ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 3
From जैनकोष
अथानंतर श्री वर्धमान जिनेंद्र के द्वारा मध्यदेश में धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति होने पर समस्त देशों में तीर्थ विषयक मोह दूर हो गया अर्थात् धर्म के विषय में लोगों का जो अज्ञान था वह दूर हो गया ॥1॥ जिस प्रकार संसार में अगस्त्य नक्षत्र का उदय होने पर मलिन तालाब स्वच्छता को प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार जिनेंद्रदेव का उदय होनेपर लोगों के कलुषित हृदय स्वच्छता को प्राप्त हो गये ||2|| जिस प्रकार पहले भव्य वत्सल भगवान ऋषभदेव ने अनेक देशों में विहार कर उन्हें धर्म से युक्त किया था उसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी वैभव के साथ विहार कर मध्य के काशी, कौशल, कौशल्य, कुसंध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगर्त, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्त्य, कनीय, सरसेन और वृकार्थक, समुद्रतट के कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कंबोज, बालोक, यवन, सिंध, गांधार, सौवीर, सूर, भीरु, दरोरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोष, तथा उत्तर दिशा के ताणं, कार्ण और प्रच्छाल आदि देशों को धर्म से युक्त किया था ॥3-7 ।। केवल ज्ञानरूपी प्रभा को फैलाने वाले श्री जिनेंद्ररूपी सूर्य के प्रकाशमान होनेपर नाना मिथ्याधर्मरूपी जुगनुओं के ठाट-बाट कहाँ विलीन हो गये थे यह नहीं जान पड़ता था |।8|| उस समय जिन लोगों ने श्री वर्धमान जिनेंद्र के शरीर का साक्षात् दर्शन किया था, उनकी दिव्यध्वनि का साक्षात् श्रवण किया था तथा उनके वैभव का साक्षात् अवलोकन किया था,उनकी अन्य पुरुषों के वचनों में आसक्ति नहीं रह गयी थी ॥9॥ निरंतर मलमूत्र से रहित शरीर, स्वेद का अभाव, गो दुग्ध के समान सफेद रुधिर, वज्रवृषभनाराचसंहनन, समचतुरस्रसंस्थान, अत्यंत सुंदर रूप, अतिशय सुगंधता, एक हजार आठ लक्षण युक्त शरीर, अनंत बल और हितमित प्रिय वचन इन पवित्र दस अतिशयों से तो वे जन्म से ही सुशोभित थे,परंतु केवलज्ञान होनेपर निमेष उन्मेष से रहित अत्यंत शांत विशाल लोचन, अत्यंत व्यवस्थित अर्थात वृद्धि से रहित कांतिपूर्ण नख और केशों से शोभित होना, कवलाहार का अभाव, वृद्धावस्था का न होना, शरीर को छाया नहीं पड़ना, परम कांतियुक्त मुख का एक होने पर भी चारों ओर दिखाई देना, दो सौ योजन तक की पृथ्वी में सुभिक्ष होना, उपसर्ग का अभाव, प्राणिपीड़ा अर्थात् अदया का अभाव, आकाशगमन और सब विद्याओं का स्वामित्वपना, कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के इन दस अतिशयों से और भी अधिक आश्चर्य उत्पन्न कर रहे थे । उस समय देखा अथवा सुना गया जिनेंद्र भगवान का शरीर जगत् के जीवों को सुख उत्पन्न कर रहा था ॥10-15॥ सर्वभाषारूप परिणमन करने वाली अमृत की धारा के समान भगवान् की अर्द्ध मागधी भाषा का कर्णपुटों से पान करते हुए तीन लोक के जीव संतुष्ट हो गये ॥16॥ जो परस्पर की गंध सहन करने में भी असमर्थ थे ऐसे शत्रुरूप प्राणियों में पृथ्वीतल पर सर्वत्र गहरी मित्रता हो गयी ॥17॥ जिन में समस्त वृक्ष निरंतर फल और फूलों से नम्रीभूत हो रहे थे ऐसी छहों ऋतुएँ मैं पहले पहुँचूँ, मैं पहले पहुँचूँ इस भावना से ही मानो एक साथ आकर उनकी सेवा कर रही थीं ॥18॥ सर्व रत्नमयी तथा निर्मल दर्पणतल के समान उज्ज्वल पृथ्वीरूपी स्त्री ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेंद्र भगवान के लिए अपने अंतःकरण की विशुद्धता ही दिखला रही हो ॥19॥ शरीर में सुखकर स्पर्श उत्पन्न करने वाली विहार के अनुकूलमंद सुगंधित वायु बह रही थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान की सेवा ही कर रही हो ॥20॥ उस समय परपकार के लिए उत्कृष्ट बंधस्वरूप श्री जिनेंद्र भगवान के विहार करने पर जगत् के समस्त जीवों को परम आनंद हो रहा था ।। 21॥ वायुकुमार के देव, एक योजन के भीतर की पृथिवी को कंटक, पाषाण तथा कीड़े-मकोड़े आदि से रहित कर रहे थे ॥22॥ उनके बाद ही जोर की गर्जना करने वाले स्तनितकुमार नामक देव मेघ का रूप धारण कर शुभ सुगंधित जल की वर्षा कर रहे थे ॥23॥ भगवान् पृथिवी के समान आकाशमार्ग से चल रहे थे तथा उनके चरण-कमल पद-पद पर खिले हुए सात-सात कमलों से पूजित हो रहे थे । भावार्थ― विहार करते समय भगवान के चरण कमलों के आगे और पीछे सात-सात तथा चरणों के नीचे एक इस प्रकार पंद्रह कमलों की पंद्रह श्रेणियाँ रची जाती थीं उनमें सब मिलाकर दो सौ पचीस कमल रहते थे ॥24॥ फलों से सुशोभित शालि आदि धान्यों के समूह से पृथिवी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेंद्र-दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से उसके रोमांच ही निकल आये हों ॥25 ।। मेघों के आवरण से रहित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो वह जिनेंद्रदेव के केवलज्ञान की निर्मलता का ही अनुकरण कर रहा हो ॥26॥ जिस प्रकार रजोधर्म से रहित होने के कारण निर्मलता― शुद्धता को धारण करने वाली स्त्रियाँ रात-दिन अपने पति की उपासना करती हैं उसी प्रकार रज अर्थात् धूलि से रहित होने के कारण उज्ज्वलता को धारण करने वाली दिशाएँ भगवान् की उपासना कर रही थीं ॥27॥ इंद्र की आज्ञा से देव लोग, सब ओर जिनेंद्रदेव के धर्मदान की घोषणा करते हुए अन्य लोगों को बुला रहे थे ॥28॥ विहार करते हों चाहे खड़े हों प्रत्येक दशा में श्रीजिनेंद्र के आगे, सूर्य के समान कांतिवाला तथा अपनी दीप्ति से हजार आरे वाले चक्रवर्ती के चक्ररत्न की हंसी उड़ाता हुआ धर्मचक्र शोभायमान रहता था ॥29॥ इस प्रकार देवकृत चौदह अतिशयों और ध्वजाओं सहित अष्ट मंगल द्रव्यों से युक्त श्रीमहावीर जिनेंद्र पृथिवी पर विहार करते थे ॥30॥
