ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 53
From जैनकोष
तिरेपनवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधराज ! प्रभाव और अभ्युदय से सहित तथा स्वल्प अनुचरों से युक्त हनुमान् ने निःशंक होकर लंका में प्रवेश किया ॥1 ।। वहाँ जिसके द्वार पर सत्कार किया गया था ऐसे विभीषण के महल में प्रवेश किया और विभीषण ने यथायोग्य उनका सम्मान किया ।। 2 ।। तदनंतर वहाँ परस्पर इधर-उधर की कुछ वार्ताएँ करते हुए क्षण भर ठहर कर हनुमान् ने इस प्रकार के सद्वचन कहे कि तीन खंड का अधिपति किसी क्षुद्र मनुष्य की तरह पर-स्त्री की चोरी करता है सो क्या ऐसा करना उचित है ? ॥3-4॥ जिस प्रकार पर्वत नदियों का मूल है उसी प्रकार राजा मर्यादाओं का मूल है । यदि राजा स्वयं अनाचार में स्थित रहता है तो उसकी प्रजा भी अनाचार में प्रवृत्ति करने लगती है ।। 5॥ फिर ऐसा कार्य तो सर्वलोक विनिंदित है― सब लोगों की निंदा का पात्र है । इसके करने पर सब लोगों को दुःख सहन करना पड़ता है और हम लोगों को तो निश्चित ही दुःख प्राप्त होता है ॥6॥ इसलिए हम सबके कल्याण के लिए शीघ्र ही रावण से ऐसे वचन कहिए जो न्याय की रक्षा करनेवाले हों ।। 7 । उन्हें बतलाइए कि हे जगत् के नाथ ! दोनों लोकों में निंदनीय तथा कीर्ति को नष्ट करने वाली चेष्टा मत कीजिए ॥8॥ निर्मल-निर्दोष चरित्र की न केवल इस लोक में चाह है अपितु स्वर्गलोक में देव भी हाथ जोड़कर उसकी चाह करते हैं ।। 9 ।। तदनंतर विभीषण ने कहा कि मैंने रावण से अनेक बार कहा है पर वह उस समय से मेरे साथ बात ही नहीं करता है ॥10॥ फिर भी आपके कहने से मैं कल राजा के पास जाकर कहूँगा किंतु यह निश्चित है कि वह बड़े दुःख से ही इस हठ को छोड़ेगा ॥11॥ यद्यपि आज सीता को आहार पानी छोड़े ग्यारहवाँ दिन है तथापि लंकाधिपति को कुछ भी विरति नहीं है― इस कार्य से रंचमात्र भी विरक्तता नहीं है ॥12॥ विभीषण के यह वचन सुन महादयाभाव से युक्त हनुमान् प्रमदोद्यान में जाने के लिए उद्यत हुआ ।। 13 ।। जाकर उसने उस प्रमदोद्यान को देखा जो कि नयी-नयी लताओं के समूह से व्याप्त था, उत्तम स्त्रियों के हाथों के समान सुंदरलाल-लाल पल्लवों से युक्त था, भ्रमरों से आच्छादित सुंदर गुच्छों के द्वारा जिस पर सेहरा बंध रहा था, जहाँ फलों के भार से शाखाओं के अग्रभाग नम्रीभूत हो रहे थे, जो वायु के द्वारा कुछ-कुछ हिल रहा था, कमल आदि से आच्छादित स्वच्छ सरोवरों से जो अलंकृत था, जो बड़े-बड़े वृक्षों से लिपटी हुई कल्पलताओं से देदीप्यमान था, जो देव कुरु प्रदेश के समान जान पड़ता था, फूलों की पराग से आवृत था, अनेक आश्चर्यों से व्याप्त था तथा नंदनवन को समानता धारण कर रहा था ॥14-17॥ तदनंतर मनोहर लीला को धारण करता हुआ कमल लोचन हनुमान् सीता के दर्शन की इच्छा से उस उत्कृष्ट उद्यान में प्रविष्ट हुआ ॥18॥ वहाँ जाकर उसने शीघ्र ही समस्त दिशाओं में तथा पल्लवों आदि से सघन नाना वृक्षों के समूह में दृष्टि डाली ॥19॥ वहाँ दूर से ही सीता को देखकर वह अन्य वस्तुओं के दर्शन से रहित हो गया अर्थात् उसी ओर टकटकी लगाकर देखता रहा । तदनंतर उसने विचार किया कि वह रामदेव की सुंदरी यही है ।।20॥ यह स्निग्ध अग्नि के समान है, इसके नेत्र आँसुओं से भर रहे हैं, वह हथेली पर मुखरूपी चंद्रमा को रखे हुई है, केश इसके खुले हुए हैं तथा उदर इसका अत्यंत कृश है ।। 21 ।। उसे देखकर हनुमान् विचार करने लगा कि अहो ! लोक में इसका रूप समस्त मनोहर पदार्थों को पराजित करने वाला है, परम ख्याति को प्राप्त है तथा सत्य वस्तुओं का कारण है ।। 22 ।। कमल से रहित लक्ष्मी अर्थात् कमल से निकली हुई साक्षात् लक्ष्मी इसकी बराबरी नहीं कर सकती । अहो ! यह दुःखरूपी सागर में निमग्न है तो भी अन्य स्त्रियों के समान नहीं है ॥23॥ वह इस प्रकार विचार कर रही थी कि मैं इस पर्वत के शिखर से गिरकर मृत्यु को प्राप्त कर सकती हूँ परंतु राम के विरह में जीवन नहीं धारण करूँगी ।। 24 ꠰। इस प्रकार विचार करती हुई सीता के पास, हनुमान् चुपचाप पैर रखता हुआ दूसरा रूप धारण कर गया ॥25॥
तदनंतर हनुमान् ने सीता की गोद के वस्त्र पर अंगूठी छोड़ी उसे देखकर वह सहसा हँस पड़ी तथा रोमांचों से युक्त हो गयी ॥26॥ सीता की ऐसी अवस्था होने पर वहाँ जो स्त्रियाँ थीं उन्होंने शीघ्रता से जाकर सीता का समाचार जानने में तत्पर रहने वाले रावण को शुभ समाचार सुना हर्ष से वृद्धिंगत किया ॥27॥ रावण ने संतुष्ट होकर उन स्त्रियों के लिए अपने शरीर पर स्थित वस्त्र तथा रत्न आदिक दिये और सीता को प्रसन्नमुखी सुन अपना कार्य सिद्ध हुआ समझा ॥28॥ उसके हृदय में इतना उल्लास हुआ मानो अमृत के पूर को ही प्राप्त हुआ हो । उसी समय उसने उत्सुक हो अनिर्वचनीय उत्सव करने का आदेश दिया ॥29 ।। अपने पति के कहने से पतिव्रता मंदोदरी भी समस्त अंतःपुर के साथ शीघ्र ही वहाँ गयी जहाँ सीता विद्यमान थी ॥30॥ बहुत दिन बाद आज जिसके मुखकमल की कांति विकसित हो रही थी ऐसी सीता को देख मंदोदरी ने कहा कि हे बाले ! आज तूने हम सब पर बड़ा अनुग्रह किया है ॥31॥ जिस प्रकार समस्त संपदाओं से युक्त देवेंद्र की लक्ष्मी सेवा करती है उसी प्रकार तू भी अब शोक रहित हो जगत्पति रावण की सेवा कर ॥32॥ मंदोदरी के इस प्रकार कहने पर सीता ने कुपित होकर कहा कि हे विद्याधरि ! यदि तेरा यह कहना राम जान पावें तो तेरा पति निश्चित ही मारा जावे ॥33॥ आज मेरे भर्ता का समाचार आया है इसलिए संतोष को प्राप्त हो परम धैर्य को प्राप्त हुई हूँ और इसीलिए मैंने मुख को मंद हास्य से युक्त किया है ।। 34 ।। सीता के यह वचन सुनकर स्त्रियाँ कहने लगी कि क्षुधा के कारण इसे वायुरोग हो गया है इसीलिए यह हंसती हुई ऐसा बक रही है ॥35॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इसके बाद परम आश्चर्य को प्राप्त हुई सीता ने अत्यंत उत्सुक हो अतिशय उच्च वाणी में इस प्रकार कहा कि जो समुद्र के भीतर विद्यमान महा भयदायक इस द्वीप में कष्ट को प्राप्त हई है ऐसा मेरा कौन स्नेही उत्तम बंध यहाँ निकट आया है ॥36-37॥
