसा जान पड़ता है कि मेरे द्वारा दो ही वस्तुएँ प्राप्त करने योग्य हैं―एक तो उस स्त्री रत्न के साथ समागम और दूसरा काम के बाणों से मारा जाना ॥46॥ इस प्रकार निरंतर उसी का ध्यान करता हुआ भामंडल न भोजन में, न शयन में, न महल में और न उद्यान में― कहीं भी धैर्य को प्राप्त हो रहा था ॥ 47 ॥
अथानंतर जब स्त्रियों को पता चला कि कुमार के दुःख का कारण नारद है तब उन्होंने उद्विग्न होकर शीघ्र ही कुमार के पिता से यह समाचार कहा ॥48॥ कि इस समस्त अनर्थ का पिटारा नारद ही है । वही कहीं की एक अत्यंत सुंदरी स्त्री को चित्रपट पर अंकित करके लाया था ॥49॥ उसे देखकर जिसका मन अत्यंत विह्वल हो गया है ऐसा कुमार किसी भी वस्तु में धैर्य को प्राप्त नहीं हो रहा है । लज्जा ने उसे दूर से ही छोड़ दिया है ॥50॥ वह सीता शब्द का उच्चारण करता हुआ बार-बार उसी कन्या को देखता रहता है तथा वायु के वशीभूत हुए के समान नाना प्रकार की चेष्टाएँ करता रहता है ॥ 51 ॥ वह भोजनादि समस्त कार्यों से विमुख हो गया है अर्थात् उसने खाना-पीना सब छोड़ दिया है । इसलिए जब तक प्राण इसे नहीं छोड़ते हैं तब तक उसके पहले ही इसे धैर्य उत्पन्न कराने के लिए कोई उपाय सोचा जाये ॥52॥ तदनंतर चंद्रगति विद्याधर इस समाचार को सुनकर घबड़ाया हुआ स्त्री के साथ आकर पुत्र से इस प्रकार बोला कि हे पुत्र ! स्वस्थ चित्त होकर भोजनादि समस्त क्रियाएं करो । मैं तुम्हारे मन में स्थित उस कन्या को वरता हूँ अर्थात् तेरे लिए स्वीकार करता हूँ ॥53-54॥ इस प्रकार पुत्र को सांत्वना देकर चंद्रगति विद्याधर हर्ष, विषाद और विस्मय को धारण करता हुआ एकांत में अपनी स्त्री से बोला कि ॥55॥ हे आर्ये ! विद्याधरों की अनुपम कन्याएँ छोड़कर हम लोगों का भूमिगोचरियों से साथ संबंध करना कैसे ठीक हो सकता है ? ॥56॥ इसके सिवाय एक बात यह है कि भूमिगोचरी के घर जाना कैसे ठीक हो सकता है ? याचना करने पर भी यदि उसने कन्या नहीं दी तो उस समय मुख की क्या कांति होगी ? ॥57॥ इसलिए कन्या के प्रिय पिता को किसी उपाय से शीघ्र ही यहीं बुलाता हूँ । इस विषय में कोई दूसरा मार्ग शोभा नहीं देता ॥58॥ स्त्री ने उत्तर दिया कि हे नाथ ! उचित और अनुचित तो आप ही जानते हैं पर इतना अवश्य कहती हूँ कि आपकी बात मुझे भी अच्छी लगती है ॥59॥
तदनंतर राजा ने चपलवेग नामक भूत्य को आदरपूर्वक बुलाकर उसके कान में सब वृत्तांत सूचित कर दिया । ॥60॥ तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा से संतुष्ट हुआ चपलवेग शीघ्र ही उस प्रकार मिथिला की ओर चला जिस प्रकार कि हर्ष से भरा तरुण हंस सुगंधि से सूचित कमलिनी की ओर चलता है ॥61॥ उसने आकाश से उतरकर सुंदर घोड़े का रूप बनाया और वह गाय, भैंसा, अश्व तथा हाथी आदि पशुओं को भयभीत करने के लिए उद्यत हुआ ॥ 62॥ वह जिस देश के घात करने में प्रवृत्त होता था उसी ओर से रोने का प्रबल शब्द उठ खड़ा होता था । राजा जनक ने भी जनसमूह से उस घोड़े की चेष्टाएँ सुनीं ॥63 ॥ सुनी ही नहीं, वह हर्ष, उद्वेग और कौतुक से युक्त हो उस घोड़े की चेष्टाएँ देखने के लिए नगर से बाहर भी आया और उसने नवयौवन से युक्त उस घोड़े को देखा ॥64॥ वह घोड़ा अत्यंत ऊंचा था, मन को अपनी ओर खींचने वाला था, उसके शरीर में अच्छे-अच्छे लक्षण देदीप्यमान हो रहे थे, दक्षिण अंग में महान् आवर्त थी, उसका मुख तथा उदर कृश था, वह अत्यंत बलवान् था, टापों के अग्रभाग से वह पृथिवी को ताड़ित कर रहा था । उससे ऐसा जान पडता था मानो मृदंग ही बजा रहा हो । साधारण व्यक्ति उस पर चढ़ने में असमर्थ है तथा उसका नथना कंपित हो रहा था ॥65-66॥ तदनंतर विशद्ध हर्ष को धारण करने वाले राजा जनक ने बार-बार उपस्थित लोगों से कहा कि मालूम किया जाये कि यह किसका घोड़ा बंधन मुक्त हो गया है ? ॥67॥ तत्पश्चात् प्रिय वचन कहने में जिनका चित्त उत्कंठित हो रहा था ऐसे ब्राह्मणों ने कहा कि हे राजन् ! इस घोड़े के समान कोई दूसरा घोड़ा नहीं है ॥68॥ यहाँ की बात जाने दीजिए समस्त पृथिवी में जितने राजा हैं उनमें किसी के ऐसा घोड़ा नहीं होगा । अथवा हे राजन् ! आपने भी इतने समय तक क्या कभी ऐसा घोड़ा देखा ? ॥69॥ हम तो समझते हैं कि सूर्य के रथ में भी इस घोड़े की समानता करने वाला घोड़ा नहीं होगा ॥70॥ ऐसा जान पड़ता है कि परम तपस्या करने वाले आपको लक्ष्य कर ही विधाता ने यह घोड़ा बनाया है सो हे प्रभो ! इसे आप स्वीकार करो ॥71॥