अष्ट प्रातिहार्यों में प्रथम प्रातिहार्य अशोकवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अशोकवृक्ष को शोभा के बहाने समस्त संसार अथवा आकाश ही भगवान को नमस्कार कर रहा हो इससे अधिक और महत्त्व क्या हो सकता है ? ॥31 ।। नम्रीभूत शिर को धारण करने वाले देव लोग अपने हाथों से जो पुष्प-वृष्टियां कर रहे थे उनसे समस्त दिशाओं की भूमियां सुशोभित हो रही थीं ॥32॥ चारों दिशाओं में देवों द्वारा चौंसठ चमरों से वीजित भगवान उस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि पड़ती हुई गंगा की तरंगों से हिमगिरि सुशोभित होता है ॥33॥ जिसने रात-दिन का अंतर दूर कर दिया था ऐसा भगवान् का भामंडल, अपने तेज से सूर्य मंडल को अभिभूत कर दबाकर सुशोभित हो रहा था ॥34॥ देवों के मार्ग अर्थात् आकाश में दुंदुभियों का शब्द इस गंभीरता से फैल रहा था मानो वह संसार में इस बात की घोषणा ही कर रहा था कि श्रीजिनेंद्रदेव कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुके हैं ॥35॥ जिसमें एक छत्र लगाया जाता है ऐसे पृथिवी के ऐश्वर्य को त्याग करने वाले भगवान के छत्रत्रय से युक्त तीन लोक का ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है ऐसा जान पड़ता था ॥36 ।। यतश्च भगवान् ने राजाओं के समूह से घिरा हुआ सिंहासन छोड़ दिया था इसलिए उन्हें इंद्रों से घिरा हुआ दूसरा सिंहासन प्राप्त हुआ था ॥37॥ जो धर्म का उपदेश देने के लिए एक योजन तक फैल रही थी तथा जो चित्त और कानों के लिए रसायन के समान थी ऐसी भगवान् की दिव्यध्वनि तीनों जगत् को पवित्र कर रही थी ॥38॥ इस प्रकार प्रातिहार्य आदि विभव के साथ अनेक देशों में विहार कर देवों के द्वारा पूजित होते हुए भगवान् महावीर फिर से मगध देश में आये ॥39॥ वे भगवान् सप्त ऋद्धिरूपी संपदा को प्राप्त करने वाले एवं समस्त श्रुत के पारगामी इंद्रभूति आदि ग्यारह गणधरों से सहित थे ॥40॥ उन ग्यारह गणधरों में प्रथम गणधर इंद्रभूति थे, द्वितीय अग्निभूति, तृतीय वायुभूति, चतुर्थ शुचिदत्त, पंचम सुधर्म, षष्ठ मांडव्य, सप्तम मौर्यपुत्र, अष्टम अकंपन, नवम अचल, दसम मेदार्य और अंतिम प्रभास थे । ये सभी गणधर, तप्त दीप्त आदि तप, ऋद्धि के धारक तथा चार प्रकार की बुद्धि ऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, अक्षीणऋद्धि, औषधिऋद्धि, रसऋद्धि और बलऋद्धि से संपन्न थे॥41-44॥ इनमें से प्रारंभ के पांच गणधरों की गण― शिष्य संख्या, प्रत्येक की दो हजार एक सौ तीस, उसके आगे छठे और सातवें गणधर की गण संख्या प्रत्येक की चार सौ पचीस, तदनंतर शेष चार गणधरों की गण संख्या प्रत्येक की छह सौ पचीस । इस प्रकार ग्यारह गणधरों की शिष्य संख्या चौदह हजार थी॥45-46॥ इन चौदह हजार शिष्यों में तीन सौ पूर्व के धारी, नौ सौ विक्रिया-ऋद्धि के धारक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, पांच सौ विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान के धारक, चार सौ परवादियों को जीतने वाले वादी और नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे । इस प्रकार श्रीजिनेंद्र देव का, ग्यारह गणधरों से सहित चौदह हजार मुनियों का संघ, नदियों के प्रवाह से सहित समुद्र के समान सुशोभित हो रहा था ।। 47-50॥ इस तरह जगत् को विस्मय में डालने वाली आर्हंत्य लक्ष्मी से सहित श्रीवर्धमान जिनेंद्र उस राजगृह नगर में आये जो लक्ष्मी का मानो घर था और जिसमें अनेक उत्तमोत्तम घर सुशोभित हो रहे थे ॥51॥ राजगृह नगर में पाँच शैल हैं इसलिए उसका दूसरा नाम पंचशैलपुर भी है । यह श्री मुनिसुव्रत भगवान के जन्म से पवित्र है, शत्रु-सेनाओं के लिए दुर्गम है एवं पांच पर्वतो से सुशोभित है ॥52॥ पाँचों पर्वतों में प्रथम पर्वत का नाम ऋषिगिरि है यह चौकोर, झरते हुए निर्झरों से सुशोभित है तथा ऐरावत हाथी के समान पूर्व दिशा को अत्यंत सुशोभित कर रहा है ॥53॥ वैभार नाम का दूसरा पर्वत दक्षिण दिशा में है तथा त्रिकोण आकृति का धारक है । तीसरा पर्वत विपुलाचल है यह दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य में स्थित है और वैभारगिरि के समान त्रिकोण आकृति वाला है ।। 54 ॥ चौथा पर्वत वलाहक है वह डोरी सहित धनुष के आकार का है तथा तीन दिशाओं को व्याप्त कर स्थित है और पांचवां पर्वत पांडुक है यह गोल है तथा पूर्व और उत्तरदिशा के अंतराल में सुशोभित है ॥55॥ ये सभी पर्वत, फल और फूलों के भार से नम्रीभूत लताओं से सुशोभित हैं और झरते हुए निर्झरों के समूह से मनोहर हैं ।। 56 ।। केवल वासुपूज्य जिनेंद्र को छोड़कर अन्य समस्त तीर्थंकरों के समवसरणों से इन पांचों पर्वतों के बड़े-बड़े वन-प्रदेश पवित्र हुए हैं ।। 57 ।। वे वन-प्रदेश तीर्थयात्रा के लिए आये हुए अनेक भव्यजीवों के समूह से सेवित तथा नाना प्रकार के अतिशयों से संबद्ध सिद्ध क्षेत्रों से पवित्र हैं ।। 58 ||
अथानंतर जहाँ इंद्र ने पहले से ही समवसरण की संपूर्ण रचना कर रखी थी ऐसे विपुलांचल पर्वत पर विशाल ऐश्वर्य के धारक श्री वर्धमान जिनेंद्र जाकर विराजमान हुए ॥59|| उस समय सौधर्म आदिदेव और श्रेणिक आदि मनुष्यों के सब ओर स्थित होने पर देव और मनुष्यों से व्याप्त हुआ वह पर्वत अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥60॥ ऋद्धियों को धारण करने वाले ऋषि श्री जिनेंद्रभगवान के समीप सबसे पहले बैठे । उनके बाद कषायों का अंत करने वाले यति, अतींद्रिय पदार्थों का अवलोकन करने वाले प्रत्यक्ष ज्ञानी मुनि और संख्यात अनगार बैठे, इस तरह ग्यारह गणधरों के सहित चौदह हजार मुनि, पैंतीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीस लाख श्राविकाएँ, चारों प्रकार के देव और देवियाँ तथा तिर्यंच ये सब यथा स्थान बैठे । इन सब बारह सभाओं से वेष्टित भगवान् अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ॥61-64॥
