ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 46
From जैनकोष
छियालीसवां पर्व
अथानंतर विमान के ऊंचे शिखर पर बैठा इच्छानुसार गमन करता हुआ रावण आकाश में सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था ॥1॥ रति संबंधी राग से जिसकी आत्मा विमूढ़ हो रही थी ऐसा रावण शोक-संतप्त सीता के मुरझाये हुए मुख-कमल का ध्यान कर रहा था-उसी ओर देख रहा था ॥2॥ जिसके मुख से निरंतर अश्रुओं की वर्षा हो रही थी ऐसी सीता के आगे-पीछे तथा बगल में खड़ा होकर रावण बड़ी दीनता के साथ नाना प्रकार के सैकड़ों प्रिय वचन बोलता था ॥3॥ वह कहता था कि मैं कामदेव के अतिशय कोमल पुष्पमयी बाणों से घायल होकर यदि मर जाऊंगा तो हे साध्वि ! तुझे नर हत्या लगेगी ॥4॥ हे सुंदरि ! तेरा यह मुखारविंद क्रोध सहित होने पर भी सुशोभित हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि जो सुंदर हैं उनमें सभी प्रकार से सुंदरता रहती है ॥5॥
हे देवि ! प्रसन्न होओ और इस दास के मुख पर एक बार चक्षु डालो । तुम्हारे चक्षु की कांतिरूपी जल से नहाने पर मेरा सब श्रम दूर हो जायेगा ॥6॥ हे सुमुखि ! यदि दृष्टि का प्रसाद नहीं करती हो― आँख उठाकर मेरी ओर नहीं देखती हो तो इस चरण-कमल से ही एक बार मेरे मस्तक पर आघात कर दो ॥7॥ मैं तुम्हारे मनोहर उद्यान में अशोकवृक्ष क्यों नहीं हो गया ? क्योंकि वहाँ तुम्हारे इस चरण-कमल का प्रशंसनीय तल-प्रहार सुलभ रहता ॥8॥ हे कृशोदरि ! विमान को छत पर बैठकर झरोखे से जरा दिशाओं को तो देखो मैं सूर्य से भी कितने ऊपर आकाश में चल रहा हूँ ॥9॥ हे देवि ! कुलाचलों, मेरुपर्वत और सागर से सहित इस पृथिवी को देखो । यह ऐसी जान पड़ती है मानो किसी कारीगर के द्वारा ही बनायी गयी हो ॥10॥ इस प्रकार कहने पर पीठ देकर बैठी हुई सीता बीच में तृण रखकर निम्नांकित अप्रिय वचन बोली ॥11॥
उसने कहा कि हे नीच पुरुष ! हट, मेरे अंग मत छू । तू इस प्रकार की यह निंदनीय वाणी क्यों बोल रहा है ? ॥12॥ तेरी यह दुष्ट चेष्टा पापरूप है, आयु को कम करने वाली है, नरक का कारण है, अपकीर्ति को करने वाली है, विरुद्ध है तथा भय उत्पन्न करने वाली है ॥13॥ परस्त्री को इच्छा करता हुआ तू महादुःख को प्राप्त होगा तथा भस्म से आच्छादित अग्नि के समान पश्चात्ताप से तेरा समस्त शरीर व्याप्त होगा ॥14॥ अथवा तेरा चित्त पापरूपी महापंक से व्याप्त है अतः तुझे धर्म का उपदेश देना उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार कि अंधे के सामने नृत्य के हाव-भाव दिखाना व्यर्थ होता है ।। 15 ।। अरे नोच ! परस्त्री की इच्छा मात्र से तू बहुत भारी पाप बांधकर नरक में जायेगा और वहाँ कष्टकारी अवस्था को प्राप्त होगा ॥16॥ इस प्रकार यद्यपि सीता ने कठोर अक्षरों से भरी वाणी के द्वारा रावण का तिरस्कार किया तो भी काम से आहत चित्त होने के कारण उसका प्रेम दूर नहीं हुआ ॥17॥
वहां खरदूषण का युद्ध समाप्त होनेपर भी स्वामी रावण का दर्शन न होने से परम स्नेह के भरे शुक, हस्त, प्रहस्त आदि मंत्री परम उद्वेग को प्राप्त हो रहे थे सो जब उन्होंने हिलती हुई पताका से सुशोभित प्रातःकालीन सूर्य के समान रावण का विमान आता देखा तब वे हर्षित होकर उसके पास गये ॥18-19 ।। उन्होंने दिव्य वस्तुओं की भेंट देकर सम्मान प्रदर्शित कर तथा अतिशय प्रिय वचन कहकर रावण की अगवानी की तो भी भृत्यों की उन संपदाओं से सीता वशीभूत नहीं हुई ॥20॥ संसार में ऐसा कौन चतुर मनुष्य है जो अग्निशिखा का पान कर सके अथवा नागिन के शिर पर स्थित रत्नमयी शलाका का स्पर्श कर सके ॥21॥ यद्यपि सीता ने तृण के अग्रभाग के समान रावण का तिरस्कार किया था तो भी वह दशों अंगुलियों से सहित अंजलि शिर पर धारण कर उसे बार-बार नमस्कार करता था ॥22॥ नाना दिशाओं से आये हुए तथा इंद्र के समान पूर्ण वैभव को धारण करने वाले मंत्रियों ने जिसे घेर लिया था और जय हो, बढ़ते रहो, स्मृद्धिमान् होओ इत्यादि कर्णप्रिय वचनों से जिसकी स्तुति हो रही थी ऐसे इंद्रतुल्य रावण ने लंका में प्रवेश किया ॥23-24॥ उस समय सीता ने विचार किया कि यह विद्याधरों का राजा ही जहाँ अमर्यादा का आचरण कर रहा है वहाँ दूसरा कौन शरण हो सकता है ? ॥25॥ फिर भी मेरा यह नियम है कि जब तक भर्ता का कुशल समाचार नहीं प्राप्त कर लेती हूँ तब तक मेरे आहार कार्य का त्याग है ॥26 ।। तदनंतर पश्चिमोत्तर दिशा में विद्यमान अतिशय उज्ज्वल, स्वर्ग के समान सुंदर देवारण्य नामक उद्यान है सो कल्पवृक्ष के समान कांति वाले बड़े-बड़े वृक्षों से व्याप्त उस उद्यान में एक जगह साता का ठहराकर रावण अपने महल में चला गया ॥27-28॥ इतने में ही खरदूषण के मरण का समाचार पाकर रावण को अठारह हजार रानियाँ बहुत भारी शोक के कारण महाशब्द करती हुई रावण के सामने विलाप करने लगीं ॥29॥ चंद्रनखा भाई के चरणों में जाकर तथा गला फाड़ फाड़कर हाय-हाय मैं अभागिनी मारी गयी इस तरह अश्रु वर्षा से दुर्दिन को पराजित करती हुई विलाप करने लगी ॥30॥ पति और पुत्र की मृत्युरूपी अग्नि से जिसका मन जल रहा था ऐसी अत्यधिक विलाप करती हुई चंद्रनखा से भाई-रावण ने इस प्रकार कहा ॥31॥ कि हे वत्से ! तेरा रोना व्यर्थ है । यह क्या प्रसिद्ध नहीं है कि संसार के प्राणी पूर्वभव में जो कुछ करते हैं उस सबका फल अवश्य हो प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ॥32॥ यदि ऐसा नहीं है तो क्षुद्र शक्ति के धारक भूमिगोचरी मनुष्य कहाँ और तुम्हारा ऐसा आकाशगामी भर्ता कहाँ ? ॥33॥ मैंने यह सब पूर्व में संचित किया था सो उसी का यह न्यायागत फल प्राप्त हुआ है ऐसा जानकर किसी मनुष्य को शोक करना उचित नहीं है ॥34॥ जब तक मृत्यु का समय नहीं आता है तब तक वज्र से आहत होने पर भी कोई नहीं मरता है और जब मृत्यु का समय आ पहुँचता है तब अमृत भी जीव के लिए विष हो जाता है ।। 35॥ हे वत्से ! जिसने युद्ध में खरदूषण को मारा है उसके साथ अन्य सब शत्रुओं के लिए मैं मृत्यु स्वरूप हूँ अर्थात् मैं उन सबको मारूँगा ॥36॥ इस प्रकार बहन को आश्वासन तथा जिनेंद्र देव की अर्चा का उपदेश देकर जिसका मन जल रहा था ऐसा रावण निवासगृह में चला गया ॥37॥ वहाँ जाकर रावण आदर की प्रतीक्षा किये बिना ही शय्या पर जा पड़ा । उस समय वह उन्मत्त सिंह के समान अथवा साँस भरते हुए सर्प के समान जान पड़ता था ॥38॥ भर्ता को ऐसा देख, दुःख युक्त की तरह आभूषणों के आदर से रहित मंदोदरी बड़े आदर से उसके पास जाकर इस प्रकार बोली ॥39॥ कि हे नाथ ! क्या खरदूषण को मृत्यु से आकुलता को धारण कर रहे हो ? परंतु यह ठीक नहीं है क्योंकि शूर-वीरों को बड़ी-बड़ी आपत्तियों में भी विषाद नहीं होता ॥40॥ पहले अनेक संग्रामों में तुम्हारे मित्र क्षय को प्राप्त हुए हैं उन सबका तुमने शोक नहीं किया किंतु आज खरदूषण के प्रति शोक कर रहे हो ? ॥41॥ राजा इंद्र के संग्राम में श्रीमाली आदि अनेक राजा जो तुम्हारे बंधुजन थे क्षय को प्राप्त हुए थे पर उन सबका तुमने कभी शोक नहीं किया ॥42॥ पहले बड़ी-बड़ी आपत्ति में रहने पर भी तुम्हें किसी का शोक नहीं हुआ पर इस समय क्यों शोक को धारण करते हो यह मैं जानना चाहती हूँ सो हे स्वामिन्, इसका कारण बतलाइए ॥43 ।।
तदनंतर महान् आदर से युक्त रावण साँस लेकर तथा कुछ शय्या छोड़कर कहने लगा । उस समय उसके अक्षर कुछ तो मुख के भीतर रह जाते थे और कुछ बाहर प्रकट होते थे ॥44॥ उसने कहा कि हे सुंदरि ! सुनो एक सद्भाव की बात तुम से कहता हूँ । तुम मेरे प्राणों की स्वामिनी हो और सदा मैंने तुम्हें चाहा है ॥45॥ यदि मुझे जीवित रहने देना चाहती हो तो हे देवि ! क्रोध करना योग्य नहीं है, क्योंकि प्राण ही तो सब वस्तुओं के मूल कारण हैं ॥46॥ तदनंतर ऐसा ही है इस प्रकार मंदोदरी के कहने पर उसे अनेक प्रकार की शपथों से नियम में लाकर कुछ-कुछ लज्जित होते हुए की तरह रावण कहने लगा ॥47॥ कि जिसका वर्णन करना कठिन है ऐसी विधाता की अपूर्व सृष्टि स्वरूप वह सीता यदि मुझे पति रूप से नहीं चाहती है तो मेरा जीवन नहीं रहेगा ॥48॥ लावण्य, यौवन, रूप, माधुर्य और सुंदर चेष्टा सभी उस एक सुंदरी को पाकर कृतकृत्यता को प्राप्त हुए हैं ॥49।।
तदनंतर रावण की इस कष्ट कर दशा को जानकर हँसती तथा दांतों को कांतिरूपी चाँदनी को फैलाती हुई मंदोदरी इस प्रकार बोली कि हे नाथ ! यह बड़ा आश्चर्य है कि वर याचना कर रहा है । जान पड़ता है कि वह स्त्री पुण्यहीन है जो स्वयं आप से प्रार्थना नहीं कर रही है ॥50-51 ।। अथवा समस्त संसार में वही एक परम अभ्युदय को धारण करने वाली है । जिसकी कि तुम्हारे जैसे अभिमानी पुरुष बड़ी दीनता से याचना करते हैं ॥52॥ अथवा बाजूबंद के रत्नों से जटिल तथा हाथी की सूंड़ की उपमा धारण करने वाली इन भुजाओं से बलपूर्वक आलिंगन कर क्यों नहीं उसे चाह लेते हो ? ।।53 ।। इसके उत्तर में रावण ने कहा कि हे देवि ! मैं जिस कारण उस सर्वांग सुंदरी को जबर्दस्ती ग्रहण नहीं करता हूँ इसमें निवेदन करने योग्य कारण है उसे सुनो ॥54॥ हे देवि ! मैंने अनंतवीर्य भगवान् के समीप निर्ग्रंथ मुनियों की सभा में साक्षात् एक व्रत लिया था ॥55॥ इंद्रों के द्वारा वंदनीय अनंतवीर्य भगवान् ने एक बार ऐसा व्याख्यान किया कि एक वस्तु का त्याग भी परम फल प्रदान करता है ॥56।। दुःखों से भरी भव-परंपरा में भ्रमण करने वाले प्राणियों के पाप से थोड़ी भी निवृत्ति हो जावे तो वह उनके संसार से पार होने का कारण हो जाती है ॥57 ।। जिन मनुष्यों के किसी पदार्थ के त्यागरूप एक भी नियम नहीं है वे फूटे घट के समान निर्गुण हैं ॥58 । उन मनुष्यों और पशुओं में कुछ भी अंतर नहीं है जिनके कि मोक्ष का कारणभूत एक भी नियम नहीं है ॥59॥ हे भव्य जीवो ! शक्ति के अनुसार पाप छोड़ो और पुण्यरूपी धन का संचय करो जिससे जंमांध मनुष्यों के समान चिर काल तक संसार में परिभ्रमण न करना पड़े ॥60॥ इस प्रकार भगवान् के मुखकमल से निकले हुए वचनरूपी मकरंद को पीकर कितने ही मनुष्य निर्ग्रंथ अवस्था को प्राप्त हुए और हीन शक्ति को धारण करने वाले कितने ही लोग गृहस्थधर्म को प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि कर्मोदय के कारण सब एक समान क्रिया के धारक नहीं होते ॥61-62 ।। उस समय सौम्य चित्त के धारक एक मुनिराज ने मुझ से कहा कि हे दशानन ! शक्ति के अनुसार तुम भी एक नियम ग्रहण करो ॥63 ।। तुम धर्मरूपी उज्ज्वल रत्नद्वीप को प्राप्त हुए हो सो विज्ञानी तथा गुणों के संग्रह करने में निपुण होकर भी खाली मन एवं खालो हाथ क्यों जाते हो ॥64 ।। इस प्रकार कहने पर हे देवि ! मैंने मुनिराज को प्रणाम कर सुर-असुर तथा मुनियों के समक्ष इस तरह कहा कि जब तक मानवती परस्त्री मुझे स्वयं नहीं चाहेगी तब तक दु:खी होने पर भी मैं बलपूर्वक उसका सेवन नहीं करूंगा ॥65-66 ।। हे प्रिये ! मैंने यह व्रत भी इस अभिमान से ही लिया था कि मुझे देखकर कौन पतिव्रता मान करेगी? ॥67 ।। इसलिए हे देवि ! मैं उस मनोहरांगी को स्वयं नहीं ग्रहण करता हूँ क्योंकि राजा एक बार ही कहते हैं अन्यथा बहुत भारी बाधा आ पड़ती है ।। 68।। अत: जब तक मैं प्राण नहीं छोड़ता हूँ तब तक सीता को प्रसन्न करो क्योंकि घर के भस्म हो जाने पर कूप खुदाने का श्रम व्यर्थ है ॥39॥
तदनंतर रावण को वैसा जान जिसे दया उत्पन्न हुई थी ऐसी मंदोदरी बोली कि हे नाथ ! यह तो बहुत छोटी बात है ।। 70 ।। तत्पश्चात् कुछ मधुर विलासों को वशवर्तिनी कमललोचना मंदोदरी देवारण्य नामक उद्यान में गयी ॥71।। उसकी आज्ञा पाकर रावण को अठारह हजार मानवती स्त्रियाँ भी वैभव के साथ उसके पीछे चलीं ॥72॥ समस्त नय-नीतियों के विज्ञान से जिसका मन अलंकृत था ऐसी मंदोदरी ने क्रम-क्रम से सीता के पास जाकर इस प्रकार कहा ॥73॥ कि हे सुंदरि ! हर्ष के स्थान में विषाद क्यों कर रही हो ? वह स्त्री तीनों लोकों में धन्य है जिसका कि रावण पति है ।। 74 ।। जो समस्त विद्याधरों का अधिपति है, जिसने इंद्र को पराजित कर दिया है, तथा जो तीनों लोकों में अद्वितीय सुंदर है ऐसे रावण को तुम पति रूप से क्यों नहीं चाहती हो ? ॥75।। तुम्हारा पति कोई निर्धन भूमिगोचरी मनुष्य है सो उसके लिए इतना दुःखी क्यों हो ? सर्व लोक से श्रेष्ठ अपने आपको सुखी करना चाहिए ॥76।। अपने लिए महासुख के साधनभूत कार्य के करने वाले को कोई दोष नहीं है क्योंकि मनुष्य के सब प्रयत्न सुख के लिए ही होते हैं ॥77।। इस प्रकार मेरे द्वारा कहे हुए वचन यदि तुम स्वीकृत नहीं करती हो तो फिर जो दशा होगी वह तुम्हारे शत्रुओं को प्राप्त हो ॥78।। रावण अतिशय बलवान् तथा शत्रु से रहित है प्रार्थना भंग करने पर वह काम पीड़ित हो क्रोध को प्राप्त हो जायेगा ॥79॥ जो राम-लक्ष्मण नामक कोई पुरुष तुझे इष्ट हैं सो रावण के कुपित होने पर उन दोनों का भी संदेह ही है ।।80॥ इसलिए तुम शीघ्र ही विद्याधरों के अधिपति रावण को स्वीकृत करो और परम ऐश्वर्य को प्राप्त हो देवों संबंधी लीला को धारण करो ॥80॥
इस प्रकार कहने पर जिसके मुख से वाष्प भार के कारण गद्गद वर्ण निकल रहे थे तथा जो अश्रुपूर्ण नेत्र धारण कर रही थी ऐसी सीता बोली कि हे वनिते ! तेरे ये सब वचन अत्यंत विरुद्ध है । पतिव्रता स्त्रियों के मुख से ऐसे वचन नहीं निकल सकते हैं ? ।। 82-83 ।। मेरे इस शरीर को तुम लोग चाहे छेद डालो, भेद डालो अथवा नष्ट कर दो परंतु अपने भर्ता के सिवाय अन्य पुरुष को मन में भी नहीं ला सकती हूँ ॥84॥ यद्यपि मनुष्य सनत्कुमार के समान रूप का धारक हो अथवा इंद्र के तुल्य हो तो भी भर्ता के सिवाय अन्य पुरुष की मैं किसी तरह इच्छा नहीं कर सकती ॥85॥ मैं यहाँ आयी हुई तुम सब स्त्रियों से संक्षेप में इतना ही कहती हूँ कि तुम लोग जो कह रही हो वह मैं नहीं करूंगी तुम जो चाहो सो करो ॥86॥
इसी बीच में जिस प्रकार हाथी गंगा की धारा के पास पहुँचता है उसी प्रकार काम के संताप से दुःखी रावण स्वयं सीता के पास पहुँचा ।। 87।। और पास में स्थित हो मुखरूपी चंद्रमा को कुछ-कुछ हास्य से युक्त करता हुआ बड़े आदर के साथ अत्यंत दयनीय वाणी में बोला कि हे देवि ! भय को प्राप्त मत होओ, हे सूंदरि ! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, मेरी एक प्रार्थना सुनो, प्रसन्न होओ और सावधान बनो ।।88-89।। बताओ कि मैं तीनों लोकों में वर्तमान किस वस्तु से हीन हूँ जिससे तुम मुझे अपने योग्य उत्तम पति स्वीकृत नहीं करती हो ।। 90 ।। इतना कहकर रावण ने स्पर्श करने की चेष्टा प्रकट की तब सीता ने हड़बड़ाकर कहा कि पापी हृदय ! हट, मेरे अंगों का स्पर्श मत कर ॥91॥ इसके उत्तर में रावण ने कहा कि हे देवि ! क्रोध तथा अभिमान छोड़ो, प्रसन्न होओ और इंद्राणी के समान दिव्य भोगों की स्वामिनी बनो ॥92।। सीता ने कहा कि कुशील मनुष्य की संपदाएँ केवल मल हैं और सुशील मनुष्य की दरिद्रता भी आभूषण है ।। 93॥ उत्तमकुल में उत्पन्न हुए मनुष्यों को शील की हानि कर दोनों लोकों के विरुद्ध कार्य करने से मरण को शरण में जाना ही अच्छा है ।।94॥ तू परस्त्री की आशा रखता है अतः तेरा यह जीवन वृथा है । जो मनुष्य शील की रक्षा करता हुआ जीता है वास्तव में वह जीता है ।। 95 ।। ।