तदनंतर उस विनयवान घोड़े को दुहरी रस्सी से बांधकर घुड़साल में ले जाया गया । उस समय उसका शरीर केशर के विलेपन से गीला हो रहा था और उस पर सुंदर चमर हिल रहे थे ॥72॥ घुड़साल में निरंतर योग्य उपचारों से इसकी सेवा होती थी । इस तरह जिस दिन से घोड़ा पकड़कर लाया गया था उस दिन से एक मास का समय व्यतीत हो गया ॥ 73 ॥ इस बीच में वन के एक कर्मचारी ने नमस्कार कर राजा जनक से निवेदन किया कि हे नाथ ! अपने देश में हाथी कैसे पकड़ा जाता है यह देखिए ? ॥74॥ तदनंतर प्रसन्नता से भरे राजा जनक उत्तुंग गजराज पर सवार होकर चले । वन का कर्मचारी उन्हें मार्ग बताता जाता था । इस तरह राजा जनक किसी बड़े वन में प्रविष्ट हुए ॥75 ॥ वहाँ उन्होंने सरोवर के दूसरी ओर दुर्गम स्थान में खड़े हुए उत्तम हाथी को देखकर सारथी से कहा कि शीघ्र ही किसी वेगशाली घोड़े को लाओ ॥76॥ कहने की देर थी कि जिसका शरीर फड़क रहा था ऐसा वह मायामय घोड़ा लाकर राजा जनक के समीप खड़ा कर दिया गया । राजा जनक उस पर सवार हुए नहीं कि वह घोड़ा उन्हें लेकर आकाश में उड़ गया ॥77॥ यह देख जो सहसा भयभीत हो गये थे तथा जिनमें चित्त आश्चर्य से व्याप्त हो रहे थे ऐसे अन्य राजा लोग हाहाकार करके बहुत भारी शोक को धारण करते हुए वापस लौट आये ॥78॥
अथानंतर मन के समान जिसका कोई निवारण नहीं कर सकता था ऐसा वह घोड़ा अनेक नदी, पहाड़, देश और पर्वतों को लाँघता हुआ आगे बढ़ता गया ॥79॥ तदनंतर पास ही में एक ऊँचा उज्ज्वल भवन देखकर राजा जनक एक महावृक्ष की शाखा में मजबूती से झूम गये ॥ 80॥ तदनंतर वक्ष से नीचे उतरकर उन्होंने आश्चर्यचकित हो कुछ देर तक विश्राम किया फिर पैरों से पैदल चलते हुए कुछ दूर गये ॥81 ॥ वहाँ उन्होंने अत्यंत ऊँचा सुवर्णमय कोट और उत्तमोत्तम रत्नों से युक्त तोरण से समुद्धासित गोपूर देखा ॥82 ॥ लताओं के समूह से युक्त, फल और फूलों से समृद्ध तथा नाना प्रकार के पक्षियों से सुशोभित वृक्षों को नाना जातियां देखीं ॥83 ॥ जिनके शिखर संध्या के बादलों के समान सुशोभित थे, जो गोलाकार में स्थित थे तथा जो भवनों के राजा अर्थात् राजभवन की बड़ी तत्परता से सेवा करते हुए के समान जान पड़ते थे ऐसे महलों को भी उन्होंने देखा ॥84॥
तदनंतर अतिशय चतुर राजा जनक ने दाहिने हाथ में तलवार लेकर सिंह के समान निःशंक हो गोपुर में प्रवेश किया ॥85॥ वहाँ जाकर उन्होंने जहाँ-तहाँ फैले हुए रंग-बिरंगे अनेक प्रकार के फूल देखे । जिनकी सीढ़ियां मणि और स्वर्ण की बनी हुई थीं तथा जिनमें स्फटिक के समान स्वच्छ जल भरा था ऐसी बावड़ियाँ देखी ॥86॥ जिन्हें देखकर आनंद उत्पन्न होता था, जिनकी बहुत भारी सुगंधि दूर-दूर तक फैल रही थी, जिनके पल्लवों के समूह हिल रहे थे, और जहाँ भ्रमर संगीत कर रहे थे ऐसे कुंद पुष्पों के विशाल मंडप भी उन्होंने देखे ॥87॥ तदनंतर राजा जनक ने खुले हुए अत्यंत सुंदर स्वच्छ नेत्र से माधवी लताओं की ऊँची जाली के बीच झाँक कर एक ऐसा सुंदर मंदिर देखा जो मोतियों की जाली से सुशोभित रत्नमय झरोखों से युक्त था, जो सुवर्ण निर्मित हजारों बड़े-बड़े खंभे धारण कर रहा था, नाना प्रकार के रूप से व्याप्त था, मेरु की शिखर के समान जिसकी प्रभा थी, और जिसकी महापीठ (भूमिका) वज्रनिवद्ध के समान अत्यंत मजबूत थी ॥ 88-90॥ उसे देखकर वे विचार करने लगे कि क्या यह आकाश से गिरा हुआ विमान है अथवा दैत्यों के द्वारा हरण किया हुआ इंद्र का क्रीडागृह है ? ॥91॥ अथवा किसी कारणवश सूर्य को किरणों से जिसके खंड हो गये थे ऐसा पाताल से निकला हुआ नागेंद्र का भवन है ? ॥92॥ अहो! उस भले घोड़े ने मेरा बड़ा उपकार किया जिससे मैं इस अदृष्टपूर्व सुंदर मंदिर को देख सका ॥ 93 ॥ ऐसा विचार करते हुए राजा जनकने उस मनोहर मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ जाकर जिनेंद्र भगवान् के दर्शन किये । जिन दर्शन के प्रभाव से उनका मुखकमल खिल उठा था ॥94॥ मंदिर में विराजमान जिनेंद्रदेव अग्नि की शिखा के समान गौर वर्ण थे, उनका मुख पूर्ण चंद्रमा के समान था, वे पद्मासन से विराजमान थे, बहुत ऊँचे थे, जटारूपी मुकुट को धारण किये हुए थे, आठ प्रातिहार्यों से युक्त थे, स्वर्ण कमलों से उनकी पूजा की गयी थी, नाना प्रकार के रत्नों से उनको कांति बढ़ रही थी, और वे ऊँचे सिंहासन पर विराजमान थे ॥95-96॥
तदनंतर जिसके शरीर में रोमांच उठ रहे थे ऐसे राजा जनक ने हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये और बड़ी सावधानी से जिनेंद्रदेव को नमस्कार किया । नमस्कार करते-करते उसकी भक्ति इतनी अधिक बढ़ी कि वह उसके अतिरेक से मूर्च्छित हो गया ॥97॥ क्षण-भर के बाद पुनः चेतना प्राप्त कर उसने सुंदर सुसंस्कृत स्तुति की । तदनंतर वह परम आश्चर्य को धारण करता हुआ निःशंक हो वहीं बैठ गया ॥98॥
