ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 77
From जैनकोष
सतहत्तरवां पर्व
अथानंतर भाई को पड़ा देख महादुःख से युक्त विभीषण ने अपना वध करने के लिए छुरी पर हाथ रक्खा ॥1॥ सो उसके इस वध को रोकती तथा शरीर को निश्चेष्ट करती मूर्च्छा ने कुछ काल तक उसका बड़ा उपकार किया ॥2॥ जब सचेत हुआ तब पुनः आत्मघात की इच्छा करने लगा सो राम ने अपने रथ से उतरकर उसे बड़ी कठिनाई से पकड़कर रक्खा ॥3 ।। जिसने अस्त्र और कवच छोड़ दिये थे ऐसा विभीषण पुनः मूर्च्छित हो पृथिवी पर पड़ा रहा । तत्पश्चात् जब पुनः सचेत हुआ तब करुणा उत्पन्न करने वाला विलाप करने लगा ।। 4 ।। वह कह रहा था कि हे भाई ! हे उदार करुणा के धारी ! हे शूरवीर ! हे आश्रितजन वत्सल ! हे मनोहर ! तुम इस पापपूर्ण दशा को कैसे प्राप्त हो गये ? ॥5॥ हे नाथ । क्या उस समय तुमने मेरे कहे हुए हितकारी वचन नहीं माने इसीलिए युद्ध में तुम्हें चक्र से ताड़ित देख रहा हूँ ॥6 ।। हे देव ! हे विद्याधरों के अधिपति ! हे लंका के स्वामी ! तुम तो भोगों से लालित हुए थे फिर आज पृथिवीतल पर क्यों सो रहे हो ? ॥7॥ हे सुंदर वचन बोलने वाले ! हे गुणों के खानि ! उठो मुझे वचन देओ, मुझ से वार्तालाप करो । हे कृपा के आधार ! शोकरूपी सागर में डूबे हुए मुझे सांत्वना देओ ॥8।।
तदनंतर इसी बीच में जिसे रावण के गिरने का समाचार विदित हो गया था ऐसा अंत:पुर शोक की बड़ी-बड़ी लहरों से व्याप्त होता हुआ क्षुभित हो उठा ॥6॥ जिन्होंने अश्रुधारा से पृथिवीतल को सींचा था तथा जिनके पैर बार-बार लड़खड़ा रहे थे ऐसी समस्त स्त्रियां रणभूमि में आ गई ॥10॥ और पृथिवी के चूडामणि के समान सुंदर पति को निश्चेतन देख अत्यंत वेग से भूमि पर गिर पड़ी ॥11॥ रंभा, चंद्रानना, चंद्रमंडला, प्रवरा, उर्वशी, मंदोदरी, महादेवी, सुंदरी, कमलानना, रूपिणी, रुक्मिणी, शीला, रत्नमाला, तनूदरी, श्रीकांता, श्रीमती, भद्रा, कनकाभा, मृगावती, श्रीमाला, मानवी, लक्ष्मी, आनंदा, अनंगसुंदरी, वसुंधरा, तडिन्माला, पद्मा, पद्मावती, सुखा, देवी, पद्मावती, कांति, प्रीति, संध्यावली, शुभा, प्रभावती, मनोवेगा, रतिकांता और मनोवती, आदि अठारह हजार स्त्रियाँ पति को घेरकर महाशोक से रुदन करने लगीं ॥12-16 ।। जिनके ऊपर चंदन का जल सींचा गया था ऐसी मूर्च्छा को प्राप्त हुई कितनी ही स्त्रियाँ, जिनके मृणाल उखाड़ लिये गये हैं ऐसी कमलिनियों की शोभा धारण कर रहीं थीं ॥17॥ पति का आलिंगन कर गाढ़ मूर्च्छा को प्राप्त हुई कितनी ही स्त्रियां अंजनगिरि से संसक्त संध्या की कांति को धारण कर रहीं थीं ॥18 ।। जिनकी मूर्च्छा दूर हो गई थी तथा जो छाती के पीटने में चश्चल थीं ऐसी कितनी ही स्त्रियां मेघ कौंधती हुई विद्युन्माला की आकृति को धारण कर रही थीं ॥19॥ कोई एक स्त्री पति का मुखकमल अपनी गोद में रख अत्यंत विह्वल हो रही थी तथा वक्षःस्थल का स्पर्श करती हुई बार-बार मूर्च्छित हो रही थी ॥20॥