तदनंतर जब धर्म श्रवण करने की इच्छा से तीनों लोकों के जीव यथास्थान स्थित हो गये तब गणधर के प्रश्न पूर्वक श्री तीर्थंकर भगवान् ने धर्म का उपदेश आरंभ किया ॥65॥ उन्होंने कहा कि सामान्यरूप से सिद्ध और संसारी के भेद से जीव के दो भेद हैं तथा दोनों ही भेद उपयोगरूप लक्षण से युक्त हैं और विशेष की अपेक्षा दोनों ही अनंतानंत भेदों को धारण करने वाले हैं ॥66॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक̖चारित्ररूपी उपाय के द्वारा जिन्होंने प्राप्त करने योग्य मुक्ति को प्राप्त कर लिया है तथा जो स्वरूप को प्राप्त कर सिद्धिक्षेत्र-लोक के अग्रभाग पर तनुवात-वलय में स्थित हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं ॥67॥ ये पांच प्रकार का ज्ञानावरण, नौ प्रकार का दर्शनावरण, साता-असाता के भेद से दो प्रकार का वेदनीय, अट्ठाईस प्रकार का मोहनीय, चार आयु, बयालीस प्रकार का नाम, दो प्रकार का गोत्र और पाँच प्रकार का अंतराय कर्म नष्ट कर अनंत पूर्व सिद्धों में समाविष्ट हो तीन लोक के अग्रभाग पर विराजमान रहते हैं ।। 68-71॥ सम्यक्त्व, अनंत केवलज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अत्यंत सूक्ष्मत्व, स्वाभाविक अवगाहनत्व, अव्याबाध, अनंत अगुरुलघु इन आठ प्रसिद्ध गुणों से सहित हैं, असंख्यात प्रदेशी हैं, पुद्गल संबंधी वर्णादि बीस गुणों के नष्ट होने से अमूर्तिक है, अंतिम शरीर से किंचित न्यून आकार के धारक हैं, मोम के सांचे के भीतर स्थित आकाश के समान हैं, जन्म-जरा-मरण, अनिष्ट, संयोग, इष्ट वियोग तथा क्षुधा, तृष्णा, बीमारी आदि से उत्पन्न समस्त दुःखों से रहित हैं तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पांच प्रकार के परिवर्तनों से रहित होने के कारण सुख स्वरूप हैं ॥72-77॥ असिद्ध अर्थात् संसारी जीव असंयत, संयतासंयत और संयत के भेद से तीन प्रकार के माने गये हैं । इनमें से असंयत अवस्था तो प्रारंभ के चार गुणस्थानों में है, संयतासंयत अवस्था पंचम गुणस्थान में है और संयत अवस्था छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थानों में है ॥78|| पारिणामिक भावों में स्थित रहने वाला जीव मोहनीय कर्म के उदय, क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम के निमित्त से गुणस्थानों में प्रवृत्त होता है ॥79॥ गुणस्थान चौदह हैं, उनमें से प्रथम गुणस्थान मिथ्यादृष्टि है जो कि सार्थक नाम को धारण करने वाला है, दूसरा सासादन, तीसरा मिश्र, चौथा असंयत सम्यग्दृष्टि, पांचवां संयतासंयत, छठा प्रमत्त संयत, सांतवाँ अप्रमत्त संयत, आठवां अपूर्वकरण, नौवां अनिवृत्तिकरण, दसवां सूक्ष्मसांपराय, ग्यारहवाँ उपशांत कषाय, बारहवाँ, क्षीणमोह, तेरहवां सयोगकेवली और चौदहवां अयोगकेवली है । इनमें से उपशांत कषाय के पूर्ववर्ती अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के होते हैं ।। 80-83॥ छठे से लेकर चौदहवें तक नौ गुणस्थानों में रहने वाले मनुष्यों में बाह्यरूप की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । सब निर्ग्रंथ मुद्रा के धारक हैं परंतु आत्मा की विशुद्धता की अपेक्षा से उनमें भेद है । जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे ही उनमें विशुद्धता बढ़ती जाती है ।। 84॥ प्रथम से लेकर संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान तक जिस प्रकार रूप-बाह्य वेष की अपेक्षा भेद है उसी प्रकार आत्म विशुद्धि को अपेक्षा भी भेद है ।। 85 ।। इन गुणस्थानों में से सबसे अधिक सुख तो क्षायिक लब्धियों को प्राप्त करने वाले सयोगकेवली और अयोग केवली के होता है । इनका सुख अंत रहित होता है तथा इंद्रिय संबंधी विषयों से उत्पन्न नहीं होता ॥86॥ उनके बाद उपशमक अथवा क्षपक दोनों प्रकार के अपूर्वकरणादि जीवों के, कषायों के उपशमक अथवा क्षय से उत्पन्न होने वाला परम सुख होता है ||87 ।। तदनंतर उनसे कम एक निद्रा, पाँच इंद्रियां, चार कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पंद्रह प्रमादों से रहित अप्रमत्त संयत जीवों के प्रशम रसरूप सुख होता है ꠰꠰88꠰꠰ उनके बाद हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों से विरक्त प्रमत्त संयत जीवों के शांतिरूप सुख होता है ।। 89 ।। तदनंतर हिंसा आदि पाँच पापों से यथाशक्ति एकदेश निवृत्त होने वाले संयतासंयत जीवों के महातृष्णा पर विजय प्राप्त होने के कारण सुख होता है ।। 90 । उनके बाद अविरत सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि हिंसादि पापों से एकदेश भी विरत नहीं हैं तथापि तत्त्वश्रद्धान से उत्पन्न सुख का उपभोग करते ही हैं ।। 91 ।। उनके पश्चात् परस्पर विरुद्ध सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणामों को धारण करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के अंतःकरण सुख और दुःख दोनों से मिश्रित रहते हैं ।। 92॥ सम्यग्दर्शन को उगलने वाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का अंतर्भाव उस प्रकार का होता है जिस प्रकार का दूध और घी से मिश्रित शक्कर खाकर उसकी डकार लेने वालों का होता है । भावार्थ-सम्यक्त्व के छूट जाने से सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों को सुख तो नहीं होता किंतु सुख का कुछ आभास होता है जिस प्रकार कि दूध, घी, शक्कर आदि खाने वालों को पीछे से उसकी डकार द्वारा मधुर रस का आभास मिलता है उसी प्रकार इनके सुख का आभास जानना चाहिए ॥93 ।। तदनंतर जो स्वप्न के राज्य के समान बुद्धि को भ्रष्ट करने वाले सप्तप्रकृतिक मोह से अत्यंत मूढ़ हो रहा है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को सुख कहाँ प्राप्त हो सकता है ॥94||
विशेषार्थ― मोह और योग के निमित्त से आत्मा के परिणामों में जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान के निम्न प्रकार 14 भेद हैं― 1. मिथ्यादृष्टि, 2. सासादन, 3. मिश्र, 4. असंयतसम्यग्दृष्टि, 5. संयतासंयत, 6. प्रमत्तसंयत, 7. अप्रमत्तसंयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मसांपराय, 11. उपशांतमोह, 12. क्षीणमोह, 13. संयोगकेवली और 14. अयोगकेवली । इनमें से प्रारंभ के 12 गुणस्थानमोह के निमित्त से होते हैं और अंत के