तदनंतर जिसके दर्शन को प्रार्थना की गयी थी तथा जिसका मन सज्जनता से युक्त था ऐसे हनुमान् ने इस प्रकार विचार किया कि ॥38।। जो मनुष्य दूसरे का कार्य आगे कर अर्थात् पहले से स्वीकृत कर फिर अपने आपको छिपाता है वह अत्यंत भीरु होने के कारण नीच मनुष्य होता है ॥39।। और जो आपत्ति में पड़े हुए दूसरे मनुष्य को आलंबन देते हैं उन दयालु मनुष्यों का जन्म अत्यंत निर्मल होता है ॥40॥ इसके सिवाय अपने आपको प्रकट कर देने में पुरुषत्व की कुछ हानि भी तो नहीं मालूम होती अपितु प्रकट कर देने पर यशस्विनी लक्ष्मी संसार में गौरव को प्राप्त होती है ॥41॥ तदनंतर हनुमान् भामंडल की नाईं हजारों उत्तम स्त्रियों के बीच बैठी हुई सीता के समीप गया ॥42॥ जो शंका रहित हाथी के समान पराक्रमी था, जिसका मुख पूर्ण चंद्रमा के समान सुंदर था, जो दीप्ति से सूर्य के समान था, माला और वस्त्रों से सुशोभित था । रूप से अनुपम था । कांति से मृग रहित चंद्रमा के समान जान पड़ता था, मुकुट में वानर का चिह्न धारण कर रहा था, सुगंधि से जो भ्रमरों को आकर्षित कर रहा था, चंदन से जिसका समस्त शरीर चर्चित था, जो पीत विलेपन से सुशोभित था, जिसका बिंबोष्ठ तांबूल के रस से लाल था, जो नीचे लटकते हुए वस्त्र से सुशोभित था, चंचल कुंडलों के प्रकाश से जिसका गंडस्थल सुशोभित हो रहा था, जो उत्कृष्ट संहनन को धारण कर रहा था, जिसके पराक्रम की सीमा नहीं थी, जो गुणरूपी आभूषणों से युक्त था, तथा महाप्रताप से सहित था ऐसा हनुमान् सीता को लक्ष्य कर धीरे-धीरे जाता हुआ परम शोभा को प्राप्त हो रहा था ॥43-47 ।। जिसका मुख कांति से सुशोभित था, ऐसे उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त हनुमान् को देखकर वे कमललोचना स्त्रियाँ व्याकुल हो उठीं ॥48॥ जिसके हृदय में कंपकंपी छूट रही थी ऐसी मंदोदरी ने सीता के समीप हनुमान् को आश्चर्य के साथ देखा ॥49 ।।
तदनंतर सीता के समीप पहुँचकर परम विनीत हनुमान ने झुके हुए मस्तक पर अंजलि बाँध पहले अपने कुल, गोत्र तथा माता-पिता का नाम सुनाया । उसके बाद निश्चिंत हो राम का संदेश कहा ॥50-51॥ उसने कहा कि हे पतिव्रते ! तुम्हारे विरहरूपी सागर में डूबे राम, स्वर्ग के समान वैभव से युक्त विमान में भी रति को प्राप्त नहीं हो रहे हैं ॥52॥ अन्य सब कार्य छोड़कर वे प्रायः मौन धारण किये रहते हैं और मुनि की भांति एकाग्र चित्त हो तुम्हारा ध्यान करते हुए बैठे रहते हैं ॥53॥ हे पावने हे पवित्रकारिणि ! बाँसुरी तथा वीणा से युक्त उत्तम स्त्रियों का संगीत कभी भी उनके कर्णमूल में नहीं पहुँचता है ।। 54॥ हे स्वामिनि ! वे सदा सबके सामने बड़े हर्ष से तुम्हारी ही कथा करते रहते हैं और केवल तुम्हारे दर्शन की अभिलाषा से हो प्राणों को बाँधकर धारण किये हुए हैं ॥55॥ इस प्रकार पति के जीवन को सूचित करनेवाले हनुमान् के वचन सुन सीता परम प्रमोद को प्राप्त हुई । उसके नेत्र-कमल खिल उठे ॥56॥
तदनंतर विषाद को प्राप्त, शांत सीता ने नेत्र में जल भरकर सामने बैठे हुए विनयी हनुमान से कहा कि हे कपिध्वज ! मैं इस अवस्था में निमग्न तथा दुर्भाग्य से युक्त हूँ । संतुष्ट होकर तुझे क्या दूँ ? ॥57-58॥ इसके उत्तर में हनुमान् ने कहा कि हे शुभे― हे मंगलरूपिणि ! हे पूजिते ! आज आपके दर्शन से ही मुझे संसार में सब कुछ सुलभ हो गया है ।। 59॥ तदनंतर मोतियों के समान बड़ी-बड़ी अश्रुओं की बूंदों से जिसका ओंठ व्याप्त हो रहा था तथा जो दुःख से पीड़ित लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी सीता ने हनुमान से पूछा कि हे भद्र ! मकर-ग्राह तथा नाक आदि से क्षोभित इस भयंकर दुस्तर तथा लंबे-चौड़े समुद्र को लांघकर तू किस प्रकार आया है ? इस अवस्था अथवा कार्य की सिद्धि को प्राप्त हुई जो मैं हूँ सो मुझे यहाँ आकर तू किस लिए उत्तम धैर्य प्राप्त करा रहा है ॥60-62॥ हे भद्र ! तू लावण्य-कांति तथा रूप से सहित, कांतिरूपी सागर से घिरा, तथा लक्ष्मी और कीर्ति से युक्त मेरा प्यारा भाई ही है ॥63॥ तूने मेरे प्राणनाथ को कहाँ देखा था ? हे कुलीन ! क्या सचमुच ही मेरे प्राणनाथ, लक्ष्मण के साथ कहीं जीवित हैं ? ॥64॥ ऐसा तो नहीं है कि उन भयंकर दुष्ट विद्याधरों के द्वारा युद्ध में छोटा भाई लक्ष्मण मारा गया हो और उस दुःख से दुःखी हो कमललोचन राम भी उसी की तुल्य अवस्था को प्राप्त हो गये हों ॥65॥ अथवा तुम्हें संदेश देने के बाद मेरे विरह से अत्यंत उग्र दुःख को प्राप्त हो नाथ, किसी वन में लोकांतर को प्राप्त हो गये हों ? ॥66॥ अथवा वे संसार से विरक्त रहने में निपुण थे अतः समस्त परिग्रह का त्यागकर जिनेंद्र प्रणीत मार्ग में दीक्षित हो कहीं तपस्या करते हुए विद्यमान हैं ? ॥67 ।। अथवा वियोग के कारण जिनका समस्त शरीर शिथिल हो गया है ऐसे श्रीराम की अँगुली से यह अंगूठी कहीं गिर गयी होगी सो तुम्हें मिली है ? ॥68॥ तुम्हारे साथ मेरे स्वामी का परिचय पहले नहीं था फिर बिना कारण तू उनको मित्रता को कैसे प्राप्त हो गया ? ॥69॥ तू दयालु होकर यह अंगूठी लाया है सो संतुष्ट होकर भी मैं तेरा प्रत्युपकार करने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥70 ।। हे भाई ! तू अपने माता-पिता अथवा हृदय में विद्यमान श्रीजिनेंद्रदेव के कारण सत्य ही कथन करेगा ॥