इस प्रकार तिरस्कार को प्राप्त हुआ रावण शीघ्र ही माया करने के लिए प्रवृत्त हुआ । सब देवियाँ भयभीत होकर भाग गयीं और वहाँ का सब कुछ आकुलता से पूर्ण हो गया ।। 96 ।। इसी बीच में सूर्य, किरण समूह के साथ-साथ अस्ताचल की गुहा में प्रविष्ट हो गया सो मानो रावण की माया के भय से ही प्रविष्ट हो गया था ।।97।। जो अत्यंत क्रोध से युक्त थे, जिनके गंडस्थल से मद चू रहा था तथा जो अत्यधिक गर्जना कर रहे थे ऐसे हाथियों से डराये जाने पर भी सीता रावण की शरण में नहीं गयी ॥98॥ जिनके दाँत दाढ़ों से अत्यंत भयंकर दिखाई देते थे और जो दुःसह शब्द कर रहे थे ऐसे व्याघ्रों के द्वारा डराये जाने पर सीता रावण की शरण में नहीं गयी ॥29॥ जिनकी गरदन के बाल हिल रहे थे तथा जिनके नखरूपी अंकुश अत्यंत तीक्ष्ण थे ऐसे सिंहों के द्वारा डराये जाने पर भी सीता रावण की शरण में नहीं गयीं ॥100 । जिनके नेत्र देदीप्यमान तिलगों के समान भयंकर थे तथा जिनकी जिह्वाएँ लपलपा रही थीं ऐसे बड़े-बड़े साँपों के द्वारा डराये जाने पर भी सीता रावण की शरण में नहीं गयो ॥101 ।। जिनके मुख खुले हुए थे, जो बार-बार ऊपर की ओर उड़ान भरते थे तथा नीचे की ओर गिरते थे ऐसे वानरों के द्वारा डराये जाने पर भी सीता रावण की शरण में नहीं गयी ॥102 ।। जो अंधकार के पिंड के समान काले थे, ऊँचे थे, तथा हुंकार कर रहे थे ऐसे वेतालों के द्वारा डराये जाने पर भी सीता रावण के शरण में नहीं गयी ॥13॥ इस प्रकार क्षण-क्षण में किये जाने वाले नाना प्रकार के भयंकर उपसर्गों के द्वारा डराये जाने पर सीता रावण की शरण में नहीं गयी ।। 104॥
तदनंतर भय से ही मानो रात्रि व्यतीत ही गयी और जिन मंदिरों में शंख-भेरी आदि का शब्द होने लगा ॥105॥ प्रभात होते ही बड़े-बड़े महलों के द्वार संबंधी किवाड़ खुल गये सो उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो निद्रा-रहित नेत्र ही उन्होंने खोले हों ॥106॥ संध्या से रँगी हुई पूर्व दिशा अत्यंत सुशोभित हो रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो आने वाले सूर्य की अगवानी के लिए कुंकुम के पंक से ही लिप्त की गयी हो ॥107 ।। रात्रि संबंधी अंधकार को नष्ट कर तथा चंद्रमा को निष्प्रभ बनाकर सूर्य उदित हुआ और कमलों को विकसित करने लगा ॥108॥ तदनंतर जिसमें पक्षी उड़ रहे थे ऐसे प्रातःकाल की निर्मलता को प्राप्त होने पर विभीषण आदि प्रिय बांधव रावण के समीप पहुँचे ॥109 ।। खरदूषण के शोक से जिसके मुख चुपचाप नीचे की ओर झुक रहे थे तथा जिनके नेत्र अश्रुओं से युक्त थे ऐसे वे सब यथायोग्य भूमि पर बैठ गये ॥110॥ उसी समय विभीषण ने पट के भीतर स्थित शोक के भार से रोती हुई स्त्री का हृदय-विदारक शब्द सुना ॥111 ।। सुनकर व्याकुल होते हुए, विभीषण ने कहा कि यह यहाँ कौन अपूर्व स्त्री करुण शब्द कर रही है ऐसा जान पड़ता है मानो यह पति के साथ वियोग को प्राप्त हुई है ॥112 ।। इसका यह शब्द दुःख के भार को धारण करने वाले शरीर के शोकोत्पन्न-उत्कट कंपन को सचित कर रहा है ॥113 ।। इस प्रकार विभीषण के उक्त शब्द सुनकर सीता और भी अधिक रोने लगी सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन के आगे शोक बढ़ता है ।। 114॥ उसने अश्रुपूर्ण मुख से टूटे-फूटे अक्षर प्रकट करते हुए कहा कि हे देव ! यहाँ मेरा बंधु तू कौन है ? जो इस प्रकार स्नेह के साथ पूछ रहा है ॥115 ।। मैं राजा जनक की पुत्री, भामंडल की बहन, राम की पत्नी और दशरथ की पुत्रवधू सीता हूँ ॥116 ।। मेरा भर्ता कुशल वार्ता लेने के लिए जब तक भाई के युद्ध में गया था तब तक छिद्र देख इस दुष्ट हृदय ने मेरा हरण किया है ।। 117 ।। मुझ से बिछुड़े राम जब तक प्राण नहीं छोड़ देते हैं हे भाई ! तब तक मुझे शीघ्र ही ले जाकर उन्हें सौंप दें ॥118॥ इस प्रकार सीता के शब्द सुनकर विभीषण का चित्त कुपित हो उठा । तदनंतर विनय को धारण करने वाले गुरुजन-स्नेही विभीषण ने भाई से कहा कि हे भाई ! आशीविष― सर्प की विषरूपी अग्नि के समान सब प्रकार से भय उत्पन्न करने वाली यह पर-नारी तू मोहवश कहाँ से ले आया है ? ॥119-120 ।। हे स्वामिन् ! यद्यपि मैं बालबुद्धि हूँ तो भी मेरी प्रार्थना श्रवण कीजिए । वचन के विषय में आपने मुझ पर प्रसन्नता की है अर्थात् मुझे वचन कहने की स्वतंत्रता दी है ॥