ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 73
From जैनकोष
तेहत्तरवां पर्व
अथानंतर दूसरे दिन दिनकर का उदय होने पर परम देदीप्यमान रावण सभामंडप में विराजमान हुआ ॥1॥ कुबेर, वरुण, ईशान, यम और सोम के समान अनेक राजा उसकी सेवा कर रहे थे जिससे वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इंद्र ही हो ।।2 ।। कुल में उत्पन्न हुए वीर मनुष्यों से घिरा तथा सिंहासन पर विराजमान रावण ग्रहों से घिरे हुए चंद्रमा के समान परम कांति को धारण कर रहा था ॥3॥ वह अत्यंत सुगंधि से युक्त था, उसके वस्त्र, मालाएं तथा अनुलेपन सभी दिव्य थे, हार से उसका वक्षःस्थल अत्यंत सुशोभित हो रहा था, वह सुंदर था और सौम्य दृष्टि से युक्त था ।।4।। वह उदारचेता सभा की ओर देखता हुआ इस प्रकार चिंता करने लगा कि यहाँ वीर मेघवाहन अपने स्थान पर नहीं दिख रहा है ॥5॥ इधर महेंद्र के समान शोभा को धारण करने वाला नयनाभिरामी इंद्रजित् नहीं है और उधर सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला भानुकुर्ण (कुंभकर्ण) भी नहीं दिख रहा है ॥6॥ यद्यपि यह सभारूपी सरोवर शेष पुरुष रूपी कुमुदों से सुशोभित है तथापि उक्त महापुरुष रूपी कमलों से रहित होने के कारण इस समय उत्कृष्ट शोभा को प्राप्त नहीं हो रहा है ॥7॥ यद्यपि उस रावण के नेत्र कमल के समान फूल रहे थे और वह स्वयं अनुपम मनोहर था तथापि चिंताजंय दुःख के विकार से उसकी ओर देखना कठिन जान पड़ता था ।।8।।
तदनंतर टेढ़ी भौंहों के बंधन से जिसके ललाटरूपी आँगन में सघन अंधकार फैल रहा था, जो कुपित नाग के समान कांति को धारण करने वाला था, जो यमराज के समान भयंकर था, जो बड़े जोर से अपना ओठ डस रहा था, जो अपनी किरणों के समूह में निमग्न था ऐसे उस रावण को देख, बड़े-बड़े मंत्री अत्यंत भयभीत हो क्या करना चाहिये, इस विचार में गंभीर थे ॥9-10॥ यह मुझ पर कुपित है या उस पर इस प्रकार जिनके मन व्याकुल हो रहे थे तथा जो हाथ जोड़े हुए पृथिवी की ओर देखते बैठे थे ॥11॥ ऐसे मय, उग्र, शुक, लोकाक्ष और सारण आदि मंत्री परस्पर एक दूसरे से लज्जित होते हुए नीचे को मुख कर बैठे थे तथा ऐसे जान पड़ते थे मानो पृथिवी में ही प्रवेश करना चाहते हो ॥12॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिनके कुंडल हिल रहे थे ऐसे वे समीपवर्ती सुभट हे देव प्रसन्न होओ प्रसन्न होओ इस तरह शीघ्रता से बार-बार कह रहे थे ।।13 ।। कैलास के शिखर के समान ऊँचे तथा रत्नों से देदीप्यमान दीवालों से युक्त महलों में रहने वाली स्त्रियाँ भयभीत हो उसे देख रही थीं ॥14॥ मणिमय झरोखों के अंत में जिसने अपने घबड़ाये हुए नेत्र लगा रक्खे थे, तथा जिसका मन अत्यंत विह्वल था ऐसी मंदोदरी ने भी उसे देखा ।।15 ।।
अथानंतर लाल-लाल नेत्रों को धारण करने वाला प्रतापी रावण उठकर अमोघ शस्त्ररूपी रत्नों से युक्त उज्ज्वल शस्त्रागार में जाने के लिए उस प्रकार उद्यत हुआ जिस प्रकार कि वज्रालय में जाने के लिए इंद्र उद्यत होता है । जब वह शस्त्रागार में प्रवेश करने लगा तब निम्नांकित अपशकुन हुए ॥16-17॥ पीछे की ओर छींक हुई, आगे महानाग ने मार्ग काट दिया, ऐसा लगने लगा जैसे लोग उससे यह शब्द कह रहे हों कि हा, ही, तुझे धिक्कार है कहाँ जा रहा है ॥18॥ नील मणिमय दंड से युक्त उसका छत्र वायु से प्रेरित हो टूट गया, उसका उत्तरीय वस्त्र नीचे गिर गया और दाहिनी ओर कौआ काँव-काँव करने लगा ।।16।। इनके सिवाय और भी क्रूर अपशकुनों ने उसे युद्ध के लिए मना किया । यथार्थ में वे सब अपशकुन उसे युद्ध के लिए न वचन से अनुमति देते थे न क्रिया से और न काम से ही ॥20॥ तदनंतर नाना शकुनों के ज्ञान में जिनकी बुद्धि निपुण थी ऐसे लोग उन पापपूर्ण महा उत्पातों को देख अत्यंत व्यग्रचित्त हो गए ।।21।।