71 ।। इस प्रकार पूछे जाने पर चित्त की एकाग्रता से युक्त, वानर-चिह्नित मुकुट को धारण करनेवाला, तथा विकसित नेत्रों से सहित हनुमान्, हस्त-कमल जोड़ मस्तक से लगा इस प्रकार कहने लगा ॥72॥ कि जब लक्ष्मण ने सूर्यहास खड̖ग अपने अधीन कर लिया और चंद्रनखा को जब राम-लक्ष्मण ने चाहा नहीं तब उसने अपने पति खरदूषण को रोष युक्त कर दिया अर्थात् विपरीत भिड़ाकर उसे कुपित कर दिया ।।73।। सहायता के लिए जब तक महाबलवान् राक्षसों के स्वामी-रावण को बुलाया तब तक खरदूषण शीघ्र ही युद्ध करने के लिए राम के समीप आया ॥74॥ उधर लक्ष्मण जब तक खरदूषण के साथ विकट युद्ध करता है तब तक इधर अतिशय बलवान् रावण उस स्थानपर आता है ॥75 ।। यद्यपि रावण धर्म-अधर्म के विवेक को जाननेवाला एवं समस्त शाखों का विशारद था, तो भी वह क्षुद्र आपको देख मन के वशीभूत हो गया ॥76 ।। तदनंतर जिसकी समस्त नीति भ्रष्ट हो गयी थी और चेतना निःसार हो चुकी थी ऐसे उस रावण ने आपको चुराने के लिए मायामय सिंहनाद किया ॥77।। उस सिंहनाद को सुन जब तक राम, युद्ध में स्थित लक्ष्मण के पास गये तब तक यह पापी तुम्हें हरकर यहाँ ले आया ॥78॥ उधर लक्ष्मण ने शीघ्र ही युद्धक्षेत्र से राम को वापस किया सो वहाँ से आकर जब वे पुनः उस स्थान पर आये तब हे पतिव्रते ! उन्होंने तुम्हें नहीं देखा ।। 79 ।। तदनंतर तुम्हें खोजने के लिए चिरकाल तक वन में भ्रमण कर उन्होंने शिथिल प्राण एवं मरणासन्न जटायु को देखा ॥80॥ तदनंतर उस मरणोन्मुख के लिए जिनेंद्र धर्म का उपदेश देकर वे दुःखी हो वन में बैठ गये । उस समय उनका मन एक आप में ही लग रहा था ॥80॥
लक्ष्मण, खरदूषण को मारकर राम के पास आये और रत्नजटी तुम्हारे पति के लिए तुम्हारा वृत्तांत ले आया ॥82॥ इसी बीच में सुग्रीव के रूप से युक्त साहसगति नाम का विद्याधर राम को मारने के लिए उद्यत हुआ परंतु राम के प्रभाव से विद्या से रहित होने के कारण वह स्वयं मारा गया ।। 83 ।। इस प्रकार रामने हमारे कुल को पवित्र करनेवाला यह जो महान् उपकार कि उसका बदला चुकाने के लिए हो गुरुजनों ने मुझे भेजा है ।। 84॥ मैं तुम्हें प्रीतिपूर्वक छुड़वाता हूँ । युद्ध करना निष्प्रयोजन है क्योंकि नीतिज्ञ मनुष्यों को सब तरह से कार्य की सिद्धि करना ही संसार में इष्ट है ।। 85॥ यह लंकापुरी का राजा रावण दयालु है, विनयी है, धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्ग से सहित है, धीर है, हृदय से अत्यंत कोमल है ।। 86 ।। सौम्य है, क्रूरता से रहित है और सत्यव्रत का पालने वाला है, अतः निश्चित ही मेरा कहा करेगा और तुम्हें मेरे लिए सौंप देगा ॥87॥ इसे अपनी लोकप्रसिद्ध उज्ज्वल कीर्ति की भी तो रक्षा करनी है अतः यह विद्वान् लोकापवाद से बहुत डरता है ॥48॥
तदनंतर परम हर्ष को प्राप्त हुई विशाललोचना सीता हनुमान से यह वचन बोली कि पराक्रम से, धैर्य से, रूप से और विनय से तुम्हारी सदृशता धारण करनेवाले कितने वानरध्वज हमारे प्राणनाथ के साथ हैं ? 189-90॥ तब मंदोदरी बोली कि जो शूरवीर हैं, सत्त्व और यश से सहित हैं, गुणों से उत्कट हैं तथा धीर-वीर हैं ऐसे उत्तम पुरुष स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करते ॥11॥ हे वैदेहि ! तू इसे क्या जानती नहीं है जिससे पूछ रही है ? इस भरत क्षेत्र-भर में इसके समान दूसरा वानरध्वज नहीं है ॥12॥
विमानों तथा नाना प्रकार के वाहनों के समूह की जहाँ अत्यधिक भीड़ होती है ऐसे संग्राम में यह रावण की परम सहायता करता है ॥93॥ जिसने महायुद्ध में रावण को सहायता की है ऐसा यह हनुमान् इस नाम से प्रसिद्ध अंजना का उत्कृष्ट पुत्र है ।। 94॥ एक बार रावण महा विपत्ति में फंस गया था तब उसके ऐसे अनेक शत्रु विद्याधरों को इसने अकेले ही मार भगाया था जिनके कि नाम सुनने मात्र से मन को पीड़ा होती थी ॥95॥ जिसने चंद्रनखा की पुत्री अनंग कुसुमा प्राप्त की है । जो इतना गंभीर है कि मनुष्य सदा जिसके दर्शन की इच्छा करते हैं ॥96॥ जो यहाँ के नागरिक जनरूपी समुद्र को वृद्धिंगत करने के लिए चंद्रमा के समान मनोहर है और लंका का अधिपति रावण जिसे भाई के समान समझता है ॥97॥ ऐसा यह हनुमान् समस्त संसार में प्रसिद्ध, उत्कृष्ट गुणों का धारक है फिर भो भूमिगोचरियों ने इसे दूत बनाया है ॥98॥ यह बड़े आश्चर्य की बात है । इससे अधिक निंदनीय और क्या होगा कि इसे साधारण मनुष्य के समान, भूमिगोचरियों ने दासता प्राप्त करायी है अर्थात् अपना दास बनाया है ॥29॥ मंदोदरी के इस प्रकार कहने पर दृढ़चित्त के धारक हनुमान् ने इस प्रकार कहा कि अहो! तुमने जो यह कार्य किया है सो परम मूर्खता की है ॥10॥
जिसके प्रसाद से वैभव के साथ सुख पूर्वक जीवन बिताया जा रहा है वह यदि अकार्य करना चाहता है तो उसे सद्बुद्धि क्यों नहीं दी जाती है ? ॥101॥ इच्छानुसार काम करने वाला मित्र यदि विष मिश्रित भोजन करना चाहता है तो उसे मना क्यों नहीं किया जाता है ? ॥102॥ सुख प्राप्त करनेवाले मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए । जो सुखदायक के लाभ को नहीं समझता है उसका जीवन पशु के समान है ॥103 ।। हे मंदोदरि ! तुम व्यर्थ ही निःसार गर्व धारण करती हो जो पटराज्ञी होकर भी दूती का कार्य कर रही हो ॥104॥ तुम्हारा वह सौभाग्य तथा उन्नत रूप इस समय कहाँ गया जो परस्त्री सक्त पुरुष को दूती बनने बैठी हो? ॥105 ।। जान पड़ता है कि तुम रति कार्य के विषय में अत्यंत साधारण स्त्री हो गयी हो । अब मैं तुम में महिषीत्व (पट्टरानीपना) नहीं मानता, हे दुर्भगे ! अब तो तुम गौ हो गयी हो ॥106॥