इधर चपलवेग नाम का विद्याधर जो घोड़े का रूप धरकर जनक को हर ले गया था अपने कार्य में सफल हो बड़ा प्रसन्न हुआ तथा शीघ्रता से सब माया समेटकर तथा खड̖गधारी विद्याधर बनकर रथनूपुर नगर पहुंचा ॥ 99 ॥ उसने संतुष्ट होकर अपने स्वामी के लिए नमस्कार कर कहा कि राजा जनक यहाँ लाये जा चुके हैं तथा सुंदर वन से वेष्टित जिनमंदिर में उन्हें ठहरा दिया गया है ॥100॥ राजा जनक को आया जानकर चंद्रगति परम हर्ष को प्राप्त हुआ । तदनंतर उदारचित्त को धारण करने वाला एवं नाना वाहनों से युक्त चंद्रगति आप्त वर्ग के साथ पूजा की उत्तमोत्तम सामग्री लेकर मनोरथरूपी रथ पर सवार हो जिनमंदिर गया ॥101-102॥ जिसमें तुरही और शंखों का विशाल शब्द हो रहा था ऐसी उस देदीप्यमान बड़ी भारी सेना को आती देख जनक कुछ भयभीत हुआ ॥103॥ तदनंतर उसमें सिंह, हाथी, शार्दूल, नाग तथा हंस आदि नाना वाहनों पर स्थित पुरुषों के मध्य में एक विमान देखा ॥104॥ उसे देखकर वह विचार करने लगा कि निश्चय ही वे विद्याधर हैं जो कि विजयार्द्ध पर्वत पर वास करते हैं ॥105॥ इस सेना के बीच में अपने विमान में बैठा हुआ जो कांतिमां पुरुष शोभित हो रहा है वह विद्याधरों का राजा है ॥106॥ राजा जनक इस प्रकार को चिंता में तत्पर थे ही कि हर्ष से भरा तथा नम्रीभूत शरीर को धारण करने वाला वह चंद्रगति जिनमंदिर में आ पहुँचा ॥107॥ जिसका परिग्रह कुछ तो भीम अर्थात् भय उत्पन्न करने वाला था और कुछ सौम्य अध्यात्मशांति उत्पन्न करने वाला ऐसे दैत्यराज को आया देख कुछ ध्यान करता हुआ राजा जनक जिनराज के सिंहासन के नीचे बैठ गया ॥ 108॥ राजा चंद्रगति ने भी भक्तिवश उत्तम पूजा कर तथा विधिपूर्वक प्रणाम कर जिनेंद्रदेव की उत्तम स्तुति की ॥109॥ और प्रिया के समान जिसका स्वर अत्यंत सुखकारी था ऐसी वीणा को गोद में रख बड़ी भावना से युक्त हो जिनराज का गुणगान करने लगा ॥110॥
गुणगान करते समय उसने कहा कि जो तीनों लोकों के लिए वर देने वाले हैं, अतिशय पूर्ण पूजा के करने में चित्त धारण करने वाले मनुष्य जिनकी सदा स्तुति करते हैं, इंद्रादि श्रेष्ठ देव जिन्हें नमस्कार करते हैं, तथा जो अक्षय-अविनाशी सुख के धारक हैं, ऐसे जिनेंद्रदेव को हे भव्यजन ! सदा प्रणाम करो ॥111॥ हे सत्पुरुषो ! तुम उन ऋषभ देव भगवान को मन से, वचन से शिर झुकाकर सदा नमस्कार करो जो कि उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त हैं, वर देने वाले हैं, श्रेष्ठ हैं, अविनाशी हैं और उत्तम ज्ञान से युक्त हैं तथा जिन्हें नमस्कार करने से समस्त पाप विनष्ट हो जाते हैं ॥112॥ तुम उन जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करो जो कि अतिशयों से उत्कृष्ट हैं, जिन्होंने पाप को नष्ट कर दिया है, जो परमगति-सिद्धगति को प्राप्त हो चुके हैं, समस्त सुर और असुर जिनके चरणों की पूजा करते हैं, तथा जिन्होंने क्रोधरूपी महाशत्रु को पराजित कर दिया है ॥ 113 ॥ में भक्तिपूर्वक बड़ी सावधानी से उन जिनेंद्र भगवान् की स्तुति करता हूँ कि जिनका शरीर उत्तम लक्षणों से युक्त है, जिन्होंने समस्त मनुष्यों के समूह को नम्रीभूत कर दिया है और जिन्हें नमस्कार करने मात्र से भक्तों का भय नष्ट हो जाता है ॥ 114॥ हे भव्यजन ! तुम उन जिनेंद्रदेव को प्रणाम करो कि जो अनुपम गुणों को धारण करने वाले हैं, जिनका शरीर उपमारहित है, जिन्होंने संसार रूपी समस्त कुचेष्टाओं को नष्ट कर दिया है, जो कलिकाल के पापरूपी सघन पट को दूर करने में समर्थ हैं तथा जो अतिशयों से पवित्र हैं अथवा अत्यंत पवित्र हैं ॥115॥
तदनंतर दैत्यराज के इस प्रकार गाने पर सुंदर शरीर को धारण करने वाला राजा जनक भय छोड़ जिनेंद्रदेव के सिंहासन के नीचे से बाहर निकल आया ॥ 116 ॥ उसे देख जिसका मन कुछ विचलित हो गया था ऐसा चंद्रगति बोला कि आप कौन हैं ? जो इस निर्जन स्थान में जिनालय के बीच रहते हैं ॥117॥ आप नागकुमार देवों के स्वामी हैं ? या विद्याधरों के अधिपति हैं ? अथवा किस नाम को धारण करने वाले हैं ? और यहाँ कहाँ से आये हैं ? हे मित्र ! यह सब मुझ से कहो ॥118॥ इसके उत्तर में राजा ने कहा कि विद्याधरराज ! मैं मिथिला नगरी से आया हूँ । जनक मेरा नाम है और एक मायामयी घोड़ा मुझे हरकर लाया है ॥119॥ जनक के इतना कहने पर दोनो के हृदय परस्पर अत्यंत प्रसन्न हुए और दोनों ही एक दूसरे के लिए हाथ जोड़कर सूख से बैठ गये ॥120 ॥ क्षण-भर ठहरकर दोनों ने एक दूसरे के लिए अपना वृत्तांत सुनाया और परस्पर एक दूसरे का सम्मान किया । इस तरह वे परस्पर विश्वास को प्राप्त हुए ॥ 121॥ तदनंतर बीच में ही बात काटकर चंद्रगति ने कहा कि अहो ! मैं बड़ा पुण्यवान् हूँ कि जिसने आप मिथिला के राजा का दर्शन किया ॥122॥
हे राजन् ! मैंने अनेक लोगों के मुख से सुना है कि आपके शुभ लक्षणों से युक्त कन्या है ॥ 123॥ सो वह कन्या मेरे भामंडल नामक पुत्र के लिए दीजिए । आपके साथ संबंध स्थापित कर मैं अपने-आपको परम भाग्यशाली समझूंगा ॥124॥ इसके उत्तर में राजा जनक ने कहा कि हे विद्याधर राज ! यह सब हो सकता था परंतु वह कन्या राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम के लिए निश्चित की जा चुकी है, अतः विवशता है ॥125॥ मित्र चंद्रगति ने कहा कि वह कन्या राम के लिए किस कारण निश्चित की गयी है ? इसके उत्तर में जनक ने कहा कि यदि आपको कौतूहल है तो सुनिए ॥ 126 ॥