121॥ हे मर्यादा के जानने में निपुण ! यह दिशाओं का समूह आपकी कीर्तिरूपी लताओं के जाल से व्याप्त हो रहा है सो इसे अपयशरूपी दावानल जला न दे अतः प्रसन्न होइए ॥122॥ यह परस्त्री की अभिलाषा अनुचित है, अत्यंत भयंकर है, लज्जा उत्पन्न करने वाली है, घृणित है और दोनों लोकों को नष्ट करने वाली है ॥123 ।। सर्वत्र सज्जनों से यह धिक् शब्द प्राप्त होता है वही सहृदय मनुष्यों के हृदय के विदारण करने में समर्थ है अर्थात् लोक निंदा विचारवान् मनुष्यों के हृदय को भेदन करने वाली है ॥124॥ आप तो मर्यादा को जानने वाले, विद्याधरों के अधिपति हैं फिर इस जलते हुए उल्मुक को अपने हृदय पर क्यों रख रहे हो ? ॥125 ।। जो पापबुद्धि मनुष्य परस्त्रियों का सेवन करता है वह विनय से उस तरह नरक में प्रवेश करता है जिस तरह कि लोह का पिंड जल में प्रवेश करता है ॥126॥
यह सुनकर रावण ने कहा कि हे भाई ! पृथ्वीतल पर वह कौन पदार्थ है जिसका मैं स्वामी न होऊँ ? अतः मेरे लिए यह परकीय वस्तु कैसे हुई ? ॥127।। इस प्रकार कहकर उस भिन्न हृदय ने विकथाएँ करना प्रारंभ कर दिया । तदनंतर अवसर पाकर महानीतिज्ञ मारीच बोला ॥128॥ कि हे दशानन ! लोक का सब वृत्तांत जानते हुए भी तुमने ऐसा कार्य क्यों किया ? यथार्थ में यह मोह की ही चेष्टा है ॥129॥ बुद्धिमान् मनुष्य को सब तरह से प्रातःकाल उठकर विवेकपूर्वक अपने हिताहित का विचार करना चाहिए ॥130।। इस प्रकार महाबुद्धिमान् मारीच जब निरपेक्ष भाव से यह सब कह रहा था तब बीच में ही सभा के क्षोभ को करता हुआ रावण उठकर खड़ा हो गया ॥131॥ तदनंतर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों और अश्वारूढ़ सामंतों से घिरा हुआ रावण त्रिलोकमंडन नामक हाथी पर सवार हो गया ॥132॥ वह शोक से व्याकुल सीता को पुष्पक विमान पर चढ़ाकर तथा आगे कर बड़े वैभव से नगरी की ओर चला ॥133॥ भाले, खड̖ग, छत्र तथा ध्वजा आदि जिनके हाथ में थे और जो संभ्रम पूर्वक जोरदार नारे लगा रहे थे ऐसे पुरुष आगे-आगे चल रहे थे ॥134 ।। जिनकी ग्रीवाएँ चंचल थीं, जो सुशोभित खुरों के अग्रभाग से पृथ्वी को खोद रहे थे तथा जिन पर मनोहर सवार बैठे हुए थे ऐसे हजारों घोड़े चल पड़े ॥135꠰꠰ जिनके घंटे प्रचंड शब्द कर रहे थे, जो मेघों के समान गर्जना कर रहे थे, जिन्हें महावत प्रेरित कर रहे थे और गंडशैल काली चट्टानों वाले पर्वतों के समान जान पड़ते थे ऐसे हाथी चलने लगे ॥136॥ जो अट्टहास छोड़ रहे थे अर्थात् ठहाका मारकर हँस रहे थे, नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे थे और आकाश को फोड़ते हुए से जान पड़ते थे ऐसे मनुष्य उसके आगे-आगे जा रहे थे ॥137॥ इस प्रकार हजारों तुरहियों के शब्द से दिशाओं को पूर्ण करता हुआ रावण मणि तथा स्वर्ण निर्मित तोरणों से अलंकृत लंका नगरी में प्रविष्ट हुआ ॥138॥ यद्यपि रावण इस प्रकार को अत्यंत सुंदर संपदाओं से घिरा हुआ था तो भी सीता उसे तृण से भी तुच्छ समझती थी ॥139॥ स्वभाव से ही निर्मल सीता के मन को रावण उस तरह लोभ प्राप्त कराने के लिए समर्थ नहीं हो सका जिस प्रकार को पानी कमल को लेप प्राप्त कराने के लिए समर्थ नहीं होता है ॥140॥
अथानंतर जिसमें सब ओर से फूल फूल रहे थे, जो नाना प्रकार के वृक्ष और लताओं से युक्त था तथा जो नंदन वन के समान सुंदर था ऐसे प्रमद नामक वन में सीता ले जायी गयी ॥141 ।। फूलों के पर्वत के ऊपर स्थिति तथा दृष्टि को बांधने वाले जिस प्रमदवन को देखकर देवों के मन में भी अत्यधिक उन्माद उत्पन्न हो जाता है ।। 142॥ अत्यंत लंबे-लंबे सात उद्यानों से घिरा हुआ वह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भद्रशाल आदि वनों से घिरा अतिशय उज्ज्वल सुमेरु पर्वत ही हो ॥143 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! अनेक आश्चर्यों से भरे हुए उसके एक देशरूप जो सघन वन हैं हम उनके नाम कहते हैं सो सुनो ।।144।। उस पर्वत पर जो सात वन हैं उनके नाम इस प्रकार हैं― 1 प्रकीर्णक, 2 जनानंद, 3 सुखसेव्य, 4 समुच्चय, 5 चारणप्रिय 6 निबोध और 7 प्रमद ॥145।। इनमें से प्रकीर्णक नाम का वन पृथ्वीतल है पर उसके आगे जनानंद नाम का वह वन है जिसमें कि वे ही क्रीड़ा करते हैं जिनका कि आना-जाना निषिद्ध नहीं है अन्य लोग नहीं ॥146 ।। उसके ऊपर चलकर तीसरा सुख सेव्य नाम का वन है जो कोमल वृक्षों से व्याप्त है, मेघसमूह के समान है, तथा नदियों और वापिकाओं से मनोहर है । उस वन में सूर्य के मार्ग को रोकने वाले, केत की और जूही से सहित तथा पान की लताओं से लिपटे दशवेवां प्रमाण लंबे-लंबे वृक्ष हैं ॥147148 ।। उसके ऊपर उपद्रव रहित गमनागमन से युक्त समुच्चय नाम का चौथा वन है जिसमें कहीं हाव-भाव को धारण करने वाली स्त्रियाँ सुशोभित हैं तो कहीं उत्तमोत्तम मनुष्य सुशोभित हो रहे हैं ।। 