ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 49
From जैनकोष
उनचासवां पर्व
तदनंतर-वायु के समान वेग का धारक श्रीभूति दूत, आकाश में उड़कर अत्यंत ऊँचे-ऊँचे महलों से परिपूर्ण, लक्ष्मी के घर स्वरूप श्रीपुर नगर में पहुँचा ॥1॥ वहाँ जाकर उसने श्रीशैल के उस भवन में प्रवेश किया जो स्वर्णमय पानी के लेप से उत्पन्न तेज से अत्यंत देदीप्यमान था, कुंद के समान उज्ज्वल अट्टालिकाओं से सुशोभित था, रत्नमयी शिखरों से जगमगा रहा था, मोतियों की मालाओं से व्याप्त था, झरोखों से सुशोभित था, और जिसका समीपवर्ती प्रदेश बाग-बगीचों से व्याप्त था ॥2-3॥ वहाँ लोगों को अपूर्व भीड़ तथा आश्चर्यकारी अत्यधिक यातायात देख श्रीभूति का मन बड़ी कठिनाई से धीरता को प्राप्त हुआ ॥4॥ जब आश्चर्य में पड़े हुए श्रीभूति दूत ने हनुमान के घर में प्रवेश किया तब चंद्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा उत्पात को प्राप्त हुई ॥5॥ दक्षिण नेत्र को फड़कते देख उसने विचार किया कि दैवयोग से जो कार्य जैसा होना होता है उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता ॥6॥ हीन शक्ति के धारक मनुष्य तो दूर रहें देवों के द्वारा भो कर्म अन्यथा नहीं किये जा सकते ॥7॥ तदनंतर अनंगकुसुमा की प्रहासिका सखी ने जिसके आगमन की सूचना दी थी, और स्वेद के कणों से जिसका शरीर व्याप्त हो रहा था ऐसे उस श्रीभूति दूत को प्रतीहारी ने सभा के भीतर प्रविष्ट कराया ॥8॥
अथानंतर नम्र मुख होकर उसने सब वृत्तांत ज्यों का त्यों इस प्रकार सुनाया कि राम आदि दंडक वन में आये, शंबूक का वध हुआ, खरदूषण के साथ विषम युद्ध हुआ, और उत्तम मनुष्यों के साथ खरदूषण मारा गया ॥9-10॥ तदनंतर यह वार्ता सुन अनंगकुसुमा शोक से विह्वल शरीर हो मूर्च्छित हो गयी तथा उसके नेत्र निमीलित हो गये ॥11॥ उसका हलन-चलन बंद हो गया तथा चंदन के द्रव से उसे सींचा जाने लगा, यह देख समस्त अंतःपुररूपी सागर परम क्षोभ को प्राप्त हुआ ॥12॥ अंतःपुर की समस्त स्त्रियां एक साथ रुदन करने लगीं सो उनके रुदन का शब्द ऐसा उठा मानो वीणाओं के हजारों तार कोण के ताड़न को प्राप्त हो एक साथ शब्द करने लगे हों ॥13॥ तदनंतर अनंगकुसुमा बड़े कष्ट से प्राणों के समागम को प्राप्त हुई अर्थात् सचेत हुई । सचेत होनेपर अश्रुओं से स्तनों को सिक्त करती तथा अतिशय दुःख प्रकट करती हुई वह जोर-जोर से विलाप करने लगी ॥14॥ वह कहने लगी कि हाय तात ! तुम कहाँ गये; मुझे वचन देओ-मुझ से वार्तालाप करो । हाय भाई ! यह क्या हुआ ? एक बार तो दर्शन देओ ।। 15 ।। हे तात ! अत्यंत भयंकर वन में रण के सम्मुख हुए तुम भूमिगोचरियों के द्वारा मरण को कैसे प्राप्त हो गये ? ॥16॥ इस प्रकार जब श्रीशैल का भवन शोकाकुल मनुष्यों से भर गया तब अनंगकुसुमा की नर्मदा-सखी दूत को बात करने योग्य स्थानपर ले गयी ॥17॥ पिता और भाई के दुःख से संतप्त चंद्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा, सांत्वना देने में निपुण सत्पुरुषों के द्वारा बड़ी कठिनाई से शांति को प्राप्त करायी गयो ॥18॥ जिनमार्ग में प्रवीण अनंगकुसुमा ने संसार को स्थिति जानकर लोकाचार के अनुकूल पिता को मरणोत्तर क्रिया की ॥19॥
