तंडुल मत्स्य
From जैनकोष
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1649/1489/7 उत्थानिका - आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिंगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामा: षण्मासं विवृतवदना: स्वपंति। निद्राविमोक्षानंतरं पिहितानना: स्वजठरप्रविष्टमत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशंति। तत्कणविलग्नमलाहारा: शालिसिक्थसंज्ञका: यदीदृशमस्माकं शरीरं भवेत् । किं नि:सर्तुं एकोऽपि जंतुर्लभते। सर्वान्भक्षयामीति कृतमन: प्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशंति। =स्वयंभूरमण समुद्र में तिमितिमिंगिलादिक महामत्स्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा होता है। उनके शरीर की लंबाई हज़ार योजन की कही है। वे मत्स्य छह मास तक अपना मुँह उघाड़कर नींद लेते हैं, नींद खुलने के बाद आहार में लुब्ध होकर अपना मुँह बंद करते हैं, तब उनके मुँह में जो मत्स्य आदि प्राणी आते हैं, उनको वे निगल जाते हैं। वे मत्स्य आयुष्य समाप्ति के अनंतर अवधिस्थान नामक नरक में प्रवेश करते हैं। इन मत्स्यों के कान में शालिसिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं, वे उनके कान का मल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। उनका शरीर तंडुल के सिक्थ के प्रमाण होता है इसलिए उनका नाम सार्थक है। वे अपने मन में ऐसा विचार करते हैं कि यदि हमारा शरीर इन महामत्स्यों के समान होता तो हमारे मुंह से एक भी प्राणी न निकल सकता, हम संपूर्ण को खा जाते। इस प्रकार के विचार से उत्पन्न हुए पाप से वे भी अवधिस्थान नरक में प्रवेश करते हैं।
देखें संमूर्च्छिम- 7।