ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 79
From जैनकोष
उन्यासीवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! अब राम और लक्ष्मण का महावैभव के साथ लंका में प्रवेश हुआ, सो उसकी कथा करना चाहिए ।। 1 ।। महा विमानों के समूह, उत्तम हाथियों के घंटा, उत्कृष्ट घोड़ों के समूह, मंदिर तुल्य रथ, लतागृहों में गूंजने वाली प्रतिध्वनि से जिनने दिशाएँ बहरी कर दी थीं तथा जो शंख के शब्दों से मिले थे ऐसे वादित्रों के मनोहर शब्दों से तथा विद्याधरों के महा चक्र से सहित, उत्कृष्ट कांति के धारक, इंद्र समान राम और लक्ष्मण ने लंका में प्रवेश किया ॥2-4॥ उन्हें देख जनता परम हर्ष को प्राप्त हुई और जंमांतर में संचित धर्म का महाफल मानती हुई ॥5॥ जब चक्रवर्ती―लक्ष्मण के साथ बलभद्र―श्रीराम राजपथ में आये तब नगरवासी जनों के पूर्व व्यापार मानों कहीं चले गये अर्थात् वे अन्य सब कार्य छोड़ इन्हें देखने लगे ॥6॥ जिनके नेत्र फूल रहे थे, ऐसे स्त्रियों के मुखों से आच्छादित झरोखे निरंतर इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो नीलकमल और लाल कमलों से ही युक्त हों ।। 7।। जो राम-लक्ष्मण के देखने में आकुल हो महाकौतुक से युक्त थीं ऐसी उन स्त्रियों के मुख से इस प्रकार के मनोहर वचन निकलने लगे ॥8॥ कोई कह रही थी कि सखि ! देख, ये दशरथ के पुत्र राजा रामचंद्र हैं जो अपनी उत्तम शोभा से रत्नराशि के समान सुशोभित हो रहे हैं ॥9।। जो पूर्णचंद्रमा के समान हैं, जिनके नेत्र पुंडरीक के समान विशाल हैं तथा जिनकी आकृति स्तुति से अधिक है ऐसे ये राम मानों अपूर्व कर्मों की कोई अद्भुत सृष्टि ही हैं ॥10॥ जो कन्या इस उत्तम पति को प्राप्त होती है वही धन्य है तथा उसी सुंदरी ने लोक में अपनी कीर्ति का स्तंभ स्थापित किया है ॥11 ।। जिसने जंमांतर में चिरकाल तक परमधर्म का आचरण किया है वही ऐसे पति को प्राप्त होती है । उस स्त्री से बढ़कर और दूसरी उत्तम स्त्री कौन होगी ? ॥12॥ जो स्त्री रात्रि में इसकी सहायता को प्राप्त होती है वही एक मानों स्त्रियों के मस्तक पर विद्यमान है अन्य स्त्री से क्या प्रयोजन है ? ॥13 ।। कल्याणवती जानकी निश्चित हो स्वर्ग से च्युत हुई है जो इंद्राणी के समान इस प्रशंसनीय पति को रमण कराती है ॥14॥
कोई कह रही थी कि जिसने रण के अग्रभाग में असुरेंद्र के समान रावण को जीता है ऐसे ये चक्र हाथ में लिये लक्ष्मण सुशोभित हो रहे हैं ॥15॥ श्रीराम की धवल कांति से मिली तथा मसले हुए अंजन कण की समानता रखने वाली इनकी श्यामल कांति प्रयाग तीर्थ की विस्तृत शोभा धारण कर रही है ।। 16॥ कोई कह रही था कि यह चंदोदर का पुत्र राजा विराधित है जिसने नीति के संयोग से यह विपुल लक्ष्मी प्राप्त की है ॥