तदनंतर मंदोदरी ने शुक आदि श्रेष्ठ मंत्रियों को बुलाकर कहा कि आप लोग राजा से हितकारी बात क्यों नहीं कहते हैं ॥22॥ निज और पर की क्रियाओं को जानने वाले होकर भी आप अभी तक यह क्या चेष्टा कर रहे हैं ? कुंभकर्णादिक अशक्त हो कितने दिन से बंधन में पड़े हैं ? ॥23॥ लोकपालों के समान जिनका तेज है तथा जिन्होंने अनेक आश्चर्य के काम किये हैं ऐसे ये वीर, शत्रु के यहाँ बंधन को प्राप्त होकर क्या आप लोगों को शक्ति उत्पन्न कर रहे हैं ? ॥24॥ तदनंतर मुख्य मंत्रियों ने प्रणाम कर मंदोदरी से इस प्रकार कहा कि हे देवि ! दशानन का शासन यमराज के शासन के समान है, वे अत्यंत मानी और अपने आपको ही प्रधान मानने वाले हैं ॥25 ।। जिस मनुष्य के परमहितकारी वचन को वे स्वीकृत कर सकें हे स्वामिनि ! समस्त लोक में ऐसा मनुष्य नहीं दिखाई देता ।।26॥ कर्मानुकूल प्रवृत्ति करने वाले मनुष्यों की जो बुद्धि होने वाली है उसे इंद्र तथा देवों के समूह भी अन्यथा नहीं कर सकते ॥27॥ देखो, रावण समस्त अर्थशास्त्र और संपूर्ण नीतिशास्त्र को जानते हैं तो भी मोह के द्वारा पीड़ित हो रहे हैं ॥28॥ हम लोगों ने उन्हें अनेकों बार किस प्रकार नहीं समझाया है ? अर्थात् ऐसा प्रकार शेष नहीं रहा जिससे हमने उन्हें न समझाया हो फिर भी उनका चित्त इष्ट वस्तु― सीता से पीछे नहीं हट रहा है ॥26॥ वर्षा ऋतु के समय जिसमें जल का महा प्रवाह उल्लंघ कर बह रहा है ऐसे महानद को अथवा कर्म से प्रेरित मनुष्य को रोक रखना कठिन काम है ।।30॥ हे स्वामिनि ! यद्यपि हम लोग कह कर हार चुके है तथापि आप स्वयं कहिये । इसमें क्या दोष है ? संभव है कि कदाचित् आपका कहना उन्हें सुबुद्धि उत्पन्न कर सके । उपेक्षा करना अनुचित है ॥31॥
इस प्रकार मंत्रियों का कहा श्रवण कर जिसने रावण के पास जाने का निश्चित विचार किया था, जो भय से काँप रही थी तथा घबड़ाई हुई लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, जो स्वच्छ, लंबे, विचित्र और जल की सदृशता को धारण करने वाले वस्त्र से आवृत्त थी ऐसी मंदोदरी रावण के पास जाने के लिए उद्यत हुई ॥32-33॥ कामदेव के समीप जाने के लिए उद्यत रति के समान, रावण के समीप जाती हुई मंदोदरी को देख परिवार के समस्त लोगों का ध्यान उसी की ओर जा लगा ॥34॥ छत्र तथा चमरों को धारण करने वाली स्त्रियाँ जिसे सब ओर से घेरे हुई थीं ऐसी सुमुखी मंदोदरी ऐसी जान पड़ती थी मानो इंद्र के पास जाती हुई शची ही हो― इंद्राणी ही हो ॥35 ।। जो लंबी साँस भर रही थी, जो चलती-चलती बीच में स्खलित हो जाती थी, जिसकी करधनी कुछ-कुछ ढीली हो रही थी, जो निरंतर पति का कार्य करने में तत्पर थी और जो अनुराग की मानो महानदी ही थी ऐसी आती हुई मंदोदरी को रावण ने लीलापूर्ण चक्षु से देखा । उस समय रावण अपने कवच तथा मुख्य-मुख्य शस्त्रों के समूह का आदरपूर्वक स्पर्श कर रहा था ॥36-37॥ रावण ने कहा कि हे मनोहरे ! हे हंसो के समान सुंदर चाल से चलने वाली प्रिये ! हे देवि ! बड़े वेग से तुम्हारे यहाँ आने का प्रयोजन क्या है ? ॥38 ।। हे भामिनि ! स्वप्न में अकस्मात् प्राप्त हुए सन्निधान के समान तुम्हारा आगमन रावण के हृदय को क्यों हर रहा है ? ॥39॥
तदनंतर जिसका मुख निर्मल पूर्णचंद्र की तुलना को प्राप्त था, जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान थे, जो स्वभाव से ही उत्तम हाव-भाव को धारण करने वाली थी, जो मनोहर कटाक्षों के छोड़ने में चतुर थी, जिसका शरीर मानो कामदेव के रहने का स्थान था, जिसके मधुर शब्द बीच-बीच में स्खलित हो रहे थे, जिसका शरीर दाँत तथा ओंठों की रंग-बिरंगी विशाल कांति से पिंजर वर्ण हो रहा था, जिसका उदर स्तनरूपी स्वर्णमय महा कलशों से झुक रहा था, जिसकी त्रिवलिरूपी रेखाएँ स्खलित हो रहीं थीं, जो अत्यंत सुकुमार थी, अत्यधिक सुंदरी थी, और जो पति के प्रसाद की उत्तम भूमि थी ऐसी मंदोदरी प्रणाम कर बोली कि ॥40-43॥ हे देव ! आप परम प्रेम और दया-धर्म से सहित हो अतः मेरे लिए पति की भीख देओ; प्रसन्नता को प्राप्त होओ ॥44॥ हे महाराज ! हे उत्तम संकल्परूपी तरंगों से युक्त ! वियोगरूपी नदी के दुःखरूपी जल में डूबती हुई मुझको आलंबन देकर रोको― मेरी रक्षा करो ।।45 ।। हे महाबुद्धिमन् ! तुम अपने परिजनरूपी आकाश में सूर्य के समान हो इसलिए प्रलय को प्राप्त होते हुए इस विशाल कुलरूपी कमलवन की अत्यंत उपेक्षा न करो ॥