2 गुणस्थान योग के निमित्त से । मोह कर्म की 1 उदय, 2 उपशम, 3 क्षय और 4 क्षयोपशम ऐसी चार अवस्थाएं संक्षेप में होती हैं । इन्हीं के निमित्त से जीव के परिणामों में तारतम्य उत्पन्न होता है । उदय-आबाधा पूर्ण होने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कर्मों के निषेकों का अपना फल देने लगना उदय कहलाता है । उपशम-अंतर्मुहूर्त के लिए कर्म निषेकों के फल देने की शक्ति का अंतर्हित हो जाना उपशम कहलाता है । जिस प्रकार निर्मली या फिटकिरी के संबंध से पानी की कीचड़ नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्यक्षेत्रादि का अनुकूल निमित्त मिलने पर कर्म के फल देने की शक्ति अंतर्हित हो जाती है । क्षय-कर्म प्रकृतियों का समूल नष्ट हो जाना क्षय है । जिस प्रकार मलिन पानी में से कीचड़ के परमाणु बिल्कुल दूर हो जाने पर उसमें स्थायी स्वच्छता आ जाती है उसी प्रकार कर्म परमाणुओं के बिल्कुल निकल जाने पर आत्मा में स्थायी स्वच्छता उद्भूत हो जाती है । क्षयोपशम― वर्तमान काल में उदय आने वाले सर्वघाती स्पर्द्धकों को उदयाभावी क्षय और उन्हीं के आगामी काल में उदय आने वाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती प्रकृति का उदय रहना इसे क्षयोपशम कहते हैं । कर्म प्रकृतियों की उदयादि अवस्थाओं में आत्मा के जो भाव होते हैं उन्हें क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । जिसमें कर्मों की उक्त अवस्थाएं कारण नहीं होतीं उन्हें पारिणामिक भाव कहते हैं । अब गुणस्थानों के संक्षिप्त स्वरूप का निदर्शन किया जाता है―
1. मिथ्यादृष्टि― मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उदय से जिसकी आत्मा में अतत्त्वश्रद्धान उत्पन्न रहता है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं । इस जीव को न स्व-पर का भेद ज्ञान होता है, न जिन प्रणीत तत्त्व का श्रद्धान होता है और न आप्त आगम तथा निर्ग्रंथ गुरु पर विश्वास ही होता है ।
2. सासादन सम्यग्दृष्टि― सम्यग्दर्शन के काल में एक समय से लेकर छह आवली तक का काल बाकी रहने पर अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक का उदय आ जाने के कारण जो चतुर्थ गुणस्थान से नीचे आ पड़ता है परंतु अभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं आ पाया है उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं । इसका सम्यग्दर्शन अनंतानुबंधी का उदय आ जाने के कारण आसादन अर्थात् विराधना से सहित हो जाता है ।
3. मिश्र― सम्यग्दर्शन के काल में यदि मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जाता है तो यह चतुर्थ गुणस्थान से गिरकर तीसरे मिश्र गुणस्थान में आ सकता है । जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़ का स्वाद मिश्रित होता है उसी प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जीव का परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित रहता है । अनादि मिथ्यादृष्टि जीव चतुर्थ गुणस्थान से गिरकर ही तृतीय गुणस्थान में आता है परंतु सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थान से भी तृतीय गुणस्थान में पहुंच जाता है ।
4. असंयतसम्यग्दृष्टि― अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन पाँच प्रकृतियों के और सादि मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति और अनंतानुबंधी चतुष्क इन सात अथवा पाँच प्रकृतियों के उपशमादि होने पर जिसकी आत्मा में तत्त्व श्रद्धान तो प्रकट हुआ है परंतु अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का उदय रहने में संयम भाव जागृत नहीं हुआ है, उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।
5. संयतासंयत― अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने पर जिसके एकदेश चरित्र प्रकट हो जाता है उसे संयतासंयत कहते हैं । यह त्रस हिंसा से विरत हो जाता है इसलिए संयत कहलाता है और स्थावर हिंसा से विरत नहीं होता इसलिए असंयत कहलाता है । इसके अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में तारतम्य होने से दार्शनिक आदि ग्यारह अवांतर भेद हैं ।
6. प्रमत्तसंयत― प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम और संज्वलन का तीव्र उदय रहने पर जिसकी आत्मा में प्रमाद सहित संयम प्रकट होता है उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं । इस गुणस्थान का धारक नग्न मुद्रा में रहता है । यद्यपि यह हिंसादि पापों का सर्वदेश त्यागकर चुकता है तथापि संज्वलन चतुष्क का तीव्र उदय साथ में रहने से इसके चार विकथा, चार कषाय, पाँच इंद्रिय, निद्रा तथा स्नेह इन पंद्रह प्रमादों से इसका आचरण चित्रल― दूषित बना रहता है ।
7. अप्रमत्तसंयत― संज्वलन के तीव्र उदय की अवस्था निकल जाने के कारण जिसकी आत्मा से ऊपर कहा हुआ पंद्रह प्रकार का प्रमाद नष्ट हो जाता है उसे अप्रमत्तसंयत कहते हैं । इसके स्वस्थान और सातिशय की अपेक्षा दो भेद हैं । जो छठे और सातवें गुणस्थान में ही झूलता रहता है वह स्वस्थान कहलाता है और जो उपरितन गुणस्थान में चढ़ने के लिए अधःकरणरूप परिणाम कर रहा है वह सातिशय अप्रमत्तसंयत कहलाता है । जिसमें समसमय अथवा भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं उसे अधःकरण कहते हैं ।
8. अपूर्वकरण― जहाँ प्रत्येक समय में अपूर्व-अपूर्व नवीन-नवीन ही परिणाम होते हैं उसे अपूर्वकरण कहते हैं । इसमें सम समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं परंतु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही होते हैं ।
9. अनिवृत्तिकरण― जहाँ सम समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही होते हैं उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । ये अपूर्व कारणादि परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्धता को लिये हुए होते हैं तथा संज्वलन चतुष्क के उदय की मंदता में क्रम से प्रकट होते हैं ।