अर्ध-राक्षसों के समान अत्यंत दुष्ट म्लेच्छों ने मेरी धन, धान्य, गाय, भैंस तथा अनेक रत्न से परिपूर्ण मिथिला नगरी को बाधा पहुँचाना शुरू किया ॥127॥ समस्त प्रजा पीड़ित होने लगी, धन-धान्य के समूह चुराये जा ने लगे, और महानुभाव श्रावकों के धार्मिक पूजा-विधान आदि अनुष्ठान नष्ट किये जा ने लगे ॥128 ।। तदनंतर उनके साथ मेरा महायुद्ध हआ । सो उस महायुद्ध में रामने मेरो तथा मेरे छोटे भाई की रक्षा कर देवों से भी दुर्जेय उन समस्त म्लेच्छों को पराजित किया ।।129।। राम का छोटा भाई लक्ष्मण भी इंद्र के समान महापराक्रमी तथा महा विनय से सहित है । वह सदा राम की आज्ञा का पालन करता है ॥130॥ यदि उन दोनों भाइयों के द्वारा म्लेच्छों की वह सेना नहीं जीती जाती तो निश्चित था कि यह समस्त पृथिवी म्लेच्छों से भर जाती ॥131 ।। वे म्लेच्छ विवेक से रहित तथा लोगों को पीड़ा पहुँचाने के लिए रोगों के समान थे अथवा महा उत्पात के समान अत्यंत भयंकर और विष के समान दारुण थे ॥132 ।। गुणों से संपूर्ण तथा लोगों से स्नेह करने वाले उन दोनों पुत्रों को पाकर राजा दशरथ अपने भवन में इंद्र के समान राज्यसुख का उपभोग करते हैं ॥133 ।। नय और शूरवीरता से सुशोभित राजा दशरथ के राज्य में इस समय हवा भी संपत्तिशाली प्रजा का कुछ हरण नहीं कर पाती है फिर अन्य मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? ।।134 ।।
इस उपकार के बदले में उनका क्या उपकार करूँ इसी बात की आकुलता से चिंता करते हुए मुझे न रात में नींद है न दिन में ही ॥135 ।। रामने मेरे प्राणों की जो रक्षा की है उस समान भी कोई प्रत्युपकार नहीं है फिर अधिक की तो चर्चा ही क्या है ? ।।136 ।। जो महान् उपकार से दबा हुआ है तथा स्वयं कुछ भी प्रत्युपकार करने में असमर्थ है, ऐसे अपने आपको मैं तृण के समान तुच्छ समझता हूँ । मैं केवल भोगों के भव से पराङ्मुख हो रहा हूँ ॥137॥ तदनंतर जब मेरी दृष्टि नवयौवन से संपूर्ण अपनी शुभ पुत्री पर पड़ी तब शोक के स्थान में भी मेरा शोक विरलता को प्राप्त हो गया ॥138॥ मैंने अतिशय प्रतापी रामचंद्रजी के लिए उसको देना संकल्पित कर लिया और नाव की भाँति इस पुत्री ने मुझे शोकरूपी सागर से पार कर दिया ॥132।।
तदनंतर जिनके मुखों पर अंधकार छा रहा था ऐसे विद्याधर बोले कि अहो ! तुम एक साधारण मनुष्य हो, तुम्हारी बुद्धि ठीक नहीं है ।। 140॥ राम ने म्लेच्छों को पकड़ा है इससे क्या हुआ ? उनको परास्त तो क्षुद्र मनुष्य भी कर सकते हैं फिर क्यों तुम बुद्धिमान होकर भूमिगोचरियों की परमशक्ति की प्रशंसा कर रहे हो ॥141।। म्लेच्छों को निकालने मात्र से ही तुम राम की स्तुति कर रहे हो सो यह उनकी स्तुति नहीं किंतु निंदा है । अहो ! यह बड़ी हँसी की बात है ।। 142॥
बालकी विषफल में, दरिद्र की बैर आदि तुच्छ फलों में और कौए की सूखे वृक्ष में प्रीति होती है । सो कहना पड़ता है कि प्राणी का स्वभाव कठिनाई से छूटता है ॥143॥ इसलिए तुम भूमिगोचरियों का खोटा संबंध छोड़कर इस समय विद्याधरों के राजा के साथ संबंध करो ॥144॥ महा संपत्तिमान् तथा देवों के समान आकाश में चलने वाले विद्याधर कहाँ ? और सर्व प्रकार से अत्यंत दुःखी क्षुद्र भूमिगोचरी कहाँ ? ।।145 ।।
तदनंतर जनक ने उत्तर दिया कि अत्यंत विस्तृत लवणसमुद्र वह काम नहीं करता जो कि थोड़े से मधुर जल को धारण करने वाली वापिकाएँ कर लेती हैं ॥146 ।। अत्यंत सघन अंधकार बहुत भारी होता है तो भी उससे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है जब कि छोटे से दीपक के द्वारा लोक की चेष्टा उत्पन्न होती है अर्थात् सब काम सिद्ध होते हैं ॥147 ।। मद को झराने वाले असंख्य हाथी भी वह काम नहीं कर पाते जो कि चंद्रबिंब के समान उज्ज्वल जटाओं को धारण करने वाला सिंह का एक बच्चा कर लेता है ।। 148 ꠰। ऐसा कहने पर कितने ही विद्याधर ऐसा नहीं है इस प्रकार जोर से एक साथ बड़ा शब्द करते हुए भूमिगोचरियों की निंदा करने लगे ।। 149 ।। वे कहने लगे कि भूमिगोचरी विद्या के माहात्म्य से रहित हैं, निरंतर पसीना से युक्त रहते हैं, शूर वीरता और संपत्ति से रहित हैं तथा अतिशय शोचनीय हैं ।। 150॥ अरे जनक ! बता तूने उनमें और पशुओं में क्या भेद देखा है ? जिससे दुर्बुद्धि हो तथा लज्जा छोड़कर उनकी इस तरह प्रशंसा किये जा रहा है ? ॥151 ।।
तदनंतर धीरवीर जनक ने कहा कि हाय ! बड़े कष्ट की बात है कि मुझ पापी को भूमिगोचरी उत्तमोत्तम राजाओं की निंदा सुननी पड़ी ॥152।। क्या त्रिजगत् में प्रसिद्ध तथा लोक को पवित्र करने वाला भगवान् ऋषभदेव का वंश इनके कर्णगोचर नहीं हुआ ॥153 ।। त्रिजगत् के द्वारा पूजनीय तीर्थंकर चक्रवर्ती, नारायण और बलभद्र-जैसे महापुरुष जिसमें उत्पन्न होते हैं वह भूमि निंदनीय कैसे हो सकती है ? ॥154॥ हे विद्याधरो ! कहो, विद्याधरों की भूमि में पुरुषों को पंच कल्याणकों की प्राप्ति होना क्या कभी आप लोगों ने स्वप्न में भी देखी है ? ।।155 ।। जिनकी उत्पत्ति इक्ष्वाकु वंश में हुई थी, जिन्होंने संसार को गोष्पद के समान तुच्छ कर दिखाया, जिन्होंने कभी दूसरे का छत्र नहीं देखा, महारत्नों की समृद्धि जिनके पास थी, इंद्र जिनकी उदार कीर्ति का वर्णन करता था, और जो गणों के सागर थे ऐसे अनेक कृतकृत्य राजा पृथिवी पर हो चुके हैं ॥156 157॥ उसी इक्ष्वाकु वंश में महानुभाव राजा अनरण्य की सुमंगला रानी की कुक्षि से राजा दशरथ उत्पन्न हुए हैं ।। 158 ।। जो लोकहित के लिए अपना जीवन भी छोड़ सकते हैं, समस्त लोग जिनकी आज्ञा को शेषाक्षत के समान शिर से धारण करते हैं ॥159॥ जिसके सर्व प्रकार की शोभा और गुणों से उज्ज्वल, उत्तम अभिप्राय की धारक तथा उत्तम अलंकारों से युक्त चार दिशाओं के समान चार महादेवियाँ हैं ॥160॥ यही नहीं, अपने मुख से चंद्रमा को जीतने वाली पांच सौ स्त्रियाँ और भी अपनी चेष्टाओं से जिसके मन को हरती रहती हैं ॥1611॥ जिसके पद्म (राम) नाम का ऐसा पुत्र है कि लक्ष्मी जिसके शरीर का आलिंगन करती है, जिसने अपनी दीप्ति से सूर्य को, कीर्ति से चंद्रमा को, धीरता से सुमेरु की और शोभा से इंद्र को जीत लिया है, जो शूरवीरता से महापद्म नामक चक्रवर्ती को भी जीत सकता है तथा उत्तम विभ्रम को धारण करने वाला है ।। 162-163 ।। जिसका शरीर लक्ष्मी का निवासस्थल है और जिसके धनुष को देखकर शत्रु भयभीत होकर भाग जाते हैं ऐसा लक्ष्मण उस राम का छोटा भाई है ॥164॥ विद्याधर आकाश में चलते हैं यह कहा सो आकाश में तो कौए भी चलते हैं । इससे उनमें क्या विशेषता हो जाती है ? यहाँ गुणों में मन लगाना चाहिए अर्थात् गुणों का विचार करना चाहिए । इंद्रजाल में क्या सार है ? ॥165॥ अथवा आप लोगों की तो बात ही क्या है ? जबकि भूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य इंद्रों को भी नम्रीभूत कर देते हैं और नमस्कार करते समय उन्हें अपने मस्तक पृथिवी पर रगड़ने पड़ते हैं ॥166॥
अथानंतर जनक के ऐसा कहने पर विद्याधरों ने एकांत में बैठकर पहले सलाह की फिर कहा कि हे जनक ! तुम कार्य करना नहीं जानते, तुम्हारा मन सिर्फ एक ही ओर लग रहा है ॥167॥ ‘राम और लक्ष्मण उत्कृष्ट हैं’ इस गर्जना को तुम व्यर्थ ही धारण कर रहे हो । यदि मेरे इस कहने में कुछ संशय हो तो इससे उसका निश्चय कर लो ।। 168।। हे राजन् ! हमारी शर्त सुनो । यह वज्रावर्त नाम का धनुष है, और यह सागरावर्त नाम का धनुष है । देव लोग इन दोनों की रक्षा करते हैं ॥169।। यदि राम और लक्ष्मण इन धनुषों को डोरी सहित करने में समर्थ हो जावेंगे तो इसी से हम उनकी शक्ति जान लेंगे । अधिक कहने से क्या लाभ है ? ॥170॥ राम वज्रावर्त धनुष को चढ़ाकर कन्या ग्रहण कर सकते हैं । यदि वे उक्त धनुष नहीं चढ़ा सकेंगे तो आप देखना कि हम लोग उसे यहाँ जबरदस्ती ले आवेंगे ॥171॥
तदनंतर ठीक है ऐसा कहकर जनक ने विद्याधरों की शर्त स्वीकार तो कर ली परंतु उन दुर्ग्राह्य धनुषों को देखकर चित्त में वह कुछ आकुलता को प्राप्त हुआ ॥172 ।। तदनंतर भावपूर्वक जिनेंद्र भगवान् की पूजा और स्तुति कर चुकने के बाद गदा, हल आदि शस्त्रों से युक्त उन दोनों धनुषों की भी पूजा की गयी ॥173 ।। वे शूरवीर विद्याधर उन धनुषों तथा राजा जनक को लेकर मिथिला की ओर चल पड़े और चंद्रगति विद्याधर भी रथनूपुर की ओर चल दिया ॥174 ।। तदनंतर जिसकी बहुत बड़ी सजावट की गयी थी, और जिसमें महाजन लोग मंगलाचार से सहित थे, ऐसे अपने भवन में राजा जनक ने प्रवेश किया । प्रवेश करते समय नागरिकजनों ने जनक के अच्छी तरह दर्शन किये थे ।। 175॥
बहुत भारी गर्व को धारण करने वाले विद्याधर नगर के बाहर आयुध शाला बनाकर तथा उसी को घेरकर ठहर गये ।। 176।। जिसका शरीर खेद-खिन्न था ऐसे जनक ने कुछ थोड़ा-सा भोजन किया और इसके बाद वह चिंता से व्याकुल हो शय्या पर पड़ रहा । उत्साह तो उसे था ही नहीं ॥177 ।। यद्यपि वहाँ विनय से भरी उत्तम स्त्रियाँ, हाव-भाव दिखाती हुई, चंद्रमा की किरणों के समान चमरों से उसे हवा कर रही थीं तथापि वह अत्यंत विषम, उष्ण और लंबे-लंबे अत्यधिक श्वास छोड़ रहा था । उसकी यह दशा देख विविध प्रकार के भाव को धारण करती हुई रानी विदेहा ने कहा ॥178-179।। कि हे कामिन् ! आप कहाँ गये थे और वहाँ ऐसी कौन-सी कामिनी आपने देखी है जिसके वियोग से इस अवस्था को प्राप्त हुए हो ॥180॥
जान पड़ता है कि वह कोई पामरी स्त्री है अथवा स्त्री के योग्य गुणों से रिक्त है जो इस तरह काम से संतप्त हुए आप पर दया नहीं करती है ।। 181 ।। हे नाथ ! आप वह स्थान बतलाइए जिससे मैं उसे ले आऊँ क्योंकि आपके दुःख से मुझे तथा समस्त लोगों को दुःख हो रहा है ।। 182 ।। उत्कृष्ट सौभाग्य के रहते हुए भी उस पाषाण हृदया ने आपको क्यों नहीं चाहा है जिससे कि आप अत्यंत अधीर हो रहे हैं ।। 183 ।। उठिए और राजाओं के योग्य समस्त क्रियाओं का सेवन कीजिए । यदि शरीर है तो अनेक इच्छित स्त्रियाँ हो जावेंगी ॥184 ।।