149 ।। उसके ऊपर चारणप्रिय नामक पांचवां पापापहारी मनोहर वन जिसमें चारणऋद्धिधारी मुनिराज स्वाध्याय में तत्पर रहते हैं ॥150॥ [ उसके ऊपर छठवाँ निबोध नाम का वन है जो ज्ञान का निवास है] और उसके आगे चढ़कर प्रमद नाम का सातवां वन है जो घोड़े के पृष्ठ के समान उत्तम प्रथा सुख से चढ़ने के योग्य सीढ़ियों से युक्त दिखलाई देता है ॥151 ।। इस प्रमद वन में स्नान क्रीड़ा के योग्य, कमलों से सुशोभित मनोहर वापिकाएं हैं, स्थान-स्थान पर पानीय शालाएँ और अनेक खंडों से युक्त सभागृह विद्यमान हैं ।। 152॥ जहाँ खजूर, नारियल, ताल तथा अन्य वृक्षों से घिरे एवं फलों से लदे नारिंग और बीजपूर आदि के वृक्ष हैं ॥153 ।। उस प्रमद नामक उद्यान में वृक्षों की सब जातियाँ विद्यमान हैं जो कि फूलों से आच्छादित हैं और मदोन्मत्त भ्रमर जिन पर गुंजार करते हैं ।। 154।। वहाँ मंद-मंद वायु से हिलती और फलों तथा फलों से मनोहर लता अपने कोमल पल्लवों से ऐसी जान पड़ती है मानो हाथ चलाती हुई नृत्य ही कर रही हो ॥155 ।। वहाँ नीचे लपकते हुए मेघों के समान सुशोभित तथा समस्त ऋतुओं में छाया उत्पन्न करने वाले सघन वृक्षों को हरिणियाँ सदा सेवा करती हैं― उनके नीचे विश्राम लेती हैं ॥156॥ कमलरूपी मुखों से सहित वहाँ की वापिकाएं नील कमलरूपी नेत्रों के द्वारा उस वन की उस विभूति को मानो अतृप्त होकर ही सदा देखती रहती हैं ।। 157॥ जहाँ मंद-मंद वायु से नृत्य करती हुई वापिकाएँ राजहंस पक्षियों के समूह से ऐसी जान पड़ती हैं मानो कोकिलाओं के आलाप से युक्त सघन वनों की हंसी ही कर रही हों ॥158 ।। इस विषय में अधिक कहने से क्या ? इतना ही बहुत है कि समस्त भोगों और उत्सवों को धारण करने वाला वह प्रमद नामक उद्यान नंदन वन से भी अधिक सुंदर है ।। 159।।
उस प्रमदवन में अशोक मालिनी नाम की वापी है जो कि कमल पत्रों से सुशोभित है, स्वर्णमय सोपानों से युक्त है, और विचित्र आकार वाले गोपुर से अलंकृत है ॥160꠰। इसके सिवाय वह प्रमदवन झरोखे आदि से अलंकृत तथा उत्तमोत्तम लताओं से आलिंगित मनोहर गृहों और जल कणों से युक्त निर्झरों से सुशोभित है ॥161॥ उस प्रमदवन के अशोक वृक्ष से आच्छादित एक देश में बैठी शोकवती सीता ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वर्ग से गिरी साक्षात् लक्ष्मी हो ॥162꠰। वहाँ रावण की आज्ञानुसार वस्त्र, गंध तथा अलंकारों को हाथों में धारण करने वाली स्त्रियाँ निरंतर सीता को प्रसन्न करने की चेष्टा करती थीं ॥163।। किंतु नृत्य सहित दिव्य संगीतों, अमृत के समान मनोहर वचनों और देवतुल्य संपदा के द्वारा सीता अनुकूल नहीं की जा सकी ॥164॥ इतने पर भी कामरूपी दावानल की प्रचंड ज्वालाओं से व्याकुल हुआ रागी रावण एक के बाद एक दूती भेजता रहता था ।।165॥ वह कहता था कि हे दूति ! जाओ और सीता से कहो कि अब अनुराग से भरे रावण की उपेक्षा करना उचित नहीं है अतः प्रसन्न होओ ।। 166 ।। दूती सीता के पास जाती और वापस आकर तेजरहित रावण से कहती कि हे देव ! वह तो आहार छोड़कर बैठी है तुम्हें किस प्रकार स्वीकृत करे ॥167॥ वह चुपचाप बैठी है न कुछ बोलती है न शरीर से कुछ चेष्टा करती है और न महाशोक से युक्त होने के कारण हम लोगों पर दृष्टि ही डालती है ॥168॥ अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट, दूध आदि से युक्त सुगंधित, तथा अनेक वर्ण का विचित्र भोजन उसे दिया जाता है पर वह स्वीकृत नहीं करती है ॥169।। दूती की बात सुनकर जो सब ओर से कामरूपी प्रचंड अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त था तथा दुःखरूपी सागर में निमग्न था ऐसा रावण अत्यधिक दुःखी होता हुआ पुनः चिंता में पड़ जाता था ॥170।। वह कभी लंबी तथा गरम श्वासोच्छ्वास की वायु को छोड़ता हुआ शोक करता था तो कभी मुख सूख जाने से अस्पष्ट अक्षरों द्वारा कुछ गाने लगता था ॥171॥
वह कामरूपी तुषार से जले हुए मुखकमल को बार-बार हिलाता था और कभी क्षणभर के लिए निश्चल बैठकर तथा कुछ सोचकर हंसने लगता था ॥172 ।। वह रत्नखचित फर्श पर लोटता और महादाह से युक्त समस्त अवयवों को बार-बार फैलाता था ॥173॥ फिर उठकर खड़ा हो जाता, कभी शून्य हृदय हो अपने आसन पर जा बैठता, कभी बाहर निकलता और किसी मनुष्य को देखकर फिर लौट जाता ॥174।। जिस प्रकार हाथी सब दिशाओं में जाने वाली सूंड से किसी का आस्फालन करता है उसी प्रकार रावण भी निःशंक हो सब दिशाओं में घूमने वाले अपने हाथ से कंपित करता हुआ फर्श को आस्फालन करता था अर्थात् फर्श पर घुमा-घुमाकर हाथ पटकता था और उससे फर्श को कंपित करता था ॥175 ।। वह मन में आयी हुई सीता का स्मरण करता हुआ अपने पुरुषार्थ, तथा निरपेक्ष भाग्य को उलाहना देने के लिए प्रवृत्त होता था और उस समय उसके नेत्रों से अश्रु निकलने लगते थे ॥