ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 85
From जैनकोष
पिच्यासीवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! इसी बीच में अनेक मुनियों के साथ-साथ देशभूषण और कुलभूषण केवली अयोध्या में आये ॥1॥ वे देशभूषण कुलभूषण जिन्हें कि वंशस्थविल पर्वत पर चतुरानन प्रतिमा योग को प्राप्त होने पर उनके पूर्वभव के वैरी ने उपसर्ग किया था और वीर राम-लक्ष्मण के द्वारा सेवा किये जाने पर जिन्हें लोकालोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ।।2-3।। तदनंतर संतोष को प्राप्त हुए गरुडेंद्र ने भक्ति और स्नेह से युक्त हो राम-लक्ष्मण के लिए नाना प्रकार के रत्न, अस्त्र और वाहन प्रदान किये थे ॥4॥ निरस्त होने के कारण रण में संशय अवस्था को प्राप्त हुए राम-लक्ष्मण ने जिनके प्रसाद से शत्रु को जीता था तथा राज्य प्राप्त किया था ॥5।। देव और धरणेंद्र जिनकी स्तुति कर रहे थे तथा तीनों लोकों में जिनकी प्रसिद्धि थी ऐसे वे मुनिराज देशभूषण तथा कुलभूषण नगरियों में प्रमुख अयोध्या नगरी में आये ॥6॥ जिस प्रकार पहले संजय और नंदन नामक मुनिराज आये थे उसी प्रकार आकर वे नंदनवन के समान महेंद्रोदय नामक वन में ठहर गये ॥7॥ वे केवली, मुनियों के महासंघ से सहित थे, चंद्रमा और सूर्य के समान देदीप्यमान थे तथा परम अभ्युदय के धारक थे । उनके आते ही नगरी के लोगों को इनका ज्ञान हो गया ।।8।। तदनंतर वंदना करने के अभिलाषी राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ये चारों भाई उन केवलियों के पास जाने के लिए उद्यत हुए ॥6॥ सूर्योदय होने पर उन्होंने नगर में सर्वत्र घोषणा कराई। तदनंतर उन्नत हाथियों पर सवार हो एवं जातिस्मरण से युक्त त्रिलोकमंडन हाथी को आगे कर देवों के समान सुंदर चित्त के धारक होते हुए वे सब उस स्थान की ओर चले जहाँ कि कल्याण के पर्वत स्वरूप दोनों निर्ग्रंथ मुनिराज विराजमान थे ॥10-11।। जिनका उत्तम अभिप्राय जिनशासन में लग रहा था, जो साधुओं की भक्ति करने में तत्पर थीं, सैकड़ों देवियाँ जिनके साथ थीं तथा देवांगनाओं के समान जिनकी आभा थी ऐसी हे श्रेणिक ! उन चारों भाइयों की माताएँ कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी और सुप्रजा (सुप्रभा) भी जाने के लिए उद्यत हुई जो मुनिराज के दर्शन करने की तृष्णा से ग्रस्त थे तथा महावैभव से सहित थे ऐसे सुग्रीव आदि विद्याधर भी हर्षपूर्वक वहाँ आये थे ।।12-14॥ पूर्णचंद्रमा के समान मुनिराज का छत्र देखते ही रामचंद्र आदि हाथियों से उतर कर पैदल चलने लगे ॥15॥ सबने हाथ जोड़कर यथाक्रम से मुनियों की स्तुति की, प्रणाम किया, पूजा की और तदनंतर सब अपने-अपने योग्य भूमियों में बैठ गये ॥16।।
उन्होंने एकाग्र चित्त होकर संसार के कारणों को नष्ट करने वाले एवं धर्म की प्रशंसा करने में तत्पर मुनिराज के वचन सुने ॥17॥ उन्होंने कहा कि अणुधर्म और पूर्णधर्म― अणुव्रत और महाव्रत ये दोनों मोक्ष के मार्ग हैं इनमें से अणुधर्म तो परंपरा से मोक्ष का कारण है, पर महाधर्म साक्षात् ही मोक्ष का कारण कहा गया है ॥18।। पहला अणुधर्म महाविस्तार से सहित है तथा गृहस्थाश्रम में होता है और दूसरा जो महाधर्म है वह अत्यंत कठिन है तथा महाशूर वीर निर्ग्रंथ साधुओं के ही होता है ॥16।। इस अनादिनिधन संसार में लोभ से मोहित हुए प्राणी नरक आदि कुयोनियों में तीव्र दुःख पाते हैं ॥20॥ इस संसार में धर्म ही परम बंधु है, धर्म ही महाहितकारी है। निर्मल दया जिसकी जड़ है उस धर्म का फल नहीं कहा जा सकता ॥21॥ धर्म के समागम से प्राणी समस्त इष्ट वस्तुओं को प्राप्त होता है। लोक में धर्म अत्यंत पूज्य है। जो धर्म की भावना से सहित हैं, लोक में वही विद्वान् कहलाते हैं ॥22॥ जो धर्म दयामूलक है वही महाकल्याण का कारण है । संसार के अन्य अधम धर्मों में वह दयामूलक धर्म कभी भी विद्यमान नहीं है अर्थात् उनसे वह भिन्न है ॥23।। वह दयामूलक धर्म, जिनेंद्र भगवान के द्वारा प्रणीत परम दुर्लभ मार्ग में सदा विद्यमान रहता है जिसके द्वारा तीन लोक का अग्रभाग अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है ॥24॥ जिस धर्म के उत्तम फल को पाताल में धरणेंद्र आदि, पृथिवी पर चक्रवर्ती आदि और स्वर्ग में इंद्र आदि भोगते हैं ॥25॥