तदनंतर जिसका मन क्रोध से आलिंगित हो रहा था ऐसी मंदोदरी ने कहा कि अहो! अपराधी होकर भी तू निरर्थक प्रगल्भता बता रहा है-बढ़-बढ़कर बात कर रहा है ॥107 ।। तू दूत बनकर सीता के पास आया है यदि यह बात रावण जान पायेगा तो तेरी वह दशा होगी जो किसी की नहीं हुई होगी ॥108 ।। जिसने दैव योग से चंद्रनखा के पति-खरदूषण को मारा है उसी को आगे कर ये क्षुद्रचेता सुग्रीवादि रावण की दासता भूल एकत्रित हुए हैं, सो यम के प्रेरे ये नीच कर ही क्या सकते हैं ? ॥109-110 ।। जान पड़ता है कि जिनकी आत्मा अत्यंत मूढ़ता से उपहत है, जो निर्लज्ज हैं, क्षुद्र चेष्टा के धारक हैं, अकृतज्ञ हैं, और व्यर्थ ही अहंकार में फूल रहे हैं ऐसे वे सब मृत्यु के निकट आ पहुँचे हैं ।। 111॥ मंदोदरी के इस प्रकार कहने पर सीता ने कुपित होकर कहा कि हे मंदोदरि ! तू अत्यंत मूर्ख है जो इस तरह व्यर्थ ही अपनी प्रशंसा कर रही है ॥112॥
शूरवीर तथा विद्वानों को गोष्ठी में जिनकी अत्यंत प्रशंसा होती है तथा जो अद्भुत पराक्रम के धारक हैं ऐसे मेरे पति राम का नाम क्या तूने नहीं सुना है ? ॥113 ।। रण के प्रारंभ में जिनके वज्रावर्त धनुष का शब्द सुनकर युद्ध में निपुण मनुष्य ज्वर से काँपते हुए दुःखी होने लगते हैं ।। 114॥ जिसके शरीर में लक्ष्मी का निवास है ऐसा लक्ष्मण जिनका छोटा भाई है ऐसा भाई कि जो देखने मात्र से शत्रुपक्ष का क्षय करने में समर्थ है ॥115।। इस विषय में बहुत कहने से क्या? हमारा पति लक्ष्मण के साथ समुद्र को तैरकर अभी आता है ।। 116॥
तू कुछ ही दिनों में लोकोत्तर तेज के धारक मेरे पति के द्वारा अपने पति को युद्ध में मरा हुआ देखेगी ॥117।। जो तू पाप में प्रीति रखनेवाले पति की अनुकूलता को प्राप्त हुई है सो इसके फलस्वरूप वैधव्य को प्राप्त होगी और पतिरहित होकर चिरकाल तक रुदन करेगी ॥118॥ इस प्रकार कठोर वचन कहने पर जो अत्यंत कोप को प्राप्त हो रही थी तथा जो काँपते हुए ओठ को धारण कर रही थी ऐसी मंदोदरी परम क्षोभ को प्राप्त हुई ॥119॥ यद्यपि मंदोदरी एक थी तो भी वह संभ्रम को प्राप्त तथा क्रोध से कंपित शरीर को धारण करने वाली अपनी अठारह हजार सपत्नियों के साथ सीता को वेगशाली करतलों से मारने के लिए उद्यत हुई । वह उस समय अत्यंत क्रूर अपशब्दों से उसका अत्यधिक तिरस्कार कर रही थी ॥120-121॥ उसी समय लक्ष्मी से सुशोभित तथा वेग से युक्त हनुमान उठकर उन सबके बीच में उस प्रकार खड़ा हो गया जिस प्रकार कि नदियों के बीच कोई पर्वत आ खडा होता है॥122॥ दु:ख को कारण तथा सोता को मारने के लिए उद्यत उन सब स्त्रियों को हनुमान् ने उस प्रकार रोक दिया जिस प्रकार कि वैद्य वेदनाओं को रोक देता है ।। 123 ।। तदनंतर जो पैरों से पृथिवी के प्रदेश ताड़ित कर रही थीं तथा जिन्होंने आभूषण धारण करने का आदर छोड़ दिया था ऐसी दुष्ट अभिप्राय को धारण करने वाली वे सब स्त्रियाँ रावण के पास गयीं ॥124॥
तदनंतर साधु स्वभाव के धारक हनुमान् ने बड़े आदर के साथ सीता को प्रणाम कर उत्तम वचनों के द्वारा भोजन करने की प्रार्थना की ॥125 ।। सो जिसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी थी, जिसका मनोरथ निर्मल था और जिसका मन देश काल का ज्ञाता था ऐसी सीता ने आहार ग्रहण करना स्वीकृत कर लिया ॥126।। प्रार्थना करते समय हनुमान् ने इस प्रकार समझाया था कि हे देवि ! यह समुद्र सहित पृथिवी रामदेव के शासन में है इसलिए यहाँ का यह अन्न छोड़ने के योग्य नहीं है ।।127॥ इस प्रकार समझाये जाने पर दया की भूमि सीता ने अन्न ग्रहण करने की इच्छा की थी, सो ठीक ही है क्योंकि वह पतिव्रता सब प्रकार का आचार जानने में निपुण थी ॥128।। तदनंतर हनुमान् ने इरा नाम की कुलपालिता से कहा कि शीघ्र ही उत्तम तथा प्रशंसनीय अन्न लाओ ॥129।। इस प्रकार कहने पर कन्या अपने शिविर अर्थात् डेरे में गयी और रात्रि समाप्त होने तथा सूर्योदय होने पर हनुमान् का विभीषण के साथ समागम हुआ ॥130॥ हनुमान् ने विभीषण के घर ही मनोहर आहार ग्रहण किया । इस प्रकार कर्तव्य कार्य करते हुए तीन मुहूर्त निकल गये ॥131॥ तदनंतर चतुर्थ मुहूर्त में इरा, सीता के भोजन के योग्य आहार ले आयी ।। 132॥ वहाँ की भूमि चंदनादि से लीप कर दर्पण के समान स्वच्छ की गयो, फूलों के उपकार से सजायी गयी जिससे वह कमलिनी पत्र के समान सुशोभित हो उठी ॥133॥ स्वर्ण आदि से बने हुए स्थाली आदि बड़े-बड़े पात्रों में सुगंधित, अत्यधिक, स्वच्छ और हितकारी पेय आदि पदार्थ लाये गये ॥134 ।। वहाँ कितनी ही थालियाँ दाल आदि से भरी हुई सुशोभित हो रही थीं, कितनी ही कुंद के फूल के समान उज्ज्वल धान के भात से युक्त थीं ॥135 ।। कितनी ही थालियाँ रुचि बढ़ाने वाले षट̖ रस के भोजनों से परिपूर्ण थीं, कितनी ही पतली तथा कितनी ही पिंड बँधने के योग्य व्यंजनों से युक्त थीं ॥136॥ कितनी ही दूध से निर्मित, कितनी ही दही से निर्मित पदार्थों से युक्त थीं, कितनी ही चाटने के योग्य रबड़ी आदि से, कितनी ही महास्वादिष्ट भोजनों से तथा कितनी ही भोजन के बाद सेवन करने योग्य पदार्थों से परिपूर्ण थीं ॥137॥ इस प्रकार इरा अपने परिजन के साथ उत्तम आहार ले आयी, सो हनुमान् को आगे कर जिसके भाई का स्नेह उमड़ रहा था, ऐसी सीता ने हृदय में महाश्रद्धा धारण कर जिनेंद्र भगवान को नमस्कार किया, जब तक पति का समाचार नहीं मिलेगा तब तक आहार नहीं लूंगी यह जो नियम लिया था उसको बड़ी धीरता से समाप्त किया । अतिथियों के समागम का विचार किया, स्नानादिक से शरीर को पवित्र किया । तदनंतर अभिराम (मनोहर ) राम को हृदय में धारण कर उस पतिव्रता ने दिन के समय साधुजनों के द्वारा प्रशंसित उत्तम आहार ग्रहण किया, सो ठीक ही है क्योंकि जो सूर्य की किरणों से प्रकाशित है, अतिशय पवित्र है, मनोहर है, पुण्य को बढ़ानेवाला है, आरोग्यदायक है और दिन में ही ग्रहण किया जाता है ऐसा भोजन ही प्रशंसनीय माना गया है ।। 138-141 ।।
