ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 57
From जैनकोष
सत्तावनवां पर्व
अथानंतर परचक्र के आक्रमण को नहीं सहन करने वाले मनुष्य उठते हुए अहंकार से क्षुभित हो हर्षपूर्वक कवच आदिक धारण करने के लिए उद्यत हुए ॥1॥ सिंह की समानता करनेवाले कितने ही शूर-वीर योद्धा गले में पड़े हुए प्राणवल्लभा के बाहुपाश को बड़ी कठिनाई से दूर कर क्षुभित हो लंका से बाहर निकल आये ।। 2 ।। जिसने महायुद्ध में अनेक बड़े-बड़े योद्धाओं की चेष्टाओं का वर्णन सुन रखा था, ऐसी किसी वीर पत्नी ने पति का आलिंगन कर इस प्रकार कहा कि ॥3 ।। हे नाथ ! यदि संग्राम से घायल होकर पीछे आओगे तो बड़ा अपयश होगा और उसके सुनने मात्र से ही मैं प्राण छोड़ दूँगी ।।4।। क्योंकि ऐसा होने से वीर किंकरों की गर्वीली पत्नियाँ मुझे धिक्कार देंगी । इससे बढ़कर कष्ट की बात और क्या होगी ? ।। 5 ।। जिनके वक्षस्थल में घाव आभूषण के समान सुशोभित हैं, जिनका कवच टूट गया है, प्राप्त हई विजय से योद्धागण जिनकी स्तुति कर रहे हैं, जो अतिशय धीर हैं तथा गंभीरता के कारण जो अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं कर रहे हैं ऐसे आपको युद्ध से लौटा हुआ यदि देखूँगी तो मैं सुवर्णमय कमलों से जिनेंद्रदेव की पूजा करूँगी ॥6-7।। महा योद्धाओं का सम्मुखागत मृत्यु को प्राप्त हो जाना अच्छा है किंतु पराङ्मुख को धिक्कार शब्द से मलिन जीवन बिताना अच्छा नहीं है ॥8॥ कोई स्त्री दोनों स्तनों से पति का आलिंगन कर बोली कि जब आप विजयी हो लौटकर आवेंगे तब फिर ऐसा ही आलिंगन करूंगी ॥9॥ आपके वक्षस्थल के गाढ़े-गाढ़े रक्तरूपी चंदनों को चर्चा से मेरे दोनों स्तन सब प्रकार से परम शोभा को प्राप्त होंगे ॥10॥ हे स्वामिन् ! जिसका पति हार जाता है ऐसी पड़ोसी योद्धाओं की पत्नी को भी मैं सहन नहीं करती फिर हारे हुए आपको किस प्रकार सहन करूँगी ? ॥11 ।। कोई स्त्री बोली कि हे नाथ ! आपका यह अभागा पुराना घावरूपी आभूषण रूढ़ हो गया है― पुरकर सूख गया है, इसलिए आप अधिक सुशोभित नहीं हो रहे हैं ।। 12 ।। अब नूतन घाव पर रखे हुए स्तनमंडल को सुख पहुंचाने वाले आपको जब देखेंगी तो मेरा मुखकमल खिल उठेगा और वीर पत्नियाँ मुझे बड़े गौरव से देखेंगी ॥13॥ कोई स्त्री बोली कि मैंने जिस प्रकार आपके इस मुख को चुंबन किया है उसी प्रकार वक्षस्थल पर उत्पन्न हुए घाव के मुख का चुंबन करूँगी ॥14।। कोई नवविवाहि यद्यपि प्रौढ़ नहीं थी तथापि पति के युद्ध के लिए उद्यत होनेपर प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी ।। 15 ।। कोई स्त्री चिरकाल से मान की रक्षा करती बैठी थी परंतु जब पति युद्ध के सम्मुख हो गया तब उसने सब मान एक साथ छोड़ दिया और पति का आलिंगन करने में तत्पर हो गयी ॥16॥ यद्यपि किसी योद्धा की स्त्री पति के मुख की मदिरा पीती-पीती तृप्त नहीं हुई थी तथापि कामाकुलित हो उसने पति के लिए रण के योग्य शिक्षा दी थी ॥17॥ कोई कमललोचना स्त्री पति के ऊपर उठाये हुए मुख को टिमकार रहित नेत्रों से चिरकाल तक देखती रही और उसका चुंबन करती रही ॥18॥ किसी स्त्री ने पति के वक्षःस्थल पर नख का उज्ज्वल घाव बना दिया मानो आगे चलकर जो शस्त्रपात होगा उसका बयाना ही दे दिया था ।। 19 ।।