उसी समय प्रकरण पाकर लक्ष्मण ने स्वयं हाथ जोड़कर शिर से प्रणाम कर मुनिराज से यह पूछा कि हे प्रभो ! त्रिलोकमंडन नामक गजराज खंभे को तोड़कर किस कारण क्षोभ को प्राप्त हुआ और फिर किस कारण अकस्मात् ही शांत हो गया ? ॥26-27।। हे भगवन् ! आप मेरे इस संशय को दूर करने के लिए योग्य हैं ।
तदनंतर देशभूषण केवली ने निम्न प्रकार वचन कहे ॥28॥ उन्होंने कहा कि यह हाथी अत्यधिक पराक्रम की उत्कटता से पहले तो परम क्षोभ को प्राप्त हुआ था और उसके बाद पूर्वभव का स्मरण होने से शांति को प्राप्त हो गया था ॥26॥ इस कर्मभूमिरूपी युग के आदि में इसी अयोध्या नगरी में राजा नाभिराज और रानी मरुदेवी के निमित्त से शरीर को प्राप्त कर उत्तम नाम को धारण करने वाले भगवान् ऋषभदेव प्रकट हुए थे। उन्होंने पूर्व भव में तीन लोक को क्षोभित करने वाले तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया था उसी के फलस्वरूप वे इंद्र के समान विभूति से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए थे ॥30-31।। विंध्याचल और हिमाचल ही जिसके उन्नत स्तन थे तथा समुद्र जिसकी करधनी थी ऐसी पृथिवी का जिन्होंने सदा अनुकूल चलने वाली अपनी पतिव्रता पत्नी के समान सदा सेवन किया था ॥32॥ तीनों लोक जिन्हें नमस्कार करते थे ऐसे वे भगवान् ऋषभदेव पहले इस अयोध्यापुरी में उस प्रकार रमण करते थे जिस प्रकार कि स्वर्ग में इंद्र रमण करता है ॥33॥ वे श्रीमान् ऋषभदेव द्युति तथा कांति से सहित थे, लक्ष्मी, श्री और कांति से संपन्न थे, कल्याणकारी गुणों के सागर थे, तीन ज्ञान के धारी थे, धीर और गंभीर थे, नेत्र और मन को हरण करने वाली चेष्टाओं से सहित थे, सुंदर शरीर के धारक थे, बलवान थे और परम प्रतापी थे ॥34-3॥ जन्म के समय भक्ति से भरे सौधर्मेंद्र आदि देवों ने सुमेरु पर्वत पर सुवर्ण तथा रत्नमयी घटों से उनका अभिषेक किया था ॥36॥ इंद्र भी जिनके ऐश्वर्य की निरंतर चाह रखते थे उन ऋषभदेव के गुणों का वर्णन केवली भगवान को छोड़कर कौन कर सकता है ? ॥37॥ बहुत लंबे समय तक लक्ष्मी के उत्कृष्ट वैभव का उपभोग कर वे एक दिन नीलांजना नाम की अप्सरा को देख प्रतिबोध को प्राप्त हुए ॥38॥ लौकांतिक देवों ने जिनकी स्तुति की थीं ऐसे महावैभव के धारी जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों पर राज्यभार सौंपकर घर से निकल पड़े ।।36।। यतश्च भगवान् प्रजा से निःस्पृह हो तिलकनामा उद्यान में गये थे इसलिए लोक में वह उद्यान प्रजाग इस नाम का तीर्थ प्रसिद्ध हो गया ॥40॥ वे भगवान् समस्त परिग्रह का त्यागकर एक हजार वर्ष तक मेरु के समान अचल प्रतिमा योग से खड़े रहे अर्थात् एक हजार वर्ष तक उन्होंने कठिन तपस्या की ॥41।। स्वामिभक्ति के कारण उनके साथ जिन चार हजार राजाओं ने मुनिव्रत का धारण किया था, छः महीने के भीतर ही दुःसह परीषहों से पराजित हो उन क्षुद्र पुरुषों ने अपना निश्चय तोड़ दिया, स्वेच्छानुसार नाना प्रकार के व्रत धारण कर लिये और वे अज्ञानी जैसी चेष्टा को प्राप्त हो फल-मूल आदि का भोजन करने लगे ॥43॥