तदनंतर भोजन करने के बाद जब सीता कुछ विश्राम को प्राप्त हो चुकी तब हनुमान् ने जाकर उससे पुन: इस प्रकार निवेदन किया कि हे देवि ! हे पवित्रे! हे गुणभूषणे ! मेरे कंधे पर चढ़ो मैं समुद्र को लाँघकर अभी क्षण-भर में आपको ले चलूंगा ॥142-143॥ तुम वैभव से युक्त एवं तुम्हारे ध्यान में तत्पर रहने वाले राम के दर्शन करो तथा प्रेमीजन― मित्रगण आप दोनों के समागम से उत्पन्न होने वाले हर्ष का अनुभव करें ॥144॥ तदनंतर सब स्थिति का यथायोग्य विचार करने वाली एवं आदर से संयुक्त सीता ने हाथ जोड़कर रोती हुई यह कहा कि स्वामी की आज्ञा के बिना मेरा जाना योग्य नहीं है । इस अवस्था में पड़ी हुई मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगी ॥145-146।। इस समय लोग मृत्यु के बिना मेरी शुद्धि का प्रत्यय नहीं करेंगे, इसलिए प्राणनाथ ही आकर मेरे कार्य को योग्य जानेंगे ॥147॥ हे भाई ! जब तक रावण की ओर से कोई उपद्रव नहीं होता है तब तक तू शीघ्र ही यहाँ से चला जा । यहाँ क्षणभर भी विलंब मत कर ॥148।। तू हाथ जोड़ मस्तक से लगा, इन परिचायक कथानकों के साथ-साथ मेरे वचनों में प्राणनाथ से अच्छी तरह कहना कि हे देव ! उस वन में एक दिन स्तवन करते हुए आपने मेरे साथ बड़ी भक्ति से आकाशगामी मुनियों की वंदना की थी ॥149-150꠰। एक बार निर्मल जल से युक्त तथा कमलिनियों से सुशोभित सरोवर में हम लोग इच्छानुसार सुंदर क्रीड़ा कर रहे थे कि इतने में एक भयंकर जंगली हाथी वहाँ आ गया था, उस समय मैंने आपको पुकारा था सो आप जल के मध्य से तत्काल ऊपर निकल आये थे ॥151-152॥ और सुंदर क्रीड़ा करते हुए आपने उस उद्दंड महाहस्ती का सब गर्व छुड़ाकर उसे निश्चल कर दिया था ॥153॥ एक बार नंदन वन के समान सुंदर तथा फूलों के भार से झुके हुए वन में, मैं नूतन पत्रों के लोभ से प्रयत्नपूर्वक वृक्ष की एक शाखा को झुका रही थी । तब उड़ते हुए चंचल भ्रमरों ने धावा बोलकर मुझे आकुल कर दिया था, उस समय मुझ घबड़ायी हुई को आपने अपनी भुजाओं से आलिंगन कर छुड़ाया था ॥154-155॥ एक बार मैं आपके साथ कमलवन के तट पर बैठी थी उसी समय पूर्व दिशा के आभूषण स्वरूप सूर्य को उदित होता देख मैंने उसकी प्रशंसा की थी तब आपने कुछ ईर्ष्या रस को प्राप्त हो मुझे नीलकमल की एक छोटी-सी दंडी से मधुर रीति से ताड़ित किया ॥156-157 ।। एक बार रति गिरि के शिखर पर अत्यधिक शोभा के कारण कौतुक को धारण करती हुई मैंने आपसे पूछा था कि हे प्रिय ! इधर फूलों से परिपूर्ण, विशाल, स्निग्धता को धारण करने वाले एवं मन के हरण करने में निपुण ये कौन-से वृक्ष हैं ? ।।158-159।। तब इस प्रकार पूछे जाने पर आपने प्रसन्न मुखमुद्रा से सुशोभित हुए कहा कि हे देवि ! ये नंदि वक्ष हैं ॥160॥ एक बार हम सब कर्णकुंडल नदी के तीर पर ठहरे हुए थे, उसी समय मध्याह्न काल में दो आकाशगामी मुनि निकट आये थे ॥161॥ तब आपने और मैंने उठकर, भिक्षा के लिए आये हुए उन मुनियों की बड़ी श्रद्धा के साथ विशाल पूजा की थी ।। 162॥ तथा विधिपूर्वक उन्हें उत्तम आहार दिया था, उसके प्रभाव से वहाँ अत्यंत सुंदर पंच आश्चर्य हुए थे ॥163 ।। आकाश में देवों ने यह मधुर शब्द किये कि अहो ! पात्रदान ही दान है, यही सबसे बड़ा दान है ।। 164 ।। जिनका शरीर दीख नहीं रहा था ऐसे देवों ने दुंदुभि बाजे बजाये, आकाश से जिस पर भ्रमर शब्द कर रहे थे ऐसी पुष्पवृष्टि हुई ।। 165 ।। सुखकारी, शीतल, सुगंधित एवं धलि रहित कोमल वायु चली थी और मणि, रत्न तथा सुवर्ण की धारा ने उस आश्रम को भर दिया था ॥166 ।। हे भाई ! इसके बाद दृढ़ विश्वास का कारण यह उत्तम चूड़ामणि प्राणनाथ को दिखाना, क्योंकि यह उन्हें अत्यंत प्रिय था ॥167॥ ऊपर से यह संदेश कहना कि हे नाथ ! आपका मुझ पर अतिशय प्रसन्नता से भरा जो भाव है उसे मैं यद्यपि जानती हूँ तो भी पुनः समागम की आशा से प्राण प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं ॥168 ।। प्रमाद के कारण मेरे साथ आपका यह वियोग हुआ है परंतु इस समय जबकि आप प्रयत्न कर रहे हैं तब हम दोनों का समागम निःसंदेह होगा ॥169।। इतना कहकर सीता रोने लगी, तदनंतर उसे प्रयत्नपूर्वक सांत्वना देकर और जैसी आज्ञा हो यह कहकर हनुमान्, सीता के उस स्थान से बाहर निकल आया ॥170॥ उस समय जिसका शरीर अशक्त हो रहा था ऐसी सीता ने अंगूठी को हाथ में पहनकर ऐसा माना था मानो मन को आनंद देनेवाला पति का समागम ही प्राप्त हुआ हो ॥171 ।।
अथानंतर उस उद्यान में भयभीत मृग के समान नेत्रों को धारण करने वाली जो स्त्रियाँ थीं वे हनुमान् को देख मंद मुसकान और आश्चर्य से युक्त हो परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगीं कि अहो ! इस फूलों के पर्वत के ऊपर यह कोई श्रेष्ठ पुरुष अवतीर्ण हुआ है सो क्या यह शरीरधारी कामदेव है ? अथवा पर्वत की शोभा देखने के लिए कोई देव आया है ? ॥172-174꠰꠰ उन स्त्रियों में काम से आकुल होकर कोई स्त्री सिर पर माला रख किन्नर के समान मधुर स्वर से वीणा बजाने लगी ॥175 ।। कोई चंद्रमुखी बायें हाथ में दर्पण रख उसमें हनुमान का प्रतिबिंब देखने की इच्छा करती हुई अन्यथा चित्त हो गयी ।। 176।। कोई स्त्री कुछ-कुछ पहचानकर यह विचार करने लगी कि जिसे द्वार पर सम्मान प्राप्त नहीं हुआ ऐसा यह हनुमान् यहाँ कहाँ आ गया ? ॥177 ।। इस प्रकार वन में स्थित उत्तम स्त्रियों को संभ्रांत चित्त कर हार, माला तथा उत्तम वस्त्रों को धारण करनेवाला एवं अग्निकुमार के समान देदीप्यमान हनुमान, अपनो स्वभाव सुंदर चाल से किसी ओर जा रहा था कि रावण ने यह सब समाचार सुना ॥178-179।। सुनते ही जिसका चित्त आग बबूला हो गया था तथा जो निरपेक्ष भाव को प्राप्त हो चुका था― सब प्रकार का स्नेह भुला चुका था ऐसे रावण ने उसी समय अपने शूरवीर प्रधान किंकरों को आज्ञा दी कि तुम लोगों को विचार करने से प्रयोजन नहीं है । पुष्पोद्यान से जो पुरुष बाहर निकल रहा है वह कोई द्रोही है उसे शीघ्र ही आयु का अंत कराया जाये― मारा जाये ॥180-181॥