अथानंतर दूसरे दिन शोक से व्याप्त तथा मंत्री आदि मौलवर्ग से परिवृत श्रीशैल हनुमान् ने दूत को बुलाकर पूछा कि हे दूत ! खरदूषण की मृत्यु का जो कुछ कारण हुआ है वह सब कहो, यह कहकर हनुमान् खरदूषण का स्मरण करने लगा ॥20-21॥ तदनंतर क्रोध से जिसका समस्त शरीर व्याप्त था ऐसे महादीप्तिमान् हनुमान की फड़कती हुई भौंह चंचल बिजली की रेखा के समान जान पड़ती थी ॥22॥ तत्पश्चात् भय से जिसका समस्त शरीर व्याप्त था ऐसे महाप्रतापी बुद्धिमान् ने हनुमान् का क्रोध दूर करने वाले निम्नांकित मधुर वचन कहे ॥23॥ उसने कहा कि हे देव ! आपको यह तो विदित ही है कि किष्किंधा के अधिपति सुग्रीव को उसी के समान रूप धारण करनेवाले साहसगति विद्याधर के कारण स्त्रीसंबंधी दुःख उपस्थित हुआ था ॥24॥ उस दुःख से दुखी हुआ सुग्रीव राम की शरण में आया था और राम भी उसका दुःख नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर किष्किंधनगर गये थे॥25॥ वहाँ आपके श्वसुर-सुग्रीव का, उसकी आकृति के चौर कृत्रिम सुग्रीव के साथ बड़े-बड़े योद्धाओं को थ का देनेवाला चिरकाल तक महायुद्ध हुआ ॥26॥ तदनंतर महातेजस्वी राम ने उठकर उसे ललकारा । उन्हें देखते ही चोरी का कारण जो वेताली विद्या थी वह नष्ट हो गयी ॥27॥ तब साहसगति अपने असली स्वरूप को प्राप्त हो गया, सबकी पहचान में आया और राम के द्वारा छोड़े हुए बाणों से मृत्यु को प्राप्त हुआ ।। 28 ।। यह सुनकर हनुमान् क्रोधरहित हो गया । प्रसन्नता से उसका मुख कमल खिल उठा और संतुष्ट होकर उसने बार-बार कहा कि अहो ! राम ने बहुत अच्छा किया, मुझे बहुत अच्छा लगा जो उन्होंने अपकीर्ति में डूबते हुए सुग्रीव के कूल का शीघ्र ही उद्धार कर लिया ॥29-30॥ स्वर्ण कलश के समान सुग्रीव का कुल अपयशरूपी कूप के गर्त में पड़कर डूब रहा था सो उत्तम बुद्धि के धारक राम ने गुणरूपी रस्सी हाथ में ले उसे निकाला है ॥31।। इस प्रकार रामलक्ष्मण को अत्यधिक प्रशंसा करता हुआ हनुमान् किसी अद̖भुत श्रेष्ठ सुखरूपी सागर में निमग्न हो गया ॥32॥