10. सूक्ष्म सांपराय― जहाँ केवल संज्वलन लोभ का सूक्ष्म उदय रह जाता है उसे सूक्ष्म सांपराय कहते हैं । अष्टम गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी ये दो श्रेणियाँ प्रकट होती हैं । जो चारित्र मोह का उपशम करने के लिए प्रयत्नशील हैं वे उपशम श्रेणी में आरूढ़ होते हैं और जो चारित्र मोह का क्षय करने के लिए प्रयत्नशील हैं वे क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होते हैं । परिणामों की स्थिति के अनुसार उपशम या क्षपक श्रेणी में यह जीव स्वयं आरूढ़ हो जाता है, बुद्धिपूर्वक आरूढ़ नहीं होता । क्षपक श्रेणी पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही आरूढ़ हो सकता है पर उपशम श्रेणी पर औपशमिक और क्षायिक दोनों सम्यग्दृष्टि आरूढ़ हो सकते हैं । यहाँ विशेषता इतनी है कि जो औपशमिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होगा वह श्रेणी पर आरूढ़ होने के पूर्व अनंतानुबंधी की विसंयोजना कर उसे सत्ता से दूर कर द्वितीयोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जायेगा । जो उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होता है वह सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के अंत तक चारित्र मोह का उपशम कर चुकता है और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है वह चारित्र मोह का क्षय कर चुकता है ।
11. उपशांतमोह― उपशम श्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में चारित्र मोह का पूर्ण उपशम कर ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थान में आता है । इसका मोह पूर्णरूप में शांत हो चुकता है और शरद् ऋतु के सरोवर के समान इसकी सुंदरता होती है । अंतर्मुहूर्त तक इस गुणस्थान में ठहरने के बाद यह जीव नियम से नीचे गिर जाता है ।
12. क्षीणमोह― क्षपक श्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में चारित्रमोह का पूर्ण क्षय कर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में आता है यहाँ इसका मोह बिल्कुल ही क्षीण हो चुकता है और स्फटिक के भाजन में रखे हुए स्वच्छ जल के समान इसकी स्वच्छता होती है ।
13. सयोगकेवली― बारहवें गुणस्थान के अंत में शुक्लध्यान के द्वितीयपाद के प्रभाव से ज्ञानावरणादि कर्मों का युगपत् क्षय कर जीव तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । यहाँ इसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है इसलिए केवली कहलाता है और योगों को प्रवृत्ति जारी रहने से सयोग कहा जाता है । दोनों विशेषताओं को लेकर इसका सयोगकेवली नाम प्रचलित है ।
14. अयोगकेवली― जिनकी योगों की प्रवृत्ति दूर हो जाती है उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । यह जीव इस गुणस्थान में ‘अ इ उ ऋ लृ’ इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने ही काल तक ठहरता है । अनंतर शुक्लध्यान के चतुर्थ पाद के प्रभाव से सत्ता में स्थित पचासी प्रकृतियों का क्षय कर एक समय में सिद्ध क्षेत्र में पहुंच जाता है ।
आचार्य जिनसेन ने उक्त चौदह गुणस्थानों में सुख के तारतम्य का भी विचार किया है । सुख आत्मा का गुण है और वह उसमें सदा विद्यमान रहता है परंतु मोह के उदय से उसका विभाव परिणमन होता रहता है अतः ज्यों-ज्यों मोह का संपर्क आत्मा से दूर होता जाता है त्यों-त्यों सुख अपने स्वभावरूप परिणमन करने लगता है । मिथ्यादृष्टि जीव के मोह का पूर्ण उदय हैं इसलिए उसके सुख का बिल्कुल अभाव बतलाया है । मिथ्यादृष्टि जीव के जो विषय संबंधी सुख देखा जाता है वह सुख का स्वाभाविक रूप न होकर वैभाविक रूप ही है । बारहवें गुणस्थान में मोह का संपर्क बिल्कुल छूट जाता है इसलिए वहाँ सुख स्वभावरूप में प्रकट हो जाता है परंतु वहाँ उस सुख को वेदन करने के लिए अनंत ज्ञान का अभाव रहता है इसलिए उसे अनंत सुख नहीं कहते । केवलज्ञान होने पर वही सुख अनंत सुख कहलाने लगता है ।
1 ज्ञानावरण, 2 दर्शनावरण, 3 वेदनीय, 4 मोहनीय, 5 आयु, 6 नाम, 7 गोत्र और 8 अंतराय के भेद से कर्म आठ प्रकार के हैं । इनमें से ज्ञानावरण कर्म पट के समान सम्यग्ज्ञान को ढकने वाला है । दर्शनावरण कर्म द्वारपाल के समान श्रेष्ठ दर्शन को रोकने वाला है । वेदनीय कर्म मधु से लिप्त तलवार को तीक्ष्ण धारा के समान माधुर्य को धारण करने वाला है । मोह कर्म मदिरा के समान बुद्धि में विभ्रम उत्पन्न करने वाला है । आयुकर्म सुदृढ़ बेड़ी के समान किसी निश्चित गति में रोकने वाला है । नामकर्म चित्रकार के समान विचित्र आकारों की सृष्टि करने वाला है । गोत्रकर्म कुम्हार के समान उच्च-नीच का व्यवहार करने वाला है और अंतरायकर्म भांडारी के समान प्राप्त होने योग्य पदार्थों में विघ्न करने वाला है । इस प्रकार फल देने वाले आठ प्रकार के कर्मों से ये प्राणी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में निरंतर बद्ध होते रहते हैं ।। 95-99 || दूसरे गुणस्थान से लेकर अंतिम गुणस्थान तक के तेरह गुणस्थानों में नियम से जीवों के भव्यपना ही रहता है और प्रथम गुणस्थान में भव्यपना तथा अभव्यपना दोनों ही संभव हैं ॥ 100 ꠰। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की प्राप्ति पूर्वक जो जीव मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ हैं वे भव्य कहलाते हैं और जो इनसे विपरीत हैं वे अभव्य कहे जाते हैं ॥101 ।। जो विशुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी लक्षण से युक्त हैं वे आसन्नभव्य हैं और उनकी आसन्नभव्यता आधुनिक पुरुषों के द्वारा भी जानी जा सकती है । परंतु दूर भव्यता और अभव्यता सदा आप्त भगवान् के वचनों से ही जानी जा सकती है क्योंकि वह साधारण प्राणियों के हेतु का विषय नहीं है अर्थात् साधारण व्यक्ति उसे हेतु द्वारा जान नहीं सकते ॥102-103 ।। यह भव्यत्व और अभव्यत्व भाव जीव का स्वाभाविक पारिणामिक भाव है तथा एक बरतन में भरकर सीजने के लिए अग्नि पर रखे हुए सीजने वाले और न सीजने वाले उड़द के समान हैं । भावार्थ― भव्यजीव निमित्त मिलने पर सिद्ध पर्याय को प्राप्त हो जाते हैं और अभव्य जीव बाह्य निमित्त मिलने पर भी निज की योग्यता न होने से सिद्ध पर्याय नहीं प्राप्त कर पाते ।। 104 ꠰। भव्य जीवों का संसार-सागर अनादि और सांत है तथा सामान्य भव्यजीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है ॥105 ।। अभव्यजीव राशि का संसारसागर व्यक्ति तथा समूह दोनों की अपेक्षा अनादि अनंत है ।। 106 ।।