17॥ कोई कह रही थी कि किष्किंध का राजा बलशाली सुग्रीव है जिस पर श्रीराम ने अपना परम प्रेम स्थापित किया है ।। 18 ।। कोई कह रही थी कि यह जानकी का भाई भामंडल है जो चंद्रगति विद्याधर के द्वारा ऐसे पद को प्राप्त हुआ है ॥19 ।। कोई कह रही थी कि यह अत्यंत लड़ाया हुआ वीर अंगदकुमार है जो उस समय रावण के विघ्न करने के लिए उद्यत हुआ था ॥20॥ कोई कह रही थी कि हे सखि ! देख-देख इस ऊँचे सुंदर रथ को देख, जिसमें वायु से कंपित गरजते मेघ के समान हाथी जुते हैं ॥21 ।। कोई कह रही थी कि जिसकी वानर चिह्नित ध्वजा रणांगण में शत्रुओं के लिए अत्यंत भय उपजाने वाली थी ऐसा यह पवनंजय का पुत्र श्रीशैल-हनूमान है ॥22॥ इस तरह नाना प्रकार के वचनों से जिनकी पूजा हो रही थी तथा जो उत्तम प्रताप से युक्त थे ऐसे राम आदि ने सुख से राजमार्ग में प्रवेश किया ॥23॥
अथानंतर प्रेमरूपी रस से जिनका हृदय आर्द्र हो रहा था ऐसे श्रीराम ने अपने समीप में स्थित चमर ढोलने वाली स्त्री से परम आदर के साथ पूछा कि जो हमारे विरह में अत्यंत दुःसह दुःख को प्राप्त हुई है ऐसी भामंडल की बहिन यहाँ किस स्थान में विद्यमान है ? ॥24-25॥ तदनंतर रत्नमयी चूड़ियों की प्रभा से जिसकी भुजाएँ व्याप्त थीं एवं जो स्वामी को संतुष्ट करने में तत्पर थी ऐसी चमरग्राहिणी स्त्री अंगुली पसारकर बोली कि यह जो सामने नीझरनों के जल से अट्टहास को छोड़ते हुए पुष्प-प्रकीर्णक नामा पर्वत देख रहे हो इसी के नंदनवन के समान उद्यान में कीर्ति और शीलरूपी परिवार से सहित आपकी प्रिया विद्यमान है ॥26-28॥
उधर सीता के समीप में भी जो सुप्रियकारिणी सखी थी वह अंगूठी से सुशोभित अंगुली पसारकर इस प्रकार बोली कि जिनके ऊपर यह चंद्रमंडल के समान छत्र फिर रहा है, जो चंद्रमा और सूर्य के समान प्रकाशमान कुंडलों को धारण कर रहे हैं तथा जिनके वक्षःस्थल में शरदऋतु के निर्झर के समान हार शोभा दे रहा है, हे कमललोचने देवि ! वही ये महावैभव के धारी नरोत्तम श्रीराम तुम्हारे वियोग से परम खेद को धारण करते हुए दिग्गजेंद्र के समान आ रहे हैं ॥29-32॥ अत्यधिक विवाद से युक्त सीता ने चिरकाल बाद प्राणनाथ का मुखकमल देख ऐसा माना, मानो स्वप्न ही प्राप्त हुआ हो ॥33 ।। जिनके नेत्र विकसित हो रहे थे ऐसे राम शीघ्र ही गजराज से उतरकर हर्ष धारण करते हुए सीता के समीप चले ॥34॥ जिस प्रकार मेघमंडल से उतरकर आता हुआ चंद्रमा रोहिणी को संतोष उत्पन्न करता है उसी प्रकार हाथी से उतरकर आते हुए श्रीराम ने सीता को संतोष उत्पन्न किया ॥35॥ तदनंतर राम को निकट आया देख महासंतोष को धारण करने वाली सीता संभ्रम के साथ मृगी के समान आकुल होती हुई उठकर खड़ी हो गई ॥36॥