हनुमान् की दूसरी स्त्री सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा थी सो पिता के शोक का क्षय सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ । उसने दान-पूजा आदि के द्वारा महाउत्सव किया ॥33॥ उस समय हनुमान् के भवन में एक ओर तो शोक मनाया जा रहा था और दूसरी ओर हर्ष प्रकट किया जा रहा था । वह एक ओर तो कांति से शून्य हो रहा था और दूसरी ओर देदीप्यमान हो रहा था । इस प्रकार दो स्त्रियों के कारण वह दो प्रकार के रस से युक्त था ॥34॥ इस प्रकार जब कुटुंब के लोग विषमता को प्राप्त हो रहे थे तब हनुमान् कुछ-कुछ मध्यस्थता को धारण कर किष्किंधा नगर की ओर चला ॥35॥ वैभव के साथ जाते हुए हनुमान् की बहुत बड़ी सेना से उस समय संसार आकाश से रहित होने के कारण ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरा ही उत्पन्न हुआ हो ॥36।। मणियों और रत्नों से जगमगाता हुआ उसका बड़ा भारी विमान, अपनी किरणों से सूर्य की प्रभा को हर रहा था ॥37॥ जाते हुए उस महाभाग्यशाली के पीछे सैकड़ों मित्र राजा उस प्रकार चल रहे थे जिस प्रकार कि इंद्र के पीछे उत्तमोत्तम देव चलते हैं ॥38॥ उसके आगे-पीछे और दोनों ओर चलने वाले विद्याधर राजाओं की जयध्वनि से आकाश शब्दमय हो गया था ॥39॥ आकाश तल में चलने वाले उसके घोड़ों से आश्चर्य उत्पन्न हो रहा था तथा हाथियों की अपने शरीर के अनुरूप मनोहारी चेष्टा प्रकट हो रही थी ॥40॥ जिनमें बड़े-बड़े घोड़े जुते हुए थे तथा जिन पर पताकाएं फहरा रही थीं ऐसे रथों से उस समय आकाश तल ऐसा जान पड़ता था मानो कल्पवृक्षों से व्याप्त ही हो ॥41॥ धवल छत्रों के विशाल समूह से आकाशतल ऐसा जान पड़ता था मानो कुमुदों के समूह से ही व्याप्त हो ॥42॥ दूसरों की ध्वनि को नष्ट करनेवाला उसकी दुंदुभि का धीर गंभीर शब्द दिशाओं के मंडल को व्याप्त कर स्थित था तथा उसकी जोरदार प्रतिध्वनि उठ रही थी ॥43 ।। उसकी चलती हुई सेना से व्याप्त आकाशांगण ऐसा दिखाई देता था मानो बीच-बीच में खंड-खंडों से आच्छादित हो ॥44॥ उसके नाना प्रकार के भूषणों के समूह की कांति से रंगा हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो किसी विशिष्ट-कुशल शिल्पी के द्वारा रंगा वस्त्र ही हो ॥45 ।। हनुमान् की तुरही का गंभीर शब्द श्रवण कर सब वानरवंशी इस प्रकार संतोष को प्राप्त हुए जिस प्रकार कि मेघ का शब्द सुनकर मयूर संतोष को प्राप्त होते हैं ।। 46 ।। उस समय किष्किंधनगर के बाजारों में महाशोभा की गयी; ध्वजाओं तथा मालाओं से नगर सजाया गया और रत्नमयी तोरणों से युक्त किया गया ॥47॥ देवों के समान अनेक विद्याधरों ने बड़े वैभव से जिसकी पूजा की थी ऐसा हनुमान् सुग्रीव के विशाल महल में प्रविष्ट हुआ ॥48॥ सुग्रीव ने यथायोग्य आदर कर उसका सम्मान किया तथा राम आदि की समस्त चेष्टाएँ उसके समक्ष कहीं ॥49 ।। तदनंतर हनुमान् से युक्त सुग्रीव आदि राजा परम हर्ष को धारण करते हुए राम के समीप आये ॥50॥ तत्पश्चात् हनुमान् ने उन श्रीराम को देखा जो मनुष्यों में श्रेष्ठ थे, लक्ष्मण के अग्रज थे, जिनके केश काले, घुंघराले, सूक्ष्म तथा अत्यंत स्निग्ध थे ॥51॥