संसार में जीवों की दो राशियाँ हैं―एक भव्य और दूसरी अभव्य । ये दोनों ही प्रकार की राशियाँ अनंत हैं, मिथ्यात्व कर्म के उदय से दुःख भोगती रहती हैं और कालद्रव्य के समान अक्षय― अविनाशी हैं अर्थात जिस प्रकार कालद्रव्य का कभी अंत नहीं होता उसी प्रकार उन दोनों राशियों का भी कभी अंत नहीं होता ॥107॥ ये जीव द्रव्य को अपेक्षा नित्य हैं, पर्याय को अपेक्षा अनित्य हैं तथा एक साथ दोनों की अपेक्षा उभयात्मक― नित्यानित्यात्मक हैं, मिथ्यात्व, अविरति, योग और कषाय के द्वारा कलुषित हो रहे हैं तथा जिसका छूटना कठिन है, ऐसे पापकर्म का निरंतर बंध करते हुए दुःखी हो चारों गतियों में घूमते रहते हैं ॥108-109॥
जिनकी आत्मा निरंतर रौद्रध्यान से मलिन है, जो बहुत आरंभ और परिग्रह से सहित हैं, मिथ्यादर्शन तथा ज्ञानमद, पूजामद आदि आठ मदों से क्लेश उठाते हैं, जिनकी दृष्टि अत्यंत अनिष्टरूप है, जो आत्मप्रशंसा में तत्पर हैं, निंदनीय हैं, दूसरे की निंदा से आनंद मानते हैं, दूसरे का धन हरण करने के लोभी हैं, जिन्हें भोगों की तृष्णा अत्यधिक है, जो मधु, मांस और मदिरा का आहार करते हैं ऐसे कर्मभूमि के मनुष्य और व्याघ्र, सिंह आदि तिर्यंच नरकायु का बंध करते हैं ॥110-112।। एवं जहाँ अत्यंत शीत और उष्णता से शरीर जल रहे हैं ऐसे नरककुंडों में अत्यंत क्रोधी नारकी उत्पन्न होते हैं । वहाँ इन नारकियों के खंड-खंड हो जाते हैं ॥113॥ वहाँ न वह द्रव्य है, न क्षेत्र है और न वह काल की कला है जहाँ नारकी जीवों के दुःख का स्वाभाविक विश्राम हो सके ॥114।। उन नारकियों के यदि एक साधारण लाभ है, तो यही कि उनका अकाल में मरण नहीं होता । संसार के समस्त प्राणियों को चिरकाल तक जीवित रहना प्रिय है सो यह चिरजीवन नारकियों को सुलभ है ॥115॥ रत्नप्रभा को आदि लेकर महातमःप्रभा पर्यंत― सातों पृथिवियों में नारकियों की आयु का प्रमाण क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तैंतीस सागर जानना चाहिए । यह इनकी उत्कृष्ट स्थिति है ।। 116-117 ।। पूर्व-पूर्व नरकों की जो उत्कृष्ट स्थिति है वही एक समय अधिक होने पर आगामी नरकों की जघन्य स्थिति कहलाती है । प्रथम नरक की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है ।। 118 ।।
जो क्रोध, मान, महामाया और लोभ के कारण चिंतातुर है तथा आर्तध्यानरूपी बड़ी भारी भंवर के कारण जिनका मन निरंतर घूमता रहता है, ऐसे मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, मनुष्य, देव और नारकी त्रसस्थावर जीवों से भरी हुई तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं ।। 119-120॥ तिर्यंचगति में जन्म लेने वाले प्राणी पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय में बार-बार जन्म लेने का दुःख भोगते रहते हैं ॥121॥ कितने ही कृमि आदि दो इंद्रियों में, यूक आदि तीन इंद्रियों में, भ्रमर आदि चतुरिंद्रियों में और पक्षी, मत्स्य, मृग आदि पंचेंद्रियों में चिरकाल तक दुःख भोगते हैं ।।122-123॥ कर्मभूमिज तिर्यंचों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की है तथा भोगभूमिज तिर्यंचों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य एक पल्य प्रमाण है ।।124॥
जो मनुष्य स्वभाव से ही सरल हैं, स्वभाव से ही कोमल हैं, स्वभाव से ही भद्र हैं, स्वभाव से ही पाप-भीरु हैं और स्वभाव से ही मधु-मांसादि सावद्य आहार के त्यागी हैं, वे उत्तम मनुष्यपर्याय प्राप्त करते हैं, तथा जो खोटे कर्म करते हैं वे खोटी मनुष्यपर्याय प्राप्त करते हैं ॥125-126॥ पाप कर्मों की निर्जरा होने से कितने ही तिर्यंच तथा नारकी और शुभ कर्म करने वाले देव भी उत्तम पर्याय प्राप्त करते हैं ॥127॥ आर्य तथा म्लेच्छ कुल से भरा हुआ मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर भी इच्छित वस्तु को प्राप्ति नहीं होने से तथा प्रियजनों के साथ वियोग होने के कारण जीवों को दुःख ही प्राप्त होता रहता है ।।128॥ कितने ही मनुष्यों को यद्यपि इच्छित पदार्थ प्राप्त होते रहते हैं और प्रियजनों के साथ उनका समागम भी होता रहता है तथापि विषयरूपी ईंधन के द्वारा उनकी इच्छारूपी अग्नि निरंतर प्रज्वलित होती रहती है । इसलिए उन्हें सुख प्राप्त नहीं होता ।।129꠰꠰ जो मनुष्य भव सम्यग्दर्शनादि को धारण करने वाले किन्हीं निकट भव्य जीवों को मोक्ष का कारण होता है वही मनुष्य भव, मोह पूर्ण चित्त को धारण करने वाले दूरानूदर भव्य जीवों को दीर्घ संसार का कारण है ।। 130-131 ।। समस्त कर्मभूमियों और भोगभूमियों में मनुष्यों की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति तिर्यंचों के समान जानना चाहिए ॥132।।
जो केवल जल, वायु अथवा वृक्षों के मूल, पत्र तथा फलों का भक्षण करते हैं, जिनकी बुद्धि अत्यंत शांत है, जिन्होंने कषाय तथा इंद्रियों के निग्रह का अभ्यास कर लिया है, जो बालतप करते हैं तथा जो कायक्लेश करने में तत्पर रहते हैं, ऐसे तापसी और अकामनिर्जरा से युक्त बंधनबद्ध तिर्यंच, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी तथा अल्प ऋद्धि के धारक कल्पवासी देव होते हैं । ये सब मिथ्यादर्शन से मलिन होते हैं ॥133-135।। इनमें जो कंदर्प नाम के देव हैं वे निरंतर काम से आकुलित रहते हैं, आभियोग्य जाति के देव सभा में बैठने के अयोग्य होते हैं और किल्विषक देव सदा संक्लेश का अनुभव करते रहते हैं ॥136꠰꠰ ये बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक देवों के महाभ्युदय से युक्त ऐश्वर्य को देखकर तथा देव होने पर भी अपनी दुर्गति का विचार कर दुःख से पीड़ित होते हुए मानसिक दुःख उठाते रहते हैं ॥137।। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ होने से भव्य जीव भी अभव्य की तरह संसार के दुःखरूपी महासागर में गोता लगाते रहते हैं ॥138꠰꠰ भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक सागर है, व्यंतर देवों की एक पल्य प्रमाण है और जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है ॥139॥ ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य है, जघन्य स्थिति पल्य के आठवें भाग प्रमाण है और स्वर्गवासी देवों को उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर तथा जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण है ॥140।।