उन भ्रष्ट राजाओं के बीच महामानी, कषायले-गेरू से रंगे वस्त्रों को धारण करने वाला तथा कषाय युक्त बुद्धि से युक्त जो मरीचि नाम का साधु था उसने परिव्राजक का मत प्रचलित किया ॥44।। इसी विनीता नगरी में एक सुप्रभ नाम का राजा था उसकी प्रह्लादना नाम की स्त्री की कुक्षिरूपी भूमि से उत्पन्न हुए महामणियों के समान सूर्योदय और चंद्रोदय नाम के दो पुत्र थे ॥45॥ ये दोनों पुत्र समस्त संसार में प्रसिद्ध थे। उन्होंने भगवान आदिनाथ के साथ ही दीक्षा धारण की थी परंतु मुनिपद से भ्रष्ट होकर वे पारस्परिक तीव्र प्रीति के कारण अंत में मरीचि की शरण में चले गये ॥46।। मायामयी तपश्चरण और व्रत को धारण करने वाले मरीचि के उन दोनों शिष्यों के अनेक शिष्य हो गये जो परिव्राट् नाम से प्रसिद्ध हुए ॥47॥ मिथ्या धर्म का आचरण करने से वे दोनों चतुर्गति रूप संसार में साथ-साथ भ्रमण करते रहे । उन दोनों भाइयों ने पूर्वभवों में जो शरीर छोड़े थे उनसे समस्त पृथिवी भर गई थी ॥48॥
तदनंतर चंद्रोदय का जीव कर्म के वशीभूत हो नाग नामक नगर में राजा हरिपति के मनोलूता नामक रानी से कुलंकर नामक पुत्र हुआ जो आगे चलकर उत्तम राज्य को प्राप्त हुआ । और सूर्योदय का जीव इसी नगर में विश्वांक नामक ब्राह्मण के अग्निकुंडा नाम की स्त्री से श्रुतिरत नाम का विद्वान पुत्र हुआ। अनेक भवों में वृद्धि को प्राप्त हुए पूर्व स्नेह के संस्कार से श्रुतिरत राजा कुलंकर का पुरोहित हुआ ॥46-51॥ किसी समय राजा कुलंकर गोत्र परंपरा से जिनकी सेवा होती आ रही थी ऐसे तपस्वियों की सेवा करने के लिए जा रहा था सो मार्ग में उसने किन्हीं दिगंबर मुनिराज के दर्शन किये ॥52॥ उन मुनिराज का नाम अभिनंदित था, वे अवधिज्ञानरूपी नेत्र से सहित थे तथा सब लोगों का हित चाहने वाले थे। जब राजा कुलंकर ने उन्हें नमस्कार किया तब उन्होंने कहा कि हे राजन् ! तू जहाँ जा रहा है वहाँ तेरा संपन्न पितामह जो तापस हो गया था मरकर साँप हुआ है और काष्ठ के मध्य में विद्यमान है। एक तापस उस काष्ठ को चीर रहा है सो तू जाकर उसकी रक्षा करेगा। जब कुलंकर वहाँ गया तब मुनिराज के कहे अनुसार ही सब हुआ ॥53-55॥ तदनंतर उन तापसों को मिथ्याशास्त्र से युक्त देखकर राजा कुलंकर उत्तम प्रबोध को प्राप्त हो मुनिपद धारण करने के लिए उद्यत हुआ ।।56।।
अथानंतर राजा वसु और पर्वत के द्वारा अनुमोदित 'अजैर्यष्टव्यम्' इस श्रुति से मोह को प्राप्त हुए पापकर्मा श्रुतिरत नामा पुरोहित ने उन्हें मोह में डालकर इस प्रकार कहा कि हे राजन् ! वैदिक धर्म तुम्हारी वंश परंपरा से चला रहा है इसलिए यदि तुम राजा हरिपति के पुत्र हो तो उसी वैदिक धर्म का आचरण करो ॥57-58।। हे नाथ ! अभी तो वेद में बताई हुई विधि के अनुसार कार्य करो फिर पिछली अवस्था में अपने पद पर पुत्र को स्थापित कर आत्मा का हित करना। हे राजन् ! मुझ पर प्रसाद करो― प्रसन्न होओ ॥56।।
अथानंतर राजा कुलंकर ने 'यह बात ऐसी ही है। यह कह कर पुरोहित की प्रार्थना स्वीकृत की। तदनंतर राजा की श्रीदामा नाम की प्रिय स्त्री थी जो परपुरुषासक्त थी। उसने उक्त घटना को देखकर विचार किया कि जान पड़ता है इस राजा ने मुझे अन्य पुरुष में आसक्त जान लिया है इसीलिए यह विरक्त हो दीक्षा लेना चाहता है। अथवा यह दीक्षा लेगा या नहीं लेगा इसकी मन की गति को कौन जानता है ? मैं तो इसे विष देकर मारती हूँ ऐसा विचार कर उस पापिनी ने पुरोहित सहित राजा कुलंकर को मार डाला ।।60-62।।
तदनंतर पशुघात का चिंतवन करने मात्र के पाप से वे दोनों मर कर निकुंज नामक वन में खरगोश हुए ।।63।। तदनंतर कर्मरूपी वायु के वेग से प्रेरित हो क्रम से मेंढक, चूहा, मयूर, अजगर और मृग पर्याय को प्राप्त हुए ॥64।। तत्पश्चात् अविरत पुरोहित का जीव हाथी हुआ और राजा कुलंकर का जीव मेंढक हुआ सो हाथी के पैर से दबकर मेंढक मृत्यु को प्राप्त हुआ ॥65॥ पुनः सूखे सरोवर में मेंढक हुआ सो कौओं ने उसे खाया। तदनंतर मुर्गा हुआ और हाथी का जीव मार्जार हुआ ।।66।। सो मार्जार ने मुर्गा का भक्षण किया । इस तरह कुलंकर का जीव तीन भव तक मुर्गा हुआ और पुरोहित का जीव जो मार्जार था वह मनुष्यों में उत्पन्न हुआ सो उसने उस मुर्गा को खाया ॥67।। तदनंतर राजा और पुरोहित के जीव क्रम से मच्छ और शिशुमार अवस्था को प्राप्त हुए । सो धीवरों ने जाल में फंसाकर उन्हें पकड़ा तथा कुल्हाड़ों से काटा जिससे मरण को प्राप्त हुए ।।68॥