जिनका शरीर लक्ष्मीरूपी लता से आलिंगित था, जो बालसूर्य के समान जान पड़ते थे अथवा जो कांतिरूपी पंक के आकाश को लिप्त करते हुए चंद्रमा के समान सुशोभित थे ॥52॥ जो नेत्रों को आनंद देने वाले थे, मन के हरण करने में निपुण थे, अपूर्व कर्मों की मानो सृष्टि ही थे और स्वर्ग से आये हुए के समान जान पड़ते थे ॥53॥ देदीप्यमान निर्मल स्वर्ण-कमल के भीतरी भाग के समान जिसकी प्रभा थी, जिनकी नासा का अग्रभाग मनोहर था, जिनके दोनों कर्ण उत्तम सुडौल अथवा सज्जनों को प्रिय थे ॥54॥ जो मूर्तिधारी कामदेव के समान जान पड़ते थे, जिनके नेत्रकमल के समान थे, जिनकी भौंह चढ़े हुए धनुष के समान नम्रीभूत थी, जिनका मुख शरद्ऋतु के पूर्णचंद्रमा के समान था ॥55॥ जिनका ओंठ बिंब अथवा मूंगा या किसलय के समान लाल था जिसकी दाँतों की पंक्ति कुंद कुसुम के समान शुक्ल थी, कंठ शंख के समान था, जो सिंह के समान विस्तृत वक्षःस्थल के धारक थे, महाभुजाओं से युक्त थे ॥56॥ जिनके स्तनों का मध्यभाग श्रीवत्सचिह्न की कांति से परिपूर्ण महाशोभा को धारण करने वाला था, जो गंभीर नाभि से युक्त तथा पतली कमर से सुशोभित थे ॥57 ।। जो प्रशांत गुणों से युक्त थे, नाना लक्षणों से विभूषित थे, जिनके हाथ अत्यंत सुकुमार थे, जिनकी दोनों जाँघे गोल तथा स्थूल थीं ॥58॥ जिनके दोनों चरण कछुवे के पृष्ठ भाग के समान महातेजस्वी तथा सुकुमार थे, जो चंद्रमा की किरणरूपी अंकुरों से लाल-लाल दिखने वाली नखावली से उज्ज्वल थे ॥59।। जो अक्षोभ्य धैर्य से गंभीर थे जिनका शरीर मानो वज्र का समूह ही था, अथवा समस्त सुंदर वस्तुओं को एकत्रित कर ही मानो जिनकी रचना हुई थी ॥60॥ जो महाप्रभाव से युक्त थे, न्यग्रोध अर्थात् वट-वृक्ष के समान जिनका मंडल था, जो प्रिय स्त्री के विरह के कारण बालसिंह के समान व्याकुल थे ॥61॥ जो इंद्राणी से रहित इंद्र के समान, अथवा रोहिणी से रहित चंद्रमा के समान जान पड़ते थे, जो रूप तथा सौभाग्य दोनों से युक्त थे, समस्त शास्त्रों में निपुण थे ॥62।। शूर-वीरता के माहात्म्य से युक्त थे तथा मेधा-सद्बुद्धि आदि गुणों से युक्त थे । ऐसे श्रीराम को देखकर हनुमान क्षोभ को प्राप्त हुआ ॥63।।
तदनंतर जो राम के प्रभाव से वशीभूत हो गया था और उनके शरीर को कांति के समूह से जिसका शरीर आलिंगित हो रहा था ऐसा हनुमान् संभ्रम में पड़ विचार करने लगा ॥64॥ कि यह वही दशरथ के पुत्र लक्ष्मीमान् राजा रामचंद्र हैं, लोकश्रेष्ठ लक्ष्मण जैसा भाई जिनका आज्ञाकारी है ॥65॥ उस समय युद्ध में जिनका चंद्र तुल्य छत्र देखकर साहसगति की वह वैताली विद्या निकल गयो ॥66 ।। मेरा जो हृदय पहले इंद्र को देखकर भी कंपित नहीं हुआ वह आज इन्हें देखकर परम क्षोभ को प्राप्त हुआ है ॥67।। इस प्रकार आश्चर्य को प्राप्त हुआ हनुमान् इनके गुणों का अनुसरण कर कमललोचन राम के पास पहुँचा ॥68॥ जिनका चित्त हर्षित हो रहा था ऐसे राम, लक्ष्मण आदि ने इसे देख दूर से ही उठकर यथाक्रम से इसका आलिंगन किया ॥69॥ परस्पर एक दूसरे को देखकर तथा विनय के योग्य वार्तालाप कर सब नाना प्रकार तालियों से सुशोभित अपने-अपने आसनों पर बैठ गये ।।70॥ वहाँ जो उत्तम आसन पर विराजमान थे, जिनको भुजा बाजूबंद से सुशोभित थी, जो लक्ष्मी के द्वारा सब ओर से देदीप्यमान थे, जो स्वच्छ नीलवस्त्र धारण किये हुए थे तथा उत्तम हार से सुशोभित थे ऐसे श्रीराम नक्षत्र सहित उदित हुए चंद्रमा के समान जान पड़ते थे ॥71-72 ।। दिव्य पीतांबर को धारण करनेवाले तथा हार, केयूर और कुंडलों से अलंकृत लक्ष्मण बिजली सहित मेघ के समान सुशोभित हो रहे थे ॥73॥ जिसका सुविस्तृत मुकुट वानर के चिह्न से युक्त था, तथा देवगज-ऐरावत के समान जिसका पराक्रम था ऐसा सुग्रीव राजा भी अतिशय बलवान् लोकपाल के समान सुशोभित हो रहा था ॥74॥ लक्ष्मण के पीछे बैठा विराधित कुमार भी अपने तेज से ऐसा दिखाई देता था मानो नारायण के समीप रखा हुआ चक्ररत्न ही हो ॥75॥
अतिशय बुद्धिमान् रामचंद्र के समीप हनुमान भी ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पूर्णचंद्र के समीप उदित हुआ अत्यंत देदीप्यमान बुध ग्रह ही हो ॥76॥ सुगंधित माला तथा वस्त्रादि एवं अलंकारों से अलंकृत अंग और अंगद यम तथा वैश्रवण के समान सुशोभित हो रहे थे ॥77॥ इनके सिवाय राम को घेरकर बैठे हुए नल, नील आदि सैकड़ों अन्य राजा भी उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ।।78॥ नाना प्रकार की उत्तम गंध से युक्त तांबूल तथा सुगंधित अन्य पदार्थों के समागम से जहाँ वायु सुगंधित हो रही थी तथा जहाँ आभूषणों के द्वारा प्रकाश फैल रहा था ऐसी वह सभा इंद्र की सभा के समान जान पड़ती थी ॥7॥
तदनंतर चिरकाल तक आश्चर्य में पड़कर प्रीति युक्त हनुमान् ने राम से कहा कि हे राघव ! यद्यपि आपके गुण आपके ही समक्ष नहीं कहना चाहिए क्योंकि इस लोक में भी ऐसी ही रीति देखी जाती है फिर भी प्रत्यक्ष ही आपके गुण कथन करने की उत्कट लालसा है सो ठीक ही है क्योंकि जो प्रिय वक्ता हैं उन्हें प्रत्यक्ष ही गुणों का कथन करना अद्भुत आह्लादकारी होता है ।। 80-82॥ जिनका बलपूर्ण लोकोत्तर माहात्म्य हमने पहले से सुन रखा था उन प्राणिहितकारी धैर्यशाली आपको मैं स्वयं नेत्रों से देख रहा हूँ ।।83 ।। हे राजन् ! आप संपूर्ण सौंदर्य से युक्त हैं, तथा गुणरूपी रत्नों को आकर अर्थात् खान अथवा समुद्र हैं । आपके शुक्ल यश से यह संसार अलंकृत हो रहा है ।। 83॥ हे नाथ! वज्रावर्त धनुष की प्राप्ति से जिसका अभ्युदय हुआ था तथा एक हजार देव जिसकी रक्षा करते थे ऐसे सीता के स्वयंवर में आपको जो पराक्रम प्राप्त हुआ था वह सब हमने सुना है ।। 84॥ दशरथ जिनका पिता है, भामंडल जिनका मित्र है, और लक्ष्मण जिनका भाई है, ऐसे आप जगत् के स्वामी राजा राम हैं ॥