इस प्रकार जब स्त्रियों में नाना प्रकार की चेष्टाएँ हो रही थीं तब महायुद्ध से सुशोभित योद्धाओं की इस प्रकार वाणी प्रकट हुई ।। 20 ।। कोई बोला कि हे प्रिये ! वे मनुष्य प्रशंसनीय हैं जो रणाग्रभाग में जाकर शत्रुओं के समुख प्राण छोड़ते हैं तथा सुयश प्राप्त करते हैं ।। 21 ।। शत्रु भी जिनका विरद बखान रहे हैं, ऐसे योद्धा पुण्य के बिना मदोन्मत्त हाथियों के दाँतों के अग्रभाग से झूला नहीं झूल सकते ।। 22 ।। हाथी दाँत के अग्रभाग से विदीर्ण तथा हाथी के गंडस्थल को विदीर्ण करने वाले श्रेष्ठ मनुष्य को जो सुख होता है उसे कहने के लिए कौन समर्थ है? ।।23 ।। कोई कहने लगा कि हे प्रिये ! मैं भयभीत, शरणागत, पीठ दिखाने वाले एवं शस्त्र डाल देने वाले पुरुष को छोड़ शत्रु के मस्तक पर टूट पड़ेगा ॥24॥ कोई कहने लगा कि मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण कर तथा रणांगण से लौटकर जब आपको संतुष्ट कर दूंगा तभी आपसे आलिंगन की प्रार्थना करूँगा ।। 25 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार के वार्तालापों से अपनी प्राण वल्लभाओं को सांत्वना देकर युद्ध संबंधी सुख प्राप्त करने में उत्सुक वीर मनुष्य घरों से बाहर निकलने के लिए उद्यत हुए ।। 26 ।। किसी का पति हाथ में शस्त्र लेकर जब जाने लगा तब वह उसके गले में दोनों भुजाएँ डालकर ऐसी झूल गयी मानो किसी गजराज के गले में कमलिनी ही झूल रही हो ॥27॥ किसी स्त्री के पति ने कवच पहन रखा था इसलिए उसके शरीर का संगम न प्राप्त होने से वह गोद में स्थित होने पर भी परम पीड़ा को प्राप्त हो रही थी॥28॥ कोई एक स्त्री पति के वक्षःस्थल पर अर्द्ध बाहुलिका देख ईर्ष्या से भर गयी तथा उसके नेत्र कुछ-कुछ संकुचित हो गये ॥29॥ उसे अप्रसन्न जान पति ने कहा कि हे प्रिये ! यह आधा कवच मैंने पहना है । इस प्रकार पति के कहने से पुनः संतोष को प्राप्त हो गयी ।।30।। किसी सूखिया स्त्री ने तांबूल याचना के बहाने पति का अधरोष्ठ पाकर उसे दंताघात से विभूषित कर बडी कठिनाई से छोड़ा ॥31॥ रण के अभिलाषी किसी पुरुष ने यद्यपि अपनी स्त्री को लौटा दिया था तथापि वह कवच के कंठ का सूत्र बाँधने के बहाने चली जा रही थी । ॥32॥ एक ओर तो वल्लभा की दृष्टि और दूसरी ओर तुरही का शब्द, इस प्रकार योद्धा का मन दो कारणरूपी दोला के ऊपर आरूढ़ हो रहा था ॥33॥ अमांगलिक अश्रुपात को बचाने वाली स्त्रियों के यद्यपि पति को देखने की इच्छा थी तो भी वे नेत्रों का पलक नहीं झपाती थीं ॥34 ।। जिनके मन उतावली से भर रहे थे ऐसे कितने ही अहंकारी योद्धा, कवच पहने बिना ही जो शस्त्र मिला उसे ही लेकर निकल पड़े ॥35 ।। किसी रणवीर का शरीर रण से उत्पन्न संतोष के कारण इतना पुष्ट हो गया कि उसका निज का कवच भी शरीर में नहीं माता था ॥36॥ किसी उत्तम योद्धा का शरीर पर-चक्र को तुरही का शब्द सुनकर इतना फूल गया कि वह चिरकाल के भरे घावों से रक्त छोड़ने लगा ॥