46॥ हे स्वामिन् ! यद्यपि मेरे वचन कठोर हैं तथापि कुछ श्रवण कीजिये । यतश्च यह पद मुझे आपने ही दिया है अतः आप मेरा अपराध क्षमा करने के योग्य हैं ॥47॥ मित्रों के जो वचन विरोध रहित हैं, स्वभाव में स्थित हैं और फलकाल में सुख देने वाले हैं वे अप्रिय होने पर भी औषधि के समान ग्रहण करने के योग्य है ॥48॥ आप इस उपमा रहित संशय की तुला पर किसलिए आरूढ़ हो रहे हैं ? और किसलिए किसी रुकावट के बिना ही अपने आपको तथा हम लोगों को संताप पहुँचा रहे हो ॥46॥ आज भी आपका क्या चला गया ? वही आपकी पुरातनी अर्थात् पहले की भूमि है केवल हे देव ! उन्मार्ग में गए हुए चित्त को रोक लीजिए ॥50॥ आपका यह मनोरथ अत्यंत संकट में प्रवृत्त हुआ है इसलिए इन इंद्रियरूपी घोड़ों को शीघ्र ही रोक लीजिए । आप तो विवेकरूपी मजबूत लगाम को धारण करने वाले हैं ।।51 ।। आपकी उत्कृष्ट धीरता, गंभीरता और विचारकता उस सीता के लिए जिस कुमार्ग से गई है हे नाथ ! जान पड़ता है कि आप भी किसी के द्वारा उसी कुमार्ग से ले जाये जा रहे हैं ।।52 ।। जिस प्रकार अष्टापद कुएं के जल में अपनी परछाई देख दुःख को प्राप्त हुआ उसी प्रकार अत्यंत दुःख देने वाली आपत्तियों में तुम किसलिए प्रवृत्त हो रहे हो ॥53॥ अत्यधिक क्लेश उत्पन्न करने वाले अपयशरूपी ऊँचे वृक्ष को भेदन कर सुख से रहिये । आप केले के स्तंभ के समान किस निःसार फल की इच्छा रखते हैं ।।54 ।। हे समुद्र के समान गंभीर ! अपने प्रशस्त कुल को फिर से अलंकृत कीजिए और कुलीन मनुष्यों के शिर दर्द के समान भूमिगोचरी की स्त्री-सीता को शीघ्र ही छोड़िए ।।55 ।। हे स्वामिन् ! वीर सामंत जो एक दूसरे का विरोध करते हैं सो धन की प्राप्ति के प्रयोजन से करते हैं अथवा मन में ऐसा विचारकर करते हैं कि या तो पर को मारूँ या मैं स्वयं मरूं । सो यहाँ धन की प्राप्ति तो आपके विरोध का प्रयोजन हो नहीं सकती क्योंकि आपको धन की क्या कमी है ? और दूसरा प्रयोजन अपना, पराया मरना है सो किसलिए मरना ? पराई स्त्री के लिए मरना यह तो हास्य कर बात है ।।56॥ अथवा माना कि शत्रुओं के समूह को पराजित करना विरोध का प्रयोजन है सो शत्रु समूह को पराजित करने पर आपका कौन-सा प्रयोजन संपन्न होता है ? अतः हे स्वामिन् ! सीतारूपी हठ छोड़िए ॥57।। और दूसरा व्रत रहने दीजिए एक परस्त्री त्यागव्रत के द्वारा ही उत्तम शील को धारण करने वाला पुरुष दोनों जन्मों में प्रशंसा को प्राप्त होता है ।।58।। कज्जल की उपमा धारण करने वाली परस्त्रियों का लोभी मनुष्य, मेरु के समान गौरव से युक्त होने पर भी तृण के समान तुच्छता को प्राप्त हो जाता है ।।59 ।। देव जिस पर अनुग्रह करते हैं अथवा जो चक्रवर्ती का पुत्र है वह भी परस्त्री की आसक्तिरूपी कर्दम से लिप्त होता हुआ परम अकीर्ति को प्राप्त होता है । जो मूर्ख परस्त्री के साथ प्रेम करता है मानो वह पापी आशी विष नामक सर्पिणी के साथ रमण करता है ॥60-61 ।। अत्यंत निर्मल कुल को अपकीर्ति से मलिन मत कीजिए । अथवा आप स्वयं अपने आपको मलिन कर रहे हैं सो इस दुर्बुद्धि को छोड़िए ॥62 ।। सुमुख तथा वज्रघोष आदि महाबलवान् पुरुष, परस्त्री की इच्छामात्र से नाश को प्राप्त हो चुके सो क्या वे आपके सुनने में नहीं आये ? ॥63॥
अथानंतर जिसका समस्त शरीर सफेद चंदन से लिप्त था तथा जो स्वयं नूतन मेघ के समान श्यामल वर्ण था ऐसा कमल-लोचन रावण मंदोदरी से बोला कि ॥64॥ हे प्रिये ! तू क्यों इस तरह अत्यंत कातरता को प्राप्त हो रही है ? भीरु अर्थात् स्त्री होने के कारण ही तू भीरु अर्थात् कातर भाव को धारण कर रही है । अहो ! स्त्री का भीरु यह नाम सार्थक ही है ॥65॥ मैं न अर्ककीर्ति हूँ, न वज्रघोष हूँ और न कोई दूसरा ही मनुष्य हूँ फिर इस तरह क्यों कह रही है ? ॥66॥ वह मैं शत्रुरूप वृक्षों के समूह को भस्म करने वाला मृत्युरूपी दावानल हूँ इसलिए सीता को वापिस नहीं लौटाऊँगा । हे मंदमते ! भय मत कर ।।67 ।। अथवा इस चर्चा से तुम्हें क्या प्रयोजन है ? तू तो सीता की रक्षा करने के लिए नियुक्त की गई है सो यदि रक्षा करने में समर्थ नहीं है तो मुझे शीघ्र ही वापिस सौंप दे ॥68 ।।