176 ।। वह किसी को बुलाता था और समीपवर्ती लोग जब हुँकार देते थे तब चुप रह जाता था । तदनंतर बार-बार क्या है ? क्या है ? इस प्रकार बिना किसी लक्ष्य के बकता रहता था ॥177॥ वह कभी मुख को ऊपर कर सीता-सीता इस प्रकार बार-बार चिल्लाता था और कभी मुख नीचा कर नख से पृथिवी को खोदता हुआ चुप बैठा रहता था॥178 ।। वह कभी हाथ से वक्षःस्थल को साफ करता था, कभी भुजाओं के अग्रभाग को देखता, कभी हुंकार छोड़ता, कभी बिस्तर पर जा लेटता था ॥179 ।। कभी हृदय पर कमल रखता, कभी उसे दूर फेंक देता, कभी बार-बार शृंगार का पाठ करता―शृंगार भरे शब्दों का उच्चारण करता और कभी आकाश की ओर देखने लगता था ॥180॥ कभी हाथ से हाथ का स्पर्श कर पैर से पृथिवी को ताड़ित करता था, कभी श्वासोच्छ्वासरूपी अग्नि से काले पड़े हुए अधरोष्ठ को खींचकर देखता था ॥181॥ कभी कह-कह शब्द करता था, कभी केशों को खोलकर फैलाता था, कभी किसी पर क्रोध से दुःसह दृष्टि छोड़ता था ॥182॥ कभी जिमुहाई लेते समय वक्षःस्थल को फुलाकर आगे को उभार लेता था, कभी नेत्रों को आंसुओं से आच्छादित करता था, कभी भुजाओं का तोरण ऊपर उठा अंगुलियां चटकाता हुआ उसे तोड़ता था ।। 183 ।। कभी हृदय को ओर दृष्टि डालकर वस्त्र के अंचल से हवा करता था, कभी फूलों से रूप बनाता और फिर उसे शीघ्र ही नष्ट कर देता था ॥184॥ कभी आदर के साथ सीता का चित्र बनाता और फिर उसे आंसुओं से गीला करता था, कभी दीनता के साथ हाहाकार करता और कभी न, नमा, मा शब्दों का उच्चारण करता था ॥185 ।। इस प्रकार कामरूपी ग्रह से पीडित रावण अनेक प्रकार की चेष्टाएँ करता तथा करुणापूर्ण वार्तालाप करता था सो ठीक ही है क्योंकि काम की चेष्टा विचित्र होती है ॥186 ।। जिसमें वासनारूपी महाधम उठ रहा था, तथा आशा जिसमें ईंधन बन रही थी ऐसा उसका शरीर कामाग्नि से दीप्त हो हृदय के साथ जल रहा था ।। 187 ।। वह कभी विचार करता कि हाय मैं किस अवस्था को प्राप्त हो गया जिससे अपने इस शरीर को भी धारण करने के लिए समर्थ नहीं रहा ॥188॥ मैंने दुर्गम समुद्र के बीच में रहने वाले हजारों बड़े-बड़े विद्याधर युद्ध में जीते हैं पर इस समय यह क्या हो रहा है ? ॥189॥ जिसका लोकपालरूपी परिकर समस्त संसार प्रसिद्ध था ऐसे राजा इंद्र को भी मैंने पहले बंदीगृह में डाल रखा था तथा अनेक युद्धों में जिसने राजाओं के समूह को पराजित किया था ऐसा मैं इस समय मोह के द्वारा भस्मीभूत हो रहा है ॥190-191 ।। गौतम कहते हैं कि हे राजन् ! यह तथा अन्य वस्तुओं का चिंतवन करता हुआ रावण कामरूपी आचार्य के वशीभूत हो रहा था सो यह रहने दो अब दूसरी बात सुनो ॥192॥
अथानंतर आकुलता से भरा तथा बड़ी-बड़ी मंत्रणा करने में निपुण विभीषण मंत्रियों के साथ बैठकर इस प्रकार निरूपण करने के लिए तत्पर हुआ ॥193॥ यथार्थ में समस्त शास्त्रों के ज्ञान जल से धुलकर जिसका मन अत्यंत निर्मल हो गया था तथा जो सब प्रकार के श्रम को सहन करने वाला था ऐसा विभीषण ही रावण के राष्ट्र का भार धारण करने वाला था ॥194॥ विभीषण के समान रावण का हित करने वाला दूसरा मनुष्य नहीं था । वह उसके करने योग्य समस्त कार्यों में सर्वप्रकार का उपयोग लगाकर सदा जागरूक रहता था ॥195॥ विभीषण ने मंत्रियों से कहा कि अहो वृद्धजनो ! राजा की ऐसी चेष्टा होने पर अब हम लोगों का क्या कर्तव्य है सो कहो ॥196॥ विभीषण का कथन सुनकर संभिन्नमति बोला कि इससे अधिक और क्या कहें कि सब कार्य अकार्यता को प्राप्त हो गया है अर्थात् सब कार्य गड़बड़ हो गया है ॥197॥ स्वामी दशानन की दक्षिण भुजा के समान जो खरदूषण था वह दैवयोग से सहसा नष्ट हो गया ॥198॥ वह विराधित नाम का विद्याधर जो कि किसी के लिए कुछ भी नहीं था वहु आज शृंगालपना छोड़कर सिंहपने को प्राप्त हुआ है ॥199॥ पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त हुई इसकी इस भव्यता को तो देखो कि उत्तम चेष्टाओं को धारण करने वाला यह युद्ध में लक्ष्मण की मित्रता को प्राप्त हो गया ॥200꠰। इधर ये सभी वानरवंशी भी अभिमानी तथा बलवान हो रहे हैं सो ये आक्रमण से ही वश में हो सकते हैं बिना आक्रमण के कभी वशीभूत नहीं हो सकते ॥201॥ इनका आकार कुछ दूसरा ही है और मन दूसरे ही प्रकार का स्थित है जिस प्रकार सांपों के बाह्य में तो कोमलता रहती है और भीतर दारुण विष रहता है ॥202॥ खरदूषण की पुत्री अनंगकुसुमा का पति हनुमान् इस समय वानर वंशियों का नेता बन रहा है और वह खासकर सुग्रीव का ही पक्ष लेता है । इस प्रकार संभिन्नमति के कह चुकने पर पंचमुख मंत्री अनादर पूर्वक हंसता हुआ बोला कि यहाँ खरदूषण का वृत्तांत गिनने से अर्थात् उसकी मृत्यु का सोच करने से क्या लाभ है ? ॥203-204॥ इस वृत्तांत से किसे भय तथा किसकी अपकीर्ति है ? अर्थात् किसी की नहीं क्योंकि युद्ध में शूरवीरों की ऐसी गति होती ही है ।। 