जब कोई भव्य जीव, क्षयोपशम, विशुद्धि, प्रायोग्य, देशना तथा अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की करण लब्धि, इन पंच लब्धियों को प्राप्त करता है तब वह आत्म-विशुद्धि के अनुसार दर्शन-मोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय कर सर्वप्रथम औपशमिक, फिर क्षायोपशमिक और तदनंतर क्रम से क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर उसका अनुभव करता है ॥141-144꠰꠰ सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद कितने ही भव्य जीव चारित्र मोह के क्षयोपशम से चारित्र प्राप्त कर कर्मों का क्षय करते हैं तदनंतर निर्वाण को प्राप्त कर अनंत सुख, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत वीर्य से युक्त होते हुए मोक्ष में निवास करते हैं ।। 145-146।। जो भव्य जीव चारित्रमोह की अत्यंत प्रबलता से चारित्र नहीं धारण कर पाते हैं वे निश्चल सम्यक्त्व के प्रभाव से ही देवायु का बंध कर लेते हैं ।।147॥ इसी प्रकार जो मनुष्य संयतासंयत अर्थात् देशचारित्र के धारक हैं वे सौधर्म से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के कल्पों में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक देव होते हैं ।।148।।
जो मनुष्य सराग संयम से श्रेष्ठ तथा निर्दोष संयम के धारक हैं, उनमें से कितने ही कल्पवासी देव होते हैं और कितने ही कल्पातीत देव ॥149꠰꠰ नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तरविमानों में रहने वाले देव कल्पातीत कहलाते हैं ॥150।। कल्पवासी देव इंद्रादिक के भेद से अनेक प्रकार के हैं और कल्पातीत देव केवल अहमिंद्र कहलाते हैं― उनमें भेद नहीं होता । इन सभी ने सन्मार्ग में चलकर जो उत्तम तप किया था वे देवगति में उसके फलस्वरूप सुख का उपभोग करते हैं ।।151।। सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में देवों की आयु कुछ अधिक दो सागर, सानत्कुमार माहेंद्र स्वर्ग में कुछ अधिक सात सागर, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में कुछ अधिक दस सागर, लांतव कापिष्ट स्वर्ग में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार सहस्रार में कुछ अधिक अठारह सागर, आनत-प्राणत स्वर्ग में बीस सागर और आरण-अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर प्रमाण आयु है ॥152-155।। नव ग्रैवेयकों में एक-एक सागर बढ़ती हुई आयु है अर्थात् प्रथम ग्रैवेयक में बाईस सागर की आयु है और आगे के ग्रैवेयकों में एक-एक सागर की बढ़ती हुई नौवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर की हो जाती है । पूर्व-पूर्व स्वर्गों की जो उत्कृष्ट स्थिति है वही एक समय अधिक होने पर आगे-आगे के स्वर्गों की जघन्य स्थिति होती है ॥156꠰꠰ नव अनुदिशों में बत्तीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है और एक समय अधिक इकतीस सागर जघन्य स्थिति है ॥157꠰꠰ पंच अनुत्तर विमानों में तैंतीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति है और सर्वार्थ सिद्धि को छोड़ करबा की चार अनुत्तरों में जघन्य स्थिति एक समय अधिक बत्तीस सागर प्रमाण है । सर्वार्थ सिद्धि में जघन्य स्थिति नहीं होती, वहाँ सब एक ही समान स्थिति के धारक होते हैं ॥158॥ सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट स्थिति पाँच पल्य प्रमाण है । उसके आगे सहस्रार स्वर्ग तक प्रत्येक स्वर्ग में दो-दो पल्य अधिक है । उसके आगे सात-सात पल्य अधिक है । इस तरह सोलहवें स्वर्ग में पचपन पल्य की आयु है । उसके आगे स्त्रियों का सद्भाव नहीं है ॥159-160॥ कर्मों की सामर्थ्य से समस्त कल्पवासिनी देवियों का उत्पाद सदा पहले और दूसरे स्वर्ग में ही होता है ॥161।। मोह का तीव्र उदय होने से ज्योतिषी, भवनवासी, व्यंतर और सौधर्म तथा ऐशान स्वर्ग के निवासी देव काम से मैथुन करते हैं ।।162॥ मोह का मध्यम उदय होने से सानत्कुमार और माहेंद्र स्वर्ग के देव स्पर्श मात्र से प्रवीचार करते हैं अर्थात् वहाँ के देव देवियों की काम बाधा परस्पर के स्पर्श मात्र से शांत हो जाती है ।।163।। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्टस्वर्ग के देव, रूपमात्र से प्रवीचार करते हैं अर्थात् वहाँ के देव-देवियों का रूप देखने मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं ॥164॥ शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्ग के देव शब्द से प्रवीचार करते हैं अर्थात् वहाँ के देवदेवियों के शब्द सुनने मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं ।। 165 ।। मोह का उदय अत्यंत मंद होने से आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग के देव मन से प्रवीचार करते हैं अर्थात् वहाँ के देव मन में देवियों का ध्यान आने मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं ।।166॥ उसके आगे सर्वार्थ सिद्धि तक के देव मोह का उदय अव्यक्त होने से प्रवीचार रहित हैं अर्थात् उन्हें काम की बाधा उत्पन्न ही नहीं होती । वहाँ के अहमिंद्र शांति प्रधान सुख से युक्त होते हैं ॥