85 ।। अहो ! आपकी शक्ति अद्भुत है, अहो ! आपका रूप आश्चर्यकारी है कि सागरावर्त धनुष का स्वामी नारायण स्वयं ही जिनकी आज्ञा पालन करने में तत्पर है ।। 86॥ अहो ! आपका धैर्य आश्चर्यकारी है, अहो! आपका त्याग अद्भुत है जो पिता के वचन का पालन करते हुए आप महाभय उत्पन्न करनेवाले दंडक वन में प्रविष्ट हुए हैं ।। 87।। हे नाथ! आपने हम लोगों का जो उपकार किया है वह न तो भाई ही कर सकता है और न संतुष्ट हुआ इंद्र ही ॥88॥ आपने सुग्रीव का रूप धारण करनेवाले साहसगति को युद्ध में मारकर वानरवंश का कलंक दूर किया है ।। 89॥ विद्याबल की विधि के जानने वाले हम लोग भी जिसके मायामय शरीर को सहन नहीं कर सकते थे तथा हम लोगों के लिए भी जिसका जीतना कठिन था उस सुग्रीव रूपधारी साहसगति ने वानर वंशी सेना को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयत्न किया परंतु आपके दर्शनमात्र से उसका वह रूप निकल गया ॥90-91 ।। जो अत्यंत उपकारी मनुष्य का प्रत्युपकार करने के लिए समर्थ नहीं है वह उसके विषय में भावशुद्धि क्यों नहीं करता अर्थात् उसके प्रति अपने परिणाम निर्मल क्यों नहीं करता जबकि यह भावशुद्धि बिलकुल ही सुलभ है ।। 12 ।। जो मनुष्य, किये हुए उपकार की विशेषता को नहीं जानता है उसकी एक अज्ञ के लिए भी न्याय में बुद्धि कैसे हो सकती है ? ॥93॥ जो नीच मनुष्य अकृतज्ञ है वह चांडाल से भी अधिक पापी है, शिकारी से भी अधिक निर्दय है और सत्पुरुषों से निरंतर वार्तालाप करने के लिए भी योग्य नहीं है ।। 94॥ हे प्रभो! हम सब किसी अन्य की शरण में न जाकर आपकी ही शरण में आये हैं और सचमुच ही अपना शरीर छोड़कर भी आपका उपकार करने के लिए उद्यत हैं ॥95॥ हे महाबाहो ! मैं जाकर रावण को समझाऊँगा । वह बुद्धिमान है अतः अवश्य समझेगा और मैं शीघ्र ही आपकी पत्नी को वापस ले आता हूँ ॥96॥ हे राघव ! इसमें संदेह नहीं कि तुम उदित हुए चंद्रमा के समान निर्मल सीता का मुखकमल शीघ्र ही देखोगे ॥97॥
तदनंतर सुग्रीव के मंत्री जांबनद ने परमहितकारी वचन कहे कि हे वत्स हनुमान ! हम लोगों का आधार एक तू ही है ॥98॥ अतः तुझे सावधान होकर रावण के द्वारा पालित लंका जाना चाहिए और कहीं कभी किसी के साथ विरोध नहीं करना चाहिए ॥19॥ एवमस्तु-ऐसा ही हो यह कहकर उदार हनुमान् लंका की ओर प्रस्थान करने के लिए उद्यत हुआ सो उसे देख राम परमप्रीति को प्राप्त हुए ॥100॥ विदलित कमललोचन राम ने सुंदर लक्षणों के धारक हनुमान को बार-बार बुलाकर बड़े आदर के साथ यह कहा कि तुम मेरी ओर से सीता से कहना कि हे साध्वि ! इस समय राम तुम्हारे वियोग से किसी भी वस्तु में मानसिक शांति को प्राप्त नहीं हो रहे हैं― उनका मन किसी भी पदार्थ में नहीं लगता है ॥101-102॥ मेरे रहते हुए जो तुम अन्यत्र प्रतिरोध-―रुकावट को प्राप्त हो रही हो सो इसे मैं अपने पौरुष का अत्यधिक धात समझता हूँ ॥