अथानंतर जिसके केश पृथिवी की धूलि से धूसरित थे, जिसका शरीर मलिन था, जिसके ओठ मुरझाये हुए वंधूक के फूल के समान निष्प्रभ थे, जो स्वभाव से ही दुबली थी और उस समय विरह के कारण जो और भी अधिक दुबली हो गई थी, यद्यपि दुबली थी तथापि पति के दर्शन से जो कुछ-कुछ उल्लास को धारण कर रही थी, जो नखों से उत्पन्न हुई सचिक्कण किरणों से मानो आलिंगन कर रही थी, खिले हुए नेत्रों की किरणों से मानो अभिषेक कर रही थी, क्षण-क्षण में बढ़ती हुई लावण्यरूप संपत्ति के द्वारा मानो लिप्त कर रही थी और हर्ष के भार से निकले हुए उच्छवासों से मानों पंखा ही चला रही थी, जिसके नितंब स्थूल थी, जो नेत्रों के विश्राम करने की भूमि थी, जिसने कर-किसलय के सौंदर्य से लक्ष्मी के हस्त-कमल को जीत लिया था, जो सौभाग्यरूपी रत्न संपदा को धारण कर रही थी, धर्म ने ही जिसकी रक्षा की थी, जिसका मुख पूर्णचंद्रमा के समान था, अत्यंत धैर्य गुण से सहित थी, जिसके मुखरूपी चंद्रमा के भीतर विशाल नेत्ररूपी कमल उत्पन्न हुए थे, जो कलुषता से रहित थी, जिसके स्तन अत्यंत उन्नत थे, और जो कामदेव की मानो कुटिलता से रहित-सीधी धनुष यष्टि हो ऐसी सीता को कुछ समीप आती देख श्रीराम किसी अनिर्वचनीय भाव को प्राप्त हुए ॥38-45 ।। रति के समान सुंदरी सीता विनयपूर्वक पति के समीप जाकर मिलने की इच्छा से आकुल होती हुई सामने खड़ी हो गई । उस समय उसके नेत्र हर्ष के अश्रुओं से व्याप्त हो रहे थे ।। 46॥ उस समय राम के समीप खड़ी सीता ऐसी जान पड़ती थी मानो इंद्र के समीप इंद्राणी ही आई हो, काम के समीप मानो रति ही आई हो, जिनधर्म के समीप मानो अहिंसा ही आई हो और भरतचक्रवर्ती के समीप मानो सुभद्रा ही आई हो ॥47॥ जो फल के भार से नम्रीभूत हो रहे थे ऐसे सैकड़ों मनोरथों से प्राप्त सीता को चिरकाल बाद देखकर राम ने ऐसा समझा मानो नवीन समागम ही प्राप्त हुआ हो ॥48॥
अथानंतर जो चिरकाल बाद होने वाले समागम के स्वभाव से उत्पन्न हुए कंपन को हृदय में धारण कर रहे थे, जो महादीप्ति के धारक थे, सुंदर थे और जिनके चंचल नेत्र घूम रहे थे ऐसे श्रीराम ने अपनी उन भुजाओं से रस निमग्न हो सीता का आलिंगन किया, जिनके कि मूलभाग बाजूबंदों से अलंकृत थे तथा क्षणमात्र में ही जो स्थूल हो गई थीं ॥49-50॥ सीता का आलिंगन करते हुए राम क्या विलीन हो गये थे, या सुखरूपी सागर में गये थे या पुनः विरह के भय से मानो हृदय में प्रविष्ट हो गये थे ॥51॥ पति के गले में जिसके भुजपाश पड़े थे, ऐसी प्रसन्नचित्त की धारक सीता उस समय कल्पवृक्ष से लिपटी सुवर्णलता के समान सुशोभित हो रही थी ॥52॥ समागम के कारण बहुत भारी सुख से जिसे रोमांच उठ आये थे ऐसे इस दंपती की उपमा उस समय उसी दंपती को प्राप्त थी ॥53॥ सीता और श्रीराम देव का सुख समागम देख आकाश में स्थित देवों ने उन पर पुष्पांजलियाँ छोड़ी ॥54॥ मेघों के ऊपर स्थित देवों ने, गुंजार के साथ घूमते हुए भ्रमरों को भय देने वाला गंधोदक वर्षा कर निम्नलिखित वचन कहे ॥55॥ वे कहने लगे कि अहो ! पवित्र चित्त की धारक सीता का धैर्य अनुपम है । अहो ! इसका गांभीर्य क्षोभरहित है, अहो ! इसका शीलव्रत कितना मनोज्ञ है ? अहो ! इसकी व्रत संबंधी दृढ़ता कैसी अद्भुत है ? अहो ! इसका धैर्य कितना उन्नत है कि शुद्ध आचार को धारण करने वाली इसने रावण को मन से भी नहीं चाहा।। 56-57।।
तदनंतर जो हड़बड़ाये हुए थे और विनय से जिनका शरीर नम्रीभूत हो रहा था ऐसे लक्ष्मण सीता के चरणयुगल को नमस्कार कर सामने खड़े हो गये ॥58॥ उस समय इंद्र के समान कांति के धारक चक्रधर को देख साध्वी सीता के नेत्रों में वात्सल्य के अश्रु निकल आये और उसने बड़े स्नेह से उनका आलिंगन किया ।। 59 ।। साथ ही उसने कहा कि हे भद्र ! महाज्ञान के धारक मुनियों ने जैसा कहा था वैसा ही तुमने उच्चपद प्राप्त किया है ।। 60 ।। अब तुम चक्र चिह्नित राज्य-नारायणपद की पात्रता को प्राप्त हुए हो । सच है कि निर्ग्रंथ मुनियों से उत्पन्न वचन कभी अन्यथा नहीं होते ॥62 ।। यह तुम्हारे बड़े भाई बलदेव पद को प्राप्त हुए हैं जिन्होंने विरहाग्नि में डूबी हुई मेरे ऊपर बड़ी कृपा की है ॥63॥
इतने में ही चंद्रमा की किरणों के समान कांति को धारण करने वाला भामंडल बहिन की समीपवर्ती भूमि में आया ॥63 ।। प्रसन्नता से भरे, रण से लौटे उस विजयी वीर को देख, भाई के स्नेह से युक्त सीता ने उसका आलिंगन किया ॥64॥ सुग्रीव, हनूमान, नल, नील, अंगद, विराधित, चंद्राभ, सुषेण, बलवान् जांबव, जीमूत और शल्य देव आदि उत्तमोत्तम विद्याधरों ने अपने-अपने नाम सुनाकर सीता को शिर से अभिवादन किया ॥65-66॥ उन सबने हर्ष से युक्त हो सीता के चरणयुगल की समीपवर्ती भूमि में सुवर्णादि के पात्र में स्थित सुंदर विलेपन, वस्त्र, आभरण और पारिजात आदि वृक्षों की सुगंधित मालाएँ भेंट की ॥67-68॥ तदनंतर सबने कहा कि हे देवि ! तुम उत्कृष्ट भाव को धारण करने वाली हो, तुम्हारा प्रभाव समस्त लोक में प्रसिद्ध है तथा तुम बहुत भारी लक्ष्मी और गुणरूप संपदा के द्वारा अत्यंत श्रेष्ठ मनोहर पद को प्राप्त हुई हो ॥69 ।। तुम देवों के द्वारा स्तुत आचाररूपी विभूति को धारण करने वाली हो, प्रसन्न हो, तुम्हारा शरीर मंगलरूप है, तुम विजयलक्ष्मी स्वरूप हो, उत्कृष्ट लीला की धारक हो, ऐसी हे देवि ! तुम सूर्य की प्रभा के समान बलदेव के साथ चिरकाल तक जयवंत रहो ॥70।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में सीता के समागम का वर्णन करने वाला उन्यासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।79।।