167꠰꠰ सौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊपर-ऊपर के देव, पूर्व-पूर्व को अपेक्षा स्थिति, धति, प्रभाव, सुख, लेश्याओं को विशुद्धता, इंद्रिय तथा अवधिज्ञान के विषय की अपेक्षा अधिक-अधिक हैं तथा गति, शरीर की ऊंचाई, अभिमान और परिग्रह की अपेक्षा हीन-हीन हैं ॥168-169 ।। मुक्ति के कारणभूत महा अमूल्य रत्नत्रय के प्रभाव से जिसकी सिद्धि अयत्न साध्य होती है तथा जहाँ इच्छा करते ही समस्त पदार्थों की सिद्धि हो जाती है ऐसे देवों संबंधी सुख भोगकर वे देव, स्वर्ग से च्युत हो विदेह, भरत और ऐरावत इन कर्मभूमियों में उत्तम पुरुष अथवा नारायण उत्पन्न होते हैं ॥170-171।। कितने ही देव, नौ निधियों और चौदह रत्नों से सहित छह खंडों के प्रभु होते हैं चक्रवर्ती होते हैं । इनकी अंतिम क्रियाएँ मोक्ष सुख प्राप्त करने में समर्थ होती हैं ।।172।। कितने ही दो-तीन भव धारण कर मोक्ष चले जाते हैं, कोई बलभद्र होते हैं, और वे स्वर्ग अथवा मोक्ष जाते हैं तथा पूर्वभव में निदान बाँधने वाले कितने ही लोग नारायण एवं प्रतिनारायण होते हैं ॥173।। जिन्होंने पूर्व भव में शुभ सोलह कारण भावनाओं का अभ्यास किया है ऐसे कितने ही लोग कीर्ति के धारक तीर्थंकर होते हैं और वे तीनों जगत् का प्रभुत्व प्राप्त करते हैं ।।174।। सम्यग्दर्शन ही जिसकी स्थिर जड़ है, जो ज्ञानरूप पिंड पर टिका हुआ है, चारित्ररूपी स्कंध को धारण करने वाला है, नयरूपी शाखाओं और उपशाखाओं से सहित है तथा मनुष्य और देवों की लक्ष्मीरूप जिसमें फूल लग रहे हैं ऐसे जिनशासनरूपी वृक्ष की जो सेवा करते हैं वे उसके अग्रभाग पर स्थित निर्वाणरूपी महाफल को प्राप्त होते हैं ।। 175-176꠰꠰ निर्वाणरूपी फल में उत्पन्न होने वाले परमानंदस्वरूप श्रेष्ठ सुखरूपी रस को प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी निर्वाण को प्राप्त हो सिद्धालय में सदा विद्यमान रहते हैं ।।177।। इस प्रकार का धर्मोपदेश सुनकर वह लोकत्रयरूपी कमलिनी, मोक्षमार्गरूपी सूर्य के संसर्ग से प्रमुदित हो सुशोभित हो उठी ॥178꠰꠰ जो पहले से ही प्रशस्त अनुराग से सहित थे ऐसे तीनों लोकों के जीव धर्म श्रवण कर अग्नि से शुद्ध हुए निर्मल जाति के रत्नसमूह की शोभा धारण कर रहे थे ॥179।। जिस प्रकार मेघमाला अवशिष्ट धूलि के समूह को शांत कर देती है उसीप्रकार जिनेंद्र भगवान् की सद्धर्मदेशना जगत्त्रय के जीवों की समस्त भ्रांति को शांत कर देती है ॥180।। अथानंतर जिनेंद्र भगवान् की दिव्यध्वनि के बाद देवों ने उसका अनुसंधान किया तथा कुछ देव, दुंदुभि के समान शब्द करते, पुष्प वृष्टि एवं रत्न वृष्टि करते हुए वन के एक देश में स्थित एक महामुनि की स्तुति करने लगे ॥181-182।। इंद्रों के द्वारा पूजित उन श्रेष्ठ मुनि का नाम सुनकर अत्यधिक आश्चर्य से युक्त राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी को नमस्कार कर पूछा ॥183।। कि हे भगवन् ! हे पूज्य ! कृपा कर कहिए कि देव लोग जिनकी पूजा कर रहे हैं ऐसे ये मुनि किस नाम के धारक हैं ? इनका क्या वंश है ? और आज किस अतिशय को प्राप्त हुए हैं ? ॥184꠰꠰ तदनंतर जिनका अहंकार नष्ट हो गया था और जिन्होंने आगम तथा अनुमान के द्वारा जानने योग्य पदार्थों को जान लिया था ऐसे श्रुतकेवली श्री गौतमस्वामी, आश्चर्य से भरे हुए राजा श्रेणिक से कहने लगे कि ॥185।। हे महाराज श्रेणिक ! मैं सद̖बुद्धि के धारक इन श्रीमान् मुनिराज का नाम, वंश और माहात्म्य सब तुम्हारे लिए कहता हूँ सो श्रवण कर ॥186।। हे पृथिवीपते ! इस पृथिवी पर जो जितशत्रु नाम का प्रसिद्ध राजा था वह आपके कर्णगोचर हुआ होगा ॥187।। जो हरिवंशरूपी आकाश का सूर्य था, जिसने अन्य राजाओं की स्थिति को अभिभूत कर दिया था, जिसने राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर जिनेंद्रदेव के समीप प्रव्रज्या-दीक्षा धारण की थी तथा जिसने अन्य लोगों के लिए कठिन बाह्य और अभ्यंतर तप किया था आज वही राजा जितशत्रु घातिया कर्मों को नष्ट कर आश्चर्य उत्पन्न करने वाले केवलज्ञान को प्राप्त हुआ है ॥188-189।। इसीलिए जिनमार्ग की प्रभावना करने वाले समस्त देवों ने मिलकर रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक इन मुनिराज की पूजा की है ।। 190॥
तदनंतर जिसे कुतूहल उत्पन्न हो रहा था ऐसे श्रेणिक राजा ने भक्तिपूर्वक पुनः प्रणाम कर गणधर से इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह हरिवंश कौन है ? कब और कहां उत्पन्न हुआ है ? तथा इसका मूल कारण कौन पुरुष है ? ॥191-192।। प्रजा को रक्षा करने में समर्थ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से सहित ऐसे हरिवंश में कितने राजा हो चुके हैं ? ॥193॥ यह कह राजा श्रेणिक ने पुनः कहा कि मैं इस भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलभद्रों, नारायणों और प्रतिनारायणों का समस्त चरित, वंशों की उत्पत्ति और लोकालोक का विभाग सुनना चाहता हूँ सो आप कहने के योग्य हैं ॥194-195॥
यह सुन, गौतम स्वामी ने कहा कि हे राजन् ! तूने ठीक प्रश्न किया है तू सब ठीक-ठीक श्रवण कर । मैं यथा योग्य कहता हूँ ॥196।। हे श्रीमन् ! हे श्रेणिक ! मैं सर्वप्रथम सुख-दुःख भोगने के स्थानभूत तीनलोक का स्थिर आकार कहता हूँ । फिर विविध वंशों के अवतार की बात करूंगा । तदनंतर मनोहर अर्थ से युक्त हरिवंश की उत्पत्ति कहूँगा और तत्पश्चात् श्रवण करने के इच्छुक तेरे लिए हरिवंश में उत्पन्न हुए राजाओं का कीर्तन करूंगा ॥197꠰꠰ भव्यजीव, श्री आप्त भगवान् के उपदेश से देश-काल और स्वभाव से दूरवर्ती पदार्थों का भी विधिवत यथार्थ निश्चय कर लेते हैं । यथार्थ में सम्यग्दृष्टि मनुष्यों का मोह, इस संसार में पदार्थों का ठीक-ठीक स्वरूप देखने में तभी तक अपना प्रभाव रख पाता है जब तक कि ज्ञानरूपी देदीप्यमान किरणों से युक्त श्री जिनेंद्र देवरूपी सूर्य का उदय नहीं होता ।।128॥
इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्य प्रणीत हरिवंश पुराण में श्रेणिक प्रश्न वर्णन नाम का तृतीय सर्ग समाप्त हुआ ॥3॥