यह सुन मंदोदरी ने कहा कि आप उसके साथ रति-सुख चाहते हैं इसीलिए निर्लज्ज हो इस प्रकार कह रहे हैं कि उसे मुझे सौंप दो ॥69॥ इतना कह ईर्ष्या संबंधी क्रोध को धारण करने वाली उस दीर्घ लोचना मंदोदरी ने सौभाग्य की इच्छा से कर्णोत्पल के द्वारा रावण को ताड़ा ॥70।। पुनः मन ही मन ईर्ष्या को रोककर उसने कहा कि हे सुंदर ! बताओ तो सही कि तुमने उसका क्या माहात्म्य देखा है ? जिससे उसे इस तरह चाहते हो ।।71 ।। न तो वह गुणवती जान पड़ी है, न रूप में सुंदर है, न कलाओं में निपुण है और न आपके मन के अनुसार प्रवृत्ति करने वाली है ॥72॥ फिर भी ऐसी सीता के साथ रमण करने की हे वल्लभ ! तुम्हारी कौन बुद्धि है । मेरी दृष्टि में तो केवल अपनी लघुता ही प्रकट हो रही है जिसे आप समझ नहीं रहे हैं ॥73॥ कोई भी पुरुष स्वयं अपने आपकी प्रशंसा करता हुआ गौरव को प्राप्त नहीं होता । यथार्थ में जो गुण दूसरों के मुखों से प्रशंसित होते हैं वे ही गुणपने को प्राप्त होते हैं ॥74॥ इसीलिए मैं ऐसा कुछ नहीं कहती हूं किंतु आप स्वयं जानते हैं कि बेचारी सीता की तो बात ही क्या, लक्ष्मी भी मेरे समान नहीं है ।।75 ।। इसलिए हे विभो ! सीता के साथ समागम की जो अत्यधिक लालसा है उसे छोड़िये, जिसका परिहार नहीं ऐसी अपवादरूपी तीव्र अग्नि में मत पड़िये ॥76॥ आप मेरा अनादर कर इस भूमिगोचरी को चाह रहे हैं सो ऐसा जान पड़ता है मानो कोई मूर्ख बालक वैडूर्यमणि को छोड़कर काँच की इच्छा करता है ।।77॥ इससे आपका मनचाहा दिव्यरूप भी नहीं हो सकता अर्थात् यह विक्रिया से आपकी इच्छानुसार रूप नहीं परिवर्तित कर सकती फिर हे नाथ ! आप इस ग्रामीण स्त्री को क्यों चाहते हैं ? ।।78।। मैं आपकी इच्छानुसार रूप को धरने में अतिशय निपुण हूँ सो मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं कैसी हो जाऊँ । हे स्वामिन् ! क्या शीघ्र ही तुम्हारे चित्त को हरण करने वाली एवं कमलरूपी घर में प्रीति धारण करने वाली लक्ष्मी बन जाऊँ ? अथवा हे प्रभो ! इंद्र के नेत्रों की विश्राम भूमि स्वरूप इंद्राणी हो जाऊँ ? ॥76-80॥ अथवा कामदेव के चित्त को रोकने वाली साक्षात् रति ही बन जाऊँ ? अथवा हे देव ! आपकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाली क्या हो जाऊँ ? ॥81॥
तदनंतर जिसका मुख नीचे की ओर था, जिसके नेत्र आधे खुले थे, तथा जो लज्जा से सहित था ऐसा रावण धीरे-धीरे बोला कि हे प्रिये ! तुमने मुझे परस्त्री सेवी कहा सो ठीक है ।।82 ।। देखो, मैंने यह क्या किया ? परस्त्री में चित्त से आसक्त होने से परम अकीर्ति को प्राप्त होते हुए मैंने इस मूर्ख आत्मा को अत्यंत लघु कर दिया है । ॥82-83॥ जो विषयरूपी मांस में आसक्त है, पाप का भाजन है तथा चंचल है ऐसे इस हृदय को धिक्कार है । रे हृदय ! तेरी यह अत्यंत नीच चेष्टा है ॥84॥ इतना कह जिसके मुखचंद्र की मुसकानरूपी चाँदनी ऊपर की ओर फैल रही थी, तथा जिसके नेत्ररूपी कुमुद विकसित हो रहे थे ऐसे दशानन ने मंदोदरी से पुनः इस प्रकार कहा कि ॥85॥ हे देवि ! विक्रिया निर्मित रूप के बिना स्वभाव में स्थित रहने पर भी तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो । हे उत्तमे ! मुझे अन्य स्त्रियों से क्या प्रयोजन है ? ॥86॥
तदनंतर स्वामी की प्रसन्नता प्राप्त होने से जिसका चित्त खिल उठा था ऐसी मंदोदरी ने पुनः कहा कि हे देव ! सूर्य के लिए दीपक का प्रकाश दिखाना क्या उचित है ? अर्थात् आप से मेरा कुछ निवेदन करना उसी तरह व्यर्थ है जिस तरह कि सूर्य को दीपक दिखाना ॥27॥ हे दशानन ! मैंने मित्रों के बीच जो यह हितकारी बात कही है सो उसे अन्य विद्वानों से भी पूछ लीजिये । मैं अबला होने से कुछ समझती नहीं हूँ ।।88 ।। अथवा समस्त शास्त्रों को जानने वाला भी प्रभु यदि कदाचित् दैवयोग से प्रमाद करता है तो क्या हित की इच्छा रखने वाले प्राणी को उसे समझाना चाहिए ॥89॥ जैसे कि विष्णुकुमार मुनि विक्रिया द्वारा आत्मा को भूल गये थे सो क्या उन्हें सिद्धांत के उपदेश द्वारा प्रबोध को प्राप्त नहीं कराया गया था ॥90॥ यह पुरुष है और यह स्त्री है इस प्रकार का विकल्प निर्बुद्धि पुरुषों को ही होता है । यथार्थ में जो बुद्धिमान हैं वे स्त्री-पुरुष सभी से हितकारी वचनों की अपेक्षा रखते हैं ॥91।। हे नाथ ! यदि आपकी मेरे ऊपर कुछ थोड़ी भी प्रसन्नता है तो मैं कहती हूँ कि परस्त्री से रति की याचना छोड़ो अथवा परस्त्री में रत पुरुष का मार्ग तजो ॥92 ।। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं जानकी को ले जाकर राम को आपकी शरण में ले आती हूँ तथा तुम्हारे इंद्रजित् और मेघवाहन नामक दोनों पुत्रों तथा भाई कुंभकर्ण को वापिस लिये आती हूँ । अधिक जनों की हिंसा से क्या प्रयोजन है ? ॥93-94॥
मंदोदरी के इस प्रकार कहने पर रावण अत्यधिक कुपित होता हुआ बोला कि जा-जा जल्दी जा, वहाँ जा जहाँ कि मैं तेरा मुख नहीं देखूं ।।95 ।। अहो ! तू अपने आपको बड़ी पंडिता मानती है जो अपनी उन्नति को छोड़ दीन चेष्टा को धारक हो शत्रुपक्ष की प्रशंसा करने में तत्पर हुई है ॥96 ।। तू वीर की माता और मेरी पट्टरानी होकर भी जो इस प्रकार दीन वचन कह रही है तो जान पड़ता है कि तुझ से बढ़कर कोई दूसरी कायर स्त्री नहीं है ।।97॥
इस प्रकार रावण के कहने पर मंदोदरी ने कहा कि हे नाथ ! विद्वानों ने बलभद्रों, नारायणों तथा प्रतिनारायणों का जन्म जिस प्रकार कहा है उसे सुनिये ॥98॥ हे देव ! इस युग में अब तक विजय तथा अचल आदि सात बलभद्र और त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, नृसिंह, पुंडरीक और दत्त ये सात नारायण हो चुके हैं । ये सभी जगत् में अत्यंत धीर, वीर तथा प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं । इस समय पद्म और लक्ष्मण नामक बलभद्र तथा नारायण होंगे । सो हे दशानन ! जान पड़ता है कि ये दोनों ही यहाँ आ पहुँचे हैं । जिस प्रकार अश्वग्रीव और तारक आदि प्रतिनारायण इनसे नाश को प्राप्त हुए हैं उसी प्रकार जान पड़ता है कि तुम भी इनसे नाश को प्राप्त होना चाहते हो ॥99-102॥ हे नाथ ! हित करने में तत्पर तत्त्व का निरूपण करने के लिए तब तक आशंका की जाती है जब तक कि निरूपणादि तत्त्व का पूर्ण निश्चय नहीं दिखाई पड़ता है ॥103 ।। बुद्धिमान मनुष्य को वह कार्य करना चाहिए जो इस लोक तथा पर लोक में सुख का देने वाला हो । दुःखरूपी अंकुर की उत्पत्ति का कारण तथा निंदा का स्थान न हो ॥104॥ चिरकाल तक भोगे हुए भोगों से जो तृप्ति को प्राप्त हुआ हो ऐसा तीन लोक में भी यदि कोई एक पुरुष हो तो हे पाप से मोहित रावण ! उसका नाम कहो ॥105॥ यदि समस्त भोगों को भोगने के बाद भी तुम मुनिपद को धारण नहीं कर सकते हो तो कम से कम गृहस्थ धर्म में तत्पर होकर भी दुःख का नाश करो ॥106 ।। हे नाथ ! अणुव्रतरूपी तलवार से जिसका शरीर देदीप्यमान है, जो नियमरूपी छत्र से सुशोभित है, जिसने सम्यग्दर्शनरूपी कवच धारण किया है, जो शीलव्रतरूपी पताका से युक्त है, जिसका शरीर भावनारूपी चंदन से आर्द्र है । सम्यग्ज्ञान ही जिसका धनुष है, जो जितेंद्रियता रूपी बल से सहित है, शुभध्यान रूपी प्रताप से युक्त है, मर्यादारूपी अंकुश से सहित है, जो निश्चयरूपी हाथी पर सवार है, और जिनेंद्र भक्ति ही जिसकी महाशक्ति है ऐसे होकर तुम दुर्गतिरूपी सेना को जीतो । यथार्थ में यह दुर्गतिरूपी सेना अत्यंत कुटिल, पापरूपिणी, और अत्यंत दुःसह है सो इसे जीतकर तुम सुखी होओ ॥107-110॥ हिमवत् तथा मेरु आदि पर्वतों पर जो अकृत्रिम जिनालय हैं उनकी मेरे साथ पूजा करते हुए जंबूद्वीप में विचरण करो ॥111 ।। अठारह हजार स्त्रियों के हस्तरूपी पल्लवों से लालित होते हुए तुम मंदरगिरि के निकुंज और गंगानदी के तटों में क्रीड़ा करो ॥112 ।। हे सुंदर ! विद्याधर दंपति अपने अभिलषित मनोहर स्थानों में इच्छानुसार सुखपूर्वक विहार करते हैं ।।113 ।। हे विद्वन् ! अथवा हे यशस्विन् ! युद्ध से कुछ प्रयोजन नहीं है । प्रसन्न होओ और सब प्रकार से सुख उत्पन्न करने वाले मेरे वचन अंगीकृत करो ॥114॥ विष के समान दुष्ट, निंदनीय, तथा परम अनर्थ का कारण जो यह लोकापवाद है सो इसे छोड़ो । व्यर्थ ही अपयश रूप सागर में क्यों डूबते हो ? ॥115 ।। इस प्रकार प्रसन्न करती तथा उसका परमहित चाहती हुई मंदोदरी हस्तकमल जोड़कर रावण के चरणों में गिर पड़ी ॥116॥