तदनंतर किंकर आकर आश्चर्य को प्राप्त हो इस प्रकार विचार करने लगे कि क्या यह इंद्र को जीतने वाला कोई राजा है, या सूर्य है अथवा श्रवण नक्षत्र है ? ॥182 ।। अथवा कुछ भी हो चलकर देखते हैं इस प्रकार कहकर उन्होंने सब ओर आवाज लगायी कि हे उद्यान के समस्त रक्षको ! सुनो, तुम लोग निश्चिंत होकर क्यों बैठे हो ? हमने उद्यान के बाहर चर्चा सुनी है । कोई एक दुष्ट विद्याधर आनी उद्दंडता से उद्यान में प्रविष्ट हुआ है सो यह क्या बात है ? उस दुर्विनीत को शीघ्र ही मारा जाये अथवा पकड़ा जाये ॥183-185 ।। रावण के प्रधान किंकरों की बात सुनकर उद्यान के किंकरों ने दौड़ो, कौन है वह, यहीं कहीं होगा, वह किसका कौन है ? उसके समान कौन कहाँ ? इस प्रकार का हल्ला मचाया ।। 186 ।। उन किंकरों में कोई धनुष लिये हुए थे, कोई शक्ति धारण कर रहे थे, कोई गदा के धारक थे, कोई तलवारों से युक्त थे, कोई भाले संभाले हुए थे, और कोई झुंड-के-झुंड बनाकर बहुसंख्या में आ रहे थे । उन सबको देख हनुमान के मन में कुछ संभ्रम उत्पन्न हुआ परंतु वह तो सिंह के समान पराक्रमी था उसने रत्नमयी बानर-जैसी कांति से आकाश को देदीप्यमान कर दिया ॥187-188 ।। तदनंतर आकुलता से रहित एवं लटकते हुए लंबे वस्त्र को धारण करनेवाला हनुमान् जब उद्यान के उस प्रदेश से नीचे उतर रहा था तब किंकरों ने उसे देखा ॥189 ।। उस समय क्रोध के कारण हनुमान की कांति उदित होते हुए सूर्यमंडल के समान देदीप्यमान हो रही थी तथा वह अपना ओठ चबा रहा था । उसे देख किंकरों के झुंड भाग खड़े हुए ॥190 ।। तदनंतर जो किंकरों में प्रधान क्रूर एवं प्रसिद्ध दूसरे किंकर थे उन्होंने इधर-उधर भागते हुए किंकरों के दल को इकट्ठा किया ॥191 ।। तदनंतर जिनके हाथ में शक्ति, तोमर, चक्र, खड्ग, गदा और धनुष थे ऐसे उन किंकरों ने चिल्लाकर सब ओर से हनुमान को घेर लिया ॥192॥
वे किंकर इतनी अधिक भीड़ इकट्ठी कर विद्यमान थे कि उनके कारण सूर्य का प्रकाश भी अदृष्ट हो रहा था । तदनंतर जिस प्रकार जेठ मास की वायु भूसा उड़ाती है उसी प्रकार वे अत्यधिक शस्त्र छोड़ने लगे ॥193॥ धीर शिरोमणि पवन-पुत्र हनुमान् यद्यपि शस्त्र रहित था परंतु तो भी उसने बड़े-बड़े वृक्षों और शिलाओं के समूह उखाड़-उखाड़कर फेंके ॥194 ।। भयंकर शेषनाग के शरीर के समान सुशोभित भुजाओं के वेग से फेंके हुए वृक्ष आदि से प्रहार करता हुआ हनुमान् उस समय प्रलयकाल के उन्नत मेघ के समान जान पड़ता था ।। 195 ।। हनुमान् बिना किसी विलंब के पीपल, सागौन, वट, नंदी, चंपक, बकुल, नीम, अशोक, कदंब, नागकेसर, कोहा, धवा, आम, मिलमाँ, लोध्र, खजूर तथा कटहल आदि के बड़े मोटे तथा ऊंचे-ऊँचे वृक्षों को उखाड़कर फेंक रहा था ।। 196-197 ।।
उस महाबलवान् ने ही लोगों को शीघ्र ही खंडित कर दिया, कितने ही योधाओं को उखाड़ डाला-पैर पकड़कर पछाड़ दिया और कितने ही किंकरों को लात तथा घुसों के प्रहार से पीस डाला ।।198 ।। उस अकेले ने ही समुद्र के समान भारी सेना की वह दशा की कि जिससे वह व्याकुल हो क्षण भर में प्राण बचाकर कहीं भाग गयी ॥199।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मृगों पर शासन करनेवाले मृगराज-सिंह को अन्य सहायकों की क्या आवश्यकता है ? और जो स्वाभाविक तेज को छोड़ चुके हैं उन्हें दूसरे सहायकों से क्या लाभ है― निस्तेज मनुष्य का अन्य सहायक क्या भला कर सकते हैं ? ।।200॥
तदनंतर पुष्पगिरि से नीचे उतरे हुए हनुमान का दिङ्मंडल को रोकने वाला तथा जिसमें निकटवर्ती किंकर मारे गये थे ऐसा भयंकर युद्ध पुनः हुआ ॥201॥ उस समय हनुमान के प्रहार से जो चूर-चूर किये गये थे ऐसे सभा, वापिका, विमान तथा बाग बगीचों से सुशोभित मकानों में केवल भूमि ही शेष रह गयी थी ॥202॥ उसके पैदल चलने के मार्गों में जो बाग-बगीचे तथा महल थे उन सबको उसने नष्ट कर दिया था, जिससे वे लंबे-चौड़े मार्ग सूखे समुद्र के समान हो गये थे ॥203॥ जहाँ अनेक ऊँची-ऊंची दुकानों की पंक्तियाँ तोड़कर गिरा दी गयी थीं, तथा अनेक किंकर मारकर गिरा दिये गये थे ऐसा राजमार्ग भी महायुद्ध की भूमि के समान हो गया था ॥204॥