37॥ किसी योद्धा ने नया मजबूत कवच पहना था परंतु हर्षित होने के कारण उसका शरीर इतना बढ़ गया कि कवच फटकर पुराने कवच के समान जान पड़ने लगा ॥38।। किसी का टोप ठीक नहीं बैठ रहा था सो उसे ठीक करने में तत्पर उसकी स्त्री निश्चिंततापूर्वक मधुर शब्द कहती हुई बार-बार टोप को चला रही थी ॥39।। किसी की स्त्री ने पति के वक्षःस्थल पर सुगंधि का लेप लगा दिया था सो उसकी रक्षा करते हुए उसने युद्ध की अभिलाषा होते हुए भी कवच धारण करने को ओर मन नहीं किया था-कवच धारण करने का विचार नहीं किया था ।। 40 ।। इस प्रकार जो बड़ी कठिनाई से प्रियाओं को समझा-बुझा सके थे ऐसे योधा तो बाहर निकले और उनकी स्त्रियाँ व्याकुलचित्त होती हुई शय्याओं पर पड़ रहीं ।। 41 ।। अथानंतर उत्तम कीर्तिरूपी मधुरस के आस्वादन में जिनका मन लग रहा था, जो हाथियों के रथ पर आरूढ़ थे, जिन्होंने शत्रु सेना का शब्द सहन नहीं किया था, जिनका उत्कट प्रताप पहले ही निकल चुका था, और जो शूरवीरता से सुशोभित थे ऐसे हस्त और प्रहस्त नाम के दो राजा लंका से सर्वप्रथम निकले ॥42-43।। वे दोनों स्वामी से पूछकर नहीं निकले थे तथापि उस समय उनका स्वामी से नहीं पूछना शोभा देता था क्योंकि अवसर पर दोष भी गुणरूपता को प्राप्त हो जाता है ।। 44 ।। मारीच, सिंहजवन, स्वयंभू, शंभु, उत्तम, विशाल सेना से सुशोभित पृथु, चंद्र, सूर्य, शुक, सारण, गज, वीभत्स इंद्र के समान कांति को धारण करनेवाला वज्राक्ष, गंभीर-नाद, नक्र, वज्रनाद, उग्रनाथ, सुंद, निकुंभ, संध्याक्ष, विभ्रम, क्रूर, माल्यवान्, खरनाद, जंबूमाली, शिखीवीर और महाबलवान दुर्घष ये सब सामंत सिंहों से जुते हुए रथों पर सवार हो बाहर निकले ॥45-48॥ उनके पीछे वज्रोदर, शक्राभ, कृतांत, विघटोदर, महावज्ररव, चंद्रनख, मृत्यु, सुभीषण, वज्रोदर, धूम्राक्ष, मुदित, विद्युज्जिह्व, महामाली, कनक, क्रोधनध्वनि, क्षोभण, धुंधु, उद्धामा, डिंडि, डिंडिम, डंबर, प्रचंड, डमर, चंड, कुंड और हालाहल आदि सामंत, जिन में व्याघ्र जुते थे, जो ऊंचे थे तथा आकाश को देदीप्यमान करने वाले थे ऐसे रथों पर सवार हो बाहर निकले । ये सभी सामंत महा अहंकारी तथा शत्रु नाश की भावना रखनेवाले थे ।। 42-52 ।। उनके पीछे विद्याकौशिक, सर्पवाहु, महाद्युति, शंख, प्रशंख, राग, भिन्नांजनप्रभ, पुष्पचूड, महारक्त, घटास्त्र, पुप्पखेचर, अनंगकुसुम, काम, कामावर्त, स्मरायण, कामाग्नि, कामराशि, कनकाभ, शिलीमुख, सौम्यवक्त्र, महाकाम तथा हेमगौर आदि सामंत, वायु के समान वेगशाली घोड़ों के रथों में सवार हो यथायोग्य अपने-अपने घरों से निकले । इन सबकी सेनाएँ प्रचंड शब्द कर रही थीं ।। 53-56 ।। तदनंतर कदंब, विटप, भीम, भीमनाद, भयानक, शार्दूलविक्रीडित, सिंह, चलांग, विद्युदंबुक, ह्लादन, चपल, चोल, चल और चंचल आदि सामंत हाथियों आदि से जुते हुए देदीप्यमान रथों पर आरूढ़ होकर निकले ।। 57-58।। गौतमस्वामी कहते हैं कि है श्रेणिक ! नाम ले-लेकर कितने प्रधान पुरुष कहे जावेंगे? उस समय सब मिलाकर साढ़े चार करोड़ कुमार बाहर निकले थे ऐसा विद्वज्जन कहते हैं ॥