अथानंतर निर्भय रावण ने हँसते हुए उस भयभीत मंदोदरी को उठाकर कहा कि तू इस तरह कारण के बिना ही भय को क्यों प्राप्त हो रही है ? ॥117॥ हे सुंदरि ! मुझ से बढ़कर कोई दूसरा उत्तम मनुष्य नहीं है । तू स्त्रीपना के कारण इस किस मिथ्या भीरुता का आलंबन ले रही है ? अर्थात् स्त्री होने के कारण व्यर्थ ही क्यों भयभीत हो रही है ? ॥118॥ “वे नारायण हैं” ― इस प्रकार दूसरे पक्ष के अभ्युदय को सूचित करने वाली जो बात तूने कही है सो हे देवि ! तुझे स्पष्ट बात बताऊँ कि नारायण और बलदेव इस नाम को धारण करने वाले पुरुष बहुत से हैं । क्या नाम की उपलब्धि मात्र से कार्य की सिद्धि हो जाती है ।।116-120 ।। हे भीरु ! यदि किसी तिर्यंच या मनुष्य का सिद्ध नाम रख लिया जाय तो क्या नाममात्र से वह सिद्ध संबंधी सुख को प्राप्त हो सकता है ? ॥121॥ जिस प्रकार रथनूपुर नगर के अधिपति इंद्र को मैंने अनिंद्रपना प्राप्त करा दिया था उसी प्रकार तुम देखना कि मैंने इस नारायण को अनारायण बना दिया है ॥122 ।। इस प्रकार अपनी कांति के समूह से जिसका शरीर व्याप्त हो रहा था तथा जिसकी क्रियाएँ यमराज के आश्रित थीं ऐसा प्रतापी परमेश्वर रावण, अपनी सबलता का निरूपण कर मंदोदरी के साथ क्रीड़ागृह में उस तरह प्रविष्ट हुआ जिस तरह कि लक्ष्मी के साथ इंद्र प्रवेश करता है ।।123-124॥
अथानंतर सायंकाल का समय आया तो संध्या के कारण जिसका मंडल अनंतोन्मुख हो गया था ऐसे सूर्य ने किरणों को उस तरह संकोच लिया जिस तरह कि मुनि अपनी कषायों को संकोच लेता है ।।125 ।। सूर्य लाल-लाल होकर अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो संंध्यावलिरूप ओष्ठ जिसमें डसा जा रहा था ऐसे बहुत भारी क्रोध से लाल-लाल हो दिन को डाँट दिखाता हुआ कहीं चला गया था ॥126॥ कमलिनियों के कमल बंद हो गये थे सो ऐसा जान पड़ता था मानो कमलरूपी अंजलि को बाँधने वाली कमलिनियां चक्रवाक पक्षियों के शब्द के द्वारा अस्त हुए सूर्य को दीनतापूर्वक बुला ही रही थीं ॥127॥ सूर्य के अस्त होते ही उसी मार्ग से ग्रह और नक्षत्रों की सेना आ पहुँची सो ऐसी जान पड़ती थी मानो चंद्रमा ने उसे स्वच्छंदता पूर्वक घूमने के लिए छोड़ ही दिया था उसे आज्ञा ही दे रक्खी थी ।।128 ।। तदनंतर दीपिका रूपी रत्नों से प्रकाशित प्रदोष काल के प्रकट होने पर प्रभा से जगमगाती हुई लंका मेरु की शिखा के समान सुशोभित हो उठी ।। 129 ।। उस समय कोई स्त्री पति का आलिंगन कर कांपती हुई बोली कि तुम्हारे साथ यह एक रात तो आनंद से बिता लूँ, कल जो होगा सो होगा ॥130॥ जिसकी चोटी में गूंथी हुई जुही की माला से सुगंधि निकल रही थी तथा जो मधु के नशा में मत्त हो झूम रही थी ऐसी कोई एक स्त्री पति की गोद में उस तरह लोट गई मानो अत्यंत कोमल पुष्प वृष्टि ही बिखेर दी गई हो ॥131॥ जिसके चरण कमल के समान थे तथा जिसकी जाँघ और स्तन अत्यंत स्थूल थे ऐसी सुंदर शरीर की धारक कोई स्त्री सुंदर शरीर के धारक वल्लभ के पास गई ॥132 ।। जो स्वभाव से ही सुंदरी थी तथा सुंदर हाव-भाव को धारण करने वाली थी ऐसी किसी स्त्री ने सुवर्ण और रत्नों को कृत-कृत्य करने के लिए ही मानो उसने आभूषण धारण किये थे ॥133॥ विद्याधर और विद्याधरियों के युगल इच्छानुसार क्रीड़ा कर रहे थे और वे घर-घर में ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भोगभूमियों में ही हों ।।134 ।। संगीत के कामोत्तेजक आलापों और वीणा बाँसुरी आदि के शब्दों से उस समय लंका ऐसी जान पड़ती थी मानो रात्रि का आगमन होने पर हर्षित हो वार्तालाप ही कर रही हो ॥135॥ कितने ही अन्य लोग तांबूल गंध माला आदि देवोपम उपभोगों से मदिरा पीते हुए अपनी वल्लभाओं के साथ क्रीड़ा करते थे ॥