तदनंतर उन दोनों में जो शिशुमार था वह मरकर राजगृह नगर में बह्वाश नामक पुरुष और उल्का नामक स्त्री के विनोद नाम का पुत्र हुआ तथा जो मच्छ था वह भी कुछ समय बाद उसी नगर में तथा उन्हीं दंपती के रमण नाम का पुत्र हुआ ॥66॥ दोनों ही अत्यंत दरिद्र तथा मूर्ख थे इसलिए रमण ने विचार किया कि अत्यंत दरिद्रता अथवा मूर्खता के रहते हुए मनुष्य मानो दो पैर वाला पशु ही है। ऐसा विचारकर वह वेद पढ़ने की इच्छा से घर से निकल पड़ा ।।70॥ तदनंतर पृथिवी में घूमते हुए उसने गुरुओं के घर जाकर अंगों सहित चारों वेदों का अध्ययन किया । अध्ययन के बाद वह पुनः अपने घर की ओर चला ॥71॥ जिसे भाई के दर्शन की लालसा लग रही थी ऐसा रमण चलता-चलता जब सूर्यास्त हो गया था और आकाश में मेघों में अंधकार छा रहा था तब राजगृह नगर आया ।।72॥ वहाँ वह नगर के बाहर एक पुराने बग़ीचा में जो यक्ष का मंदिर था उसमें ठहर गया। वहाँ निम्न प्रकार घटना हुई ॥73॥
रमण का जो भाई विनोद राजगृह नगर में रहता था उसकी स्त्री का नाम समिधा था। यह समिधा दुराचारिणी थी सो अशोकदत्त नामक जार का संकेत पाकर उसी यक्ष मंदिर में पहुंची जहाँ कि रमण ठहरा हुआ था ।। 74।। अशोकदत्त को मार्ग में कोतवाल ने पकड़ लिया इसलिए वह संकेत के अनुसार समिधा के पास नहीं पहुँच सका। इधर समिधा का असली पति विनोद तलवार लेकर उसके पीछे-पीछे गया ॥75।। वहाँ समिधा के साथ रमण का सद्भावपूर्ण वार्तालाप सुन विनोद ने क्रोधित हो रमण को तलवार से निष्प्राण कर दिया ।।76॥ .
तदनंतर प्रच्छन्न पापी विनोद हर्षित होता हुआ अपनी स्त्री के साथ घर आया। उसके बाद वे दोनों दीर्घकाल तक संसार में भटकते रहे ॥7॥ तत्पश्चात विनोद का जीव भैंसा हुआ और रमण का जीव उसी वन में अंधा रीछ हुआ सो दोनों ही उस शालवन में जलकर मरे ॥78।। तदनंतर दोनों ही गिरिवन में व्याध हुए, फिर मरकर हरिण हुए। उन हरिणों के जो माता पिता आदि बंधुजन थे वे भय के कारण दिशाओं में इधर-उधर भाग गये। दोनों बच्चे अकेले रह गये। उनके नेत्र अत्यंत सुंदर थे इसलिए व्याधों ने उन्हें जीवित ही पकड़ लिया। अथानंतर तीसरा नारायण राजा स्वयंभूति श्रीविमलनाथ स्वामी के दर्शन करने के लिए गया ॥79-80॥ बहुत भारी ऋद्धि को धारण करने वाला राजा स्वयंभू जब सुरों और असुरों के साथ जिनेंद्रदेव की वंदना करके लौट रहा था तब उसने उन दोनों हरिणों को देखा सो व्याधों के पास से लेकर उसने उन्हें जिनमंदिर में रखवा दिया ॥81॥ वहाँ मुनियों के दर्शन करते और राजदरबार से इच्छानुकूल भोजन ग्रहण करते हुए दोनों हरिण परम धैर्य को प्राप्त हुए ॥82।। उन दोनों हरिणों में एक हरिण आयु क्षीण होने पर समाधिमरण कर स्वर्ग गया और दूसरा तिर्यंचों में भ्रमण करता रहा ॥83॥ तदनंतर विनोद का जीव जो हरिण था उसने कर्मयोग से किसी तरह मनुष्य पर्याय प्राप्त की मानो स्वप्न में राज्य ही उसे मिल गया हो ॥84॥
अथानंतर जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में कापिल्य नामक नगर के मध्य बाईस करोड़ दीनार का धनी एक धनद नाम का वैश्य रहता था सो रमण का जीव मरकर जो देव हुआ था वह वहाँ से च्युत हो उसकी वारुणी नामक स्त्री से भूषण नाम का उत्तम पुत्र हुआ ॥85-86।। किसी निमित्तज्ञानी ने धनद वैश्य से कहा कि तेरा यह पुत्र निश्चित ही दीक्षा धारण करेगा सो निमित्तज्ञानी के वचन सुन धनद संसार से उद्विग्नचित्त रहने लगा ।।87॥ उस उत्तम पुत्र की प्रीति से युक्त धनद सेठ ने एक ऐसा घर बनवाया जो सब कार्य करने के योग्य था । उसी घर में उसका भूषण नामा पुत्र रहता था । भावार्थ― उसने सब प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण महल बनवाकर उसमें भूषण नामक पुत्र को इसलिए रक्खा कि कहीं बाहर जाने पर किसी मुनि को देखकर वह दीक्षा न ले ले ॥88॥ उत्तमोत्तम स्त्रियाँ नाना प्रकार के वस्त्र आहार और विलेपन आदि के द्वारा जिसकी सेवा करती थीं ऐसा भूषण वहाँ सुंदर चेष्टाएँ करता था ।।89।। वह सदा अपने महलरूपी पर्वत के पाँचवें खंड में रहता था इसलिए उसने कभी स्वप्न में भी न तो उदित हुए सूर्य को देखा था और न अस्त होता हुआ चंद्रमा ही देखा था ।।90॥ धनद सेठ ने सैकड़ों मनोरथों के बाद यह एक ही पुत्र प्राप्त किया था इसलिए वह उसे पूर्व स्नेह के संस्कारवश प्राणों से भी अधिक प्यारा था ॥91।। धनद, पूर्वभव में भूषण का भाई था अब इस भव में पिता हुआ सो ठीक ही है क्योंकि संसार में प्राणियों की चेष्टाएँ नट की चेष्टाओं के समान विचित्र होती हैं ।।92॥