विदेहा के ऐसा कहने पर राजा ने प्राणों से भी अधिक प्रिय वल्लभा से कहा कि मेरा चित्त दूसरे ही कारण से खिन्न हो रहा है । उसे इस तरह खेद क्यों पहुंचा रही हो ? ॥185॥ हे देवि ! सुनो, मैं जिस कारण से ऐसी अवस्था को प्राप्त हुआ हूँ । तुम वृत्तांत को जा ने बिना इस प्रकार क्यों बोल रही हो ? ॥186 ।। मैं उस मायामय अश्व के द्वारा विजयार्ध पर्वत पर ले जाया गया था । वहाँ विद्याधरों के राजा ने मुझे इस शर्त पर छोड़ा है कि यदि राम वज्रावर्त धनुष को डोरों-सहित कर देंगे तो यह कन्या उनकी होगी अन्यथा मेरे पुत्र की होगी ।। 187-188॥ कर्म के प्रभाव से समझो अथवा भय से समझो बंधन अवस्था को प्राप्त हुए मुझ मंदभाग्य ने उसकी वह शर्त स्वीकार कर ली ॥189।। समुद्रावर्त नामक दूसरे धनुष के साथ उस धनुष को उग्र विद्याधर ले आये हैं और वह नगर के बाहर स्थित है ।। 190॥ वह धनुष वनाग्नि के समान है तथा तेज के कारण उसकी ओर देखना भी कठिन है । इसलिए मैं तो समझता हूँ कि उसे डोरी-सहित करने में इंद्र भी समर्थ नहीं हो सकेगा ।। 191 ।। वह ऐसा जान पड़ता है मानो अत्यंत क्रुद्ध यमराज ही हो । बिना खींचे भी वह शब्द करता है और बिना डोरी के भी वह अत्यंत भयंकर है ।।192॥ यदि राम उस धनुष को डोरी सहित नहीं कर सके तो मेरी इस कन्या को विद्याधर लोग अवश्य ही उसी तरह हरकर ले जावेंगे जिस तरह कि पक्षी किसी शृगाल के मुख से मांस को डली को हर ले जाते हैं ॥193 ।। इस कार्य के लिए बीस दिन की अवधि निश्चित की गयी है । इसके बाद यह कन्या जबरदस्ती ले जायी जावेगी । फिर इस बेचारी को हम कहाँ देख सकेंगे ? ।।194 ।।
जनक के ऐसा कहते ही विदेहा के नेत्र सहसा आँसुओं से भर गये और इस प्रसंग से उसे अपने अपहृत बालक का स्मरण हो आया ॥195॥ वह अतीत और आगामी शोक के द्वारा दोनों ओर से पीड़ित हो रही थी । इसलिए कुररी की तरह शब्द करती हुई नेत्रों से जल बरसाने लगी ।। 196 ।। विह्वल चित्त की धारक विदेहा परिजनों के चित्त को अत्यंत द्रवीभूत करती हुई इस प्रकार विलाप करने लगी कि हे नाथ ! मैंने दैव का कैसा उलटा अपकार किया होगा कि जिससे वह पुत्र के द्वारा संतुष्ट नहीं हुआ अब कन्या को हरने के लिए उद्यत हुआ है ।। 197-198॥ उत्तम चेष्टा को धारण करने वाली यही एक बालि का मेरे और आपके स्नेह का आलंबन है तथा भाई-बांधव एवं परिवार के लोगों का प्रेमभाजन है ।। 199 ।। मैं पापिनी जब तक एक दुःख का अंत नहीं प्राप्त कर पाती हूँ तब तक दूसरा दुःख आकर उपस्थित हो जाता है ।। 200॥ राजा जनक स्वयं शोक से आकुल था पर जब उसने देखा कि विदेहा शोकरूपी आवर्त में फँसकर करुण रोदन कर रही है तब उसने जिस किसी तरह अपने आँसू रोककर कहा कि हे प्रिये ! तुम्हारा रोना व्यर्थ है । निश्चय से पूर्व जन्म में अर्जित कर्म ही समस्त लोक को नचा रहा है । यही सबसे बड़ा नर्तकाचार्य है ॥201-202 ।। अथवा मेरे निश्चित असावधान रहने पर किसी दुष्ट के द्वारा बालक हरा गया था पर अब तो मैं सावधान हूँ । देखूँ मेरी कन्या को हरने के लिए कौन समर्थ है ? ॥203॥ हे प्रिये ! आप्तजनों के साथ कार्य का विचार करना चाहिए इस न्याय को न छोड़ते हुए ही मैंने तुम से पूछा था । मैं तो जानता हूँ कि यह वस्तु सुख को धारण करने वाली ही होगी ।। 204।। पति के इस प्रकार सारपूर्ण वचनों से जिसे सांत्वना दी गयी थी ऐसी विदेहा बड़े कष्ट से शोक को हलका कर चुप हो रही ॥205।।
तदनंतर जहाँ धनुष रखा था उसके समीप ही विशाल भूमि बनायी गयी और उसमें स्वयंवर के लिए समस्त राजा बुलाये गये ॥206 ।। अयोध्या को भी दूत भेजा गया जिससे राम आदि चारों भाई माता-पिता आदि के साथ आये और राजा जनक ने उन सबका सन्मान किया ॥207॥ तदनंतर परम सुंदरी सीता सात सौ अन्य कन्याओं के साथ महल की सुंदर छत पर बैठी । शूरवीर योद्धा उसे घेरे हुए थे ।। 208 ।। उस महल के चारों ओर नाना प्रकार की लीला को करते हुए समस्त सामंत बड़े ठाट-बाट से अवस्थित थे ।। 209॥
तदनंतर अनेक शास्त्रों को जानने वाला तथा हाथ में सुवर्ण की छड़ी धारण करने वाला कंचुकी सीता के सामने खड़ा होकर उच्च स्वर से बोला कि हे राजपुत्रि ! देखो यह कमल-लोचन, अयोध्या के अधिपति राजा दशरथ का आद्य पुत्र पद्म ( राम ) है ॥ 210-211 ।। यह लक्ष्मीवान् तथा विशाल कांति को धारण करने वाला इसका छोटा भाई लक्ष्मण है । यह बड़ी-बड़ी भुजाओं को धारण करने वाला भरत है और यह सुंदर चेष्टाओं को धारण करने वाला शत्रुघ्न है ।। 212 ।। जिनके हृदय गुणों के सागर हैं ऐसे इन पुत्रों के द्वारा राजा दशरथ पृथिवी का पालन करते हैं । इनकी पृथिवी में भय के समस्त अंकुरों की उत्पत्ति भस्म कर दी गयी है ।। 213 ।। यह अत्यधिक कांति को धारण करने वाला बुद्धिमान् हरिवाहन है, यह सुंदर चित्ररथ है, यह प्रभावशाली दुर्मुख है ।।214॥ यह श्रीसंजय है, यह जय है, यह भानु है, यह सुप्रभ है, यह मंदर है, यह बुध है, यह विशाल है, यह श्रीधर है, यह वीर है, यह बंध है, यह भद्रबल है और यह शिखी अर्थात मयूर कुमार है ।। 215 ।। ये तथा इनके सिवाय और भी राजकुमार यहाँ उपस्थित हैं । ये सभी महापराक्रमी, महाशोभा से युक्त, विशुद्ध कुल में उत्पन्न, चंद्रमा के समान निर्मल कांति के धारक, परमोत्साही, गुणरूपी आभूषणों के धारक, महाविभव से संपन्न तथा अत्यधिक विज्ञान में निपुण हैं ।। 216-217॥ यह पर्वत के समान आभा वाला इसका हाथी है, यह इसका ऊँचा घोड़ा है, यह इसका विस्तृत रथ है और आश्चर्यजनक कार्य करने वाला इसका सुभट-योद्धा है ।। 