गिरते हुए ऊँचे-ऊँचे तोरणों और कांपती हुई ध्वजाओं की पंक्ति से उस समय आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो उत्पात के कारण उससे वज्र ही गिर रहा हो ।। 205 ।। जंघाओं के वेग से उड़ती हुई रंगबिरंगी धूलियों से ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश में हजारों इंद्रधनुष ही बनाये गये हों ॥206॥ चरणों के प्रहार से विदीर्ण हुई भूमि में महलरूपी पर्वत नीचे को धंस रहे थे जिससे ऐसा भारी शब्द हो रहा था मानो वे महलरूपी पर्वत पाताल में ही धंसे जा रहे हों ॥207॥ वह किसी किंकर को दृष्टि से मार रहा था, किसी को हाथ से पीस रहा था, किसी को पैर से पीट रहा था, किसी को वक्षःस्थल से मार रहा था, किसी को कंधे से नष्ट कर रहा था और किसी को वायु से ही उड़ा रहा था ॥208॥ आते ही के साथ गिरने वाले हजारों किंकरों के समूह से वह लंबा-चौड़ा मार्ग ऐसा हो गया था मानो उसमें पूर ही आ गया हो ॥209।। कहीं नागरिकजन का हा-हा ही आदि का गंभीर शब्द उठ रहा था तो कहीं रत्नमय शिखरों के टूटने से कण-कण शब्द हो रहा था ॥210॥ जब हनुमान ऊपर को छलांग भरता था तब उसके वेग से बड़ी-बड़ी ध्वजाएं खिंची चली जाती थीं जिससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो घंटा का शब्द करती हुई क्रोध से उसके पीछे ही उड़ी जा रही हों ॥211॥ बड़े-बड़े हाथी खंभे उखाड़कर इधर-उधर घूमने लगे और घोड़े वायुमंडल से उड़ते हुए पत्तों की तुल्यता को प्राप्त हो गये ॥212॥ वापिकाएँ नीचे से फूटकर बह गयीं जिससे उनमें कीचड़ मात्र ही शेष रह गया तथा संपूर्ण लंका चक्र पर चढ़ी हुई के समान व्याकुल हो उठी ॥213॥
जिसमें राक्षसरूपी मीन मारे गये थे ऐसे लंकारूपी कमलवन को क्षोभित कर ज्यों ही हनुमानरूपी हाथी बाहर आया ॥214॥ त्यों ही हाथियों के रथ पर सवार इंद्रजित मेघवाहन के साथ तैयार होकर शीघ्र ही उसके पीछे लग गया ॥215॥ हनुमान् जब तक इसके साथ युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ तब तक मेघ-वाहन के पीछे लगी सेना आ पहुँची ॥216॥ तदनंतर लंका की बाह्य भूमि में हनुमान् का विद्याधरों के साथ उस तरह महाभयंकर युद्ध हुआ जिस प्रकार कि लक्ष्मण का खरदूषण के साथ हुआ था ।। 217।। हनुमान् चार घोड़ों से जुते रथ पर सवार हो बाण खींचकर राक्षसों की ओर दौड़ा ॥218॥ अथानंतर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद जो वीर इंद्रजित के द्वारा नागपाश से बाँध लिया गया था ऐसा हनुमान कुछ विचार करता हुआ नगर के भीतर ले जाया गया ॥219।। जो पहले तोड़-फोड़ करता हुआ विद्युद् दंड के समान देखा गया था वही हनुमान् अब नगरवासियों के द्वारा निश्चिंतता पूर्वक देखा गया ॥220 ।। तदनंतर वह रावण की सभा में ले जाया गया वहाँ रावण ने अपने विज्ञपुरुषों के द्वारा कहे हुए उसके अपराध श्रवण किये ।। 221॥ विज्ञपुरुषों ने उसके विषय में बताया कि यह दूत के द्वारा बुलाये जाने पर अपने नगर से किष्किंध नगर गया । वहाँ से लंका आते समय इसने राजा महेंद्र का नगर ध्वस्त किया तथा उसे शत्रु के अधीन किया ॥222।। दधिमुख नामक द्वीप में मुनि युगल का उपसर्ग दूर किया और गंधर्व राज की तीन कन्याएँ राम को वरने के लिए उत्सुक थीं सो उनका अनुमोदन किया ॥223 ।। राजा वज्रमुख के वज्रकोट का विध्वंस किया तथा उसकी कन्या लंकासुंदरी को स्वीकृत कर उसके नगर के बाहर अपनी सेना रक्खी ।। 224।। पुष्पगिरि का उद्यान नष्ट किया, उसकी रक्षक स्त्रियों को विह्वल किया, बहुत से किंकर नष्ट किये और प्रपा-पानी पीने आदि के स्थान विनष्ट किये ।। 225 ।। स्त्रियों ने जिन्हें पुत्र के समान स्नेह से घटरूपी स्तनों से छोड़े हुए जल के द्वारा निरंतर पुष्ट किया था वे छोटे-छोटे वृक्ष इसने नष्ट कर दिये हैं ।। 226॥ जिनके पल्लव चंचल हो रहे हैं ऐसी लताएँ इसने वृक्षों से अलग कर पृथिवी पर गिरा दी हैं जिससे वे विधवा स्त्रियों के समान जान पड़ती हैं ।। 227 ।। फल और फूलों के भार से झुकी हुई नाना वृक्षों की जातियाँ इसके द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दी गयी हैं जिससे वे श्मशान के वृक्षों के समान जान पड़ने लगी हैं ॥228।। हनुमान् के इन अपराधों को सुनकर रावण क्रोध को प्राप्त हुआ तथा विशिष्ट प्रकार के नागपाश से वेष्टित हुए उसे समीप में बुलाकर लोहे की साँकलों से बँधवा दिया ॥229 ।।
तदनंतर सिंहासन पर बैठा, सूर्य के समान देदीप्यमान रावण, पहले जिसकी पूजा करता था ऐसे हनुमान् के प्रति निर्दयता के साथ इस प्रकार कठोर वचन बकने लगा ॥230॥ कि यह दुराचारी है, पापी है, निरपेक्ष है, निर्लज्ज है, अब इसकी क्या शोभा है ? इसे धिक्कार है, इसके देखने से क्या लाभ है ? ॥231 ।। नाना अपराधों को करनेवाला यह दुष्ट क्यों नहीं मारा जाय ? अरे ! मैंने पहले इसके साथ जो अत्यंत उदारता का व्यवहार किया इसने उसे कुछ भी नहीं गिना ॥232 ।। तदनंतर रावण के समीप ही उत्तम चेष्टाओं से युक्त महाभाग्यशाली एवं नवयौवन से सुशोभित जो विलासिनी स्त्रियाँ खड़ी थीं वे क्रोध तथा मंद हास्य से युक्त हो नेत्र बंद करती तथा शिर हिलाती हुई अनादर से इस प्रकार कहने लगी कि हे हनुमान् ! तू जिसके प्रसाद से पृथिवी मंडल पर प्रभुता को प्राप्त हुआ है तथा समस्त प्रकार के बल से रहित होकर भी पृथिवी पर इच्छानुसार सर्वत्र भ्रमण करता है ।। 233-235 ।। उस स्वामी की प्रसन्नता का तूने यह फल दिखाया है कि भूमिगोचरियों की अतिशय निंदनीय दूतता को प्राप्त हुआ है ॥236 ।। रावण के द्वारा किये हुए उपकार को पीछे कर तुमने पृथिवी पर परिभ्रमण करने से खेद को प्राप्त हुए राम-लक्ष्मण को कैसे आगे किया ꠰꠰237꠰꠰ जान पड़ता है कि तू पवनंजय का पुत्र नहीं है, किसी अन्य के द्वारा उत्पन्न हुआ है, क्योंकि अकुलीन मनुष्य की चेष्टा ही उसके अदृष्ट कार्य को सूचित कर देती है ॥238।। जार से उत्पन्न हुए मनुष्य के शरीर पर कोई चिह्न नहीं होते, किंतु जब वह खोटा आचरण करता है तभी नीच जान पड़ता है ॥239।। वन में क्या मदोन्मत्त सिंह सियारों की सेवा करते हैं ? ठीक ही कहा है कि कुलीन मनुष्य नीच का आश्रय लेकर जीवित नहीं रहते ॥240 ।। तू यद्यपि पहले अनेक बार आया फिर भी सर्वस्व के द्वारा पूज्य रहा परंतु अब की बार बहुत काल बाद आया और राजद्रोही बनकर आया अतः निग्रह करने के योग्य है ॥241॥ इन वचनों से हनुमान् को क्रोध आ गया जिससे वह हँसकर बोला कि कौन जानता है पुण्य के बिना विधाता का निग्राह्य― दंड देने योग्य कौन है ।। 