तदनंतर किसी दिन रात्रि समाप्त होते ही भूषण ने देव-दुंदुभि का शब्द सुना, देवों का आगमन देखा और उनका शब्द सुना जिससे वह विबोध को प्राप्त हुआ ॥93॥ वह भूषण स्वभाव से ही कोमलचित्त था, समीचीन धर्म का आचरण करने में तत्पर था, महाहर्ष से युक्त था तथा उसने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगा रक्खे थे ॥94॥ यह श्रीधर मुनिराज की वंदना के लिए शीघ्रता से सीढ़ियों पर उतरता चला आ रहा था कि साँप के काटने से उसने शरीर छोड़ दिया ॥95॥ वह मरकर माहेंद्र नामक चतुर्थ स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्युत होकर पुष्करद्वीप के चंद्रादित्य नामक नगर में राजा प्रकाशयश का पुत्र हुआ । माधवी इसकी माता थी और स्वयं उसका जगद्युति नाम था। यौवन का उदय होने पर वह अत्यंत श्रेष्ठ राज्यलक्ष्मी को प्राप्त हुआ ॥96-97॥ वह संसार से अत्यंत भयभीत रहता था, इसलिए वृद्ध मंत्री उपदेश दे देकर बड़ी कठिनाई से उससे राज्य कराते थे ॥98।। वृद्ध मंत्री उससे कहा करते थे कि हे वत्स ! कुलपरंपरा से आये हुए इस सुंदर राज्य का पालन करो क्योंकि राज्य का पालन करने से ही समस्त प्रजा सुखी होती है ।।99॥ भूषण, राज्यकार्य में स्थिर रहता हुआ सदा तपस्वी मुनियों को आहारादि से संतुष्ट रखता था। अंत में वह मरकर देवकुरु नामा भोगभूमि में गया और वहाँ से मरकर ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥100॥ वहाँ परम कांति को धारण करने वाले उस भूषण के जीव ने देवीजनों से आवृत होकर तथा नानारूप के धारक हो अनेक पल्यों तक भोगों का उपभोग किया ॥101।।
वहाँ से च्युत हो जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में अचल चक्रवर्ती की बालमृगी के समान सरल, रत्ना नाम की रानी के सब लोगों को आनंदित करने वाला महागुणों का धारी पुत्र हुआ । वह पुत्र शरीर तथा नाम दोनों से ही अभिराम था अर्थात 'अभिराम' इस नाम का धारी था और शरीर से अत्यंत सुंदर था ॥102-103।। अभिराम महावैराग्य से सहित था तथा दीक्षा धारण करने के लिए उद्यत था परंतु चक्रवर्ती ने उसका विवाह कर उसे जबर्दस्ती ऐश्वर्य में-राज्य पालन में नियुक्त कर दिया॥104॥ सदा तीन हजार स्त्रियाँ, जल में स्थित हाथी के समान उस गुणी पुत्र का सावधानीपूर्वक लालन करती थीं ॥105।। उन सब स्त्रियों से घिरा हुआ अभिराम, रति संबंधी सुख को विष के समान मानता था और शांत चित्त हो केवल मुनिव्रत धारण करने के लिए उत्कंठित रहता था परंतु पिता की परतंत्रता से उसे वह प्राप्त नहीं कर पाता था ॥106।। उन सब स्त्रियों के बीच में बैठा तथा हार केयूर मुकुट आदि से विभूषित हुआ वह अत्यंत कठिन असिधारा व्रत का पालन करता था ॥107।। जिसे चारों ओर से स्त्रियाँ घेरे हुई थीं ऐसा वह श्रीमान् अभिराम, उत्तम आसन पर बैठकर उन सबके लिए जैनधर्म की प्रशंसा करने वाला उपदेश देता था ॥108॥