वे कह रही थीं कि हाय-हाय हे नाथ ! तुम मुझ अतिशय भीरु को छोड़ कहाँ चले गये हो ? दुःख में डूबे हुए अपने लोगों की ओर क्यों नहीं देखते हो ? ॥21॥ हे महाराज ! तुम तो धैर्य गुण से सहित हो, कांतिरूपी आभूषण से विभूषित हो, परम कीर्ति के धारक हो, विभूति में इंद्र के समान हो, मानी हो, भरतक्षेत्र के स्वामी हो, प्रधानपुरुष हो, मन को रमण करने वाले हो, और विद्याधरों के राजा हो फिर इस तरह पृथिवी पर क्यों सो रहे हो ? ॥22-23 ।। हे कांत ! हे दया तत्पर, हे स्वजन वत्सल ! उठो, एक बार तो अमृततुल्य सुंदर वचन देओ ॥24॥ हे प्राणनाथ ! हम लोग अपराध से रहित हैं तथा हम लोगों का चित्त एक आप ही में आसक्त है फिर क्यों इस तरह कोप को प्राप्त हुए हो ? ॥25॥ हे नाथ ! परिहास की कथा में तत्पर और दांतों की कांतिरूपी चांदनी से मनोहर इस मुखरूपी चंद्रमा को एक बार तो पहले के समान धारण करो ॥26॥ तुम्हारा यह सुंदर वक्षःस्थल उत्तम स्त्रियों का क्रीड़ास्थल है फिर भी इस पर चक्रधारा ने कैसे स्थान जमा लिया ? ॥27॥ हे नाथ ! दुपहरिया के फूल के समान लाल-लाल यह तुम्हारा ओंठ क्रीड़ापूर्ण उत्तर देने के लिए इस समय क्यों नहीं फड़क रहा है ? ॥28॥ प्रसन्न होओ, तुमने कभी इतना लंबा क्रोध नहीं किया अपितु हम लोगों को तुम पहले सांत्वना देते रहे हो ॥29॥ जिसने स्वर्गलोक से च्युत होकर आप से जन्म ग्रहण किया था ऐसा वह मेघवाहन और इंद्रजित् शत्रु के बंधन में दुःख भोग रहा है ॥30॥ सो सुकृत को जानने वाले गुणशाली वीर राम के साथ प्रीति कर अपने भाई कुंभकर्ण तथा पुत्रों को बंधन से छुड़ाओ ॥35॥ हे प्राणनाथ ! उठो, प्रियवचन प्रदान करो । हे देव ! चिरकाल तक क्यों सो रहे हो ? उठो राजकार्य करो ॥32॥ हे सुंदर चेष्टाओं के धारक ! हे कांत ! हे प्रेमियों से प्रेम करने वाले ! प्रसन्न होओ और विरहरूपी अग्नि से जलते हुए हमारे अंगों को शांत करो ॥33 ।। रे हृदय ! इस अवस्था को प्राप्त हुए पति के मुखकमल को देखकर तू सौ टूक क्यों नहीं हो जाता है ? ॥34॥ जान पड़ता है कि हमारा यह दुःख का भाजन हृदय वज्र का बना हुआ है इसीलिए तो तुम्हारी इस अवस्था को जानकर भी निर्दय हुआ स्थित है ॥35 ।। हे विधातः ! हम लोगों ने तुम्हारा कौन-सा अशोभनीक कार्य किया था जिससे तुमने यह ऐसा कार्य किया जो निर्दय मनुष्यों के लिए भी दुष्कर है― कठिन है ॥36॥ हे नाथ ! आलिंगन मात्र से मान को दूर कर परस्पर― एक दूसरे के आदान-प्रदान से मनोहर जो मधु का पान किया था ॥37॥ हे प्रिय ! अन्य स्त्री का नाम लेने रूप अपराध होने पर जो मैंने तुम्हें अनेकों बार मेखला सूत्र से बंधन में डाला था ॥38॥ हे प्रभो ! मैंने क्रोध से ओंठ को कंपित करते हुए जो उस समय तुम्हें कर्णाभरण के नीलकमल से ताड़ित किया था और उस कमल की केशर तुम्हारे ललाट में जा लगी थी ॥39॥ प्रणय कोप को नष्ट करने के लिए मधुर वचन कहते हुए जो तुमने हमारे पैर उठाकर अपने मस्तक पर रख लिये थे और उससे हमारा हृदय तत्काल द्रवीभूत हो गया था, और हे परमेश्वर ! हे कांत ! मधुर वचनों से सहित अत्यंत रमणीय जो रत इच्छानुसार आपके साथ सेवन किये गये थे । हे मनोहर! परम आनंद को करने वाले वे सब कार्य इस समय एक-एक कर स्मृति-पथ में आते हुए हृदय में तीव्र दाह उत्पन्न कर रहे हैं ।। 40-42॥ हे नाथ ! प्रसन्न होओ, उठो, मैं आपके चरणों में नमस्कार करती हूँ । क्योंकि प्रियजनों पर चिरकाल तक रहने वाला क्रोध शोभा नहीं देता ।। 43॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस तरह रावण की स्त्रियों का विलाप सुनकर किस प्राणी का हृदय अत्यंत द्रवता को प्राप्त नहीं हआ था ? ॥44॥
अथानंतर जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे, जो करुणा प्रकट करने में उद्यत थे, सांत्वना देने में निपुण थे, तथा लोकव्यवहार के पंडित थे ऐसे राम-लक्ष्मण श्रेष्ठ विद्याधरों के साथ विभीषण का स्नेहपूर्ण आलिंगन कर यह वचन बोले ॥45-46॥ कि हे राजन् ! इस तरह रोना व्यर्थ है, अब विषाद छोड़ो, आप जानते हैं कि यह कर्मों की चेष्टा है ॥47॥ पूर्वकर्म के प्रभाव से प्रमाद करने वाले मनुष्यों को जो वस्तु प्राप्त होने योग्य है वह अवश्य ही प्राप्त होती है इसमें शोक का क्या अवसर है ? ॥48॥ मनुष्य जब अकार्य में प्रवृत्त होता है वह तभी मर जाता है फिर रावण तो चिरकाल बाद मरा है अतः अब शोक क्यों किया जाता है ? ॥49॥ जो सदा परम प्रीतिपूर्वक जगत् का हित करने में तत्पर रहता था, जिसकी बुद्धि सदा सावधान रूप रहती थी, जो प्रजा के कार्य में पंडित था, और समस्त शास्त्रों के अर्थ ज्ञान से जिसकी आत्मा धुली हुई थी ऐसा रावण बलवान मोह के द्वारा इस अवस्था को प्राप्त हुआ है।। 50-51॥ उस रावण ने इस अपराध से विनाश का अनुभव किया है सो ठीक ही है क्योंकि विनाश के समय मनुष्यों की बुद्धि अंधकार के समान हो जाती है ॥52॥
तदनंतर राम के कहने के बाद अतिशय चतुर भामंडल ने परमोत्कट माधुर्य को धारण करने वाले निम्नांकित वचन कहे ॥53॥ उसने कहा कि हे विभीषण ! भयंकर रण में युद्ध करता हुआ महामनस्वी रावण वीरों के योग्य मृत्यु से मरकर आत्मस्थिति अथवा स्वर्ग स्थिति को प्राप्त हुआ है ॥54॥ जिस प्रभु का मान नष्ट नहीं हुआ उसका क्या नष्ट हुआ ? अर्थात् कुछ नहीं । यथार्थ में रावण अत्यंत धन्य है जिसने शत्रु के सम्मुख प्राण छोड़े ॥55॥ वह तो महाधैर्यशाली वीर रहा अतः उसके विषय में शोक करने योग्य बात ही नहीं है । लोक में जो क्षत्रिय अरिंदम के समान हैं वे ही शोक करने योग्य हैं ॥56॥ इसकी कथा इस प्रकार है कि अक्षपुर नामा नगर में लक्ष्मी और हरिध्वज से उत्पन्न हुआ अरिंदम नाम का एक राजा था जो इंद्र के समान संपत्ति से प्रसिद्ध था ॥57॥ वह एक बार नाना देशों में स्थित शत्रुसमूह को जीतकर अपनी स्त्री को देखने की इच्छा से अपने घर की ओर लौट रहा था ॥58।। तीव्र उत्कंठा से युक्त होने के कारण उसने मन के समान शीघ्रगामी घोड़ों से अकस्मात् ही पताकाओं और तोरणों से अलंकृत नगर में प्रवेश किया ॥59॥ अपने घर को सज़ा हुआ तथा स्त्री को आभूषणादि से अलंकृत देख उसने पूछा कि बिना कहे तुमने कैसे जान लिया कि ये आ रहे हैं ॥60॥ स्त्री ने कहा कि हे नाथ ! आज मुनियों में मुख्य अवधिज्ञानी कीर्तिधर मुनि पारणा के लिए आये थे । मैंने उनसे आपके आने का समय पूछा था तो उन्होंने कहा कि राजा आज ही अकस्मात् आवेंगे ॥61॥ राजा अरिंदम को मुनि के भविष्य ज्ञान पर कुछ ईर्ष्या हुई अतः वह उनके पास जाकर बोला कि यदि तुम जानते हो तो मेरे मन की बात बताओ ॥62॥ मुनि ने कहा कि तुमने मन में यह बात रख छोड़ी है कि मेरी कब और किस प्रकार मृत्यु होगी ? ॥63।। सो तुम आज से सातवें दिन वज्रपात से मरकर अपने विष्ठागृह में महान् कीड़ा होओगे ।। 64॥ वहाँ से आकर राजा अरिंदम ने अपने पुत्र प्रीतिंकर से कहा कि मैं विष्ठागृह में एक बड़ा कीड़ा होऊँगा सो तुम मुझे मार डालना ॥65॥
तदनंतर जब पुत्र विष्ठागृह में स्थूल कीड़ा को देखकर मारने के लिए उद्यत हुआ तब वह कीड़ा मृत्यु के भय से भाग कर बहुत दूर विष्ठा के भीतर घुस गया ॥66 ।। प्रीतिंकर ने मुनिराज के पास जाकर पूछा कि हे भगवन् ! कहे अनुसार जब मैं उस कीड़े को मारता हूँ तब वह दूर क्यों भाग जाता है ? ॥65॥ मुनिराज ने कहा कि इस विषय में विवाद मत करो । यह प्राणी जिस योनि में जाता है उसी में प्रीति को प्राप्त हो जाता है ॥68 ।। इसीलिए आत्मा का कल्याण करने वाला वह कार्य करो जिससे कि आत्मा पाप से छूट जाय । यह निश्चित है कि सब प्राणी अपने द्वारा किये हुए कर्म का फल प्राप्त करने में ही लीन हैं ॥66॥ इस प्रकार अत्यंत दुःख को उत्पन्न करने वाली संसारदशा को जानकर प्रीतिंकर निःस्पृह हो महामुनि हो गया ॥67॥ इस प्रकार भामंडल विभीषण से कहता है कि हे विभीषण ! क्या तुझे यह संसार की विविध दशा ज्ञात नहीं है जो शूरवीर, दृढ़निश्चयी एवं कर्मोदय के कारण युद्ध में नारायण के द्वारा सम्मुख मारे हुए प्रधान पुरुष रावण के प्रति शोक कर रहा है । अब तो अपने कार्य में चित्त देओ । इस शोक से क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार प्रतिबोध के देने में कुशल, नाना स्वभाव से सहित, एवं प्रीतिंकर मुनिराज के चरित को निरूपण करने वाली कथा सुनकर सब विद्याधर राजाओं ने ठीक-ठीक यह शब्द कहे और लोकोत्तर― सर्वश्रेष्ठ आचार को जानने वाला विभीषणरूपी सूर्य शोकरूपी अंधकार से छूट गया अर्थात् विभीषण का शोक दूर हो गया ॥71-72 ।।
इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण या पद्मायन नामक ग्रंथ में प्रीतिंकर का उपाख्यान करने वाला सतहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।77।।