136 ।। नशा में निमग्न हुई कोई एक स्त्री मदिरा के प्याले में प्रतिबिंबित अपना ही मुख देख ईर्ष्यावश नीलकमल से पति को पीट रही थी ।।137 ।। स्त्रियों ने मदिरा में अपने मुख की सुगंधि छोड़ी थी और मदिरा ने उसके बदले स्त्रियों के नेत्रों में अपनी लालिमा छोड़ रक्खी थी ।।138 ।। वही वस्तु इष्टजनों के संसर्ग से परमसुंदरता को धारण करने लगती है इसीलिए तो स्त्री के पीने से शेष रहा मधु स्वादिष्ट हो गया था ॥136॥ कोई एक स्त्री मदिरा में पड़ी हुई अपने नेत्रों की कांति को नीलकमल समझ ग्रहण कर रही थी सो पति ने उसकी चिरकाल तक हँसी की ॥140॥ कोई एक स्त्री यद्यपि प्रौढ़ नहीं थी तथापि धीरे-धीरे उसे इतनी अधिक मदिरा पिला दी गई कि वह काम के योग्य कार्य में प्रौढ़ता को प्राप्त हो गई अर्थात् प्रौढ़ा स्त्री के समान कामभोग के योग्य हो गई ॥141 ।। उस मदिरारूपी सखी ने लज्जारूपी सखी को दूर कर उन स्त्रियों को पतियों के विषय में ऐसी क्रीड़ा कराई जो उन्हें अत्यंत इष्ट थी अर्थात् स्त्रियाँ मदिरा के कारण लज्जा छोड़ पतियों के साथ इच्छानुकूल क्रीड़ा करने लगी ।।142॥ जिसमें नेत्र घूम रहे थे तथा बार-बार मधुर अधकटे शब्दों का उच्चारण हो रहा था ऐसी स्त्रियों और पुरुषों की मन को हरण करने वाली विकट चेष्टा होने लगी ॥143 ।। पीते-पीते जो मदिरा शेष बच रही थी उसे भी दंपती पी लेना चाहते थे इसलिए तुम पियो तुम पियो इस प्रकार जोर से शब्द करते हुए प्याले को एक दूसरे की ओर बढ़ा रहे थे॥144 ।। किसी सुंदर पुरुष की प्रीति प्याले में समाप्त हो गई थी इसलिए वह वल्लभा का आलिंगन कर नेत्र बंद करता हुआ उसके मुख के भीतर स्थित कुरले की मदिरा का पान कर रहा था ॥145 ।। जो मूंगा के समान थे, जो कुछ-कुछ फड़क रहे थे तथा मदिरा के द्वारा जिनकी कृत्रिम लाली धुल गई थी ऐसे अधरोष्ठों की अत्यधिक शोभा बढ़ रही थी ॥146 ।। दाँत, ओष्ठ और नेत्रों की कांति से युक्त प्याले में जो मधु रक्खा था वह सफेद लाल और नीलकमलों से युक्त सरोवर के समान जान पड़ता था ॥147 ।। उस समय मदिरा के कारण जिनकी लज्जा दूर हो गई थी ऐसी स्त्रियाँ अपने गुप्त प्रदेशों को दिखा रही थीं तथा जिनका उच्चारण नहीं करना चाहिये ऐसे शब्दों का उच्चारण कर रही थीं ॥148॥ चंद्रोदय, मदिरा और यौवन के कारण उस समय उन स्त्री-पुरुषों का काम अत्यंत उन्नत अवस्था को प्राप्त हो चुका था ॥149।। जिसमें नख क्षत किये गये थे, जो सीत्कार से सहित था, जिसमें ओष्ठ डंशा गया था तथा जो आकुलता से युक्त था ऐसा स्त्री-पुरुषों का संभोग आगे होने वाले युद्ध का मानो मंगलाचार ही था ।। 150 ।। इधर सुंदर चेष्टा से युक्त रावण ने भी समस्त अंतःपुर को एक साथ उत्तम शोभा प्राप्त कराई अर्थात् अंतःपुर की समस्त स्त्रियों को प्रसन्न किया ॥151 ।। उत्तम नेत्रों से युक्त मंदोदरी बार-बार आलिंगन कर बड़े स्नेह से पति का मुख देखती थी तो भी तृप्त नहीं होती थी ।।152 ।। वह कह रही थी कि हे कांत ! जब तुम विजयी हो यहाँ लौटकर आओगे तब मैं सदा तुम्हारा आलिंगन करूँगी ।। 153॥ हे मनोहर ! मैं तुम्हें एक क्षण के लिए भी न छोडूंगी और जिस प्रकार लताएँ बाहुबली स्वामी के समस्त शरीर में समा गई थीं उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे समस्त शरीर में समा जाऊँगी ॥154 ।। इधर प्रेम से कातर चित्त को धारण करने वाली मंदोदरी इस प्रकार कह रही थी उधर मुर्गा बोलने लगा और रात्रि समाप्त हो गई ॥155॥