205 ।। वायु के द्वारा समुद्र की एक कणिका हर लेने पर समुद्र में क्या न्यूनता आ गयी? अर्थात् कुछ भी नहीं । रावण का बल बहुत है, उसके दोष देखने से क्या । ऐसी बात सोचते हुए मेरे मन में लज्जा आती है । कहाँ यह जगत् का स्वामी रावण और कहाँ अन्य वनवासी ? ॥206-207 ।। लक्ष्मण यद्यपि सूर्यहास खड़ग को धारण करने वाला है तो भी उससे क्या और विराधित उसकी इच्छानुकूल प्रवृत्ति करता है― उसका मित्र है इससे भी क्या ? ॥208।। क्योंकि बन सहित एक अत्यंत दुःसह पर्वत यद्यपि सिंह से सहित हो तो भी क्या उसे दावानल जला नहीं देता? ॥209॥ तदनंतर माथा हिलाकर पूर्व कथित वचनों को नीरस बताता हुआ सहस्रमति मंत्री बोला कि मान से भरे इन निरर्थक वचनों के कहने से क्या लाभ है ? स्वामी का हित चाहने वाले व्यक्ति को ऐसी मंत्रणा करनी चाहिए जो प्रकृत बात से संबंध रखने वाली हो ॥210-211 ।। वह छोटा है ऐसा समझकर शत्रु को अवज्ञा नहीं करनी चाहिए क्योंकि समय पाकर अग्नि का एक कण समस्त संसार को जला सकता है ॥212॥ बड़ी भारी सेना का स्वामी अश्वग्रीव समस्त संसार में प्रसिद्ध था तो भी रण के अग्रभाग में छोटे से त्रिपृष्ठ के द्वारा मारा गया था ॥213॥ इसलिए बिना किसी विलंब के इस लं का नगरी को बुद्धिमान् मनुष्यों के द्वारा अत्यंत दुर्गम बनाया जावे ॥214॥ ये महाभयानक यंत्र सब दिशाओं में फैला दिये जावें । अत्यंत उन्नत प्राकार के शिखरों पर चढ़कर क्या किया गया क्या नहीं किया गया इसकी देख-रेख की जाये ॥215॥ अनेक प्रकार के सम्मानों से समस्त देश को निरंतर सेवा की जाये और मधुर वचन बोलने वाले राज्याधिकारी सब लोगों को अपने कुटुंबीजनों से अभिन्न देखें ॥216॥ प्रिय करने वाले मनुष्य सब प्रकार के उपायों से राजा दशानन की रक्षा करें जिससे वह सुख को प्राप्त हो सके ॥217॥ जिस प्रकार दूध के द्वारा सर्पिणी को प्रसन्न किया जाता है उसी प्रकार उत्तम चातुर्य, परम प्रिय मधुर वचनों और इष्ट वस्तुओं के दान द्वारा सीता को प्रसन्न किया जाये ॥218॥ किष्कु नगर के स्वामी सुग्रीव तथा नगरी को रक्षा करने में उद्यत अन्य उत्तम योद्धाओं को नगर के बाहर रखा जावे ॥219 ।। ऐसा करने पर बाहर रखे हुए सुग्रीवादि अंतर का भेद नहीं जान सकेंगे और कार्य सौंपा जाने के कारण वे यह समझते रहेंगे कि स्वामी हम पर प्रसन्न है ॥220॥ इस तरह जब यहाँ का प्रत्येक कार्य सब जगह सब ओर से अत्यंत दुर्गम हो जायेगा तब कौन जान सकेगा कि हरी हुई सीता यहाँ है या अन्यत्र है ? ॥221॥ सीता के बिना राम निश्चित ही प्राण छोड़ देगा । क्योंकि जिसकी ऐसी प्रिय स्त्री विरह में रहेगी वह जीवित रह ही कैसे सकेगा ॥222॥ जब राम मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा तब शोक से दुःखी अकेला अथवा क्षुद्र सहायकों से युक्त लक्ष्मण क्या कर लेगा ? ॥223॥ अथवा राम के शोक से उसका मरण होना निश्चित है क्योंकि इन दोनों का समागम दीप और प्रकाश के समान अविनाभावी है ॥224॥ विराधित अपराधरूपी समुद्र में मग्न है अतः कहां जावेगा ? अथवा जावेगा भी तो सुग्रीव के समीप जावेगा ऐसा लोगों से सुना जाता है ॥225॥ सुग्रीव का संदेह उत्पन्न करने वाली माया को जो नष्ट कर सके ऐसा पुरुष संसार में स्वामी दशानन से बढ़कर दूसरा कौन होगा ? ॥226।। इसलिए उस कठिन काय को सिद्ध करने के लिए सुग्रीव, स्वामी― दशानन की सेवा करेगा । और सुग्रीव के साथ दशानन का समागम होना फल काल में शुभदायक होगा ॥227 ।। इस विधि से दशानन इन शत्रुओं को तथा अन्य लोगों को भी जीत सकेंगे इसलिए इस विषय में शीघ्र ही यत्न किया जावे ॥228॥ इस प्रकार विचार कर बुद्धिमान् मंत्री, करने योग्य कार्य का निश्चय कर हर्षित चित्त होते हुए अपने-अपने घर गये ॥229॥ विभीषण ने यंत्र आदि के द्वारा कोट को अत्यंत दुर्गम कर दिया तथा नाना प्रकार की विद्याओं के द्वारा लंका को गह्वरों एवं पाशों से युक्त कर दिया ।। 230॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! निर्मल चित्त के धारक मनुष्यों का कोई भी कार्य आप्त वचनों से निरपेक्ष नहीं होता अर्थात् आप्त के कहे अनुसार ही उनका प्रत्येक कार्य होता है । आप्त भगवान् ने मनुष्यों के लिए जो कार्य बतलाये हैं वे पुरुषार्थ के बिना सफल नहीं होते और पुरुषार्थ देव के बिना इष्ट सिद्धि का कारण नहीं होता इसलिए हे भव्यजीवो ! सो सबका कारण है उसके प्रसन्न करने में प्रयत्न करो ॥231 ।। हे राजन् ! जब तक मनुष्यों के कर्म का उदय विद्यमान रहता है तब तक नाना प्रकार के कुशल वचन उनके चित्त में प्रवेश नहीं करते हैं इसलिए अपनी योग्य स्थिति के अनुसार प्रशस्त― पुण्यकर्म करना चाहिए जिससे कि फिर शोकरूपी कष्टदायी सूर्य संताप उत्पन्न न कर सके ।। 232 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में रावण के माया के
विविध रूपों का वर्णन करने वाला छियालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥46॥