59।। ये सभी कुमार विशुद्ध राक्षसवंशी, समान पराक्रम के धारी, प्रसिद्ध यश से सुशोभित एवं गुणरूपी आभूषणों को धारण करनेवाले थे ॥60॥ युद्ध के लिए उद्यत इन सब कुमारों से घिरे, काम के समान सुंदर, महाबलवान् मेघवाहन आदि श्रेष्ठ राजकुमार भी बाहर निकले ॥61 ।। तदनंतर जो विभूति से सूर्य के समान था और रावण को अतिशय प्यारा था, ऐसा धीर-वीर बुद्धि का धारक सुंदर इंद्रजित, जयंत के समान बाहर निकला ॥62॥ त्रिशूल शस्त्र का धारी कुंभकर्ण, सूर्य के समान देदीप्यमान ज्योतिःप्रभ नामक विशाल विमानपर आरूढ़ होकर निकला ॥63॥ तदनंतर जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध मेरु के शिखर के समान सुशोभित पुष्पक विमान पर आरूढ़ था, इंद्र के समान पराक्रमी था और सूर्य के समान कांति का धारक था ऐसा रावण हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र धारण करनेवाले सैनिकों से आकाश और पृथ्वी के अंतराल को आच्छादित कर निकला ॥64-65॥ तत्पश्चात् रथ, हाथी, सिंह, सूकर, कृष्णमृग, सामान्यमृग, सामर, नाना प्रकार के पक्षी, बैल, ऊँट, घोड़े, भैं से आदि जलथल में उत्पन्न हुए नाना प्रकार के वाहनों पर सवार होकर सामंत लोग बाहर निकले ॥66-67॥ जो भामंडल और सुग्रीव के प्रति ऋद्ध थे तथा रावण के हितकारी थे ऐसा विद्याधर राजा बाहर निकले ॥68॥ अथानंतर जो महाभयंकर शब्द कर रहे थे, जो प्रयाण के रोकने में तत्पर थे तथा जो मंडल बांधकर खड़े हुए थे ऐसे रीछ दक्षिण की ओर दिखाई दिये ।।69॥ जिन्होंने अपने पंखों से गाढ़ अंधकार उत्पन्न कर रखा था, जिनका शब्द अत्यंत विकृत था तथा जो महाविनाश की सूचना दे रहे थे ऐसे भयंकर गीध आकाश में उड़ रहे थे ॥70꠰। इस प्रकार क्रूर शब्द करते तथा भय की सूचना देते हुए पृथ्वी तथा आकाश में चलने वाले अन्य अनेक पक्षी व्याकुल हो रहे थे ।। 71॥ शूरवीरता के बहुत भारी गर्व से मूढ़ तथा बड़ी-बड़ी सेनाओं से उद्धत राक्षसों के समूह यद्यपि इन अशुभ स्वप्न को जानते थे तो भी युद्ध करने के लिए बराबर नगरी से बाहर निकल रहे थे ॥72॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जब कर्मों की अनुकूलता का समय आता है तब देने के योग्य समस्त पर्याय की प्राप्ति निश्चय से होती है उसे रोकने के लिए लोक में इंद्र भी समर्थ नहीं है । फिर दूसरे प्राणियों की तो वार्ता ही क्या है ।। 73 ।। जिनका चित्त युद्ध में लग रहा था, जो स्वयं महान् थे, वाहनों पर सवार थे और शस्त्रों की कांति का समूह जिनके हाथ में था अथवा जिनके हाथ शस्त्रों की कांति से सुशोभित थे ऐसे शूरवीर मनुष्य निर्भीक हो निषेध करने वाले इन समस्त अशकुनों की उपेक्षा करते हुए उस प्रकार आगे बढ़े जाते थे जिस प्रकार राहु सूर्यमंडल के प्रति बढ़ता जाता है ।।74॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में रावण को सेना लंका से बाहर निकली इस बात का वर्णन करने वाला सत्तावनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥57॥