अथानंतर नक्षत्रों को कांति को नष्ट करने वाली संध्या की लाली आकाश में आ पहुँची और अरहंत भगवान् के मंदिर-मंदिर में संगीत का मधुर शब्द होने लगा ॥156 ।। प्रलयकालीन अग्नि समूह के समान जिसका आकार था ऐसा लोक लोचन सूर्य, किरणों से दिशाओं को आच्छादित करता हुआ उदयाचल के साथ संबंध को प्राप्त हुआ ॥157 ।। प्रातःकाल के समय पति जिन्हें बड़ी कठिनाई से सांत्वना दे रहा था ऐसी स्त्रियाँ व्यग्र होती हुई मन में न जाने क्या-क्या दुःसह विचार धारण कर रही थीं ॥158 ।। तदनंतर रावण की आज्ञा से युद्ध का संकेत देने में निपुण शंख फूंके गये और गंभीर भेरियाँ बजाई गई ॥156 ।। जो परस्पर अहंकार धारण कर रहे थे तथा अत्यंत उद्धत थे ऐसे योद्धा घोड़े हाथी और रथों पर सवार हो हर्षित होते हुए बाहर निकले ॥160॥ जो खड्ग, धनुष, गदा, भाले आदि चमकते हुए शस्त्र समूह को धारण कर रहे थे, जो हिलते हुए चमर और छत्रों की छाया से सुशोभित थे, जो शीघ्रता करने में तत्पर थे, देवों के समान थे और अतिशय प्रतापी थे ऐसे विद्याधर राजा बड़े ठाट-बाट से युद्ध करने के लिए निकले ॥101-162 ।। उस समय निरंतर रुदन करने से जिनके नेत्र कमल के समान लाल हो गये थे ऐसी नगर की स्त्रियों की दीन दशा देख दुष्ट पुरुष का भी चित्त अत्यंत दुःखी हो उठता था ॥163 ।। कोई एक योद्धा पीछे-पीछे आने वाली स्त्री से यह कहकर कि अरी पगली ! लौट जा । मैं सचमुच ही युद्ध में जा रहा हूँ बाहर निकल आया ॥164॥ किसी मृगनयनी स्त्री को पति का मुख देखने की लालसा थी इसलिए उसने इस बहाने कि अरे शिर का टोप तो लेते जाओ, पति को अपने सम्मुख किया था ॥165 ।। जब पति दृष्टि के ओझल हो गया तब अश्रुओं के साथ-साथ कोई स्त्री मूर्च्छित हो नीचे गिर पड़ी और सखियों ने उसे घेर लिया ॥166 ।। कोई एक स्त्री वापिस लौट, शय्या की पाटी पकड़, मौन लेकर मिट्टी की पुतली की तरह चुपचाप बैठ गई ॥167॥ कोई एक शूरवीर सम्यग्दृष्टि तथा अणुव्रतों का धारक था इसलिए उसे पीछे से तो उसकी पत्नी देख रही थी और आगे से देवकन्या देख रही थी ॥168॥ जो योद्धा पहले पूर्णचंद्र के समान सौम्य थे वे ही युद्ध उपस्थित होने पर कवच धारण कर यमराज के समान दमकने लगे ॥169॥ जो धनुष तथा छत्र आदि से सहित था ऐसा मारीच चतुरंगिणी सेना ले बड़े तेज के साथ नगर के बाहर आया ॥170॥ धनुष को धारण करने वाले विमलचंद्र, विमलमेघ, सुनंद, आनंद तथा नंद को आदि लेकर सैकड़ों हजारों योद्धा युद्धस्थल में आये सो वे विद्या निर्मित, अग्नि के समान देदीप्यमान रथों से दशों दिशाओं को देदीप्यमान करते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अग्निकुमार देव ही हो ॥171-172॥ कितने ही सुभट देदीप्यमान शस्त्रों से युक्त तथा हिमालय के समान भारी-भारी हाथियों से दिशाओं को इस प्रकार आच्छादित कर रहे थे मानो बिजली सहित मेघों से ही आच्छादित कर रहे हों ।।173॥ पाँचों प्रकार के शस्त्रों से युक्त कितने ही वेगशाली सुभट उत्तम घोड़ों के समूह से ऐसे जान पड़ते थे मानो नक्षत्र मंडल को सहसा चूर-चूर हो कर रहे हों ।।174 ।। नाना प्रकार के बड़े-बड़े वादित्रों, घोड़ों की हिनहिनाहट, हाथियों की गर्जना, पैदल सैनिकों के बुलाने के शब्द, योद्धाओं की सिंहनाद, चारणों की जय-जय ध्वनि, नटों के गीत तथा उत्साह बढ़ाने में निपुण अन्य प्रकार के महाशब्द सब ओर से मिलकर एक हो रहे थे इसलिए उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश प्रलयकालीन मेघों से व्याप्त हो दुःख से चिल्ला ही रहा हो ॥175-177॥ उस समय जो घोड़े रथ तथा पैदल सैनिकों से युक्त थे, जो परस्पर-एक दूसरे से बढ़ी-चढ़ी विभूति से देदीप्यमान थे, जिनकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी थी तथा जिन्होंने अपने उन्नत वक्षःस्थलों पर कवच धारण कर रक्खे थे ऐसे विजय के अभिलाषी अनेक राजा बिजली के समान जान पड़ते थे ॥178॥ जिनके हाथों में तलवारें लपलपा रही थीं तथा जो स्वामी के संतोष की इच्छा कर रहे थे ऐसे पैदल सैनिक भी उन राजाओं के आगे-आगे जा रहे थे, विविध झुंडों को धारण करने वाले उन सब सैनिकों से आकाश तथा दिशाएँ ठसाठस भर गई थीं ॥179॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार पिछले पूर्वभवों में संचित त्रिभुवन संबंधी, शुभ-अशुभकर्म के विद्यमान रहते हुए यह प्राणी यद्यपि नाना प्रकार की चेष्टाएँ करता है तथापि सूर्य भी उसे अन्यथा करने में समर्थ नहीं है ।।180।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में युद्ध के उद्योग का वर्णन करने वाला तेहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥73॥