103॥ तुम जिस प्रकार निर्मल शीलव्रत से सहित हो तथा एक ही व्रत धारण करती हो उससे समझता हूँ कि तुम मेरे वियोग से योग से दुःखी होकर यद्यपि जीवन छोड़ना चाहती होगी पर हे सुमुखि ! तो भी खोटे परिणामों से मरना व्यर्थ है । हे मैथिलि ! प्राण धारण करो । जीवन का त्याग करना उचित नहीं है ।। 104-105 ।। सर्व वस्तुओं का पुनः उत्तम समागम प्राप्त होना दुर्लभ है और उससे भी दुर्लभ अरहंत भगवान के मुखारविंद से प्रकट हुआ धर्म है ॥106॥ यद्यपि उक्त धर्म दुर्लभ है तो भी समाधि-मरण उसकी अपेक्षा दुर्लभ है क्योंकि समाधि मरण के बिना यह जीवन तुष के समान साररहित देखा गया है ॥107॥ और प्रिया के लिए मेरे जीवित रहने का प्रत्यय-विश्वास उत्पन्न हो जाये इसलिए यह सदा को परिचित उत्तम अँगूठी उसे दे देना ॥108 ।। तथा हे पवनपुत्र ! तुम शीघ्र ही जाकर मुझे विश्वास उत्पन्न करनेवाला सीता का महाकांतिमां चूड़ामणि यहाँ ले आना ॥109॥ जैसी आज्ञा हो यह कहकर रत्नमय वानर से चिह्नित मुकुट को धारण करने वाला हनुमान् राम तथा लक्ष्मण को हाथ जोड़ नमस्कार कर बाहर निकल आया । उस समय वह अत्यंत हर्षित था, विभूतियों से युक्त था और अपने तेज से सुग्रीव के भवन संबंधी समस्त आंगन को क्षोभ युक्त कर रहा था ॥110-111 ।। उसने सुग्रीव से कहा कि जब तक मैं न आ जाऊँ तब तक आपको यहीं सावधान होकर ठहरना चाहिए ॥112 ।।
तदनंतर हनुमान् सुंदर शिखर से युक्त विमानपर आरूढ़ हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि सुमेरु के शिखर पर देदीप्यमान चैत्यालय सुशोभित होता है ।। 113 ।। तत्पश्चात् उसने परम कांति से युक्त हो प्रयाण किया । उस समय वह सफेद छत्र से सुशोभित था और उड़ते हुए हंसों की समानता करनेवाले चमर उस पर ढोरे जा रहे थे॥114॥ वह वायु के समान वेगशाली घोड़ों, चलते-फिरते पर्वतों के समान हाथियों और देवों के समान सैनिकों से घिरा हुआ जा रहा था ।।115 ।। इस प्रकार जो महाविभूति से युक्त था, तथा राम आदि जिसे ऊपर को दृष्टि कर देख रहे थे, ऐसा वह हनुमान् सूर्य के मार्ग का उल्लंघन कर निरंतर आगे बढ़ा जाता था॥116।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! यह समस्त संसार नाना प्रकार के उत्तम भोगों से युक्त जंतुओं से भरा हुआ है । उनमें से कोई विरला पुरुष ही परमार्थरूप कार्य में लगता है तथा परम यश को प्राप्त होता है ।। 117 ।। जो उत्तम मनुष्य दूसरे के द्वारा किये हुए उपकार का निरंतर स्मरण रखते हैं इस संसार में उनके समान न चंद्रमा है, न कुबेर हैं, न सूर्य है और न इंद्र ही है ॥118॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित, पद्मपुराण में हनुमान के प्रस्थान का वर्णन करने वाला उनचासवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥49 ।।