वह कहा करता था इस संसाररूपी अटवी में चिरकाल से भ्रमण करने वाला प्राणी पुण्य-कर्मोदय से बड़ी कठिनाई से इस मनुष्य भव को प्राप्त होता है ॥106।। उदार अभिप्राय को धारण करने वाला कौन मनुष्य जान-बूझकर अपने आपको कुएँ में गिराता है ? कौन मनुष्य विषपान करता है ? अथवा कौन मनुष्य पहाड़ की चोटी पर शयन करता है ? ॥110॥ अथवा कौन मनुष्य रत्न पाने की इच्छा से नाग के मस्तक को हाथ से छूता है ? अथवा विनाशकारी इन इंद्रियों के विषयों में किसे कब संतोष हुआ है ? ॥111॥ अत्यंत चंचल जीवन में जिनकी स्पृहा शांत हो चुकी है ऐसे मनुष्यों की जो एक पुण्य में प्रशंसनीय आसक्ति है वही उन्हें मुक्ति का सुख देने वाली है ॥112।। इत्यादि परमार्थ का उपदेश देने वाली वाणी सुनकर उसकी वे स्त्रियाँ शांत हो गई थीं तथा शक्ति अनुसार नियमों का पालन करने लगी थीं ॥113।। वह राजपुत्र अपने सुंदर शरीर में भी राग से रहित था इसलिए वेला आदि उपवासों से कर्म की कलुषता को दूर करता रहता था ॥114॥ जिसका चित्त सदा सावधान रहता था ऐसा वह राजपुत्र विचित्र तपस्या के द्वारा शरीर को उस तरह कृश करता रहता था जिस तरह कि ग्रीष्मऋतु का सूर्य पानी को कृश करता रहता है ॥11॥ निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले उस निश्चल चित्त वीर राजपुत्र ने चौंसठ हजार वर्ष तक अत्यंत दुःसह तप किया ॥116॥ अंत में पंचपरमेष्ठियों के नमस्कार से युक्त समाधिमरण को प्राप्त हो ब्रह्मोत्तर नामक स्वर्ग में उत्तम देव पर्याय को प्राप्त हुआ है ॥117॥
अथानंतर भूषण के भव में जो उसका पिता धनद सेठ था उसका जीव नाना योनियों में भ्रमण कर जंबूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित जो पोदनपुर नाम का नगर था उसमें अग्निमुख और शकुना नामक ब्राह्मण-ब्राह्मणी उसके जन्म के कारण हुए । उन दोनों के वह मृदुमति नाम का पुत्र हुआ। वह मृदुमति निरर्थक नाम का धारी था अर्थात् मृदु बुद्धि न होकर कठोर बुद्धि था ॥118-116।। जिसकी बुद्धि जुआ तथा अविनय में आसक्त रहती थी, जो मार्गधूलि से धूसरित रहता था तथा जो नाना प्रकार के अपराध करने के कारण लोगों के द्वेष का पात्र था, ऐसा वह अत्यंत दुष्ट चेष्टाओं का धारक था ॥120॥ लोगों के उलाहनों से खिन्न होकर माता पिता ने उसे घर से निकाल दिया जिससे वह पृथिवी में जहाँ तहाँ भ्रमण कर यौवन के समय पुनः पोदनपुर में आया ॥121॥ वहाँ एक ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हो उसने पीने के लिए जल माँगा सो ब्राह्मणी ने उसे जल दिया । जल देते समय उस ब्राह्मणी के नेत्रों से टप-टप कर आंसू नीचे पड़ रहे थे ॥122।।अत्यंत शीतल जल से जिसकी आत्मा संतुष्ट हो गई थी ऐसे उस मृदुमति ने पूछा कि हे दयावति ! तू इस तरह क्यों रो रही है ? उसके इस प्रकार कहने पर ब्राह्मणी ने कहा कि ॥123।। हे भद्र ! मुझने निर्दया हो अपने पति के साथ मिलकर तेरे ही समान आकृति वाले अपने छोटे से पुत्र को बड़े दुःख की बात है कि घर से निकाल दिया था ॥124॥ सो अनेक देशों में घूमते हुए तूने यदि कहीं उसे देखा हो तो उसका पता बता, वह नीलकमल के समान श्यामवर्ण था ॥125।।
तदनंतर अश्रु छोड़ते हुए उसने कहा कि हे माता ! रोना छोड़, धैर्य धारण कर, वह मैं ही तेरा पुत्र हूँ जो चिरकाल बाद सामने आया हूँ ॥126॥ शकुना ब्राह्मणी, अपने अग्निमुख नामक पति के साथ पुत्र प्राप्ति के महोत्सव को प्राप्त हो सुख से रहने लगी और उसके स्तनों से दूध झरने लगा ॥127।। मृदुमति, अत्यंत तेजस्वी था, सुंदर था, बुद्धिमान था, नाना शास्त्रों में निपुण था, सर्व स्त्रियों के नेत्र और मन को हरने वाला था, धूर्तों के मस्तक पर स्थित था अर्थात् उनमें शिरोमणि था ॥128॥ वह जुआ में सदा जीतता था, अत्यंत चतुर था, कलाओं का घर था, और कामोपभोग में सदा आसक्त रहता था । इस तरह वह नगर में सदा क्रीड़ा करता रहता था ॥126॥