218 ।। यह सांकाश्यपुर का स्वामी है, यह रंध्रपुर का अधिपति है, यह गवीधुमद् देश का अधीश है, यह नंदनिका का नाथ है ।। 219 ।। यह सूरपुर का विभु है । यह कुंडपुर का अधिप है, यह मगधदेश का राजा है, और यह कांपिल्यपुर का स्वामी है ।। 220 ।। यह राजा इक्ष्वाकु-वंश में उत्पन्न हुआ है, यह हरिवंश में उद्भूत हुआ है, यह कुरुकुल का आनंददायक है और यह राजा भोज है ।। 221 ।। ये सभी राजा इत्यादि वर्णना से युक्त तथा महागुणवान् सुने जाते हैं । तुम्हारे लिए इन सबका यह परीक्षण प्रारंभ किया गया है ॥222॥ हे कुमारि ! जो पुरुष इस वज्रावर्त धनुष को चढ़ा देगा वही पुरुषोत्तम तुम्हारे द्वारा वरा जाना है ।। 223॥
तदनंतर जो मान से सहित थे, अपनी प्रशंसा अपने आप कर रहे थे, और सुंदर विलास से सहित थे ऐसे उन सब राजाओं को वह कंचुकी वज्रावर्त धनुष के पास ले गया ॥224॥ जिसका आकार बिजली की छटा के समान था तथा जिसमें भयंकर साँप फुंकार रहे थे ऐसा वह धनुष राज कुमारों के पास आते ही अग्नि छोड़ने लगा ॥225।। कितने ही राजकुमार भयभीत हो धनुष की ज्वालाओं से ताड़ित चक्षु को दोनों हाथों से ढंककर शीघ्र ही वापिस लौट गये ।। 226 ।। जिनके समस्त अंग कंपित हो रहे थे तथा नेत्र बंद हो गये थे ऐसे कितने ही लोग चलते हुए साँपों को देखकर दूर ही खड़े रह गये थे ॥227।। कितने ही लोग ज्वर से आकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े, कितने ही लोगों की बोलती बंद हो गयी, कितने ही शीघ्र भाग गये और कितने ही मूर्छा को प्राप्त हो गये ॥228 ।।
कितने ही लोग साँपों की वायु से सूखे पत्र के समान उड़ गये, कितने ही अकड़ गये और कितने ही लोगों की ऋद्धि शांत हो गयी अर्थात् वे शोभा रहित हो गये ॥229 ।। कितने ही लोग कहने लगे कि यदि हम अपने स्थानपर वापिस जा सकेंगे तो जीवों को दान देवेंगे । हे देवते ! मुझे दो चरण दो अर्थात् वापिस भागने की पैरों में शक्ति प्रदान करो ।। 230।। कितने ही लोग बोले कि यदि हम जीवित रहेंगे तो अन्य स्त्रियों से काम की सेवा कर लेंगे । भले ही यह रूपवती हो पर इससे क्या प्रयोजन है ? ॥231 ।। कुछ लोग कहने लगे कि निश्चित ही किसी दुष्ट चित्त ने राजाओं के वध के लिए इस माया का प्रयोग किया है ।। 232॥ और कुछ लोग कहने लगे कि हमें काम से क्या प्रयोजन ? हम तो साधुओं के समान ब्रह्मचर्य से समय बिता देवेंगे ।। 233 ।।
तदनंतर जिन्हें उस उत्कृष्ट धनुष की लालसा उत्पन्न हो रही थी ऐसे राम मदोन्मत्त गजराज के समान मंथर गति को धारण करते हुए उसके पास पहुँचे ।। 234॥ पुण्यशाली राम के समीप आते ही धनुष अपने असली स्वरूप को उसी तरह प्राप्त हो गया जिस तरह कि गुरु के समीप आते ही विद्यार्थी अत्यंत सुंदर सौभाग्यरूप को प्राप्त हो जाता है ॥235॥ तदनंतर रामने वस्त्र ऊपर चढ़ाकर निःशंक हो धनुष उठा लिया और उसे चढ़ाकर विपुल गर्जना की ।। 236 ।। मयूर उस गर्जना को मेघों की महागर्जना समझ हर्ष से केकाध्वनि छोड़ने लगे और अपनी पिच्छों का मंडल फैलाकर नृत्य करने लगे ॥237।। सूर्य अलातचक्र के समान हो गया और दिशाएँ सुवर्ण की पराग से ही मानो व्याप्त हो गयीं ॥238।। आकाश में ‘साधु’ ‘साधु’― ‘ठीक-ठीक’ इस प्रकार देवों का शब्द होने लगा और फलों के समूह की वर्षा करते हुए कितने ही व्यंतर नृत्य करने लगे ॥239।।
तदनंतर अटनी की टंकार से जिसने समस्त विश्व को बहिरा कर दिया था तथा जो चक्रा कारता को मानो व्याप्त हो रहा था ऐसे धनुष को रामने खींचा ॥240 ।। जिनकी समस्त इंद्रियाँ विकल हो गयी थी तथा मन भयभीत हो रहा था ऐसे सब लोग भँवर में पड़े हुए के समान घूमने लगे ॥241 ।। वायु से हिलते हुए कमलदल से भी अधिक जिसकी कांति थी, तथा जो कामदेव के धनुष के समान जान पड़ता था, ऐसे नेत्र से सीता ने राम को देखा ॥242 ।। जिसका समस्त शरीर रोमांचों से सुशोभित हो रहा था, जो उत्कृष्ट मा धारण कर रही थी, तथा लज्जा से जिसका मुख नीचे की ओर झुक रहा था ऐसी सीता प्रसन्न हो राम के समीप पहुँची ॥243 ।। पास में खड़ी सीता से सुंदर राम इस तरह सुशोभित हो रहे थे कि उनकी उपमा में वे इस तरह सुशोभित थे ऐसा जो कहता था वह निर्लज्ज जान पड़ता था अर्थात् वे अनुपम थे ॥244 ।।
तदनंतर धनुष की डोरी उतारकर वे विनयवान् राम सीता के साथ अपने आसन पर बैठ गये ॥245।। जो नव समागम के कारण भयभीत हो रही थी तथा जिसके हृदय में कंपन उत्पन्न हो रहा था ऐसी सीता राम का मुख देखने की इच्छा से किसी अद्भुत भाव को प्राप्त हो रही थी ॥246।। इतने में ही क्षुभितसमुद्र के समान जिसका शब्द हो रहा था ऐसे सागरावर्त नामक धनुष को लक्ष्मण ने प्रत्यंचासहित कर जोर से उसकी टंकार छोड़ी ॥247।। तदनंतर बाण पर दृष्टि लगाये हुए लक्ष्मण को देख ‘हे देव नहीं, नहीं’ ऐसा कहते हुए विद्याधरों ने फूलों के समूह छोड़े अर्थात् पुष्प वर्षा की ॥248॥ तदनंतर जिसको डोरी से विशाल शब्द हो रहा था ऐसे धनुष को खींचकर और फिर उतारकर बलवान् लक्ष्मण राम के समीप ही बड़ी विनय से आ बैठा ।। 249 ।। इस प्रकार शूरवीरता दिखाने वाले लक्ष्मण के लिए चंद्रवर्धन विद्याधर ने अत्यंत बुद्धिमती अठारह कन्याएँ दी ।।250॥ भय से अतिशय भरे हुए विद्याधरों ने वापस आकर जब यह समाचार कहा तब चंद्रगति विद्याधर चिंता में निमग्न हो गया ॥25॥