242॥ जिसकी मृत्यु निकट है ऐसे इस दुर्बुद्धि के साथ स्वयं ही यहाँ कुछ दिनों में देखेंगे कहाँ जाओगे ॥243 ।। प्रचंड बल का धारी लक्ष्मण राम के साथ आ रहा है सो जिस प्रकार पर्वत मेघ को नहीं रोक सकते उसी प्रकार राजा उसे नहीं रोक सकते ।। 244॥ जिस प्रकार इच्छानुसार प्राप्त हुए अमृत तुल्य उत्तम आहारों से तृप्त नहीं होनेवाला कोई मनुष्य विष की एक बूंद से नाश को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जो ईंधनों से अग्नि के समान हजारों स्त्रियों के समूह से तृप्त नहीं हुआ ऐसा यह दशानन परस्त्री की तृष्णा से शीघ्र ही नाश को प्राप्त होगा ॥245-246 ।। जिसने जो शुभ-अशुभ बुद्धि प्राप्त की है उसे इंद्र के समान पुरुष भी अन्यथा करने के लिए समर्थ नहीं है ॥247 ।। दुर्बुद्धि मनुष्य के लिए सैकड़ों प्रियवचनों के द्वारा हित का उपदेश व्यर्थ ही दिया जाता है । जान पड़ता है कि इसकी यह होनहार निश्चित ही है अतः वह अपनी होनहार से ही नष्ट होता है ॥248।। विनाश का अवसर प्राप्त होनेपर जीव की बुद्धि नष्ट हो जाती है । सो ठीक है, क्योंकि भवितव्यता के द्वारा प्रेरित हुआ यह जीव कर्मोदय के अनुसार चेष्टा करता है ।। 249 ।। जिस प्रकार कोई प्रमादी मनुष्य विषमिश्रित सुगंधित मधुर दुग्ध पीकर विनाश को प्राप्त होता है उसी प्रकार हे रावण ! तू परस्त्री सुख का लोभी हुआ बिना कुछ कहे ही शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होगा ॥250-251॥ गुरु, परिजन, वृद्ध, मित्र, प्रियबंधु तथा माता आदि को अनसुना कर तू पापकर्म में प्रवृत्त हुआ है ॥252॥ तू दुराचाररूप समुद्र में कामरूपी भ्रमर के बीच फंसकर नीचे नरक में जावेगा और वहाँ अतिशय दुःख प्राप्त करेगा ॥253 ।। हे दशानन ! महाराजा रत्नश्रवा से उत्पन्न हुए तुझ अधम पुत्र ने राक्षसों का वंश नष्ट कर दिया ॥254 ।। तुम्हारे वंशज पृथिवी पर मर्यादा का पालन करने वाले प्रशस्त चेष्टा के धारक उत्तम पुरुष हुए परंतु तू उन सबमें छिलके के समान निःसार हुआ है ॥255॥
इस प्रकार कहने पर रावण क्रोध से लाल हो गया । वह कृपाण की ओर देखकर बोला कि यह उद्दंड अत्यधिक दुर्वचनों से भरा है तथा मृत्यु का भय छोड़कर मेरे सामने बड़प्पन धारण कर रहा है अतः नगर के बीच ले जाकर इस दुष्ट को शीघ्र ही दुर्दशा की जाये ॥256-257॥ शब्द करने वाली लंबी मोटी लोहे की सांकलों से इसे गरदन तथा हाथों और पैरों में कसकर बांधा जाये, धूलि से इसकी शरीर धूसर किया जाये, दुष्ट किंकर इसे घेरकर कठोर वचनों से इसकी हंसी करें तथा घर-घर घुमावें । इस दुर्दशा से यह रो उठेगा ॥258-259।। इसे देख स्त्रियाँ तथा नगर के लोग धिक्कार देते तथा मुख को विकृत और कंपित करते हुए इसके प्रति शोक प्रकट करेंगे ॥260।। इसके आगे-आगे नगर में सर्वत्र यह घोषणा की जाये कि यह वही सम्मान को प्राप्त हुआ भूमिगोचरी का दूत है इसे सब लोग देखें ॥26॥
तदनंतर उन विविध प्रकार के अपशब्दों से परम क्रोध को प्राप्त हुआ हनुमान् बंधन को छेदकर उस प्रकार चला गया जिस प्रकार कि यति मोहरूपी पाश को छेदकर चला जाता है ॥262 ।। वह पैर रखने मात्र से उन्नत गोपुर तथा अन्य दरवाजों को तोड़कर हर्षपूर्वक आकाश में जा उड़ा ॥263 ।। रावण का जो भवन इंद्रभवन के समान था वह हनुमान् के पैर की आघात से इस प्रकार बिखर गया कि उसमें खाली खंभे-ही-खंभे शेष रह गये ।। 264 ।। यद्यपि वहाँ की पृथिवी बड़े-बड़े पर्वतों से जकड़ी हुई थी तथापि चरणों के वेग के अनुघात से गिरते हुए उस भवन के द्वारा हिल उठी ।। 265 ।। जिसका स्वर्णमय कोट भूमि में मिल गया था तथा जिसमें अनेक गहरे गड̖ढे हो गये थे ऐसा रावण का घर वज्र से चूर-चूर हुए पर्वत के समान हो गया ॥266।। मुकुट में कपि का चिह्न धारण करने वाले वानर वंशियों के राजा हनुमान् को इस प्रकार का पराक्रमी सुन सीता हर्ष को प्राप्त हुई तथा बंधन का समाचार सुन बार-बार विषाद को प्राप्त हुई ॥267।। तदनंतर पास में बैठी हुई वज्रोदरी ने कहा कि हे देवि ! व्यर्थ ही क्यों रुदन करती हो ? देखो, वह हनुमान् बंधन तोड़कर आकाश में उड़ा जा रहा है ।। 268 ।। उसके उक्त वचन सुन तथा अपनी सेना के साथ हनुमान् को जाता देख सीता के नयन कमल खिल उठे ॥269।। वह विचार करने लगी कि जिसका जाते समय यह तीव्र वेग है ऐसा यह हनुमान् अवश्य ही मेरे लिए मेरे नाथ को वार्ता कहेगा ।।270॥ इस प्रकार विचार कर सावधान चित्त की धारक सीता ने हर्षपूर्वक हनुमान् के पीछे उस प्रकार पुष्पांजलि छोड़ी जिस प्रकार कि लक्ष्मी तेज के स्वामी के पीछे छोड़ती है ।। 271 ।। साथ ही उसने यह कहा कि हे पवन पुत्र ! समस्त ग्रह तेरे लिए सुखदायक हों तथा तू विघ्नों को नष्ट कर भोग युक्त होता हुआ चिरकाल तक जीवित रह ।। 272 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिन्होंने पूर्वजन्म में उत्तम आचरण किया है, जो उदार है, तथा जिनकी कीर्ति का समूह समस्त संसार में व्याप्त है ऐसे मनुष्य परिभ्रमण से रहित हो वह कर्म करने के लिए समर्थ होते हैं जो कि बहुत भारी अचिंतनीय आश्चर्य उत्पन्न करता है ॥273॥ इसलिए नीरस फल देने वाले समस्त क्षुद्र कर्म को प्रयत्नपूर्वक छोड़ कर एक पुण्य का ही समागम प्राप्त करो जिससे परम सुख के आस्वाद के लोभी हो, पुरुष अपनी प्रभा से सूर्य की प्रभा को जीतने वाला एवं मनोहर लीलाओं का धारक होता है ॥274 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में हनुमान के लौटने
आदि का वर्णन करनेवाला तिरेपनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥53॥