उस पोदनपुर नगर में एक वसंतडमरा नाम की वेश्या, समस्त वेश्याओं में उत्तम थी । जो कामभोग के विषय में उसकी अत्यंत इष्ट स्त्री थी ॥130॥ उसने अपने माता पिता को अन्य बंधुजनों के साथ-साथ दरिद्रता से मुक्त कर दिया था जिससे वे समस्त इच्छित पदार्थों को प्राप्त कर राजा-रानी जैसी लीला को प्राप्त हो रहे थे ।।131॥ उसका पिता कुंडल आदि अलंकारों से अत्यंत देदीप्यमान था तथा माता मेखला आदि अलंकारों से युक्त हो नाना कार्य कलाप में सदा व्यग्र रहती थी ॥132॥ एक दिन वह मृदुमति चोरी करने के लिए शशांक नामा नगर के राजमहल में घुसा । वहाँ का राजा नंदिवर्धन विरक्त हो रानी से कह रहा था सो उसे उसने सुना था ॥133॥ उसने कहा कि आज मैंने शशांकमुख नामक गुरु के चरणमूल में मोक्ष सुख का देने वाला उत्तम धर्म सुना है ॥134॥ हे देवि ! ये विषय विष के समान अत्यंत दारुण हैं इसलिए मैं दीक्षा धारण करता हूँ तुम शोक करने के योग्य नहीं हो ॥135॥ इस प्रकार रानी को शिक्षा देते हुए श्री नंदिवर्धन राजा को सुनकर वह मृदुमति अत्यंत निर्मल बोधि को प्राप्त हुआ ॥136।। संसार की दशा से विरक्त हो उसने शशांकमुख नामा गुरु के पादमूल में सर्व परिग्रह का त्याग कराने वाली जिनदीक्षा धारण कर ली ॥137॥ अब वह शास्त्रोक्त विधि का आचरण करता तथा जब कभी प्रासुक भिक्षा प्राप्त करता हुआ क्षमाधर्म से युक्त हो घोर तप करने लगा ॥138॥
अथानंतर गुणनिधि नामक एक उत्तम मुनिराज ने दुर्गगिरि नामक पर्वत के शिखर पर आहार का परित्याग कर चार माह के लिए वर्षायोग धारण किया ॥136॥ सुर और असुरों ने जिसकी स्तुति की तथा जो चारण ऋद्धि के धारक थे ऐसे वे धीर वीर मुनिराज चार माह का नियम समाप्त कर कहीं विधिपूर्वक आकाशमार्ग से उड़ गये― विहार कर गये ।।140॥ तदनंतर उत्तम चेष्टाओं के धारक एवं युग मात्र पृथिवी पर दृष्टि डालने वाले मृदुमति नामक मुनिराज भिक्षा के लिए आलोकनामा नगर में आये ॥141॥ सो राजा सहित नगरवासी लोगों ने यह जानकर कि ये वे ही महामुनि हैं जो पर्वत के अग्रभाग पर स्थित थे उन्हें आते देख बड़े संभ्रम से भक्ति सहित उनके दर्शन किये ॥142॥ तथा उनकी पूजा कर उन्हें नाना प्रकार के आहारों से संतुष्ट किया । और जिह्वा इंद्रिय में आसक्त हुए उन मुनि ने पाप कर्म के उदय से माया धारण की ।।143॥ नगरवासी लोगों ने कहा कि तुम वही मुनिराज हो जो पर्वत के अग्रभाग पर स्थित थे तथा देवों ने जिनकी वंदना की थी । इस प्रकार कहने पर उन्होंने अपना सिर नीचा कर लिया किंतु यह नहीं कहा कि मैं वह नहीं हूँ ॥144।। इस प्रकार भोजन के स्वाद में लीन मृदुमति मुनि ने अज्ञान अथवा अभिमान के कारण दुःख के बीज स्वरूप इस आत्म वंचना का उपार्जन किया अर्थात् माया की ॥145।। यतश्च उन्होंने गुरु के आगे अपनी यह माया शल्य नहीं निकाली इसलिए वे इस परम दुःख की पात्रता को प्राप्त हुए ॥146॥ तदनंतर मृदुमति मुनि मरण कर उसी स्वर्ग में पहुँचे जहाँ कि ऋद्धियों सहित अभिराम नाम का देव रहता था ॥147॥ पूर्व कर्म के प्रभाव से परम ऋद्धि को धारण करने वाले उन दोनों देवों को स्वर्ग में अत्यंत प्रीति थी ॥148।। देवियों के समूह से युक्त तथा सुखरूपी सागर में निमग्न रहने वाले वे दोनों देव अपने पुण्योदय से अनेक सागर पर्यंत उस स्वर्ग में क्रीड़ा करते रहे ॥146।।
तदनंतर मृदुमति का जीव, पुण्यराशि के क्षीण होने पर वहाँ से च्युत हो मायाचार के दोष से दूषित होने के कारण जंबूद्वीप में आया ॥150॥ जंबूद्वीप में ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सहित निकुंज नाम का एक पर्वत है उस पर अत्यंत सघन शल्लकी नामक वन है ॥151।। उसी वन में यह मेघ-समूह के समान हाथी हुआ है। इसका शब्द क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान है, इसने अपनी गति से वायु को जीत लिया है, क्रोध के समय इसका आकार अत्यंत भयंकर हो जाता है, यह महा अभिमानी है, इसकी दाढ़ें चंद्रमा के समान उज्ज्वल है। यह गजराज के गुणों से सहित है, विजय आदि महागजराजों के वंश में उत्पन्न हुआ है, परम दीप्ति को धारण करने वाला है, मानो ऐरावत हाथी से द्वेष ही रखता है, स्वेच्छानुसार युद्ध करने वाला है, सिंह व्याघ्र बड़े-बड़े वृक्ष तथा छोटी मोटी अनेक गोल चट्टानों का विनाश करने वाला है, मनुष्यों की बात जाने दो विद्याधरों के द्वारा भी इसका पकड़ा जाना सरल नहीं है, यह अपनी गंधमात्र से समस्त वन्य पशुओं को भय उत्पन्न करता है तथा नाना प्रकार के पल्लवों से युक्त पहाड़ी निकुंजों में क्रीड़ा करता रहता है। ।।