अथानंतर यह वृत्तांत देखकर जिसे बड़ा आश्चर्य प्राप्त हो रहा था, जिसे मन में प्रबोध उत्पन्न हुआ था ऐसा भरत अपने आपके विषय में इस प्रकार शोक करने लगा ।। 252॥ कि देखो हम दोनों का एक कुल है, एक पिता हैं । पर इन दोनों अर्थात् राम-लक्ष्मण ने ऐसा आश्चर्य प्राप्त किया और पुण्य की मंदता से मैं ऐसा आश्चर्य प्राप्त नहीं कर सका ॥253 ।। अथवा दूसरे की लक्ष्मी से मन को व्यर्थ ही क्यों संतप्त किया जाये ? निश्चित ही तूने पूर्वभव में अच्छे कार्य नहीं किये ॥254 ।। कमल के भीतरी दल के समान जिसकी कांति है ऐसी साक्षात् लक्ष्मी के समान उज्ज्वल स्त्री अत्यधिक पुण्य के धारक पुरुष को ही प्राप्त हो सकती है ॥255॥
तदनंतर कलाओं के समूह में निष्णात एवं विशिष्ट ज्ञान को धारण करने वाली केकया ने पुत्र की चेष्टा जानकर कान में हृदय वल्लभ राजा दशरथ से कहा कि हे नाथ ! मुझे भरत का मन शोक युक्त दिखाई देता है । इसलिए ऐसा करो कि जिससे यह वैराग्य को प्राप्त न हो जाये ॥256257॥ यहाँ जनक का छोटा भाई कनक है । उसको सुप्रभा रानी से उत्पन्न हुई लोक-सुंदरी नामा कन्या है ।। 258 ।। सो स्वयंवर विधि की पुनः घोषणा कर उसे भरत के लिए उसी तरह स्वीकृत कराओ जिस तरह कि वह किसी दूसरी भावना को प्राप्त नहीं हो सके ॥259॥ तदनंतर ‘बहुत ठीक है’ ऐसा कहकर राजा दशरथ ने यह बात विचारवान राजा कनक के कान तक पहुँचायी ॥260॥ राजा कनक ने भी जो आज्ञा कहकर दूसरे दिन जो राजा अपने घर चले गये थे उन्हें शीघ्र ही बुलाया ॥261॥
तदनंतर जो यथायोग्य स्थानों पर बैठे हुए राजाओं के मध्य में स्थित था और नक्षत्रों के समूह के मध्य में स्थित चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहा था ऐसे भरत को पुष्प माला धारण करने वाली एवं सुवर्ण के समान कांति से संयुक्त, राजा कनक की पुत्री लोकसुंदरी ने उस तरह वरा जिस तरह कि उत्तम कांति को धारण करने वाली सुभद्रा ने पहले भरत चक्रवर्ती को वरा था ॥262-263।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! कर्मों की अत्यंत विषमता देखो कि प्रबोध को प्राप्त हुआ भरत कन्या के द्वारा पुनः मोहित हो गया ॥264॥ सब राजा लोग लज्जित होते हुए यथायोग्य स्थानों पर चले गये और अपने बंधु वर्ग के बीच में विकथा करते हुए रहने लगे ॥265॥ कितने ही कहने लगे कि जिस जीव ने जैसा कार्य किया है वह वैसा ही फल भोगता है । क्योंकि जिसने कोदों बोये हैं वह धान्य प्राप्त नहीं कर सकता ॥266॥
तदनंतर जो पताका तोरण और मालाओं से सजायी गयी थी, जो महाकांति को धारण कर रही थी, जिसके बाजार के लंबे-चौड़े मार्ग घुटनों तक फलों से व्याप्त किये गये थे और जिसके समस्त घर शंख एवं तुरही के मधुर शब्दों से भर रहे थे ऐसी मिथिला नगरी में दोनों का बड़े उत्सव के साथ विवाह किया गया ।।267-268।। उस समय धन से सब लोक इस तरह भर दिया गया था कि जिससे ‘देहि अर्थात् देओ’ यह शब्द महाप्रलय को प्राप्त हो गया था अर्थात् बिल्कुल ही नष्ट हो गया था ॥269।। उत्तम चित्त को धारण करने वाले जो राजा विवाहोत्सव देखने के लिए रह गये थे वे परम सम्मान को प्राप्त हो अपने-अपने घर गये ॥27॥
अथानंतर जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही थी, जो परम सौंदर्यरूपी सागर में निमग्न थे, जिन्होंने माता-पिता के लिए हर्षरूप संपदा समर्पित की थी, जिनके शरीर उत्कृष्ट रत्नों से अलंकृत थे, जिनके सैनिक नाना प्रकार की सवारियों से व्यग्र थे, और जिनके आगे समुद्र के समान विशाल शब्द करने वाली तुरही बज रही थी ऐसे दशरथ के पुत्रों तथा बहुओं ने बड़े वैभव के साथ अयोध्या में प्रवेश किया ॥271-272 ।। उस समय उत्तम शरीर को धारण करने वाली बहुओं को देखने के लिए समस्त नगरवासी लोग अपना आधा किया कार्य छोड़ बड़ी व्यग्रता से राजमार्ग में आ गये ॥273 ।।
जिन्होंने सब लोगों का सत्कार किया था तथा अपने विशाल गुणों के स्तवन से जिनका शरीर विनम्र हो रहा था अर्थात् लज्जा के भार से झुक रहा था ऐसे दशरथ के बुद्धिमान् पुत्र महासुख भोगते हुए अपने महलों में रहने लगे ।। 274॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे भव्यजनो ! शुभ कर्म का फल अच्छा होता है और अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है ऐसा जानकर विद्वज्जनों के द्वारा प्रशंसनीय वह कार्य करो जिससे कि सूर्य से भी अधिक कांति के धारक होओ ॥275 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में राम-लक्ष्मण को स्वयंवर में रत्नमाला की प्राप्ति होने का वर्णन करने वाला अट्ठाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥28॥