152-156॥ जिसे कोई क्षोभित नहीं कर सकता तथा जो नाना प्रकार के फूलों से सुशोभित है ऐसे मानस सरोवर में यह अपने अनुयायियों के साथ क्रीड़ा करता है ।।157।। यह अनायास दृष्टि में आये हुए कैलास पर्वत पर तथा गंगा नदी के मनोहर ह्रदों में अत्यंत सुखी होता हुआ श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त होता है ।।158।। अपने बंधुजनों के महाभ्युदय को बढ़ाने वाला यह हाथी इनके सिवाय अत्यंत मनोहर पहाड़ी वन प्रदेशों में सुंदर क्रीड़ा करता है ॥156॥ अनुकूल आचरण करने में तत्पर रहने वाली हजारों हथिनियों के साथ मिलकर यह यूथपति के योग्य सुख का उपभोग करता है ॥160॥ हाथियों के समूह से घिरा हुआ यह हाथी जब यहाँ-वहाँ विचरण करता है तब पक्षियों के समूह से आवृत गरुड़ के समान सुशोभित होता है ॥161॥
जिसकी गर्जना मेघगर्जना के समान सघन है तथा जो दानरूप झरनों के निकलने के लिए मानो पर्वत ही है ऐसा यह उत्तम गजराज लंका के धनी रावण के द्वारा देखा गया अर्थात् रावण ने इसे देखा ॥162॥ तथा विद्या और पराक्रम से उग्र रावण ने इसे वशीभूत किया एवं सुंदर-सुंदर लक्षणों से युक्त इस हाथी का त्रिलोककंटक नाम रखा ॥163॥ यह पूर्वभव में स्वर्ग में अप्सराओं के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा कर सुखी हुआ अब हस्तिनियों के साथ क्रीड़ा कर सुखी हो रहा है ॥164।। यथार्थ में कर्मों की ऐसी ही विचित्र शक्ति है कि जीव, दुःखों से युक्त नाना योनियों में परम प्रीति को प्राप्त होते हैं ॥16॥ अभिराम का जीव भी च्युत हो अयोध्या नगरी में राजा भरत हुआ है। यह भरत अत्यंत बुद्धिमान है तथा समीचीन धर्म में इसका हृदय लग रहा है ।।166॥ जिसके मोह का समूह विलीन हो चुका है तथा जो भोगों से विमुख है ऐसा यह भरत पुनर्भव दूर करने के लिए मुनि दीक्षा धारण करना चाहता है ॥167॥ श्रीऋषभदेव के समय ये दोनों सूर्योदय और चंद्रोदय नामक भाई थे तथा उन्हीं ऋषभदेव के साथ जिनधर्म में दीक्षित हुए थे किंतु बाद में अभिमान से प्रेरित हो महाव्रत छोड़कर मरीचि के द्वारा चलाये हुए परिव्राजक मत में दीक्षित हो गये जिसके फलस्वरूप संसार के दुःख से दुःखी हो कर्मों का फल भोगते हुए चिरकाल तक संसार में भ्रमण करते रहे ॥168-169॥ सो ठीक ही है क्योंकि संसार में जो मनुष्य तप नहीं करते हैं वे अपने द्वारा किये हुए सुख दुःखदायी कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त करते हैं ॥170॥
जो चंद्रोदय का जीव पहले कुलंकर और उसके बाद समाधि मरण करने वाला मृग हुआ था वही क्रम-क्रम से उत्तम हृदय को धारण करने वाला राजा भरत हुआ है ॥171।। और सूर्योदय ब्राह्मण का जीव मरकर मृग हुआ फिर क्रम-क्रम से पापकर्म के उदय से इस हस्ती पर्याय को प्राप्त हुआ है ॥172।। अत्यंत उत्कट बल को धारण करने वाला यह हाथी पहले तो बंधन का खंभा उखाड़ कर क्षोभ को प्राप्त हुआ परंतु बाद में भरत के देखने से पूर्वभव का स्मरण कर शांत हो गया ॥173॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे विद्वज्जनो ! इस तरह नाना प्रकार की गति-आगति तथा बाह्य सुख और दुःख को जानकर इस विषम कर्म अटवी को छोड़ धर्म में रमण करो क्योंकि जिन्होंने मनुष्य पर्याय प्राप्त कर जिनेंद्र कथित धर्म धारण नहीं किया है वे संसार-भ्रमण को प्राप्त हो आत्म-हित से दूर रहते हैं ॥174।। हे भव्यजनो ! जो श्री जिनेंद्र देव के मुखारविंद से प्रकट हुआ है तथा मोक्ष के देने में तत्पर है ऐसे अनुपम जिनधर्म को पाकर सूर्य की कांति को जीतने वाला पुण्य संचय करो जिससे निर्मल परम पद को प्राप्त हो सको ॥175॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में भरत तथा
त्रिलोकमंडन हाथी के पूर्वभवों का वर्णन करने वाला
पचासीवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥85॥